जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

पोस्ट सदस्यता हेतु अपना ई-पता भेजें



NO COPYRIGHT यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठसुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है !NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं !सर्वाधिकार मुक्त वेबपृष्ठ

NO COPYRIGHT यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठसुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है !NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं ! यह पृष्ठ एवं इस ब्लाग पर प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री कापीराइट / सर्वाधिकार से सर्वथा मुक्त है ! NO COPYRIGHT टेम्पलेट एवं अन्य सुरक्षा कारणों से c+v नकल-चिप्पी सुविधा को अक्षम रखा गया है ! सर्वाधिकार मुक्त पृष्ठ सुधीपाठक पूर्ण आलेख अथवा उसके अंश को जानकारी के प्रसार हेतु किसी भी प्रकार से उपयोग करने को स्वतंत्र हैं !सर्वाधिकार मुक्त वेबपृष्ठ

30 April 2008

अथ कथा शाह हनुमानुद्दीन

Technorati icon

तुमने किया था कल आने का वादा...बुढ़वा गंगा किनारे वाले की मोटी खड़खड़ाती आवाज़ कहीं दूर से तैरती हुई आरही है । इसको कैसे पता लग गया कि मेरा हनुमानुद्दीन कल आने का वादा करके मुकर रहा है । बुढ़वा तो धूमकेतु की तरह छाता जा रहा है, खैर... वह शेरवुड वाला है, और मैं मिडिल स्कूल टाट-पट्टी की उपज, वह क्रीमी लेयर तो मैं सड़ा छाछ ! फिरभी अपने ब्लाग का राजा भोज तो हूँ ही, हम कोई अनिल अंबानी के वेबसाइट के मोहताज़ थोड़े हैं ।  यहाँ सभी राजा हैं, हम हैं राजा ब्लाग के, हमसे कुछ न बोलिये..हमसे कुछ न बोलिये, रूँ रुँ रुँ रुँ..जिसने भी हमें टिप्पणी दी..हम उसी के हो लियेऽ ..ऽ, हम उसी के हो लियेऽ ..ऽ, हम हैं राही ब्लाग के,हो होहो हे हे ! यह ब्लागर एंथम है,सनद रहे मैंने लिखा है

आप सोचो, जो सोचना है, सोचना और शौचना नितांत व्यक्तिगत मामला है । इसमें तो कोई झाँक भी नहीं सकता ।

सुर नहीं बदल रहा हूँ, श्रीमन ! आप ठीक सोच रहे हो, एक पात्र तो गढ़ दिया और अब हाथ से फिसल रहा है, तो आँय बाँय शाँय से बहला रहे हैं । लगता है, शाह हनुमानुद्दीन साहब गये तेल लेने.. ! ऎसी बददुआ मत दो भाई, तेल लेने  जायें उसके दुश्मन । तेल.., तेल का खरा-खोटापन.., तेल के भाव का मिज़ाज़.., तो जिसका तेल न निकाल ले, वह कम है !

सब एक से बढ़ कर एक .. । यदि आज़ादी के समय मैं पैदा हो गया होता, और मेरा अनशन सफल हो जाता तो, आज हम आपा-धापीस्तान के नागरिक होते । खैर..., छोड़ो नाम में क्या रक्खा है ? समझो कि आप आपाधापीस्तान में ही हो । समझो क्या ? वाकई आपाधापीस्तान में ही हो। मन बहुत खिन्न है..फिर भी ब्लगिया रहा हूँ । खिन्नता इसी ब्लगिया को लेकर है, सेट, कैमरा, लाइट सब तैयार और नायक गायब ! ससुर दुई कशीदा क्या पढ़ दिया कि हनुमानुद्दीन धूल के फूल के रजिन्दर कुमार हुईगे । घुरहू का रोल कटवाया, स्वयं भी कहीं चुप चुप खड़े हैं, पोस्ट डिले हो रही है । चलो थोड़ी देर और इंतज़ार कर लें...

इंतज़ार में, अपने सिरहाने रक्खी अख़बार की गड्डी में से एकठो अख़बार खींच लिया, टाइमपास का ज़रिया ! और.. जैसाकि हमेशा से होता आया है,पंडिताइन हाज़िर, " फलाहारी बाबा, कुछ खाओगे या मैं भी तुम्हारे चक्कर में भूखी मरूँ ? " लो, इस घोर कलिकाल में अन्नपूर्णा को भोलेनाथ से भोजन की गुहार लगानी पड़ रही है ! चोखेरवालियों, यह उनका स्वांतः सुखाय पतिव्रत है, आपलोग मोर्चा वोर्चा न खोल देना । मैंने कुछ व्यस्त होने का दिखावा करते हुये, हाथ हिलाया, 'अभी रूक जाओ । ' अख़बार पर आँखें गड़ायी तो पाया 23 अप्रैल का हिंदुस्तान है । ठीक है यार, चलेगा ! अपने समीर दद्दा बोले हैं, सब अख़बार एक से ही होते हैं, तारीख़ से  क्या फ़र्क़ पड़ता है ? फ़र्क पड़ता है दद्दा, यहतो तुरंतै दिख गया । पहले आप यह भेद की बात बताओ कि आपने उड़नतश्तरी नाम क्यों चुना ? मैं इसका विरोध करता हूँ । अगली बार इंडिया आओगे, तो धरना प्रदर्शन करूँगा । हुँह, उड़नतश्तरी ? भले आप जुरासिकयुग के लगते हों, लेकिन हैं तो इसी ग्रह के जम्बूद्वीपे भारतखंडे से ! अश्कों के समंदर को दर्द की कश्ती से पार करने वालों की ज़मात में यह उड़नतश्तरी कहाँ से पा गये ? एक्ठो हमको भी चाहिये । बेलगाम लिखे जारहा हूँ, लगता है कि यही हाल रहा तो अपने शाह हनुमानुद्दीन वाकई तेल लेने चले जायेंगे । जायें, हमतो अपनी स्लिम-लइनिया को आज रगड़ के रहेंगे । ( यह मेरे डेस्कटाप का निकनेम है, भाई )

बिरंजीदास व बुधिया- डा० अमर हिन्दुस्तान 23 अप्रैल 2008- डा० अमरबुधिया-डा०अमर

हाँ तो, अख़बार पुराना सही, लेकिन चिहुँका दिया नयी नवेली के नख़रे सा । कोशिश करके हार गये, जितना मिलना था उससे कुछ कम ही मिला ।

वैसे देखो तो कुछ भी नहीं, और हमारे जैसी खखेड़ी नज़रों से देखोगे तो लगेगा कि, 'कुछ तो है.. जो कि !                                                        एक सहमी सी ख़बर, जैसे IPL की चकाचौंध से घबड़ायी हुई सी एक कोने में दुबकी हुयी पड़ी थी । ख़बर की नन्हीं सी बाइट तो जैसे कराह रही थी । कराह सुन के क्या करोगे ? ख़बर तो कह रही है कि, चलो हम पूरी खबर ही जस का तस उतार देते हैं, आप बाँच लो । 

भोपाल । बुधिया के पूर्व कोच बिरंजी्दास की हत्या में कथित रूप से शामिल एक ‘ कांट्रेक्ट किलर ‘ हीरो की तरह निजी टीवी चैनल पर प्रकट हुआ । उसने बाकायदा इंटरव्यू दिया । सीधे प्रसारण के दौरान पुलिस भी चैनल के आफ़िस में पहुँची और उस हत्यारे को हिरासत में ले लिया ।

मंगलवार को इस कथित ‘ कांट्रेक्ट किलर ‘ छागला ने खुलासा किया कि बुधिया के पूर्व कोच की हत्या के लिये उड़ीसा खेल निदेशालय और खेलजगत से जुड़े कुछ लोगों ने सुपारी दी थी । उसने यह भी बताया कि बिरंजीदास के पास विदेशों से लगातार लाखों रुपये बुधिया के नाम पर आरहे थे । छागला ने कहा कि उड़ीसा खेल संचालनालय और अन्य लोग इसमें हिस्सा माँग रहे थे, जिसे नहीं देने पर उसकी हत्या की सुपारी दी गयी थी । छागला ने बताया कि इस हत्या के लिये उसे दस लाख का ठेका दिया गया था । दो लाख रूपये अग्रिम के तौर पर मिले थे । इस हत्या में उसका एक साथी भी शामिल था । ( एजेंसी )

अब यह आप पता लगाइये कि छागला साहब का अचानक हृदय परिवर्तन होगया याकि लेनदेन न सुलट पाने की वजह से वह बाग़ी हो गये । इस स्तब्धकारी ख़बर को देश ने कैसे लिया, यह बहस का विषय हो सकता है, किंतु मेरा विषय तो एकमात्र यह ख़बर ही है । पूरा देश तीतर बटेरबाजी की तर्ज़ पर चलने वाले IPL  के लटकों से लहालोट हुआ जा रहा है । कुछेक हाकी के कर्ताधर्ताओं की कारगुज़ारियाँ बखान कर गिलगिल हुये जा रहे हैं । सरकार-ए-भारत शांति की मशाल को ऎतिहासिक सुरक्षा में गुजार कर चीन को तृप्त निगाहों से निहार रही है, " और कोई हुक़्म मेरे आका ? " लोग इस ऎतिहासिक प्रतीक की झलक तक न देख पाये, और स्तंभकार अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सिर धुन कर, ऎवज़ में चेक आने के इंतज़ार में दीन दुनिया से बेख़बर मन में आमदनी ख़र्चे का हिसाब लगा रहे हैं । और...

