जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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24 November 2008

घी के लड्डू, टेढ़े ही सही ...

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आज की चिट्ठाचर्चा में मसिजीवी ने एक माकूल सवाल उठाया, जाने कहाँ गये वो ब्लाग..जो, " तुम तो छा गये गुरु !" जैसी टिप्पणियों से लदे रहते थे ! कुछेक तो मेरे पसंदीदा हुआ करते थे, जिन्हें मैं पढ़ तो लेता था, किन्तु  किसी हिन्दी टूल की जानकारी न होने से अचंभित बस पढ़ता ही था, टिप्पणी कैसे की जाती है..न जानता था । रिसियाये गुरु ने बहुत बाद में मेरा अधकचरा प्रयास देख बरहा का लिंक दिया, वही अब तक काम आ रही है । उन दिनों जितेन्द्र चौधरी की एक पोस्ट मुझे बहुत पसंद आयी थी, जो मैंने कहीं नोट कर लिया ! विन्डोज़ 98 गये,  XP आये, कई संस्करण के बाद अब विस्टा पर काम कर रहा हूँ, पर उन पढ़े हुये पोस्ट की यादें नहीं भूलीं । यह साबित करता है,कि हमारा आपका लिखा इन्टरनेट पर सदैव जीवित रहेगा ! मसिजीवी ने वह ब्लागर.. वह ब्लाग्स.. वह पोस्ट का ख़ज़ाना याद दिलाया, धन्यवाद मित्र ! किसी माकूल टिप्पणी के लिये कच्चे माल की तलाश में भटका.. सो भटक कर ही रह गया । लीजिये पढ़िये जितेन्द्र चौधरी की एक पोस्ट, जिसका लिंक मैंने नोट कर रखा था । पुनःप्रकाशित करने की अनुमति की तक़ल्लुफ़ पूरी न कर पाने की मुआफ़ी बाद में

   Sunset    यह छवि  श्री संजय व्यास जी के ब्लाग ' हृदयगाथा ' से उठायी गयी है 

यह रहा मूल आलेख, किन्तु शीर्षक मेरा दिया हुआ है, क्योंकि मेरे ख़्याल से NRI होना भी घी के टेढ़े लड्डू हैं, संभलते नहीं

राजेश प्रियदर्शी का यह लेख मुझे बहुत पसन्द आयाः यह लेख वैसे तो यूरोप मे रह रहे अप्रवासी भारतीयो के लिये लिखा गया है, लेकिन सभी पर लागू होता है.

सपने
अच्छी नौकरी, पाउंड को रूपए में बदलें तो डेढ़ लाख रूपए के क़रीब तनख़्वाह. लंदन शहर की ख़ूबसूरती,यूरोप घूमनेके मज़े.                                                                                                                              धूल नहीं, मच्छर नहीं, सभ्य-सुसंस्कृत लोग. चौकस पुलिस, आसान ट्रैफ़िक, हफ़्ते में दो दिन पक्की छुट्टी, आठ घंटे काम, बेहतर माहौल.
चार साल रहने के बाद ब्रिटेन में रहने का पक्का इंतज़ाम, अपनी गाड़ी, अपना घर और एनआरआई स्टेटस.
देश में इज़्ज़त बढ़ेगी,भाई-बंधुओं को भी धीरे-धीरे लाया जा सकता है,अगर कभी लौटे बेहतर नौकरी मिलना तय पानी, बिजली, फ़ोन का बिल भरने के लिए लाइन में लगने की ज़रूरत नहीं, भ्रष्टाचार और संकीर्ण दिमाग़ वाले लोगों से मुक्ति.

संताप
आज तक किसी अँगरेज़ ने दोस्त नहीं माना, किसी ने घर नहीं बुलाया, हैलो, हाउ आर यू, सी यू के आगे बात न कोई करता है, न सुनता है. मुसीबत पड़ने पर पड़ोसी भी काम नहीं आता.
हर साल भारत जाना मुश्किल है,प्लेन का किराया कितना ज़्यादा है, माँ बीमार है.फ़ोन का बिल भी बहुत आता है लोग चमड़ी का रंग देखकर बर्ताव करते हैं, शरणार्थी समझते हैं, बीमार पड़ने पर डॉक्टर बीस दिन बाद का अप्वाइंटमेंट देता है और मरने पर फ्यूनरल दो हफ्ते बाद होता है.
रोज़ बर्तन धोना पड़ता है, हर संडे को वैक्युम क्लीनर चलाना पड़ता है, नौकर और ड्राइवर तो भूल ही जाओ.
मँहगाई कितनी है, कुछ बचता ही नहीं है, कोई चीज़ ख़राब हो जाए तो मरम्मत भी नहीं होती, सीधे फेंकना पड़ता है, प्लंबर पत्रकार से ज़्यादा कमाता है. आधी कमाई टैक्स में जाती है.
बच्चों के बिगड़ने का भारी ख़तरा, ड्रग्स, पोर्नोगार्फ़ी. बच्चे अपनी भाषा नहीं बोलते, ख़ुद को अँगरेज़ समझते हैं. चार अक्षर वाली गाली देते हैं जो 'एफ़' से शुरू होकर 'के' पर ख़त्म होती है.
ऐसा क्या है जो भारत में नहीं मिलता, गोलगप्पे और रसगुल्ले खाए बरसों बीत गए. धनिया पत्ता और हरी मिर्ची के लिए भटकना पड़ता है.
त्यौहार आते हैं और चले जाते हैं, पता तक नहीं चलता, पूजा कराने के लिए पंडित नहीं मिलता. गोबर, केले और आम के पत्ते के बिना भी कहीं पूजा होती, फ्लैट में हवन करो तो फायर अलार्म बज जाए.

सवाल

क्या कभी भारत लौट पाएँगे, क्या बच्चे वहाँ एडजस्ट करेंगे,हमें कहीं बहुत सुख सुविधा की आदत तो नहीं पड़ गई?मैं तो चला जाऊँगा, घर के बाक़ी लोगों को कैसे मनाऊँगा, बसा-बसाया घर उजाड़ना कहीं ग़लत फैसला तो नहीं? जीवन सुरक्षित नहीं, भ्रष्टाचार बहुत है, दंगे भड़कते रहते हैं, आदत छूट गई है, कैसे झेलेंगे यह सब ?             लोग पहले बहुत मदद करते थे, दिल्ली, मुंबई का जीवन अब कुछ कम व्यस्त तो नहीं, लोग पहले जैसे कहाँ रहे? दिक्क़तें यहाँ भी हैं, वहाँ भी, चलो जहाँ हैं वहीं ठीक हैं, फिर कभी सोचेंगे

Posted by Jitendra Chaudhary at Thursday, September 23, 2004 

इससे आगे

23 November 2008

लो जी, मैं सुधर गया..

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सुपर स्वामी की " मैं कहता हूँ डा. साहब कि सुधर जाओ,"  जैसी चेतावनी, भाई विवेक सिंह  जी द्वारा पोस्ट की लम्बाई चौड़ाई पर सार्थक मीमांसा और चिट्ठाचर्चा पर   थोड़ी मस्ती थोड़ा ढिशूम से प्रेरित हो शाम से आत्म-अवलोकन चल रहा है, कि ब्लागिंग नामक चिड़िया को किस पेड़ की डाल पर आसरा दूँ.. "पेट में बात ज़ुबाँ पर ताला " या फिर.." नहीं कोई माल, पर बज रहे गाल "

आज तो पंडिताइन भी मदद को न आयीं,' खु़द ही गड्ढा खोदा.. ख़ुद ही भुगतो !' यह हैं मेरी सच्ची सहधर्मिणीquestion_hanging_man 

और अंत में मिला एक तुच्छ ज्ञान, कि....  रखो एक लम्हा मौनexclaimation_hanging_man

सो, मन में चल रहा है, कि.. 

