आज की पालीमिक्स-चर्चा ने मुझे एक बार फिर बाध्य किया है.. कि मैं भी टपक पड़ूँ ! परमस्नेहिल लावण्या दीदी आहत हुईं.. उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया अपना कितना प्रभाव छोड़ पायी होगी.. यह देखना बाकी है ! मैं भी अपने साथी चिट्ठाकारों के विषय-कल्लोल पर यथाशक्ति – तथाबुद्धि कुछ टीप –टाप भी आया ! यहां पर वही दोहराना आत्ममुग्धता के संदर्भ में न लेकर, ‘ ऎसी बहसें टिप्पणी बक्से में ‘ डिब्बा – बंद ‘ हो अपना संदर्भ खो देने को ही जन्म लेती हैं ‘ की धारणा को नकारने को ही है । मुई पैदा हुईं – कोलाहल मचवाया – फिर मर गयीं ! तदांतर विषयांतर का दो तीन ब्रेक ( राष्ट्रपति शासन या ब्लागपति शासन ? ) के बाद दूसरे ने स्थान ग्रहण किया.. फिर वही कोलाहल – वही अकाल मृत्यु .. ब्रेक .. एक अलग तरह की तोतोचानी है ! ज़रूरी नहीं, कोई इससे सहमत ही हो.. क्योंकि मैं नासमझ, निट्ठल्ला कोई अश्वमेध के घोड़े भी नहीं खोलने जा रहा । जिसको मन हो अपने दुआरे यह दुल्लत्ती जीव बाँध ले, जो भी हो, पर यह सनद रहे कि..
मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी ! मैं कुछ दिनों के लिये हटा नहीं, कि झाँय झाँय शुरु ? इस बहस में आज मुझे अन्य चिट्ठाकारों की भी टिप्पणी पढ़नी पड़ी.. पढ़नी पड़ी.. बोले तो, हवा का रूख देख कर टीपना मुझे नहीं सुहाता ! खैर... इस पूरे प्रकरण को क्या एक मानव की संघर्षगाथा मात्र के रूप में नहीं लिया जा सकता था ? मानव निर्मित जाति व्यवस्था पर इतनी चिल्ल-पों कहीं अपने अपने सामंतवादी सोच को सहलाने के लिये ही तो नहीं किया जा रहा ? किसी पोथी पत्रा का संदर्भ न उड़ेलते हुये, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ.. यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है ! ज़रूरत समानता लाने की है.. न कि असमानता को जीवित रखने की है ? इस बहस से, यह फिर से जी उठा है ! नतीज़ा ? चलिये, सुविधा के लिये मैं भी चमार को चमार ही कहता हूँ, क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है.. दुःख तब होता है.. जब बुद्धिजीवियों के मंच से इसे पोसा जाता है ! समाज में केचुँये ही सही.. पर हैं तो मानव ? बल्कि यहाँ पर तो, मैं लिंगभेद भी नहीं मानता.. यदि हर महान व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है.. जो कि वास्तव में सत्य है.. तो स्त्री पीछे रहे ही क्यों.. और हम उसके आगे आने को अनुकरणीय मान तालियाँ क्यों पीटने लग पड़ें … या कि लिंग स्थापन प्रकृति प्रदत्त एक संयोग ही क्यों न माना जाये ? चर्मकार कालांतर में चमार हो गये.. मरे हुये ढोर ढँगर को आबादी से बाहर तक ढोने और उसके बहुमूल्य चमड़े ( तब पिलासटीक रैक्शीन कहाँ होते थें भाई साहब ? ) को निकालने के चलते अस्पृश्य हो गये ! पर क्या इतने.. कि अतिशयोक्ति और अतिरंजना के उछाह में हमारे वेदरचयिता यह कह गये..कि " यदि किसी शूद्र के कानों में इसकी ॠचायें पड़ जायें.. तो उन अभिशप्त कानों में पिघला सीसा उड़ेलने का विधान है ", क्यों भई ? क्या यह भारतवर्ष यानि " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " ' के उपज नही थे ? या हम स्वंय ही इतने जनेऊ-संवेदी क्यों हैं, भई ? नेतृत्व चुनते समय विकल्पहीनता का रोना रो.. उपनाम और गोत्र को आधार बना लेते हैं, क्या करें मज़बूरी कहना एक कुटिलता से अधिक कुछ नहीं । इसका ज़िक्र करना विषयांतर नहीं, क्योंकि मेरी निगाह में..यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है ! मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी ! |
अब कुछ चुप्पै से.. सुनो
इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रही बहस में माडरेशन भी एक है ।
होली पर मेरा मौन ( मोमबत्ती कैसे देख पाओगे.. ? ) विरोध इसको लेकर भी था,
खु़द तो जोगीरा सर्र र्र र्र को गोहराओगे, अपने ब्लागर भाई को साड़ी भी पहना दोगे..
टिप्पणी करो.. तो " ब्लागस्वामी की स्वीकृति के बाद दिखेगा ! "
एक प्रतिष्ठित ब्लाग पर ऎसी टिप्पणी मोडरेशन को ज़ायज़ ठहराने के बहसे को उठा्ने की गरज़ से ही की गयी है ! यहाँ से एक टिप्पणी को सप्रयास हटाना भी यह संकेत दे रहा है.. कि ब्लाग की गरिमा और पाठकों को आहत होने से बचाने का यही एकमात्र अस्त्र है, सेंत मेंत में ऎसी बहसें अस्वस्थ होने से बच जाती है..वह हमरी तरफ़ से एक के साथ एक फ़्री समझो ! मसीजीवी के चर्चा-पोस्ट से चीन वालों को कान पकड़ कर क्यों नहीं बाहर किया गया था ? वह तो सच्ची – मुच्ची का स्पैम रहा ! मन्नैं ते लाग्यै, इब कोई घणा कड़क मोडरेटर आ ग्या सै ! राम राम !
एक पोस्ट यह भी… मोची बना सुनार
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