और यहाँ शाह हनुमानुद्दीन की प्रतीक्षा हो रही है ! कौन कहता है कि ब्लागिंग फालतू का काम नहीं है ? निराश न हों, शाह हनुमानुद्दीन से मिलवाऊँगा अवश्य, यह लाला की ज़ुबान है । बस.... जरा उसे तेल लेकर लौटने तो दें । नमस्कार !

इससे आगे

25 April 2008

ओऎ...ब्लगिया का सब्ब झस लेई गयो रे...

Technorati icon

ब्लागिंग पर तो हमजैसे निट्ठल्लों और ठेलुओं का एकाधिकार समझत जात रहा । जहाँ बड़कन में से एकाध जन भी, कभी भूले भटके नाकौ छिनकै नहिं आवत रहे, उहाँ पेट भर कै अघाय  भये, मनई भी मुँह  उठाय  घुसै चले आरहें हैं  । फ़ुरसतिया फेम के सुकुल महाराज अबतक इलाहाबादी बाहुल्य से पीड़ित रहे, अउर  एक  कउनो  बुढ़वा गंगा किनारेवाला भी फाट पड़ा बिलंगिया में । फाट पड़ा  तो फाट पड़ा, भला हमार काहे का  फटे ?  ईहाँ रोजई दुई तीन टपकत हैं, मुफ़त के चंदन घिस मेरे लल्लू । हमरे घरे से तो कुच्छ जाय नहीं रहा ! लेकिन ई  बुढ़वा गंगा किनारे वाला इहाँ का कर रहा है, यही जानै का हमरे पेट मा दरद उठि  रहा हवे । हमहू लपकेन कि आओ तईं देखि लेई , बिरादरी वाला है । लिक्खै, नाचे गावे का घुन भी मिला भवा है, ई पुराने चावल मा , तौन स्वाद न मिलिहे तो खुसबू थोड़े रूकि जाई । तनि सूँघि-साँघ के लउट आवा  जाई , कुच्छो  नहिं तो एक टिप्पणिये से नेवाज़ देबे, देखिहें तो अपने लड़कई में हमरे हाथ का लप्पड़ तो यादै आजाई । हमसे बड़े रहें, सो अब न बतावें, ई उनका ईमान जाने । हमतो गुमटी नम्बर पाँच पर बसंत सिनेमा में अभिमान के आठ टिकट बिलैक करके बहुत पहले एहिका प्रायश्चित कर लीना ।बताओ भला, जौन हाथे से वोहिका एकु लप्पड़ में सुधार दिया,वहि हाथन सेटिकटो ब्लैक किया रहा !

                                                                                                                                                                                       बिलगिया का सब झस लेई लियो रे-अमर दईया रे दईया, अब फ़ुरसतिया का करिहें-अमर                               

तौन टिप्पणी-विप्पणी करै का हौसला उहाँ जातै जात पंचर हुई गा । नहिं भाई , तनिक सँसिया तो लेय लेई, अबहिन बताइत है । उनकी बिलगिया देखतै हम डेराय गये, नहिं ई बात नहीं है, जौन तुम सोच रह्यो है, हमतो इससे भी ज़्यादा नम्बरी चौंचक अउर  बम्पर फोकसिया बिलाग देखे भये हन । टिप्पणी करै वालेन की भीड़ देख हमका अपना चिरकुट ब्लाग की सुधि आय गई रही । ससुर यहू कौनों बिलागिंग है ? सबै एक दूसरे का लुहाय रहे हैं, आओ आओ तनि टिपियाय तो लेयो, सुआगत है, लिखबे तो हम हिंदिन मा, हिंदी महतारी के सेवा की सुपाड़ी मिली है, ब्रह्मा से ! मुला टिप्पणी बरे अंग्रेज़ी से भी कौनो परहेज़ नहीं है । अंग्रेज़ी टिप्पणी से तो हिंदी महतारी का सम्मानै बाढ़ी । टिप्पणीक्षुधा शांत होय से मतलब है । को बनाइस-को खवाइस, ई सब संकीर्ण मानसिकता वालेन का परहेज़ है।हमरे इहाँ जो आवै,  आवै देयो भाई, सब शुद्ध है !हमरे जइसे कंगले को सूखी रोटी मिल जाय, भले स्वाहिली-काहिली,हिब्रू-डिब्रू ब्रांड सड़े आटे का होय ! आंग्ल-बांग्ल का कौन सवाल,वसुधैव कुटुंबकम !

अगर इहाँ से अबै नहिं भागे हुओ, तौ पूछि तो लेयो, हम डेराय काहे से गये .. चलो हमहिं बताय देइत है । टिप्पणिन देखि कै ! भगवानौ अंधेर मचाये पड़ा है, अरे हमार फिकिर नहिं करैं, लेकिन हमरै गुरुअन का तो बक़्स देंय । लोगन की सक्रियता कउने बिल मा बिला जाई, ई महेशौ न बताय पईहैं । धाक की धोती संभारब मुश्किलै जनाय रहा है, अइसन तमाशे मा, हुँह !

तारीख 24.4.08 पोस्ट समय 1.39 PM , मेरे द्वारा देखी गयी  2.50 PM, तबतक प्राप्त टिप्पणियाँ - मात्र 80, अरे रुको तो भाई तारीख 24.4.08 पोस्ट समय वही 1.39 PM, मेरे द्वारा देखी गयी 10.43 PM, तबतक इसी पोस्ट पर प्राप्त टिप्पणियाँ- 215   अब जरा देखा जाय सक्रियता, तारीख 24.4.08 को लिखे गये पोस्टों का समय-  1.39 PM, 4.51 PM, 5.11 PM रात्रि 10.43 PM तक प्राप्त टिप्पणियाँ - क्रमशः  215, 93,186 ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल अब आप ही बताइये कि मैं आख़िर बौखला क्यों रहा हूँ ? क्योंकि ? मेरी हरहा बुद्धि में यह नहीं घुस रहा है कि नवरंग तेल, हाज़मोला वगैरह बेचने का समय इसमें कहाँ छिपा है ?  फिर शूटिंग, जलसे, बयानबाजी ( इंटरव्यू ) इत्यादि अलग से । कहीं यह भी कैडबरीज़ वगैरह सरीखा ही कोई उत्पाद तो नहीं ?

हटाइये मुझको क्या पड़ी है ? बेकार समय बर्बाद किया, इतनी देर में तो शाह हनुमानुद्दीन का साक्षात्कार ही पूरा कर लेता । तो कल कोशिश करूँगा कि इधर न आऊँ,क्योंकि हम पाद भी देते हैं तो हो जाते बदनाम, वह लिसड़े पड़े हैं फिर भी चर्चा नहीं  होता। कुल मिलाकर ऎसा ही लगता है, कि..किस्मत उन्हीं के साथ है । भले ही गाने वाले गाया करें, " ब्लगिया के सब झस्स लई लियो रेऽ ..ऽ ..ऽ, ई इलाहाबादी बुढ़ौना...उड़ उड़ बइठे  पुराणिक दुकनियाऽ ..ऽ ओःहोऽ..उड़ उड़ बइठे फ़ुरसतिया दुकनियाऽ ..ऽ ..ऽ  , धाक्क सक्रीएता सब लई लियो रेऽ ..ऽ, ई इलाहाबादी बुढ़ौना..होऽहः ब्लगिया के सब झस्स..ऊँ उँ उँ ऊँ॓ऽ  ऊँ ऊँ ऎंँआँ आँई  ऊँऔआँ 

इससे आगे

23 April 2008

बचना, ओऽ ..ऽ ख़बीसों....लो मैं आ गयाःऽ

Technorati icon

लोजी लो, मैं तो राँची से लौट भी आया, अब कहोगे कि  अपनी मनगढ़ंत पूरी करो । सो, पूरी तो करना ही पड़ेगा वरना सबलोग क्या कहेंगे ? यही ना कि दो दो ब्लाग का बयाना लिये पड़ा है, वहाँ ' काकचरितम'  अधूरी छोड़, एक मनगढ़ंत पोस्ट को भी अधर में टाँग कर यहाँ टहल रहा है । कल की पैदाइश और ख़लीफ़ागिरी चालू ! बाँयीं आँख भी सुबह से फड़क रही है, इधर शीर्षक में भी ख़बीस घुस आया है, अल्लाह जाने क्या होगा आगे ? कोई भी जीवित या मृत बंधु ख़फ़ा न हों । ख़बीस महोदय क्योंकर आये , यह वही जानें क्योंकि.... मैं  त्त्तो  देबुदा के किल्ले सै जुझ्झ रहा थ्था, ई ब्लगिया अधीक्रित्त्त कर्र रहा थ्था, ब्लगिया अधिकृ नईं हुयी त्तो मैंकिया करूँ सो ख़बीस का ख़ुलासा मेरे बैग में ही पड़ा रहने दें, वह सब बाद में... ' फ़िलहाल तो यह पोस्ट पूरा करना भी पहाड़ लग रहा है ।

ऎज़ आलवेज़ हैपेन्स ... ,दिस पूअर मैन पोज़ेज़ एंड पंडिताइन डिस्पोज़ेज़, करलो जो करना है और इनका हौसला बढ़ाने वाले भी हैं । पंडिताइन उवाच " रेलयात्रा का मोर्चा फ़तह कर लेने से ही क्या होता है ? उस मनगढ़ंत के घुरहू को  पहले जस्टिफाई तो करलो .. वरना लोग क्या सोचेंगे ? " मन हुआ बोलूँ, लोगों की छोड़ो ! तुमको कब से फिकर होने लगी ? लेकिन अँखिया पहले से ही फड़क रही है, हटाओ जाने दो । आज खटखटाय लेयो कुंजी , ओ डाक्दर राज्जा..