अगर आप चाहते एक लम्हा मौन Moon_Movie

अगर आप चाहते एक लम्हा मौन
तो बन्द करिये तेल का व्यापार
छोड़िये यह तेज रफ़्तार इन्टरनेट
और बन्द करिये चन्द्र-अभियान

तोड़िये यह स्टाक मार्केट
बुझाइये तमाम रंगीन बत्तियाँ
डिलीट कर दें सारे इन्स्टेंट मैसेज़
उतारिये पटरियों से लाइट रेल ट्रांज़िट

अगर आपको चाहिये एक लम्हा मौन
तो सुर्ख़ियों से सिंगुर को नीचे उतारिये
वापस कीजिये ज़मीनों पर खोयी फसल
और भूलिये व्हाइटहाउस में प्लेब्याय

अगर आप चाहते एक लम्हा मौन
मौन रहिये हर निःशब्द हाहाकार पर
खास तौर पर फ़िफ़्टीन अगस्त के दिन
यदि अपराधबोध सताने ही लगे

अगर आपको चाहिये एक लम्हा मौन
तो आप उस लम्हें को जी रहे हैं
क्योंकि यही है वह लम्हा
इस कविता के शुरु होने के पहले

© डा. अमर कुमार

इससे आगे

21 November 2008

ज़वाब कोई ज़रूरी तो नहीं, फिर भी ?

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RECAP: बिग-बी अपने कबीले में होने की खोजबीन से उपजे एक प्रतिक्रियात्मक पोस्ट के आगे...

अपने चहेते मंच चिट्ठाचर्चा से सूतनिट्ठल्ले की कपास को लेकर एक बेवज़ह लट्ठम-लट्ठा हो चली । नतीज़तन जुलाहे की लट्ठम-लट्ठा की प्रामाणिकता पर चंद सवाल उठे व ख़ारिज़ भी कर दिये गये । यह एक अप्रिय प्रसंग है, जो टाला जा सकता था, किन्तु... ? बहुत सारे किन्तु, जब एक प्रश्न बन कर खड़े होते हैं, तो ज़वाब माँगने लग पड़ते हैं, लिहाज़ा.. मन में यह चल रहा था कि क्या ज़वाब से मुँह मोड़ लिया जाय या अपने ब्लागिया-सिकंदर को पोरस की सीख याद दिलायी जाय, जो भी हो यह तो पूछा ही जा सकता है कि, ज़वाब देना क्या ज़रूरी है ?
पर यह ज़नाब क्या कह रहे हैं “ जब संविधान बना, तो सबसे ज्यादा अहमियत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दी गयी। अगर आप किसी की आलोचना (गलत आलोचना नहीं, बल्कि सही) को सहन नहीं कर पाते हैं, तो आपको दूसरे की आलोचना करने का भी हक नहीं है। विचारों की दुनिया में आप तभी तक जिंदा रह सकते हैं,जब तक आप दूसरे लोगों के विचारों का सम्मान करते हैं।”
सो, मेरे साहज्य को निरूत्तर करता हुआ वर्तमान स्थियों का अपना ही अलग थलग उत्तर है.. क्योंकि,
अमर टू स्वामी हाँ और नहीं... इस तराजू के दो पलड़े हैं….
पहले हाँ से शुरु करते हैं
वह इसलिये कि मुझे ही क्या शायद किसीको भी दंभ नहीं सुहाता
वह इसलिये कि यहाँ साँस रोके रोके दम घुटने को हैं
वह इसलिये कि हम विवादप्रिय ब्लागिंग के रहनुमा नहीं हैं
वह इसलिये कि यह स्वतंत्र ब्लागिंग है, पराधीन लेखन नहीं
वह इसलिये कि अन्य बहुत से कारण हैं,                                     जो अकारण बताये नहीं जाते और..

वह इसलिये भी कि गुबार अभी थमता दिख नहीं रहा है

“इधर इंटरनेट पर बिखरे ज्ञान के डबरों में हर-हर गंगे करते लोग उधर  इन्टरनेट की गटर-गंगा मे मनचाहा उत्सर्जित करने की स्वछंदता का मजा लेते लोग. ये जो पूछ जाएं कम, वो जो लिख जाएं कम!
मामला खतरनाक होता है जब बंदर के हाथ तलवार लग जाए या आदमी के हाथ की-बोर्ड! कॉमेडी ऑफ़ एरर्स - त्रुटियों का हास्य - गलतियों पर गलतियां और उस पर गलतियां.. पढने-सुनने वाला हंसते हंसते जब कुढ जाए तो ब्लाग लिख मारे.”
स्वतंत्र ब्लागिंग बनाम तमाम असहमतियाँ
बयान नम्बर एक बकौल स्वामी “मालूम है यार! मगर "." पूर्ण-विराम का काम भी करता है और दशमलव का भी, कम कोड मे काम हो रहा है. हम <Edi tor> नही बना रहे यार, हम जनता को सार्वजनिक शौचालय बना के दे रहे हैं ताकी वो <Internet> पे जब चहे फटा फट हग सकें ... " आपको <Internet> पे कुछ हगना है? <HUG> का प्रयोग कीजिये और खुश हो जाईये!" टिन्ग-टिडि न्ग. आप हिन्दि अन्ग्रेज़ी कि खिचडी ऐसे "<" ">" मे लिख के कर सकते हो - वो ज्यदा महत्वपूर्ण है.”
तो स्वामी जी मैं आया भले देर से किन्तु हगने की प्रेरणा तो 2005 में ही आपसे प्राप्त कर ली थी, सो आज तलक  हग रहा हूँ !
अब किसीको बदबू आये तो भी कोई चारा नहीं है, इस 'लिखेला ठेलेला' के पास ! 
साथ ही एक आशंकित मन जो यह बयान करता या कहता है कि
“जो हो सो हो - गेन्द अब पराये पाले मे है, जिसको जमे उपयोग करो ! हिंदी ब्लॅग वालो से निवेदन है - हिन्दी मे जवाब देने के इस टूल को ब्लॅग मे भी घुसेडने की प्रक्रिया पे विचार हो सके तो वाह - अपन इस गेम मे नये हैं मदद करो यार लोग - ये कट-पेस्ट कि झन्झट खतम हो!”
और आपने उदारतापूर्वक माँ बहन करने की छूट देदी वह अलग “एक तरफ़ तुरन्त हिन्दी की सेवा का दौरा ... दूसरी तरफ़ अपने बनाए हुए टूल के इस्तेमाल की खुशी. मध्यम-मार्ग - अपन ने भी एक ठीक-ठाक सा टूल उतारा इन्टर्नेट से और बदले में अपना टूल दुरुस्त कर के हरम ... मतलब फ़ोरम वालों को कोड देने की प्लानिंग - पूराने अड्डे है अपने आना-जाना लगा रहता है उधर जनता देवनागरी में मां-बहन करती रहे और क्या चाहिये जिस फ़ोरम वाले को हिन्दी लिखने कि सुविधा देना है अपने कोड कि लिन्क हाज़िर है. हिन्दी पेलने का दौरा कितना घातक हो सकता है इसका सटीक प्रमाण - पेलो और पेलने के टूल बना के दो - आखिर मेरे अन्दर का लेखक, कलाकार और शिल्पी अपना सही सन्तुलन पा ही गया - ढिंग - टिडिंग! “
साथ ही एक क्षोभ भी दिख रहा है  “ Nahee yaar .... tune try kiya kya software -
भइ, मैंने ट्राई कर लिया इस को. युनिकोड नही देता! मैंने दूसरी युनिकोड फोन्ट के साथ टेस्ट किया - अपने काम की चीज़ नही है! हम को इन्टर्नेट पे लिखना है सीधे-सीधे ... मेरि गान्ड क्यों जलेगी? वो १५ दिन का एव ेल्युएशन दे रहा है फिर पैसे मांग रहा है - तु पैसे दे और खरीद ले यार! हर बात लिख ले क्यों समझनी पदती है तेरे को ... उपरवाले ने अच्छा-भला दिमाग दिया तेरे को, कितनी बार बोला, गन्डमस्ती करने मे जितना दिमा ग लगाता है उतना काम कि चीज़ मे लगा - लाईप बन्न जयेगी तेरी!”
लेकिन अंतिम बाजी आलोक व श्रीष जी के हाथ लगी, खैर.. छोड़िये यह बीते वक़्त की बाते हैं
किसी ज़माने में भदेस को लेकर आपकी ज़द्दोज़हद से मैं भी द्रवित हुआ था, इस आलेख पर..
ई-स्वामी से ई-पेलवान हो जाऊं ?
“आजकल हिंदी ब्लाग्स पढते हुए मेरे ज्ञानचक्षुओं में नए नए ब्रांड का गुलाबजल पडता जा रहा है. मुझे तो लगता था संस्कृत रामायण की तुलना में तुलसी की रामायण भदेस है क्योंकी वे सर्वसुलभ भाषा में हैं, कबीर और रहीम के दोहे उच्चकोटी का भदेस हैं क्योंकी वे जितने जटिल विषय पर हैं समझने-समझाने और बोलने में उतने ही आसान. श्लोकों और ऋचाओं की तुलना में भक्तिगीत भदेस है.. हीरें-काफ़ीयां-कव्वालियां भदेस हैं.
मुझे नही पता था की भाषा तब तक भदेस नही होती जब तक वो बुजुर्गों के सामने बोलने लायक ही ना बचे. बच्चों महिलाओं के सामने सम्मान खोने लायक ही बचे. क्या हम पर अपने पाठकों को ये फ़ील गुड देने का जिम्मा नही है की मै आपकी रिस्पेक्ट कन्ना चा रिया हूं! अपना ना सही अपने भदेस का तो सम्मान करो यार!
टेंशन मे नींद नही आ रही बाबा!
हिंदी के ब्लाग पढने के बाद हाल ही में मुझे एहसास तो हुआ है की  मेरा ब्लाग भी सांप्रदायिक है चूंकी इसके नाम ई-स्वामी में ’स्वामी’ शब्द आता है जो जनरली हिंदू स्वामियों के लिये प्रयोग मे आता है. अब हर एक के पास नाम का मतलब निकालने की ना तो अक्ल है ना समय है. जाहिर तौर पर  इस बात से कोई सरोकार नही होना चाहिये की मेरी सोच क्या है - नाम के आधार पर ही पूर्वाग्रह बनाए जाने चाहिए.....
वैसे तो अपने ब्लाग का नाम ‘ई-बुद्धा’ ‘ई-ज्ञानी’ या ’ई-उस्ताद’ भी हो सकता था लेकिन हुआ नहीं - इतने समझदार होते हम तो हिंदी ब्लागिंग करते? फ़िर सिख संप्रदाय में ज्ञानी शब्द धर्म के ज्ञान रखने वाले के लिये भी प्रयोग होता है इसलिये भी मामला थोडा लोचे वाला है.  स्वयं-भू स्वामी होने के लिये ज्ञानी होने की कोई कंडिशन नही ना थी तो रख लिये नाम!
चूंकी नाम से अगर मेरे सांप्रदायिक होने का प्रमाण बन सकता है तो देसी शैली में उस प्रमाण को मिटाना जरूरी है.  डर के मारे कभी कभी लगता है कोई रेडिकल स्टेप ले लूं .. लेकिन अब अचानक “ई-मौलवी” हो जाऊं, तो भी, नया लफ़डा तब भी हो सकता है!  (क्या करूं यार कुछ समझ नही आ रिया!) “

