बड़े दिनों से यह “ चलता रहे.. चलता रहे.. “ देख व सुन रहा हूँ । यूँ तो मैं ’ निट्ठल्ला इफ़ेक्ट ’ से इतना पका हुआ हूँ कि, टेलीविज़न बहुत ही कम देखता हूँ । एक म्यान में दो तलवारें वैसे भी कहाँ रह पाती हैं ? अरे, निगोड़ी ब्लागिंग को शामिल न भी करें, तो भी आप यही समझ लीजिये कि “ बुद्धू को कहाँ बुद्धू बक्सो सों काम ? “ फिर भी.. कुछ तो है, कि आज एक बेकार सा मुद्दा पकड़ कर बैठा हूँ, कि न्याय मिले
पहले तो आप इन जीवनदास से मिलिये
मिल भये… क्या समझे ? अभी फ़िलवक़्त मुझे प्लाई-व्लाई तो लेनी नहीं है, सो मैं तो यही समझ रहा हूँ, कि भारतीय न्याय-वयवस्था इतनी धीमी और लचर है कि, “ चलता रहे… चलता रहे…. ! “ है कि, नहीं ?
इस मख़ौल की पराकाष्ठा तो यह है कि, ’ बैल से दँगा करवाने के ज़ुर्म में .. ’ जैसा आरोप और बैल को अदालत में तलब किये जाने की माँग, जैसा अदालत का बेहूदा कैरीकेचर खींचा गया है, सो तो अलग !
आदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी से आग्रह है कि, या तो वह जीवनदास को न सही, पर उसके आरोपी बैल को ही कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवायें, और इस नाटक का पट्टाक्षेप करवाने का प्रयास तो कर ही लें !
मुआ ग्रीनवुड प्लाई न हो गया, राम-मँदिर का मुद्दा हो गया ! मुझे तो इसमें आख़िरी बार बोले जाने वाला ’ चलता रहे.. चलता रहे ’ में पिटे हुये अडवाणी की आवाज़ सुनायी दे रही है.. या यह मेरा भ्रम है ?
6 टिप्पणी:
भारतीय न्याय-वयवस्था इतनी धीमी और लचर है कि, “ चलता रहे… चलता रहे…. !
वाकई धीमी और लचर है। मेरे इकतीस वसंत यहाँ गुजर चुके हैं। जिन मुकदमों को 1979 में शुरु किया था, वे आज तक पहली अदालत पार नहीं करवा सकता हूँ। बेगार और कर रहा हूँ। कुछ मुकदमों में दो दो दिनों से अधिक की पाँच पाँच बार अन्तिम बहस कर चुका हूँ। छठी बार भी कर दूंगा। पर निर्णय वह तो अदालत ही करेगी। इसीलिए कहता हूँ कि चार गुना अदालतें हों तो काम चले। अभी तो जो कायम हैं उन में जजों की नियुक्ति की लड़ाई बंगाल के वकील लड़ रहे हैं।
ऐसे हालातों को देख कर भगवान् में यकीन और बढ़ जाते है.. वोही चला रहा है देश को वरना कोई और तो यहाँ मुझे दिखता नहीं
्चलता रहे.. रुक गया तो कितने बेकार हो जायेगें..
अब द्विवेदीजी भी मान गए तो हम क्या कहें !
मैं हमेशा कहता आया हूं कि अगर न्याय समय पर नहीं होता तो वह अन्याय है. हो सकता है कि जजों की कमी हो लेकिन मुकदमे की समय सीमा तय करने में कौन सी आफत आ रही थी जो वकीलों ने इसका पुरजोर विरोध किया.
निठल्लमस्य निठल्लमाय नम:
अरे भाया ये अपुन का देश अन्ग्र्जों के ज़माने से ’चहलते’ आ रिया है इन कोरट कचेहरियों मे . सब चलता है बिडु और चालूच रहेन्गा . क्या !
आपुन के ’तडका’ पे सुझाव दिया बरोब्बर ! अपुन खुद परेशान है . साला फ़ोटू बडा और लिक्खा कमी दिखता हाय .अपन को अबी तक खाली लिखनाच मालूम .एक छोकरे को साइन बोर्ड वगैरे लगाने को बोला था .वो इतना बडा बोर्द लगाके गया कि छोटा कयिसा करने का और निकालने का कैसा अपुन का खोपडी मे नयिन आ रयेला है बाप !
अबी बहोत लोग येयिच बोल रयेला है . कर्ता मैं कुछ तो .खुदीच करने मे डरेला है . साला बोर्ड के साथ आक्खा दूकान नयीं निकल जाये करके .
आपका सब लिखेला बान्च रयेला हय .क्या लिख्ता हय आप बाप !
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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