                                                     बचना ओ ख़बीसों, लो मैं आगया बाई अमर 

अब घुरहू का साक्षात्कार  लगता है, मुझसे तो  इस जन्म में शायद पूरा नहीं हो पायेगा । यह अकारण ही नहीं ? इसकी एक ज़ेनुइन वज़ह है, श्री घुरहू महाराज मौके पर से फुर्र हो चुके हैं । सावधानी हटी, दुर्घटना घटी जैसा केस है ।

मात्र चार दिनों में ही मेरे इस मानस चरित्र को कतिपय हरफ़न मौलाओं व ज़ब्बरों ने नेपथ्य में धकेल दिया । मुझे अटपटा तो लग रहा है, लेकिन ? यह लेकिन कोई ऎवेंई प्रश्नचिन्ह नहीं, बल्कि ध्रुवसत्य सरीखा  है । ऎसा तो होता ही आया है, और यह शायद कभी हमारी बचीखुची मान्यतायें भी हथिया ले , तो ताज़्ज़ुब न होगा । सारे ढोल तमाशे के बाद, ऎन मौके पर कई सयाणे घुरहू   जैसे आम चरित्र को परे हटा , स्वयं सामने हो सारा फ़ोकस समेट लेते हैं । फोकसवा का सब लाइट लई लियो रे.... लाइमलाइटवा के बनिया .... साक्षात्कार टी०आर०पी० के हिसाब से ख़रीदे और बेचे जाते हैं। बेचारा घुरहू ! वह चिरकाल से इनकी परछाईं में लोप होने को अभिशप्त रहा  है । का करियेगा ? चलिये, यही सही ....

नायक बदल गया तो क्या ? यह बेजोड़ ज़ब्बर , अनायास मेरी पोस्ट का दावेदार बन कर प्रकट हो गया.. चिपक ही तो गये हैं  यह शाह हनुमानुद्दीन , मेरी सोच में !  इसमें दम है,  न कि यह कोई लंतरानी है, सो मैने लपक कर इनको गले लगा लिया। एक चरित्र गढ़ने की मशक्कत से छुट्टी मिली और मेरे मनगढ़ंत पोस्ट को वाक़ई एक वास्तविक चरित्र नसीब हो गया। वैसे भी मुझे चरित्रों का टोटा बहुत कम ही पड़ा है, ज़्यादातर खाँटी ही मिले हैं ।

नाम- शाह हनुमानुद्दीन, बाप- कमरुद्दीन, मुकाम- प्लाट नं 78, चक- न्यू कालोनी, बरियातू रोड, शहर- राँची

अब भला इं० मुकुल श्रीवास्तव अपनी ज़ोरू के भाई से पंगा थोड़े ही लेंगे ? सारी ख़ुदाई से तौला जाता रहा हूँ। जानता तो था कि कोई उनका विशिष्ट सेवक है, जिसे वह लख़नऊ से साथ ले गये थे ।किंतु इतने विलक्षण होंगे, यह न जानता था । इनसे मिल कर लगा कि नाटकीय उत्पत्ति याकि जन्मकथा अकेले कबीर की ही कहानी नहीं है।

अतिरंजित भाषा मेरी सही, किंतु तफ़सीलात बकौल मुकुल ही हैं... Ӂ*

Ӂ* चारबाग़ स्टेशन के सम्मुख स्थित श्री हनुमान मंदिर का निर्माणकार्य जारी था । सन 1981 की कोई सुबह, इसी मंदिर परिसर के पिछवाड़े, एक कुली को नवजात बालक मिला । मज़मा जुट गया, लोग उचक उचक कर देखते, अपनी अपनी हाइपोथिसीस पेश करते, जन्म देने वाली कोख की कल्पना कर-करके गुदगुदाते मन को संभाल,  अपनी लार सुड़कते हुये , ज़ाहिराना तौर पर हज़ारहाँ लानतें भेजते, और वहाँ से सरक लेते ।  रिक्शे से उतर, कमरुद्दीन ने भीड़ में अपनी मुंडी घुसेड़ी, गंध आयी कि माज़रा जरा इत्मिनान का है, सो झट एक बीड़ी दाग कर , धुँआ गुटकते मज़में के केन्द्र में अपनी जगह बनाने में सफल रहे । गौर से बच्चे को देखा, ' रोंयेंदार लाल लाल, आदमी का बच्चा, दोनों हाथ व घुटने समेट कर कुनमुनाता हुआ, '  उनको इस तरह बच्चे में तल्लीन देख अगले ने पूरा का पूरा बच्चा ही उनकी गोद में नज़र कर दिया । ज़नाब बच्चे की सोंधी सोंधी ख़ुशबू, अपनी साँसों में भरते हुये मदहोशी के  आलम में मस्त हुये जारहे थे कि एकाएक सारी भीड़ ख़ाकी वर्दी को आते देख छिटक खड़ी हुई।

' क्या होरहा है बे, मियाँ ?  भीड़ क्यों लगा रखी है और यह सुबह सुबह बच्चा लिये कहाँ डोल रहा है, तेरा है ? ' सवालों की ताबड़तोड़ आमद से मियाँजी खड़बड़ा गये । हाँ-नहीं, ऊँ-आँ करने लगे, कि पिंडलियों पर दो तीन पड़ गयी और मियाँजी होश में आ, माज़रा समझाने की कोशिश में गोंगिंयाते हुये रुँआसे होकर कुछ बताने जा रहे थे कि गरदन पकड़ कर धकेल दिये गये । ज्जास्सालेः, इस गठरी को थाने में दर्ज़ करा कर जमा करवाके आ ।  ख़ाकी नं० 1 हँस रहा था।

बहुत ही बुरा दिन बीता, क़मरूद्दीन का ! दूसरे के रिक्शे से बच्चे को लपेटे सपेटे थाने पहुँचे, पच्चीस सवालों का सामना किया, दसेक गालियाँ खायीं और गरदनिया देकर भगाये गये । अबे स्टेशन का मामला है, फिर यहाँ क्यों मराने आगया ? जा, जीआरपी वालों की पकड़ ! यहाँ दुबारा इस चूज़े के साथ दिखा तो... ! और.. मुंशी अपनी बायीं मुट्ठी में, दायें हाथ से डंडे को  आगेपीछे करते हुये, दाँत पीसता हुआ, अगली बार होने वाले अंज़ाम का ट्रेलर पेश करने लगा। दूसरे जन हो हो कर हँस रहे थे, मानों आवारा कुत्ते के पिछवाड़े पटाख़े की लड़ी बाँधी जानी हो ।

अब आज इतना ही.....शेष कल 

  

 

इससे आगे

16 April 2008

एक मनगढ़ंत पोस्ट !

Technorati icon

भईय्या, पहले ही बता दूँ ताकि हमारे ऊपर कोई  ऊँगली न उठाये कि यह मनगढ़ंत पोस्ट उनकी है, मेरा यह पात्र जिसका साक्षात्कार मैं आपके सामने परोसने वाला हूँ , नितांत मौलिक है । कुछजनों की ऊँगली आदतन बहुत सक्रिय रहा करती है, हमेशा फ़ड़फ़ड़ाती रहती है, पता नहीं कौन टकरा जाये, सो वह अपनी ऊँगली में तेल वेल लगाकर तत्पर रहा करते हैं, तो सही-गलत ठिंये पर लगाने का मौका चूकें ही  क्यों  ? आजकल सुनते हैं कि ब्लागजगत में चोरी चमारी बहुत हो रही है । यह एक अच्छा संकेत है, यानि चोरी का सीधा संबन्ध समृद्धि से है । नंगटे की लंगोट या नकटे की नाक  पर भला कौन अहमक निगाह भी डालेगा ?  वैसे  कल्पना या कपोलकल्पना से परहेज़ करता हूँ, यह मुझे अफ़ीमची की अफ़ीम लगती है । हाँ पल्प फ़िक्शन की बात और है, निख़ालिस मिलावटी गद्य ! फ़िलहाल चेतन भगत उसको दबोचे पड़े हैं, फ़िर भी... यथार्थ से तो दुनिया भरी पड़ी है, वही पकड़ो, जिसमें थोड़ा नमक मिर्च होना लाज़िमी है,  तभी  कुछ  ग्राहक खींच पाओगे ?  अलबत्ता भोगा हुआ यथार्थ लेकर बिसूरते भी न रहो, वरना बइठे रहो अपनी दुकनिया सजाये ! सभी फ़ुरसतिया गुरु की किस्मत लेकर थोड़े आये हैं ?  याकि पाँड़ें की रसोयी कुछ दिन बंद रहे तो पब्लिकिया बिलबिलाने लगे । उनके ब्लागर योग पर गुरु नौंवे घर से बैठा देख है, या मंगल महाराज की प्रबल शुभ दृष्टि है, तो वह बेचारे  क्या करें ? वह तो कहने नहीं गये होंगे ? तो भाई, किसी से जलो वलो मत ! अपना काम किये जाओ । मैं यहाँ सोच कर क्या आया था, और करने क्या लगा ! शायद ऎसा सबके साथ होता होगा, तभी तो  ! आया था कि ज़ल्दी से ( क्योंकि मेरे पास एक ही घंटे का समय है )  कुछ लोगों को टिप्पणी से नवाज़ दूँ, कल बहुत अच्छी पोस्टें पढ़ने को मिलीं । और...लीजिये, मैं स्वयं ही एक पोस्ट बेवज़ह सी लिखने लगा । क्या चीज़ है, यह ठेलास रोग भी ! इससे ग्रसित व्यक्ति पानी भी नहीं माँगता । चलिये, मैं एक मनगढ़ंत साक्षात्कार प्रकाशित किये देता हूँ ।