खैर,इन मुर्दे आलेखों को कुरेदने से क्या लाभ ?

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लेखक हो या ब्लागर, उसके शब्द ही उसकी सोच के प्रतिबिंब बन कर, यहाँ उसका प्रतिनिधित्व करते हैं.. जैसे कि यह प्रतिक्रिया, जो हमारे विज्ञान में भी साइड इफ़ेक्ट ही कहलाती है !
” डॉ. अमर को बिग बी उनके अपने कबीले के नहीं लगते, यानी मैं भी उन्हें अपने कबीले का नहीं लगता (बिग बी और मैं एक ही कबीले के हैं).वैसे बिग बी और मैं, डॉ. अमर को अपने कबीले के लग भी नहीं सकते.. हम अपनी उदारता और ओढी हुई इन्क्लूसिवनेस के चलते आम आदमी के करीब होना चाहें ना, तो भी नहीं!
देखिये, डॉ अमर एक आम आदमी हैं, हम जैसे कोई सेलिब्रिटी तो हैं नहीं… यही वजह है!....
मेरी पिछली पोस्ट में मैंने बिग बी को अपने कबीले का कहा! अगर कोई भी ७०+ आई.क्यू. वाला, लेख को पढेगा तो समझ लेगा की लेख में ‘कबीला’ एक प्रोवर्बियल/एब्स्ट्रैक्ट टर्म की तरह प्रयोग किया गया है. डॉ. अमरजी चिढ गए.. मुझे उनसे सहानुभूति नहीं हो पा रही है है क्योंकि मुझे तो बस अपने कबीले की सेलेब्रिटीज़ से ही सहानुभूती होती है! सोचा डॉ. अमर जैसे आम लोगों कों उन हालातों का अंदाज़ा होगा - जो की स्पष्ट तौर पे उन्हें नहीं था! दन्न से कम्यूनिस्टों की माफ़िक विरोध दर्ज कर दिया …असंतुष्टों की माफ़िक अमिताभजी द्वारा मात्र हिंदी में ही लिखने की मांग भी अपने ब्लाग पर धर दी! आपकी टैग है “अपन तो बस लिखेला और ठेलेला” ये कैसे चलेला?  अमिताभ बच्चन जब अपना ब्लाग हिन्दी में लिखते हैं तो वे ईस्वामी को अपने कबीले के आदमी लगते हैं”

क्या सच्ची में... एक सोच का पुनःनिरीक्षण है ( मैंने मूल लेख को पढ़ने की ज़हमत भी नहीं की ) मुझे भान था कि साढ़े चार साल से हिन्दिनी चलाने वाले से मुझे बहुत कुछ सीखना है, सो यह मेरा अपना मत है, यह किसी स्वामी का विरोध नहीं था बल्कि इससे मिलता जुलता कोई नाम तक उस आलेख के आसपास भी फटकने नहीं दिया गया है, बहुतों ने पढ़ा होगा इसे !
पर साइड-इफ़ेक्ट में इसके उलट किन्हीं डा. अमर को परिलक्षित करके ही उन्होंने अपने शब्दों को नाहक ही जाया किया है, अरे बंधु 50 माइनस आई क्यू ही सही, पर चासर की अंग्रेज़ी इतिहास में भी कबीले के संदर्भ को लेकर CLAN का प्रयोग है, जो बिरादरी के रूप में परिभाषित हुआ है.. यह ज्ञान क्या केवल आपको ही प्राप्त है ? ARIN व मोडरेशन की सुरक्षा में यदि आप अपने निजी शौचालय में यह दोहराते पाये जाते हैं कि..हम को इन्टर्नेट पे लिखना है सीधे-सीधे ... मेरि गान्ड क्यों जलेगी ? अभिनव का सोना हो, या अमिताभ का ब्लाग यदि आपको सहसा अपने लगने लगते हैं, तो मैं क्यों आपको याद दिलाऊँ कि.. उपरवाले ने अच्छा-भला दिमाग दिया तेरे को, कितनी बार बोला, गन्डमस्ती करने मे जितना दिमा ग लगाता है उतना काम कि चीज़ मे लगा - लाईप बन्न जयेगी तेरी!  

दन्न से कम्यूनिस्ट होने का अर्थ जानते हैं, आप ? अब मैं किस पर तरस खाऊँ, अपने आप पर ? पर तरस खाने के संदर्भ में अपने के साथ हमेशा आप को भी क्यों लपेटा जाता है, इस पर गौर करियेगा ! रही बात आम आदमी की.. तो मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ कि मैं आम आदमी हूँ, और आम आदमी के रूप में ही पहचान बनाये रखना चाहता हूँ, मैं आम आदमी इसलिये भी हूँ, क्योंकि झाबुआ के हाटों में घूम कर आम आदमियों को जंगल से बीन कर लायी चिरौंजी के बदले तौल में नमक दाल लेते देखा है, इसी वर्ष अप्रैल में 0.3 डालर ( Rs.15) के एवज़ में  12 घंटे की मज़दूरी करती झारखंड की औरतों से रूबरू हुआ हूँ, और अभी हालिया मिज़ोरम यात्रा में कलकता के साहूकारों को मात्र 2 रूपये किलो के भाव से शिमला मिर्च ( Capsicum-for your reference) ख़रीद कर ट्रक लोड करवाते देखा है । सो आपका गाली के रूप में आम आदमी का प्रयोग किये जाना तो बेकार गया कि नहीं ? यदि नहीं, तो बात ख़तम ! फिर भी याद दिलाना चाहूँगा कि..  वह आम ही हैं, जो अपने टाँगों के बीच से किसी ख़ास को निकालते हैं । यदि दो पीढ़ी पीछे जा सको, तो पूर्वजों को लोटे से चाय सुड़क सुड़क कर पीते देख पाओगे ! जब यही बिग-बी साइकिल पर कटरा से सब्ज़ियाँ लाते देखे जाते थे, या जब वह  अपनी आवाज़ के चलते रेडियो एनाउंसर के तौर पर भी अस्वीकार कर दिये गये थे, तब आप किस कबीले में शुमार होते थे ? तब भी आप कबीला ढ़ूँढ़ ही लेंगे, नान सेलेब्रिटी होने का !

यह तिवारी जी तो बड़े सुलझे माने जाते हैं,फिर भला क्यों ऎसी बेतुकी हाँकने की ज़ुर्रत कर बैठे
जरा बानगी लेंगे ? चलो, यह लेख इतना बड़ा हो रहा है, तो यह भी आज यहीं समेट दिया जाय
“.....अब ये ईस्वामी क्या हैं.. मैं नहीं जानता.. वे सनक, सनन्दन, सनातन हैं या सनत्कुमार.. हो सकता है कुछ लोग जानते हों.. मैं नहीं जानता.. हाँ उनके हाल के एक डर के बारें में ज़रूर जान गया हूँ.. उन्हे डर है कि साम्प्रदायिकता के इस (ऑफ़ कोर्स आर्टीफ़ीशिएल) हल्ले में उन्हें साम्प्रदायिक समझ लिया जायेगा.. इस पर मेरा जवाब उन्हे यह है..
साम्प्रदायिकता के मसले पर आप न ही बोलते तो कम से कम हमें आप के बारे में भम बना रहता.. पर बोल के आप ने खुद ही अपना कचरा कर लिया.. अब तो पोल खुल गई कि आप की समझ भी उतनी ही संवेदनहीन है जितनी एक बहुसंख्यक समुदाय के किसी खाते पीते व्यक्ति की होती है.. क्या समस्या है.. क्यों गला फाड़ रहे हो? थोड़ी शांति रहने दो.. हर चीज़ में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता.. हद कर रखी है तुम लोगों ने.. छी.. कब तक इस तरह का ज़हर फैलाओगे..आदि आदि.. इस प्रकार के विचार आप के नारद समुदाय में कूट कूट के भरे हैं.. “
लगता है, अभय जी को कुछ और गहरे उतरते हुये भी देखना पड़ेगा, आख़िर वह क्यों बाध्य हुये यह लिखने को, कि...
“ समझ रहे हैं..? नहीं.. आप को ये नहीं समझ में आएगा.. क्योंकि आप बहुसंख्यक संवेदनहीनता के शिकार है.. और फिर देश से बाहर भी हैं..आप अपने सपने को भयानक कह रहे हैं.. माफ़ करें आप नहीं जानते कि भय क्या होता है और भयानक क्या होता है..
आप लोगों ने एक समय में देश से बाहर रह कर अपनी ज़मीन से अपनी भाषा से जुड़े रहने के लिए एक सचेत कोशिश के तहत एक सार्थक मंच बनाया.. हम आप के उस योगदान को समझते हैं.. उसकी एक वक्त तक एक भूमिका थी.. पर हर चीज़ की तरह उस भूमिका की भी एक सीमा है.. पिछले कुछ महीनों में आप के इस मंच से जो लोग जुड़े वे अलग ज़मीन और पृष्ठभूमि से आते हैं.. आप उनकी ज़रूरत और जज़्बे को नहीं समझते.. वे विदेशी ज़मीन पर अपनी भाषा को जिलाये रखने की चिंता से ग्रस्त नहीं है.. उनका आकाश दूसरा है.. आप की खिड़कियों से वो नज़र नहीं आयेगा..
आप अभी भी नारद को एक किटी पार्टी समझ रहे हैं..जबकि इस में आजकल बहुत सारे भूखे नंगे अवर्ण अछूत आप की पार्टी स्पॉयल करने घुस आए हैं.. आप के पास दो ही रास्ते हैं या तो अपनी समझ को परिमार्जित कीजिये और इस मंच को शुद्ध व्यावसायिक स्तर पर दुबारा खड़ा कीजिये.. या अछूतों अवर्णों को बाहर कर के अपने घर के दरवाजे और कस के बंद कीजिये.. और चालू रखिये अपनी किटी पार्टी को..”
जो भी हो, मुझे क्या ? बड़े उदार हैं आप, आपने तो कृपापूर्वक उनको टिप्पणी भी दे दी…
“.......व्यक्ति, उसकी छवि, उसके व्यक्तिगत सरोकार, उसके ब्लाग, ब्लाग की एक पोस्ट और उसके अन्य इन्टरनेट सरोकारों को ऐसे मनघडंत सुविधाजनक कनेक्शन्स में जोड कर देखा जाना और फ़िर तुरत-फ़ुरत राय प्रकाशित किया जाना कितना सही है? ऐसे जजमेंटल लेखन का क्या मूल्य हो उस पर प्रतिक्रिया ही क्यों करूं? प्रतिक्रिया इसलिये की अब तक मैं आपका प्रतिक्रिया करने जितना पूरा सम्मान करता हूं भई ! नज़र-अंदाज़ नही करता ! “
अब स्वामी जी लाख टके का सवाल ... Sorry Sorry Sorry, लेट मी बी मोर क्लीयर,  So, pondering over a million dollar question कि आपकी यह नीति अभी  की हालिया साइड-इफ़ेक्ट लिखते समय, आखिर  किस अंतरिक्ष में बिला गयी थी ? इन्फ्लेटेड अहं को ठेस पहुँच गयी क्या.. वह भी इंडिया से सीधे अमरीका ?  अरे धत्त, ऎछा नेंईं करते  !
मैं तो आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके सुधरने के प्रयास में लगा ही हूँ, अब सार्वजनिक शौचालय की छोड़िये, जो बीत गया वह लौटेगा नहीं..आप चाहें तो भी नहीं लौटा सकते, सबजन मिलि के अब आगे की सुधि लेय…. सो, कृपया यह तो बता दें कि आपको किस  नाकामयाब सुधारगृह ने शरण दी थी ?  स्वामी लोग तो वैसे भी राग-द्वेष से दूर रहते हैं, सो यह सब तज हम अकिंचनों का पथप्रदर्शन करते रहें, बट इन अ हेल्दी वे ! सबको दर्द होता है ! हम तो जपने को तैयार हैं.. अहं ई-स्वामी शरणम गच्छामि, और यदि आप चाहेंगे तो, जयकारा भी लगाया जायेगा, जय हो ई-स्वामी !colorbar_e0

यह पोस्ट लिखने की मज़बूरी आप समझते हैं, न ? आप तो साढ़े चार वर्षीय ब्लागर ठहरे, नहीं ? सो अहंवाद, महंतवाद या मठाधीशी वगैरह से एक आम ब्लागर को कितनी तक़लीफ़ होती है, अब आपसे बेहतर कौन समझता है ? वह कहते हैं न कि, पसंद अपनी अपनी..  ख़्याल अपना अपना.. शायद इसी ज़द्दोज़हद में नारद भी आक्सीजन माँग गये । सो, बचा खुचा हिन्दी ब्लागिंग साबूत रहने दीजिये । लिखेला-ठेलेला वाले आम मनुष्यों के लिये आपके पास क्लिक करने को एक माउस तो होगा ही ? ऎसे में उसे प्रयोग कर लिया करें, बात खत्म ! आपके आदेशानुसार आपका पुराना लिखा ही तो पढ़ रहा हूँ, वही यहाँ दिखाया भी है,पाठक यदि इसमें स्वादानुसार नमक मिर्च डाल कर पढ़ें,तो भला कोई बताये कि मेरा क्या दोष ? चरित्र-विच्छेदन या व्यक्तित्व-संधान मेरा शगल नहीं है ! इसको हनन भी न कहें, क्योंकि एक एक शब्द आपका ही  है !