साक्षात्कार भी एक नयी विधा के रूप में उभर रही है , द हैपेनिंग थिंग आफ़ मार्डन इंडिया ! कुछेक लेने में व्यस्त हैं, तो कुछेक देने में मस्त हैं । बेचारे पाठक औ' दर्शक इन दोनों से त्रस्त हैं , क्योंकि चढ़ते सूरज़ को प्रणाम करने की परिपाटी  सदियों से झेल रहें हैं । अब देखिये, साक्षात्कार भी कैसे कैसे हो रहे हैं ? एक- वास्तविक साक्षात्कार, दो- प्रायोजित साक्षात्कार, जो स्टिंग जैसा कुछ कहलाता है , तीन- आनलाइन लाइव साक्षात्कार, चार- तात्कालिक साक्षात्कार, रमेश जी क्या चल रहा है वहाँ हमारे दर्शकों को बतायें , पाँच- संस्मरण आधारित साक्षात्कार, सेफेस्ट टू प्ले, छेः- मेरा वाला मनगढ़ंत साक्षात्कार !!

मेरे आज के नायक हैं, घूरहू !

मेरा घूरहू - अमर इनके परिचय में कुछ कहना हैलोज़न लैंप को मोमबत्ती दिखाने जैसा है । यह नोटिस में लिये जाने की हद तक मुझसे अक्सर मिलते हैं, और इनके निर्गुन सोच के आगे तो लगता है कि, सब धन धूरि समान

 

 

क्षमा करना मित्रों, मेरी पंडिताइन विक्रम-बेताल के बेताल की तरह लाल पीली होती हुई प्रगट हो गयी हैं।  ' लगता है तुम ट्रेन छुड़वाओगे ?  आज रात में राँची जाना है ( नहीं,नहीं ऎसी कोई बात नहीं है, फिर मैं तो नया ब्लागर हूँ, इसलिये आपको ऎसी ज़ल्दबाजी में निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये ) वहाँ मेरी छोटी बहन रहती है, व 18 को मुकुल-माला सदन के गृहप्रवेश का आयोजन है । अतः पंडिताइन सिर पर सवार है । अभी यहाँ से 4216 पकड़ कर, भिनसारे इलाहाबाद से 2874 पकड़नी है । ( यह ट्रेन पकड़ना कौन सी धातु है ? Boarding का समानार्थी शब्द अपनी हिंदी में क्या है, कोई बतायेगा ? )

तो लौट के आता हूँ, एक थोड़े लंबे ब्रेक के बाद ......... आप भी इधर तीन चार दिन में घूम जाइयेगा । अपने घूरहू की किस्मत ही ऎसी है, व्यवधान तो आयेगा ही, बेचारा घूरहू !

इससे आगे

13 April 2008

ई है बंबई नगरिया, तू देख बबुआ .. ..

Technorati icon

आपणाची मुंबई शंघाई बनने जा रहा है, कब तक ? मैं वापसी के ट्रेन में था, और दो जनों के बीच शायद टाइमपास बातचीत चल रही थी , क्योंकि दोनोंजन एक साथ ही अपने बोलने लग पड़े थे । पीछे की बर्थ से किसी ने चुटकी ली, जब भईय्ये लोग बाहर हो जायेंगे और गौरमिंट आरक्षण वगैरह के विकराल कब़्ज़ियत से फ़ारिग हो लेगी तब ?  पण कवायद चालू आहे

 जरा हटके जरा बचके ये है बांबे मेरी जान - अमर

कुछ फोटू शोटू देख कर आप भी तसल्ली कर लो ।

कचड़ा नहीं-अमरखिलायी नहीं-अमरमान जाओ वरना - अमर

इनको गौर से देखें, व ज़ुर्माने की रकम पर नज़र डालें, अपने ब्राउज़र पेज़ को 150%  पर सेट करेंगे तो सुविधा होगी ।

गदंगी नहीं-अमरधुलाई नहीं-अमर

ज़रा मुस्कुरा दीजिये, शंघाई ज़ल्द आपके द्वारे आ रहा है । ठीक वैसे ही, जैसे सामाजिक समानता आ रही है । प्रतीक्षा करें ।

इससे आगे

या देवि सर्वभूतेषू .... ?

Technorati icon

यह प्रश्नचिह्न, क्यों ? आज षष्ठी है....' षष्ठं कात्यायनी च सप्तमं कालरात्री ', और इस दुर्लभ संधिबेला में , ऎसे पोस्ट  से कहीं अनर्थ तो न हो जाये , कुछ तो माँ से डरो, यह कोई और नहीं, पंडिताइन की भयातुर शंका है । इस पावन नवरात्रि की महिमा, आजकल तो घर घर गायी जा रही होगी, और तुम ? तुम ऎसा करोगे, मैं सोच भी नहीं सकती, छिःह !! यह लेडीज़ लोग, आख़िर क्यों मौके बेमौके अपनी फ़्री टीका मीमांसा प्रस्तुत किया करती हैं ? याकि यह सौभाग्य केवल मुझे ही प्राप्त है ?  

                                                       त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदो भवः - अमर                                                          

सोच तो मैं भी रहा हूँ ! जो बंदा सन 1968-69 के दौर से ही माँ का आँचल पकड़े हुये हो, श्री दुर्गा सप्तशती पर सन 1980-81 तक अधिकार प्राप्त कर चुका हो ( मैं नहीं, लोग ऎसा मानते हैं ) , वह अनायास ऎसी पोस्ट क्यों लिखने बैठ गया ? मन को दो दिन समझाने में लगे, ' मत लिखो, किंवा भाईलोग इसको पब्लिसिटी हथकंडा ही मान लें तो ? ज्ञानू गुरु का पावरपाइंट जड़ित पोस्ट देखा , तो बल मिला कि अपने को व्यक्त कर ही देना चाहिये । शायद पीछे से सुकुल महाराज ( फ़ुरसतिया फ़ेम वाले ) भी कान में गूँज रहे थे , लिखो यार , तुम्हार कोऊ का करिहे ! संशय से उबरा तो फिर, यह डर सताने लगा कि कहीं मैं माँ की चोखेर बाली ( চোখের বালি - means - आँख की किरकिरी ) ही न बन जाऊँ ? इतने वर्षों की सेवा साधना के बाद , पिछले दो वर्ष से व्रत-पाठ इत्यादि छोड़े बैठा हूँ । यहाँ तक तो ठीक था, क्योंकि मेरे आस्था-विश्वास में लेशमात्र भी कमी नहीं आयी है, बस केवल कलश स्थापन, भाँति भाँति के नियम विधानों से उपवास एवं ' हों-हों ' करते हुये सप्तशतीपाठ करना छोड़ रखा है । जबकि यही सब नवरात्रि के दिनों का स्टेटस सिम्बल है ! कई वर्षों तक दशमी को तड़के उठ अपने घर की पूजा से तृप्त हो, पूर्णाहुति के लिये 120 कि०मी० कार भगाता हुआ, गोविन्दपुरी, इलाहाबाद पहुँचा करता था । अकेले मैं ही नहीं, बल्कि राजा नहीं फ़कीर के बेटे अजयप्रताप सिंह, तरुण तेजपाल इत्यादि का तहलका भी वहाँ नियमपूर्वक उपस्थित रहा करता था ।तो फिर,यह प्रश्नचिह्न क्यों ?

                         ्छोड़ गये बलमा-अमर क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणकालिके - अमर छोड़ गये बालम-अमर

यह प्रश्नचिह्न तो  मैं अपने सम्मुख रख रहा हूँ । वस्तुतः ' देवि के सर्वभूतेषू ' होने पर संशय करने की विद्यता, मेरे पास है ही नहीं, और न तो मैं चार्वाक का चेला ही हूँ । मार्कण्डेय महाराज भी उवाचते रहे हैं, ' भविष्यति न संशय : '   बल्कि इसी सम्पुट के साथ वह ऊँघते श्रोता को जगाते भी रहे हैं, जैसे इस युग में राहत कोष की घोषणा करके उखड़ती हुई पब्लिक को जगाया जाता है । सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥ फिर ? लफ़ड़ा कहाँ है, संशय क्या है ? आस्था में तर्क का स्थान तो RAC में भी नहीं है, फिर बवाल क्यों काट रहे हो ?

बिल्कुल वाज़िब बात  बोले हैं, आप ! तो, सुनिये ... जितना अध्याय सुन सकते हों, उतना ही सुनिये । फिर बोलियेगा !  पूरे नवरात्रि में ऎसा अफ़रातफ़री लोग मचाये रहते हैं कि मेरी भैंस बुद्धि पानी में गोते खाने लगती है, भले ही वह कितना गंदा हो । कलंकित माथों पर भी लाल टीके चमचमाने लग पड़ते हैं, इतना लाल.. कि एकबारगी तय कर पाना कठिन होता है कि यह डैंज़र आदमी है या कोई सिद्ध पुरुष, जो सीधे माँ के पास से  महिषासुर का रक्त  ही उड़ा कर ले आया हो । आप इस सकते से उबर गये हों और ख़ुदा न ख़ास्ता वह महापुरुष आपके परिचित हुये तो वह सार्वभौमिक श्वानपरिचय के अंदाज़ में आपको सूँघते हैं, ' सर, आप तो व्रत होंगे ? ' अब यह सीधे आपके ठसके पर प्रहार है, या तो आप खिसिया लीज़िये, ' नहीं, थोड़ी तबियत खराब थी, शरबत वरबत पीना पड़ता सो मिसेज़ ने मना कर दिया । ' अब यहाँ एक दूसरे किस्म का सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है । आपका मातहत है,या आपके पास कोई फँसी गोट नवरात्रि में ही सुलटा लेने के संकल्प से टीकायमान हो घर से कूच किया है, तो वह चेहरे से कनस्तर भर सहानुभूति ढरकाता हुआ दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठा देता है, ' सब माँ की इच्छा, भला करें माई ' , यदि आपके चेहरे पर फूँक न दे तो कुशल समझें । अच्छा चलो, मान लेते हैं कि आपमें कुछ ठसका ठुँसा पड़ा है, फिर क्या कहना ?

आप फ़ौरन तमक कर  कहते हैं, ' नहीं यार, व्रत है । ' मत चूके चौहान, मोर्चा खोल ही दो, आन बिहाफ़ आफ़ होल फ़ेमिली , ' हमारे यहाँ पूरा परिवार, बल्कि बच्चे भी व्रत हैं, दसियों साल से ! ' थोड़ा ज़्यादा हो गया, दो कदम पीछे हट लो, गुरु । आप संशोधन पेश करते हैं, ' बशर्ते बच्चा घुटनों के बल न चल रहा हो, हमारी तो कुलदेवी ठहरीं, दद्दू ! ' कह कर माँ की परमानेंन्ट पोस्टिंग अपने यहाँ होने की तस्दीक़ कर ही दीजिये । अगला भगत, तो स्वयं ही चुप हो जायेगा ।

लेकिन क्यों चुप हो जाये ? भगवान ने जब फाड़ने को मुँह दिया है, तो क्यों चुप हो जाये ? गाल बजाना हमारी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है । केन्द्र से आरंभ हो कर, यह महामारी राज्य तक ही नहीं थमती बल्कि अपुन के घर-परिवार तक को संक्रमित किये हुये है ।यह विषय, फिर कभी !क्योंकि मैं भी तो यही कर रहा हूँ तो ज़नाब, डिफ़ेंस को तैयार रहें । एक भेदभरी निग़ाह आप पर टिकी हुई है, " पूरा कि सिर्फ़ अगला-पिछला ? " यह कोई पब्लिक प्रासेक्यूटर नहीं, नारद मुनि का रिपोर्टर है, नारायण नारायण, पूरा नवरात्रि स्पेशल बुक करवाये हो कि सिर्फ़ इंज़न औ' गार्ड के डिब्बे से काम चलाय रहे हो ? खैर छोड़ो, अब शुरु होता है... पाँचवी पास वाला सवाल, " एक टाइम खाते होंगे, फलाहारी नमक वाला ? " कलश भी बैठाते हैं कि केवल रात में छान-फूँक कर ही इतिश्री कर लेते हैं ? " आप तन जाते हैं,' नहीं भाई, पंडित आता है ।वही छज़लापुर वाला,विद्वान है !' यह आपका बड़प्पन हैं कि आपने स्वीकार तो किया कि ' माताजी ' को रिझाने में आप स्वावलंबी नहीं अपितु छज़लापुर वाली पार्टी को निविदा थमाये पड़े हैं।पार्टी  इसलिये कह रहा हूँ,क्योंकि पंडित महाराज की एक पूरी टीम है, सीज़नल मस्टर रोल वाले से लेकर मेट-सुपरवाइज़र तक ! बाकी मैनेज़ वह स्वयं ही करते हैं, यजमान के स्टेटस के हिसाब से किसको कहाँ फ़िट करना है, यही उनकी विद्यता है।फ़कत700 श्लोक तो कोई भी बाँच देगा।

या देवि सर्वभूतेषू  वृत्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                     तो पंडित महाराज वृत्तिनुसार ही आचरण कर रहें हैं। चलिये कोई बात नहीं, इसमें कोई त्रुटि नहीं है, जग की रीत है , लेकिन सरजी, जरा ख़ुद से, स्वयं, परसनली देख लीजियेगा कि कलश सही दिशा में स्थापित करवाया है कि नहीं ? हम भी कुछ तो जानते ही हैं, माताजी की दया से..,एक संक्षिप्त चुप्पी  इसीलिये अपना समझ कर कह रहे हैं। अउर झेलौ, ई लेयो एकठईं स्लो पेस बाल ! फिर आपका भविष्यति न संशयः तिरोहित हो जाता है, और एक नयी दुविधा के साथ आप घर में प्रविष्ट होते हैं, मन में चल रहा है, साले प्रुफ़ेसनल होय गये हैं सब । वर मरे या कन्या इनको द्क्षिना से मतलब, यही घोर कलयुग है । इससे पहले कि, अपना संशय आप श्रीमती जी को पकड़ायें, वह स्वयं ही आपको देख लपक पड़ती हैं । पल भर आपको निरख कर बिलख पड़ती हैं," अब कुछ करो, गुड्डी के पापा, हमरी तो तपस्या भंग हुई जा रही है । अबकी बार एकठईं बेटवा का माने हुये हैं, अउर देखो ई परेसानी खड़ी होय गई । सोनम की मम्मी आयीं रहीं,बताइन कि अबकी मोहल्ले में पाँचें-छेः कन्या रह गयीं हैं। दुई दिन बचा है,उई दुष्टा अब बताइन, बताओ हम्म का करें ? हमतो नौ कन्या खिलावे का माने बइठे हैं।

या देवि सर्वभूतेषू क्षुधारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                    आप क्या करेंगे, भला ? दोस्तों को फोन वोन करके देखते हैं, कुछ व्यवस्था बनानी पड़ेगी । लेकिन साले मज़ाक उड़ायेंगे, किसको दोस्त समझें इस कलयुग में । साले मौज़ लेंगे कि दुई बिटिया तो तुम अपनी मेहरिया की घरे में गिरवा चुके हो, अउर अब बाहर बिटिया हेर रहे हो ! इनमें कुछ देवित्व बचा है, शायद तभी गुड्डी की मम्मी ने मन पढ़ लिया, रास्ता दिखाया, "उपाध्याय से बात करो, ऊ तो नया आया है और अभी नहीं जानता होगा । उसके तो दुई बिटिया हैं, चलो मईय्या रस्ता निकाल दिहिन ।" अपार संतोष से ठुमक कर वह पलट पड़ती हैं । आप इस बेला एकदम कनफ़्यूज़ियाये हैं, " अरे, दो कहाँ है ? एक ही तो है, दो-तीन साल की लड़की,और दूसरी?" गुड्डी की मम्मी तो अब पूरे मौज़ में हैं, समिस्या हल होती जान मस्त हुई जाती हैं । "भूल गये, वह बड़ी वाली भी तो है, छैःसात वाली, अरे जिसका डांस जेसी मेले में हुआ था ।" और वह लहकते हुये घूम कर, अपनी स्थूल कमर को मटकाने का प्रयास कर, याद दिलाने की चेष्टा करती हैं,"छोटी सी उमर में लग गया रोग.., लग गया रोऽग..म्मईं मर जाऊँगी...ओऽ ओऽ म्मईं मर जाऊँगी, ले आओ उसी को, लगेहाथ एक्ठो नाच वाच भी देख लेंगे ।"

     3हाय कन्या-अमर 2क्रीं कालिके -अमर 1दहेज़प्रताड़ना-अमर

या देवि सर्वभूतेषू भ्रान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                   अरे नहीं, फोन वोन करना ठीक नहीं, इस समय लड़कियों की शार्टेज़ चल रही है, साला कहीं टरका न दे। आमने सामने बात करना ठीक रहेगा, अभी आता हूँ " कह कर आप कलशा-वलशा भूल फ़ौरन पलट पड़ते हैं । ससुरी पीछे से टोकेगी ज़रूर, कुलक्षनी ! " इत्ती रात को ? कल चले जाना ।" आप ज़ब़्त करके बोलने हैं, ' सक्सेनाजी के यहाँ भी हो लेंगे, रास्ते में पड़ते हैं । आज देवी जागरण रक्खा है ।' यह कमबख़्त मानेगी नहीं ,"कियूँ?"  उनसे  स्कूप आफ़ द नौरात्र छूटा जा रहा है, गुड्डी की मम्मी के स्वर से अधीरता चिंघाड़े मार रही है । लौट कर तो घर ही आना है, पंगा टाल जाओ, देवीचरन ! पिछली नवरात्रि में ही तो छोटी सी बात का इतना बतंगड़ हो गया था, कि इनको पीटना पड़ गया, तब जाकर इनकी तरफ़ से सीज़फ़ायर हुआ था । हे माँ, इस बार ऎसा न हो ।