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16 November 2008

अमर कुमार का ई-कचरा

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eswami  आज शनिवार है या समझिये कि था...
वैसे तो इतने दिनों गायब रहा ही, पर आज है मेरी साप्ताहिक छुट्टी, और यही दिन तो असल छुट्टी में शुमार है, सो अपने मेल इनबाक्स का थोड़ा बहुत ज़ायज़ा वगैरह लिया ही था, कि एक हितैषी का मेल देखा.. वैसे तो इनका लगाई-बुझाई करने जैसा व्यक्तित्व नहीं है,  पर इन्होंने श्री ई-स्वामी जी के किसी साइड एफ़ेक्ट पोस्ट का जिक्र कर, इशारा दिया कि मैं  अपना  भी पक्ष रखूँ ! अब मैं अपना भेजा तो अंबाला में छोड़ आया हूँ, गुड़ाई-निराई व सिंचाई के लिये, क्या करूँ ? पक्ष धरी धरी.. या न धरी !

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लेकिन अपना पक्षवा काहे रखूँ, भाई.. ई कोनो ज़िल्ले-इलाही हैं ? अगर हैं भी, तो होंगे... ईहाँ सैकड़न के भाव से स्वामी भरे पड़े हैं.. सभी समझते अपने को तारणहार
आजौकाल एक फँसा पड़ा है, दर्ज़नन के भाव से बेभाव की पड़ रही है, स्वा्मी अमृतानंद को.. बोलिये
गली गली में फलाहारी, वृथाकारी, ब्रह्मचारी, दुराचारी, व्यभिचारी इत्यादि जनता बेचारी को चर रहे हैं
धत्त-स्वामी, हट्ट-स्वामी, ऊ-स्वामी, ई-स्वामी.. अब किस किस को क्या क्या साइड-इफ़ेक्ट होता है, हम्मैं क्या करना ? लै दस्स, भगवान का इफ़ेक्ट भले न दिखे.. स्वामियों का इफ़ेक्ट औ' साइड-इफ़ेक्ट तो जग को गंधा रहा है इंटरनेट को भी नहीं बख़्सा, आसमान से गिरे.. नेट पर अटके, भला यह कोई बात हुई ? हे राम.. नेट पर साँस भी न ले पाये थे, कि यहाँ भी ई-स्वामी ! क्या पता, रामचन्द्र क्या कह गये रहें अपने सिया से.. त्राहिमाम त्राहिमाम, हम तो ईहाँ देख रहें हैं, एक अउर स्वामी ?     

बहुत गुलामी हुई गयी भगवन, अब क्या ई-ग़ुलामी भी करवाओगे ?

अमर कुमार का ई-कचरा 

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मन में बहुत कुछ चलता है.. यानि कि यही सब ! मन है तो मैं हूँ, मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है.यह  विचार, पाकिट में पड़ा गुरु ज्ञानदत्त जी का यह सूत्र चिढ़ा रहा है.. चल रहा है, तो ठेलो ! सो, किंचित विचलित हुआ, पर यह स्वमिया शुरु से ही बड़ा खुरखुंदी है... स्थितप्रज्ञ तो नहीं ही लगता, शायद मुझे विचलित करना ही उसका मन्तव्य रहा हो, ज़बरन दिमाग को झटका देकर, बाहर आकर अपने एक प्रिय आँवलें के पेड़ के नीचे बैठ गया, शांति की आस में.. एक बाग के बीचोबीच मेरा आवास है, आबादी से कुछ दूर एक अलिखित  से डोन्ट डिस्टर्ब डिस्टेन्स पर..इस सुख से वंचित बंधु इससे मिलने वाले मनोरम एहसास को महसूस करने को आमंत्रित हैं , इंडिया के रोम..  यानि कि अपुन सोनिया के रायबरेली में 

सामने निर्माणाधीन चहारदीवारी चार-पाँच ईंट तक उठ कर रुकी हुई है,
वैभव और रिशी के बीच की बहन पल्लवी उस पर उछल-कूद मचाये है
( यह पल्लवियाँ ऎसी ही खुराफ़ाती होतीं हैं क्या ? एक पल्लवी जोशी अभिनेत्री को जानता था, बड़ी भूचाली कन्या थी..एक ताँगे वाली पल्लवी है, हमारे कबीले में भी,...खैर ! ) हमारे पोस्ट की इस पल्लवी बिटिया के संग आज एक कोई नया लड़का भी है । मात्र 4 या 4½ वर्ष का यह बच्चा दोनों हाथ व पैरों का सहारा लेकर लगभग काँखते हुये इन ईटों पर चढ़ता है.. इतनी ऊँचाई तक जा फ़ुरसतिया ब्रांड पुलकित च किलकित होते हुये, सबको शेरपा-तेन्ज़िंगनुमा  एक स्माइल देता है, आवाज़ भरसक मोटी बना कर,सबको पुकार पुकार अपना करतब मिस न करने की हिदायत भी दोहराये जा रहा है. फिर धम्म से कूद पड़ता,  यही क्रम चल रहा है । कूदते हुये स्वयं ही मुँह से आवाज़ भी निकालता है, अंकल देखो, देखिये.. हैय्यऽहः धर्रड़ाम्म, अब देखना.. देखो देखो, ओऽओय्यः धऽड़ाम्म.
अपनी इतनी बड़ी उपलब्धि से पुलकित होता जाता उसका चेहरा  देखते ही बनता था,आनन्दम..वह विजय आभा ! 

arrows जैसे कि कोड बदल बदल कर साफ़्टवेयर बनाने वाले मिस्त्री एक दूसरे से अपनी उपलब्धि बघारते हैं               व उसपर ध्यान न देने वालों को देख लेने की धमकी देने के अंदाज़ का अनोखापन,अति आनन्दम
धमकी भी क्या.. कि जाओ तुमसे नहीं बोलेंगे ! भला किस पाषाणहृदय के मन में रस नहीं घुलेगा ?
आनन्दम च आनन्दम, ज़रूर इसपर कभी पोस्ट लिखूँगा, कैसे लिखा जाय.. इसी पर सप्रयास मनन कर रहा था.. लिखने-ऊखने में मेरा दिमाग दर-असल एक सुस्त किसिम के बाबू-किरानी की तरह टालू व्यवहार किया करता है, शनैः शनैः.... धीरे धीरे..किसी भी घटनाक्रम की फ़ाइल तो खोल लेगा.. फिर उसपर, सुस्त रफ़्तार बैलगाड़ी सा.. और से भी और धीरे धीरे मनन करते करते जैसे ऊँघ जाता है । फिर थके होने का बेवज़ह बहाना बना, मनन हो गया, अब बाद में इसपर खनन करेंगे कह कर पूरी की पूरी फैइलिया खोपड़ी के पिछले कोने में कहीं दबा-सरका देता है, श्री आलोक पुराणिक कृपया ध्यान दें,सुखराम से सीख लेकर मैंने डायरी में कुछ भी दर्ज़ करने की आदत से तौबा कर ली है, आप भी कल्लो !  सो मेरा दस्तावेज़ी मन दिल को बहलाने को ग़ालिब के अच्छे ख़्यालों की गवाही में, आगामी किसी मनन सत्र में फ़रदर खनन करने का भरोसा दिला, इस मनन को दफ़न कर देता है,  इसीलिये रह गया.. यूँ ही निट्ठल्ला !  अलबत्ता मुझको यह इत्मिनान दिलाता है, कि..आगामी किसी संभावित खनन में इसी में से एक नायाब हीरा सा पोस्ट निकाल कर दिखलाऊँगा,  इन टिप्पणीचूसों को..arrows

eswami

अपनी सोच का यह लड्डू मन ही मन टूँग रहा था,कि.. ... कि,  क्या ?
अरे, थोड़ा दम धरने दो.. कोई भूचाल नहीं आया, यह तो मेरी वाली ' ..कि ' हैं ! तो यह तथाकथित कि,साइड-डोर से एक अमरूद कचरती हुई पंडिताइन के रूप में अवतरित हुईं.. कचर कचर कचर..ऎई, कचर.. तुमसे ही कह रहीं हूँ, कचर कचर... नहाओगे नहीं ? कच्च कच्च, भईय्या तुम्हारी...कचर..कचर कचर,      ये छुट्टी क्या होती है.. मेरा तो सारा.. कचर कचर सेड्यूल ( सोने का ) बिगड़ जाता है, कच्चक कच्च....चलो उट्ठो.. कचर कचर कचर.. निट्ठल्ले बैठे कैसे समय काट लेते हो..कचर कचर ! अब इनको बीबी के परमानेन्ट पोस्ट पर बहाल किहौ है.. तो सुनो, कुछ तो बीबी कहेगी.. बीबियों का काम है कैनाऽ ऽ..छोड़ोऽ बेकार की इस कचर-कचर में छिन न जायेऽ चैना ♫♪ मैंने उचटती हुई एक थेथ्थर दृष्टि उन पर डाली, एक पर्याप्त उत्तर, "चलता हूँ यार, दम न करो " फिर सामने वाले बच्चे की शौर्य-क्रीड़ा देखने लगा,  मेरी दृष्टि का पीछा कर, वह भी बच्चे पर केन्द्रित होती भयीं, आंटी को दिखा कर वह फिर कूद पड़ा, धर्रड़ाम्मः, इस बार दो गुलाटी खा स्पाइडरमैन सा खड़ा भया पुल्लिंग चाहे जिस आयु का भी हो, स्त्रीलिंग को देखकर क्यों करतबी हो जाता है ? सो, मोहतरमा कचर कच्च के कंठ से फूटा, “ बच्चे को देखो तो, इतनी कम उम्र में भी किस तरह  बेचारा कूद कूद कर अपने को शाबासी दे रहा है… “ अमरूद पर हुआ एक और लास्ट-ओवर दंतप्रहार, ख़च्चाक कच्चक कच्चक कच्च...   कौन है यह , .. कचर कचर कचर... कचर, तुम इसको, बच्चे को जानते हो ?   यह बच्चा कौन है ? मैं उसको देख देख, अब तक इतना मुदित हो गया था.. कि हठात मेरे मुँह से निकल पड़ा…. ये बच्चाऽ ?  नाम तो यार मैं भी नहीं जानता, यह बच्चा शायद … ठीक से तो पता नहीं,पर  समझो तो लगता  है  अपना ई-स्वामी !" श्री विशु उर्फ़ ई-स्वामी   

हो सकता है,कि मेरे प्रमुदित मन के अवचेतन में भी स्वामी जी कचर कचर मचाये रहें हों, तभी तो.. वरना इस तरह, ऎसा ज़ुलुम बात हमरा मुँह से निकलता ही कइसे, भाई ? एथिक्स भी तो अथिया कुच्छौ  है न जी ?

“ई-स्वामी ? यह स्वामी कौन है, क्या यहाँ भी स्वामी होते हैं, कौन है.. ई-स्वामी ?”  अब उनके ज़ुल्मी संग लड़ी भयी अनुभवी  आँखों में बार्नविटा क्विज़ कांटेस्ट के रैपिड राउंड प्रश्नावली की ये इनबिल्ट अधीरता मुझको ऎसे ही परेशान करती है ! “क्या यार,तुम भी ? अरे, ई-स्वामी बोले तो ई-स्वामी, इतनी भी समझ नहीं है ?” अब धनिये की चटनी चाटी जा रही है, “तो चिल्ला क्यों रहे हो ? मैं तो यह पूछ रही हूँ, कि जैसे अरुण-पंगेबाज़ हैं तरुण- निट्ठल्ला चिंतन हैं, लिंकित मन-नीलिमा हैं, अपने अनूप जी-फ़ुरसतिया हैं.. वैसे ही इसका  भी  तो  कोई  नाम होगा ?” ब्लागीवुड की इतनी गहन जानकारी देख, मैं अचंभित होगया..‘कैसी चलायी ये हवा भाभी रीता पांडे ने’

“हाँ हाँ हाँ, याद आया.. वही तो नहीं, जो तुम्हारी टिप्पणी माडरेट-वाडरेट करके लौटा दी थी, कि तुम चार महीने से लिख रहे हो, मैं चार साल पुराना ब्लागर हूँ. जाकर पहले मेरा लिखा पढ़ो, फिर टिप्पणी करने लौट कर आओ।”

अमर, आपकी टिप्पणी मिली. ज़रा ड्राफ़्डिया मोड में लिखी हुई है! यह समझ में नहीं आया की आप किसे गरिया रहे हैं? किसके लेखन को कचरा कह रहे हैं? कौन दबाव में लिख रहा है और कौन वेश्यावृत्ती कर रहा है? आपकी यह टिप्पणी प्रकाशित नहीं कर रहा, आपका संदेश मुझ तक पहुंचना था पहुंच गया, ठीक! मेरा एक निवेदन है, प्रवचन देने में जल्दबाज़ी ना करें, आप चार माह से ब्लागिंग कर रहे होंगे हम साढे चार साल से हिंदिनी चला रहे हैं! जरा समय लें और हमारा पुराना लिखा ही पढ लें! शेष कुशल, ई-स्वामी 2008/8/18 WordPress A new comment on the post #182 "प्रतिक्रियाएं जो टिप्पणियों में नहीं मिलतीं! " is waiting for your approval http://hindini.com/eswami/?p=182 Author : डा.अमर कुमार (IP: 59.94.129.81 , 59.94.129.81) E-mail : c4Blog@gmail.com URL : http://c2amar.blogspot.com Whois : http://ws.arin.net/cgi-bin/whois.pl?queryinput=59.94.129.81

“हाँ यार, वही !” मैं आज़िज़ हो गया, इस वाचाल नारी से !“क्या फिर कुछ लिखा-ऊखा है, क्या नाम है, इसका ?” फिर वही ढाक के तीन पात..मैं खीझ गया, “ अरे, तुम उसके नाम के पीछे काहे पड़ी हो, जब वह अपने माँ-बाप का दिया नाम ज़ाहिर नहीं करना चाहता, तो मुझे क्या पड़ी है.. होगी कोई बात ?” हार कैसे मान जाय, सो एक छोटा सा ज़ुमला उछाल दिया, “फिर भी..?” हे राम, अब इसका क्या करूँ.. सो, मैं चिल्लाने लग पड़ा, “ जाकर ताली ठोकूँ, शौनक की अम्मा, ज़रा ये तो बता, तेरे शौनक के बप्पा का नाम क्या है ? वैसे भी इस सब का उसकी सोच, लेखन और भाषा से क्या ताल्लुक है ?” उन्होंने मुँह फेर लिया, पर बन्द न किया,” मुझे क्या करना, लेकिन कहाँ का है,यह तो बता दो ?” यह थी अगली  बाल! अज़ीब परेशानी है, पता नहीं क्यों इस सनीचर को आज ही सवार होना था, “अमें यार खोपड़ी ख़लास मत करो, सभी उड़न-तश्तरी नहीं हुआ करते, कि जबलपुर से कनाडा सर्रर्रर्र हो जाने को स्वीकार करें.. यह शायद अंबाला से लांच हुये थे, अब ग्लोबल आरबिट में मँडरा रहे हैं, नीचे उतर आयें..फिर काहे के ई अउर काहे के स्वामी ? वैसे CA से कंट्रोल किये जाते हैं ।” अब आगे कुछ न पूछना, पाप लगेगा ! पर पंडिताइन आज भिड़ाने के मूड में है,” फिर भी जाकर देख तो लो, कि क्या उल्टा-सीधा लिखा है, वहाँ ?“ अरे राम, ई शनिचरवा के हम का करी ? “ तुम तो जानती हो कि मैं कई ज़गहों पर मूतने भी नहीं जाता, फिर क्यों भेज रही हो ? जाऊँगा तो कुछ लिखूँगा ज़रूर, कुछ टिप्पणी बक्से ऎसे हैं, जो सब हज़म कर जाते हैं, इट्स शीयर वेस्टेज़ आफ़ टाइम ! ज़नानियाँ ऎसा करें तो ठीक भी लगता है, पर,” इससे आगे मैं बोल नहीं पाया

क्योंकि बीच में ही टपक पड़ीं,” पर ज्ञानदत्त जी को लेकर..” छड्डयार, उनकी बात अलग है, मुझको हमेशा लगता है कि टिप्पणी-लोलुपता के चलते अपनी विद्वता व क्षमता का सदुपयोग न करके वह ज़मीनी हक़ीक़त को इग्नोर कर जाते हैं ! इशारों में ही तो बताया,और क्या ? अपना बिना परिचय दिये मिल भी आया, और क्या ? अब बस्स!