या देवि सर्वभूतेषू बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                        बुद्धि से काम लो, देवीचरन । काल बताये सो आज बताय, आज बताय सो अब्ब, नहीं तो बहुरिया पल में प्रलय  दिखाय कब्ब ! आप दरवाजे पर ही ठिठक कर खुलासा करते हैं, 'अरे, वो माया वाला केस नहीं था, उनकी मँझली बहू ? मारत पीटत रहें सो केस करवा दिहिस था, अपने मयके में ? बाप पेशकार हैं सो पइसा कउड़ी तो खरच नहीं होना था । सक्सेनवा जमानत तो पाय गये लेकिन तीन साल से बँधें बँधें घूमत रहे, वही मईय्या से माने रहें सो माँ की कृपा होय गयी, अचानक आउट आफ़ कोर्ट सेटल हुई गया, मामला । ये बेचारे भी सोफ़ै अल्मारी में संतोष कई ले गये । बिन्धाचल-उचल माने रहें, लेकिन जागरण करवाय रहे हैं । मईय्या ने नहीं बुलाया होगा ।

या देवि सर्वभूतेषू विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                              उपाध्याय के मकान से चार मकान पहले ही सक्सेनाजी विराजते हैं, पहले वहीं चलें । उपाध्ययवा तो जूनियर है, उसका बाप भी दरवाज़ा खोलेगा या फिर माँ ने चाहा तो यहीं मिल जायेगा, पहले यहीं चलें । जागरण पूरे शबाब पर है, कानपुर की पार्टी है, लेकिन सस्ते में पाय गये । लौंडे मस्त हो कर हाथ पैर फेंकते हुये, पसीने पसीने हुये जा रहे हैं । स्टेज़ से उनको लगातार ललकारा जा रहा है, 'ऊँ ऊँ ऊँ..दरँस दिख्ला जा दरँस दिख्ला जा, एक्क बार आज्जा आज्जा.. आज्जा आज्जा ऽ माताऽ ..ऽ ..ऽ , ओ मात्ता मात्ता मात्ता मात्ता.. मात्ताऽ ..ऽ ..ऽ मात्ता मात्ता मात्ता मात्ता.. मात्ताऽ ..ऽ ..ऽ

या देवि सर्वभूतेषू  भी मगन हैं, क्या ? जरा देखूँ । देखा तो, हमारी माँ  हैलोज़न से आकर्षित हुये भुनगे पतंगों से आच्छादित हैं, कोई भी हाथ खाली नहीं कि वह कुछ प्रतिरोध भी  कर सकें ।  मैं उन पर टकटकी लगाये स्तुति कर रहा था , श्रीदुर्गेस्मृताहरषि  भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभांददासि ..                                                  सहसा लगा कि इस माँ भी इसी आर्केस्ट्रा के साथ विलाप कर उठेंगी, इन्हीं लोगों ने..इन्हीं लोगों ने ले लीना महत्ता मेराऽ

यदि आप मेरी बकवास पर अब तक टिके हुयें हैं ,तो धन्यवाद ! यह थी मेरे कर्मकांडी आडंबर से विमुख होने की कथा  देवि की महत्ता का बखान व इस महत्ता का आदर, दोनों में आप किसको कितना महत्व देते हैं, यह मेरा विषय नहीं है

यह केवल मेरे असहमत मौन का स्वर था । तो चलें ?नमस्कार !                                                                                                                                         या देवि सर्वभूतेषू ब्लागरूपेण संस्थिता ।  नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥             

इससे आगे

08 April 2008

नंगे सच की माया

Technorati icon

क्षमा करें या छोड़िये क्षमा नहीं माँगता, ज़रा आप ही सहायता कर दें !                                                              जरा बतायें कि इस पोस्ट का उचित शीर्षक क्या होना चाहिये था , नंगे सच की माया या  माया का नंगा सच ? जो भी हो, आपके दिये शीर्षक में एकठो नंगा अवश्य होना चाहिये, वरना आपको भी मज़ा नहीं आयेगा ! वैसे राजनीति पर कुछ कहने से मैं बचता हूँ । एक बार संविद वाले चौधरी के बहकावे में, मै ' अंग्रेज़ी हटाओ ' में कूद पड़ा था, अज़ब थ्रिल था, काले से साइनबोर्ड पोतने का ! लेकिन इस बात पर, मेरे बाबा ने अपने  इस चहेते पोते को धुन दिया था, पूरे समय उनके मुँह से इतना ही निकलता था, "भले खानदान के लड़के का बेट्चो ( किसी विशेष संबोधन का संक्षिप्त उच्चारण, जो तब मुझे मालूम भी न था ) पालिटिक्स  से  क्या मतलब ? " यह दूसरी बार पिटने का सौभाग्य था, पहली बार तो अपने नाम के पीछे लगे श्रीवास्तव जी  से पिंड छुड़ाने पर ( वह कहानी, फिर कभी ) तोड़ा गया था । खैर....

आज़ तो सुबह से माथा सनसना रहा है, लगा कि बिना एक पोस्ट  ठेले काम नहीं चलेगा, सो ज़ल्दी से फ़ारिग हो कर ( अपने काम से ) यहाँ पहुँच गया । पीछा करते हुये पंडिताइन  भी  आ  धमकीं, हाथ में छाछ का एक बड़ा गिलास ( मेरी दोपहर की खोराकी ! ) ,तनिक व्यंग से मुस्कुराईं, " फिर यहाँ, जहाँ कोई आता जाता नहीं ? " बेइज़्ज़त कर लो भाई, अब क्या ज़वाब दूँ मैं तुम्हारे सवाल का ? अब थोड़ी थोड़ी ब्लागर बेशर्मी मुझमें भी आती जारही है, पाठकों का अकाल है, तो हुआ करे ! ज़ब भगवान ने ब्लागर पैदा किया है, तो पाठक भी वही देगा , तुमसे मतलब ?  आज़ तो लिख ही लेने दो कि सुश्री मायावती, नेहरू गाँधी के बाथरूम में मिलीं ! कभी कभी यह पंडिताइन बहुत तल्ख़ हो जाती हैं,' जूता खाओगे, पागल आदमी !' और यहाँ से टल लीं । मुझको राहुल बेटवा या मायावती बहन से क्या लेना देना, लेकिन यह लोकतंत्र का तीसरा खंबा मायावती की मायावी माया में टेढ़ा हुआ जा रहा है, इसको थोड़ा अपनी औकात भर टेक तो लूँ, तुम जाओ अपना काम करो ।

मुझसे यानि एक आम आदमी से क्या मतलब, कि राहुल अपने घर में इंपीरियल लेदर से नहाते हैं या रेहू मट्टी से ? चलो हटाओ, बात ख़त्म करो, हमको इसी से क्या मतलब कि वह नहाते भी हैं या नहीं ? हुँह, खुशबूदार साबुन बनाम लोकतंत्र ! लोकतंत्र ? मुझे तो लोकतंत्र का मुरब्बा देख , वैसे भी मितली आती है, किंन्तु ... !

आज़ सुबह के हिंदुस्तान में मुखपृष्ठ की ख़बर है, यह तो ! आख़िर अपनी गौरा दीदी ( शिवानी ) की बिटिया मृणाल पांडे ने छापा है, नवीन जोशी साहब ने भी इसकी तस्दीक कर इशारा किया होगा, जानेदो की हरी झंडी दी होगी, तभी तो ! भला, मैं जूता क्यों खाऊँगा ? तुमने ही तो कल ईटीवी-उत्तर प्रदेश  पर देख कर बताया था ।

सुश्री मायावती का सार्वज़निक बयान कि " यह राजकुमार, दिल्ली लौटकर ख़सबूदार ( मायावती उच्चारण !! ) साबुन  से नहाता है ।" मेरी सहज़ बुद्धि तो यही कहती है, बिना राहुल के बाथरूम तक गये , ई सबुनवा की ख़सबू उनको कहाँ नसीब होय गयी ? अच्छा चलो, कम से कम उहौ तो राहुल से सीख लें कि दिन भर राजनीति के कीचड़ में लोटने के बाद, कउनो मनई खसबू से मन ताज़ा करत है, तो पब्लिकिया का ई सब बतावे से फ़ायदा  ? दलितन का तुमहू पटियाये लिहो, तो वहू कोसिस कर रहें हैं ! दलित कउन अहिं, हम तो आज़ तलक नही जाना । अगर उई इनके खोज मा घरै-घर डोल रहे है, तौ का बेज़ा है ?

माफ़ करना बहिन जी, चुनाव के बूचड़खाने में दलित तो वह खँस्सीं है, वह पाठा है, कि जो मौके पर गिरा ले जाय, उसी की चाँदी ! दोनों लोग बराबर से पत्ती, घास दिखाये रहो । जिसका ज़्यादा सब्ज़ होगा, ई दलित कैटेगरी का वोट तो उधर ही लपकेगा । ई साबुन-तेल तो आप अपने लिये सहेज कर रखो, आगे काम आयेगा ।                                                                     पता नहीं कब चुनाव पर्व का नहान डिक्लेयर हो जाये ?

नंगे सच की माया - अमर

एक कुँवारी-एक कुँवारा ! बेकार में, काहे को खुल्लमखुल्ला तकरार करती हो ? भले मोस्ट हैंडसम के गालों के गड्ढे में आप डूब उतरा रही हो, लेकिन पब्लिकिया को बख़्स दो । सीधे मतलब की बात पर आओ, हम यानि पब्लिक मदद को हाज़िर हैं । ई साबुन-तौलिया वाला नंगा सच, तुम्हारे लिये भले हो किंतु हमरी बिरादरी तो इसे कुरूप झूठ मान रही है । ब्लागर वोट बैंक को कम करके मत आँकों,  सुश्री बहिन जी !