वैसे मेरे शनिवार अवकाश का तो कचरा हो ही गया, यह कचरा पोस्ट लिख कर ! इस माहौल में सृजनशीलता..   ना बाबा, ना !

cvcbttn आदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी, आपकी रात्रि/प्रातः 3 बजे वाली पोस्ट की फ़रमाइश पूरी की गयी, ख़ुश ! लवली बिटिया, तू अपनी ज़ान की ख़ैर मना, हमारे तंत्र द्वारा रख़्शंदा नेट पर सक्रिय पायी गयी है, औ’ तू फँस गयी ! निजता की बात करने वालों से बाद में बात होगी । ई-कचरा जारी रहेगा, असहमत, कुछ तो है..पर

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05 November 2008

बिग बी अपने कबीले के हैं…. क्या सच्ची में ?

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डिसक्लेमर: बड़े मूड से एक पोस्ट लिखने का मन बनाकर आया था, चंद घंटे पहले ही आज की चिट्ठाचर्चा पर एक लम्बा कमेन्ट ठोक कर आया था । सहसा मन उचट गया,सो मन हुआ कि थोड़ी मस्ती की जाय, पर बिना पुख़्ता किये कुछ भी पोस्ट करने में झिझक होती है, पता नहीं कौन लण्ठ भड़क जाय, या पोस्ट का ही संदर्भ सहित व्याख्या करनी पड़ जाये.. सो अपनी आज की टिप्पणी ही उठा कर यहाँ नकल-चिप्पी तकनीक से जड़ डाला । जो पढ़े उसका भला, और जो न पढ़े उसका कभी न सोचो भला !

श्री अनूप शुक्ल ' फ़ुरसतिया ' अनूप भाई की आज की चिट्ठाचर्चा सदा की तरह अपने आप में मस्त चर्चा रही !

फ़ुरसतिया चर्चा ही इतनी टिप्पणोपरि हुआ करती हैं,haippI birthday to kush
मुद्दई लाख टिप्पणी करे तो क्या होता है
वह तो वही पढ़ायेंगे, जो मंज़ूर ए फ़ुरसतिया होता है,
यह्न न सुधरेंगे, अस्तु.. 

भाई कुश, पीछे छोड़ आये सकुशल दिनों के लिये बधाइयाँ लें
आगे के जीवन के लिये मेरी शुभकामनायें लें लें
मेरी हार्दिक हैवी ड्यूटी गुड्डविशेज़ हैं कि
यह आपके कुँवारेपन का अंतिम जन्मदिन हो,
मित्रों आप सब जनसमर्थन दें, कि.. 
अगले वर्ष उनकी मोमबत्ती जलाने वाली उनके संग हो..

chittha-charcha-logo पर चिट्ठा के नामकरण पर इतना क्यों हंगामा बरपा है,
डाक्टर कविता जी के कल की चर्चा पर इस निट्ठल्ले की मूरख-टिप्पणी पढ़ लें
यकीन करें, वह मेरी खांटी-डाइसी नहीं बल्कि सूडो-डाइसी आब्ज़र्वेशन्स हैं

सतीशजी पंचम स्वर में बिलबिला रहे हैं, क्यों भाई ?
थोड़ा पिटना भी ज़रूरी है, ज़िन्दगी के लुत्फ़ के लिये..
ताऊ पर तो भरोसा करियो मति, यह तो ऎन मौके पर झपकी ले लेवें हैं
सतीश-पंचम जी ने आपने एक बार मुझे टीप मारी कि क्या वाहियात टेम्पलेट है,
ठीक मौके पर हैंग हो जाती है, मैने सुधार लिया ..
PD बोले तिरछे मत रहो.. सीधे हो जा रे, सीधे हो जा रे
तो सीधा हो लिया, विवेक बोले..यह कोई भाषा है,
सो भाषा को कुछ शुद्ध करने की सोच रहा हूँ
अब अच्छी हिन्दी दिखेगी आपको मेरे ब्लाग पर..
बस कविता जी द्वारा उसके रूपांतरण करने की सहमति की प्रतीक्षा है
तो पंचम जी, यहाँ लण्ठ और लठैत ब्लागर भी हैं,
जयकारा लगा लगा कर हमलोगों ने ही उनको बिगाड़ा है...                                                             परसाई सा ज़िगर रखना बड़ा दुरूह है, मित्र !

बिग-बी को अपने कबीले का मानने में मुझे किंचित एतराज़ हैलेना भी आवश्यक नहीं मानता हूँ । यह मानने के उनके अपने कारण होंगे, किन्तु मैं भी अकारण परहेज़ नहीं किया करता । वह अपने स्टार इमेज़ की आभा को ब्लाग से अलग नहीं कर सकते, इसीलिये..
वह अब तक हिन्दी में बोले, हिन्दी ही गाये, और हिन्दी में नाचे व नचाया
सो, हिन्दी में लिख कर वह कोई उपकार नहीं कर रहे
अभी भी वह अंग्रेज़ी की बैसाखी हटाने का साहस नहीं संज़ो पाये हैं
उनकी भाषा-प्रतिभा का मैं भक्त हूँ,
हममें से अधिकांश को शर्मिन्दा करने की हद तक परिमार्जित भाषा है, उनकी

किन्तु वह केवल केवल हिन्दी में ही लिखने की ठान कर,
महज़ दो दर्जन गैरहिन्दी वालों को हिन्दी पढ़ना सीखने पर मज़बूर कर सकें
तो उनका हिन्दी गाया-बजाया सार्थक हो जाये
ब्लागिंग में उनका कलेज़ा इतना मज़बूत है,
दुखते पेट पर लैपटाप रख कर ब्लाग लिखने का एक नया रिकार्ड बनाया है, उन्होंने
अस्पताल से पोस्ट ठेलने का ज्ञानदत्त जी का रिकार्ड तो उन्होंने तोड़ ही दिया

कहीं मेरे भेजे में थोथा चना तो नहीं बज रहा ?
गुरुवर माफ़ करना, वह क्या है कि..
मेरे दिमाग की डाइसी मुर्गी.. निम्न स्तरीय छोटे अंडे ही दिया करती है..
पर कुड़कुड़ाती बहुत है, शायद अपनी आदत से लाचार है, 

चुपचाप हिन्दी चुगते रहने से परहेज़ है, इसको..
लगता है, इसको अब आत्मविकास की छुरी से ज़िबह करना ही पड़ेगा… हे हे हे.. 

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03 November 2008

हे भगवान, तो यह सब तूने किया !

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अपनी धरती पर ख़बरों का टोटा पड़ रहा, दिक्खै । पूरी दुनिया दुई दिन बाद सदर ए रियासत अमेरिका के इलेक्शन नतीज़ों को लेकर दुबली हुई जा रही है । शायद ठीकै हों सब के सब, अब ‘कोउ नृप होंहिं.. ‘ वाला ज़माना तो रहा नहीं, सब जागरूक हो गये हैं । ठीक से जग नहीं पाये हैं, उनींदे तौर पर सही..  लेकिन गरियाने वरियाने से आचमन-कुल्ला करने की शुरुआत हुई गयी है, चुभ चंकेत है, यह ! ( पढ़ें शुभ संकेत.. फटीचर टाइप के एडीटर द्वारा इतना सताया गया हूँ, कि अब अपने हाथों ही अपना लिखा एडिट करना, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा दर्द देता है.. अउर ई तो कुंजीपटल की चूक है, सो आज आप ही भुगत लो ) ठीक ट्रैक पर जा रहा हूँ, न ? पढ़ो या न पढ़ो, पर है ठीक !