राहुल के तरफ़दार अगर अपने बयान में जड़ दें कि हैंडसम की फोटू तुम्हरे बेडरूम के सिंरहाने पर लगी है, तो ? सोनिया बुआ, आख़िर ऎसे ही तो नहीं गुनगुना रहीं होंगी,                                    " मेरा लउँडा होआ बैडनेम, नसीबन तिरे लीये...ऽ ..ऽ

अजी बहुत हो गया, छोड़िये भी । तो फिर, मैं भी चलता हूँ, नमस्कार  !

इससे आगे

07 April 2008

यह करूँ या वह ? क्या सही है, क्या ग़लत ?

Technorati icon

जब जब जीवन में

प्रश्न खड़े हों

जब जब दोराहे पर

ठगे खड़े हों

पार्थ औ' सारथी

सुदूर खड़े हों

अपने अंतर्मन में निहित ईश्वर की,

औ' अंतरात्मा को ही परमात्मा जान

सच्चे मन से बात सुनें

इस सर्वव्यापी सत्य और

इस अविनाशी की सुनें

' न केवल नया पथ फूटेगा,

अपितु रास्ते का पत्थर ही, स्वयं

एक प्रशस्त मार्ग का, सीढ़ी बनेगा

क्योंकि ईश्वर आप जैसों ही

धरती पर रच रहा है

अपने अस्तित्व का संदेश लिये

नई आस, नये विश्वास औ'

नये उमंगों का उन्मेष लिये

नव संवत्सर, नयी उपलब्धियों से

सबका जीवन परिपूर्ण करे

ईश्वर का आशीष

सबको सुख-आनंन्द से सम्पन्न करे

इन्हीं सदिच्छाओं के साथ

नववर्ष की हार्दिक बधाई !

अमर

नववर्ष मंगलमय हो

अमर

इससे आगे

यह करूँ या वह ?

Technorati icon

ऎसे प्रश्न जीवन में सबके साथ आते हैं ? एक असंमजस सदैव खड़ा चिढ़ाता है, यह ठीक है या वह ?

क्या करें, यह कौन बताये ?

अर्जुन तो क्या अभिमन्यु हैं हम

गीता का उपदेश कौन सुनाये

शेष......यहाँ पढ़ें > > click here>>>..

इससे आगे

06 April 2008

मेरी खुपड़िया में लागा....चोर

Technorati icon

खोपड़ी बहुत बड़ी चीज़ है , यारों । इंसान के पास आख़िर खोपड़ी के सिवा और कुछ है भी तो नहीं । हर छोटा बड़ा, खोटा खरा अगले को अपनी खोपड़ी का लोहा मनवाने में ही अपनी आन बान शान समझता है । देखा जाय तो ठीक भी है, मैं इसका बुरा नहीं मानता । हम लालाओं ( कायस्थों ) की तो जमापूँजी ही, यही है । सारी दुनिया ईर्ष्या से जली जाती है । लाला की खोपड़ी की तुलना पता नहीं किस किस '...ड़ी ' से की जाती है, तो हुआ करे ! जलने वाले जला करें, खोपड़ी हमारे पास है ! मेरी पंडिताइन को देख अगर कोई कमेंन्ट करता था, तो मैं उलझता नहीं बल्कि लक्का कबूतर हो जाता था, कुछ तो है... हमारे साथ, तभी तो ?  बिसनौटे क्या ख़ाक कमेंन्ट लिया करेंगे ! अलबत्ता अपना ब्लागजगत इसका अपवाद है , हुआ करे । मैं तो यदा कदा पोस्ट ठेलता ही रहूँगा । अपने किशन भगवान भी गीता में शायद कहीं पर, यह कहते हुये सुने गये थे कि,' पोस्ट किये जा, टिप्पणी की चिन्ता मत कर ।'

यदि आप वाकई गंभीरता से पढ़ रहे हों, तो मैं आगे बढूँ ? फिर ठीक है, आप इसको अतिशयोक्ति तो नहीं मान रहे हैं । अपना भेज़ा..और दूसरे का पैसा सबको अथाह लगता है, फिर मुझे क्यों नहीं ?  पैसा तो हमारे वित्तमंत्री महोदय इस बुरी तरह फ़्राई किये दे रहे हैं कि वह धुँआ दे देकर सिकुड़ता ही जा रहा है । अपुन को कोई चिन्ताइच नहीं, पैसे को हमेशा से मैल समझा गया और मैं इस समझदारी का आदर करता हूँ । अब रह गया भेज़ा , तो जब से फिलिम वालों की कुदृष्टि भेज़े पर हुई मुझे थोड़ी चिन्ता अवश्य हुई कि अब यह खुल्लमखुल्ला भेज़ा फ़्राई करने पर उतारू हैं, और अभी हाल में एक भेज़ा फ़्राई परोसा भी जा चुका है । आज़ भी यह पोस्ट न लिखता, लेकिन ' ख़ुदा के लिये ' के कुछ संवाद , जो मुझे अपने कापीराइट लगते थे, सुने तो लगा कि उरे बाबा, यह पड़ोसी मुलुक वाला हमारा डायलाग कहाँ से टीप दिया रे ! फौरन पहुँचो ब्लागर पर और अपना हक़ पेश करो, वरना वहाँ भी कोई दावा ठोक देगा । यहाँ स्टे ले आओ, शोयब मंसूर से तो बाद में निपटेंगे । वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल अपने बस का ना है । मन्नै तो अपणा ज़िल्ला अदालत भी भित्तर से ना देक्खा । ( द्विवेदी जी,अन्यथा न लें । हमलोग तो मौसेरे भाई हैं ) हाँ, मैंने फ़िल्म तो पाइरेट बे टोरेंट से डाउनलोड करके अलबत्ता देखी है, केवल यह सोच कर कि, " देखें हमारे पड़ोसी ने क्या राँधा है ? यह  ख़ुशबू कैसी है ? वैसे पाकिस्तानी स्टेज़ का तो मैं मुरीद हूँ । "

ज़नाब शोयब मंसूर साहब ने इस फ़िल्म में संवाद बुलवाये हैं, " दाढ़ी में ही दीन नहीं औ' दीन में दाढ़ी नहीं " फिर आगे उन्होंने इसका तफ़सरा किया है कि ज़िन्ना व इक़बाल के दाढ़ी नहीं थी और वह पतलून ही पहना करते थे, ख़ुदा के वास्ते दीन को दाढ़ी से न जोड़ो !  आपने बज़ा फ़रमाया ज़नाब लेकिन यह ज़ुमला तो मैंने 1971-72 के दौर में अपने छात्रावास में उछाला था, इसे आपने कहाँ से लपक लिया ? हो सकता है, सरहद लाँघ कर मेरी फ़्रीक्वेंसी आपके ज़ेहनियत से मिल गयी हो या फिर बाकी लोग भी ऎसाही कुछ महसूस करते रहें हों लेकिन ज़ुबाँ पर ताला मारे बैठे हों । जो भी हो, मैं तो यही कहूँगा कि, " मेरी खुपड़िया में लागा चोर..मुसाफ़िर, देख पड़ोस की ओर.." ! वैसे, आपका यह बयान काबिले तारीफ़ है मंसूर साहब , ग़र यह आपने महज़ तालियाँ बटोरने को इस फ़िल्म में चस्पाँ न किया हो !

क्योंकि मेरा ज़ाती तज़ुर्बा तो कुछ  और ही ढंग से नुमायाँ हुआ था । अपने एम०बी०बी०एस के दौरान हास्टल में मैंने पाया कि बाँग्लादेश की मुक्ति के बाद हमारे चंद मुस्लमीन भाईयों का मिज़ाज़ ही कुछ बदला हुआ है । ज़ल्द ब ज़ल्द नज़रें मिला कर बात तक न करते थे । बड़ी क़ोफ़्त होती थी, क्यों भाई ? समर्पण तो ज़नरल नियाज़ी ने किया है, पाकिस्तान की फ़ौज़ें हारी हैं । भला आपकी नज़रें नीची क्यों ?  मेरे मित्र व रूम पार्टनर अशोक चौहान मुझपर खीझा करते थे, " यार, तुम बलवा सलवा करवाओगे ", बेनाझाबर, चुन्नीगंज़ वगैरह ज़्यादा दूर भी नहीं था । फिर यह दिखने लगा कि उनमें से चंद शख़्शियत दाढ़ी रखने लगी, हैलेट की ड्यूटी से फ़ारिग हो, हास्टल आते ही ऎप्रन वगैरह फेंक फाँक अलीगढ़ी पोशाक पहन कर टहला करते थे, और सिर पर गोल टोपी !