जब अक्खा दुनिया का इंडिपेंडेन्ट देश लोग, सदर ए अमरीका को अपना नृप माने बैठा है, तो आप ही क्यों अलग रहो ? आप भी सच्चे देशभक्त की तरह नृपों के नृप की चिन्ता में दुबले होते रहो ! हम्मैं तो अभी अस्पताल जाना है, मेरा एक जोर-ना-लिस्ट मित्र तीन दिन से कोमा में पड़ा है, देखदाख आयें, नहीं तो पता नहीं ऊप्पर पहुँच के क्या जड़ दे  मित्र है,सो मेरे ख़िलाफ़ कुछ उल्टा सीधा करने का उसको नैतिक अधिकार प्राप्त था । देख ही आयें !

भईय्या, वैसे तो हम्मैं इस वक़्त पूरी जर्नालिस्ट बिरादरी ही आतंकवाद-इनकेफ़ेलाइटिस के कोमा में पड़ी मिल रही है,उनकी पीठ में सेंसेक्स-सोर हुई गवा ऊई अलग से ! फोनवा घनघनाय रहा है.. बड़ा डिस्टर्बेन्स है, भाई ! ई ससुरा न होय, तो हमहूँ रोजै एकठईं साग-भाजी.. उच्च विचार पोस्ट ठेले रही । ई सार का कल्है कटवा देबै.. फोन का ! अरे बाप रे, लगता है कुछ गलत तो नहीं लिख गया ? अजित वडनेकर भाई .. आप दो कोस पर बानी बदल जाने पर इतना परेसान रहा करते हो.. हम यहाँ हर दो पैरा पर भाषा बदल जाने से परेशान हैं । “ ऎई ट्रैक पर लो.. जो भी लिख रहे हो, ठीक से लिखो,” बट नेचुरल, इट इज़ माई एनिमी नम्बर वन… पंडिताइन, दूजा न कोई ! खैर,फोन उठाया, ख़बर थी ब्यूरो चीफ़, स्पष्ट-हुँकार.. मेरे तथाकथित मित्र तोड़ूलाल जी, कोमा से वापस आ गये हैं।

यह तो जैसे चौपाटी के काला-खट्टा जैसी ख़बर थी, अस्पताल तो अब देर से पहुँचो या फ़ौरन.. क्या फ़र्क पड़ता है ? होश में आ गया है,इसके मानी यह कि, अब उदास खड़ी घुटी-टंकार भाभी की पीठ तो सहलाने को न मिलेगी!

लेकिन अपनी घुटीटंकारदेवी वार्ड के दरवाज़े पर ही मिल गयीं, शायद ब्रेकिंग न्यूज़ देने का अवसर हाथ से न जाने देना चाहती होंगी । “भाई साहब ( हत्तेरे की जय हो ! ), भगवान ने उन्हें लौटा दिया,” लपक कर ऎसे बताया, जैसे कोई हादसा गुजरते गुजरते फिर लौट आया हो ! यह आपके पुण्य कर्मों का फल है.. मैंने पिठवा तो छू ही लिया । मन ही मन दाँत पीसे, “साला, वहाँ से भी लौटा दिया गया होगा.. जुगाड़ लगा कर दुनिया से रिहा होना चाहता था, मरदूद !” तो शायद यह आतंक-इनसेफ़ेलाइटिस न रहा हो.. ज़रूर यह शेयर-सट्टा शाक में चित्त हुआ होगा, चीलर ! ख़बरनवीस है, तो उसके चीलर होने में वैसे भी कोई संदेह नहीं ! जहाँ चपट जायेगा.. वहीं तब तक चिपटा कुलबुलाता रहेगा , जब तक अगला लंगोटा ही उतार कर फेंक न दे ! अगर लंगोट न उतरवा ली तो समझो पत्रकारिता  असफल हो गयी ! तभी राजनीति करने वाले, ऎसा कोई वस्त्र ही नहीं पहनते कि उतरने का गम रहे ..

अंदर प्रविष्ट हुआ,बेड के पास दो तीन जन खड़े थे। लगा कि तोड़ूलाल जी धीमे स्वर में कोई व्यक्तव्य दे रहें हैं । पास जाने पर, मेरा संदेह विश्वास में बदल गया ! श्री तोड़ूलाल देवलोक का यात्रा वृतांत बयान कर रहे पाये गये ! मेडिकल की भाषा में इसको डेलेरियम कहते हैं, आम बात है ! लेकिन उनका डेलेरियम प्रलाप तो जैसे ‘पंगु गिरि लाँघे‘ जैसा ज्ञान बाँट रहा था ! लगता है, यह पोस्ट फ़ुरसतिया खेमे में जा रही है.. सो, एक नन्हा सा ब्रेक ले लें ?

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.. हाँ तो, तोड़ूलालजी आप मेरे पाठकों को बतायें कि वहाँ क्या क्या देखा आपने और क्या ख़ास ख़बर तोड़ कर लाये आप देवलोक से..

ईश्वर के सृष्टिसंरचना विभाग में संरचना सहयोगियों की नयी भर्ती हुई है
मैंने देखा कि भगवन प्रशिक्षु सहयोगियों को संरचना रहस्य सोदाहरण समझा रहे हैं
" आप लोग ध्यान दें कि जो भी बनाया जाय, उसमें संतुलन बनाये रखना आवश्यक है "
जैसे ? कई कंठों से एक साथ निकला
जैसे कि यह पोस्ट पूरी पढ़ने वाले धैर्यवान पुरुष
और उचटती दृष्टि डाल कर सरक लेने वाले मूर्ख

निमिष मात्र में परिहास की मुद्रा तज, प्रभु सहज होते भये
जैसे कि हर सौ हिरन पर एक शेर बनाया मैंने
वन बनाया तो दावाग्नि भी दे दी
बात पूरी भी न हुई थी कि किसी अधीर ने
किंचित हलचल मचा कर सबका ध्यान खींचना चाहा
जी श्रीमन , पर यह सभी तो सार्वभौमिक हैं

अच्छा तो यह दे्खिये कि मैंने एक देश अमेरिका बनाया
धन सम्पदा वैभव से समृद्ध देश
किंतु संतुलन के लिये असुरक्षा तनाव व बिगड़ी हुई संतानें दीं
यह रहा अफ़्रीका, प्रकृति के बिखरे सौन्दर्य में बेफ़िक्र बिंदास समाज
किंतु उनको चिड़चिड़े मौसम व हिंस्त्र पशुओं से पाट दिया
यह रहा चीन, चींटियों को मात करने की कर्मठता और दूरंदेशी की मिसाल
किंतु आबादी के बोझ व निरंकुश शासक से त्रस्त रखा इनको
इस प्रकार के संतुलन से हम अपने सत्ता के महत्व को बनाये रहते हैं
बीच में टप्प से एक ज्ञानबघारू जीव टपक पड़ा
पर श्रीमन, यह कौन सा देश है

नक्शे को निरख भगवन मगन होते भये
आह्हः इसकी बात करते हो.. यह तो है देवभूमि भारत
समझो कि मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट
बुद्धिमान संतोषी परोपकारी वीर किंतु सहिष्णु मनुष्यों से अँटा भूखंड
खूबसूरत पर्वतों , झरनों व स्वर्णिम परंपराओं का देश
अनेकता  में एकता यह एक लघु स्वर्ग

इतने में एक टिप्पणी आयी


किंतु प्रभु, यह तो पक्षपात है
आखिर इनको उलझा कर संतुलित रखने की व्यवस्था क्यों नहीं दी आपने
भगवन विहँस पड़े, इस नादान प्रश्न पर..
ध्यान से देख.. इसके दायें बाँयें के पड़ोसी देश, फिर कोई शंका कर, रे मूढ़ !

मैं वहीं ठिठक गया, हे भगवन, तो… यह सब तूने किया है

नमस्कार, कृपया नोट करें, तीन बजने में अभी दो घंटे बाकी है

पोस्ट सौजन्य – रजनी की सुवास एवं बाबा का ज़र्दत्व

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शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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