हालाँकि, मेरे मित्रों में इक़बाल अहमद जैसे भी थे, जो हर मंगलवार को एच०बी०टी०आई के अंदर वाले शार्टकट से नवाबगंज़ हनुमान मंदिर भी जाया करते थे । बाकायदा माथा टेकते थे, हँस कर कहते कि , यार अपने पुरखों ने जो ब्लंडर मिस्टेक किया उसकी माफ़ी माँग लेता हूँ । मेरे व्रत तोड़ते ही एक सिगरेट सुलगा मेरे संग शेयर करते थे, तब 60 पैसे डिब्बी वाली कैप्सटन अकेले अफ़ोर्ड कर पाना कठिन होता था । उसके आधे दाम में चारमीनार आया करती थी, हम लोगों के अध्ययन के घंटों की अनिवार्यता थी, वह तो ! इसलिये लक्ज़री में शुमार नहीं की जाती थी ।

दूसरी तरफ़ इमरान मोईन जैसे शख़्स भी थे, जो इक़बाल अहमद सरीखों पर लानतें भेजा करते । इमरान मोईनुल यानि कि एक कृशकाय ढाँचें पर टँगा हुआ छिला अंडा, जिससे लटकती हुई एक अदद बिखरे हुये तिनकों सी कूँचीनुमा दाढ़ी , पंखे की हवा में दाँयें बाँयें डोला करती । बातें करते हुये वह बड़े नाज़ से उसे सहलाते रहते । एक दफ़ा किसी बात पर उनकी रज़ामंदी वास्ते मैंने लाड़ से उनकी दाढ़ी सहला दी । ऊई अल्लाह, यह तो लेने के देने पड़ गये । मियाँजी पाज़ामें से बाहर थे, गुस्से से थरथर काँपते हुये बोले, ' अमर , हमसे दोस्ती करो, हमारी दाढ़ी से नहीं । आइंदा यह हरकत की तो निहायत बुरा होगा ।'  एकाएक मैं कुछ समझा ही नहीं, बस इतना समझ में आ रहा था कि इनको पटक दूँ फिर पूछूँ , ' बोल, क्या निहायत और क्या बुरा होगा । अलग अलग करके बता कि क्या कर लेगा ? '  लेकिन जैसा कि शरीफ़ आदमी करते हैं, यह सब मैं मन ही मन बोल रहा था । उनसे तो ज़ाहिराना इतना ही पूछा, यार तेरी दाढ़ी की क़लफ़ क्रीज़ तक डिस्टर्ब नहीं हुई, फिर तू क्यों इतना डिस्टर्ब हो रहा है ? ज़नाब चश्मे नूर फिर बिदक गये, 'तुम साले क्या जानो , दाढ़ी का ताल्लुक़ हमारे दीन से है ! इस पर हाथ मत लगाया करो, समझे कि नहीं ? अब मुझे भी 100% असली वाला गुस्सा आ गया, " चलो घुस्सो ! अग़र दाढ़ी में ही दीन है तो बैठ कर अपना दीन सहलाते रहो । " और उनके इनसे-उनसे भविष्य में संभोग कर लेने की कस्में खाता हुआ , मैं वहाँ से पलट लिया ।

वह पीछे से चिल्ला रहे थे, " तुम सालों भी तो चुटइया रखते हो और अपने धरम को उसमें बाँधे बाँधे तुम्हारे पंडे घूमा करते हैं, जाकर उसको सहलाओ, फिर मेरी सहलाना । "  हमारे इक़बाल भाई , जो  स्वयं ही सफ़ाचट्ट महाराज थे, मेरे इस डायलाग के पब्लिसिटी मॆं जी जान से जुट गये और लगभग सफ़ल रहे । ख़ुदा उनको उम्रदराज़ करे, आजकल कैप्टेनगंज़ में हैं । तो यह थी एक डायलाग सृजन की कथा !

पोस्ट लंबी हो रही है, चलते चलते इसी संदर्भ की एक अन्य घटना का ज़िक्र करने की हाज़त हो रही है । तो, वह भी कर ही लेने दीजिये, कल हो ना हो ! कुछेक वर्ष पहले शाम को मेरे क्लिनिक में एक सज्जन आये । लहीम सहीम कद्दावर शख़्सियत के मालिक , वह बेचैनी से बाहर टहल रहे थे यह तो काँच के पार दिख रहा था, लेकिन मेरा ध्यान बरबस खींच रहे थे । उनसे ज़्यादा मैं उतावला होने लगा कि इनकी पारी ज़ल्द आये, देखूँ तो यह कौन है ? खैर, वह दाख़िल हुये, बड़े अदब से सलाम किया, फिर अपना तआर्रूफ़ दिया कि मुझे नक़वी साहब ने भेजा है और मुझे यह वह तक़लीफ़ है । मेरे मुआइने के बाद, वह फिर मुख़ातिब हुये , " डाक्टर साहिब, दवाइयाँ कैसे लेनी हैं, यह निशान बना दीजियेगा । "  मैं हिंदी में ही अपने निर्देश लिखता हूँ, इसलिये थोड़े ग़ुमान से बोला अंग्रेज़ी-हिंदी जिसमें चाहें लिख दूँगा । वह फ़ौरन चौंक पड़े, प्रतिवाद में बोले कि उनको हिंदी अंग्रेज़ी नहीं आती लिहाज़ा निशान के ज़रिये ही समझ लेंगे । अब मैं चौंका, क्या चक्कर है ? अच्छा भला पढ़ा लिखा लगता है, सन्निपात के लक्षण भी नहीं दिखते फिर भी कहता है कि पढ़ना नहीं जानता !

मेरे चेहरे को वह अलबत्ता पढ़ ले गये । थोड़ी माफ़ी माँगने के अंदाज़ में बोले, "मैं दरअसल बिब्बो की शादी में कराची से आया हूँ, और सिंधी ( मुल्तानी पश्तो लिपि का मिला जुला रूप ) व उर्दू के अलावा कुछ और नहीं पढ़ पाते । उनकी परेशानी समझ मैंने बड़ी सहज़ता से लिखना शुरु किया ....

ايک ايک دن ٔم تين بار ک کپسول روذ رات

क एक दिन में तीन बार, एक कैप्सूल रोज़ रात

लो,जी ! वह फिर चौंके, थोड़े अविश्वास से कुछ पल मुझे देखते रहे । मेरे माथे पर एक छोटा सा लाल टीका, बगल में माँ दुर्गा कि मूर्ति...कुछ संकोच से पूछा, ' आप तो हिन्दू हैं ? ' हाँ भाई, बेशक ! बेचारे हकला पड़े, " तो..तो, फिर यह उर्दू आपके ख़ुशख़त में कैसे ? " अच्छा मौका है, चलो एक सिक्सर ठोक दिया जाये । मैंने कहा , ' मैं क्यों नहीं लिख सकता ? क्या उर्दू आपकी ही मिल्कियत है ? उर्दू भी तो आप इसी मुल्क़ से ले गये हैं ! '  एकदम से खड़बड़ा गये श्रीमान जी," नहीं नहीं हम लोगों को वहाँ कुछ और ही बताया जाता है । "  मैदान फ़ेवर कर रही है, मत चूके चौहान ! इस बार बाउंड्री पार करा दो, अमर कुमार ! अतः मैंने हँस कर कहा, ' यही न कि क़ाफ़ (    ک  )  से क़ाफ़िरکافر     ) , जिसमें धोती कुर्ता में एक आदमी दिखाया गया है, और हे ( ح   ) से हिंदू (    حندو   ) जिसमें एक सिर घुटे चुटियाधारी पंडितजी तिलक लगाये हुये अलिफ़ अव्वल की क़िताबों में बिसूर रहे हैं । ' एकदम से खिसिया गये, चंद मिनट पहले उनका फटता हुआ माथा जैसे फ़िस्स हो गया , " यह तो अब सारी दुनिया जानती है कि हमारे हुक़्मरानों ने पाकिस्तान को क्या दिया और दे रहे हैं । वापस जाने से पहले एक बार आपसे फिर मिलूँगा, अल्लाह हाफ़िज़ ! "  वह मिलने तो नहीं आये, लेकिन कुछ वर्षों तक ख़तों का आना जारी रहा जिसके ज़रिये उन्होंने इत्तिल्ला दी कि मेरा पर्चा उन्होंने फ़्रेम करवा कर अपने होटेल में लगवा रखा है और वह उनके लिये कितना बेशकीमती है । एक पल को हर आने जाने वाला उसके सामने ठिठक कर एक नज़र देखता ज़रूर है । यह किस्सा मैंने कोई आत्मप्रशस्ति में नहीं लिखा है । यह तो , केवल एक झलक  देता है कि लोचा कहाँ पर है ! क्या वह नहीं जानते कि भाषा का प्रयोग इंसानों को बाँटने का प्राचीनतम ज़रिया  है ? सरकारें दोषी हैं, वह मीडिया भी वही देती है जो उसको माफ़िक आता है । सरबजीत को लेकर कितने जनों ने कालम लिखे होंगे, चेक भी अपने एकाउंट में जमा कर दिया होगा । किंतु, कश्मीर सिंह के रिहाई के बदले में, यहाँ से एक पाकिस्तानी सैनिक का शव अपमानजनक तरीके से भेजने पर मीडिया धृतराष्ट्र बन गयी थी ।

इस परिप्रेक्ष्य में ख़ुदा के लिये का प्रदर्शन, उसकी कथावस्तु एवं संवादों में निहित अर्थ एक ख़ास मायने रखते हैं । पल भर के लिये कोई हमें प्यार दे तो रहा है....झूठा ही सही !

आपने ऎसा उलझा दिया कि मैं भूल ही गया कि मेरी खुपड़िया में लागा चोर

मेरे भेज़े में लागा चोर - अमर मेरी गठरी में लागा चोर - अमर

 

इससे आगे

03 April 2008

अथ श्री काकचरितम - 3

Technorati icon

काकवचनम - द्वितीय प्रश्नः

                  

                                       जारे कागा-जा रे जा-अमर    

            यदा पक्षदण्डे अग्निकोणो ' का का 'शब्दम । रटति काकस्तदा शोकवार्ता कथयति ॥                   ऊर्ध्वमुखी वा रटति तदा दूरदेशतः । पुत्रतो शोकवार्ता कथयति ॥          

 

दो घड़ी दिन में अग्निकोण की तरफ कौव्वा ' काँव-काँव 'शब्द करे तो शोक उपस्थित होगा । परन्तु जब ऊपर मुख करके बोले, तो दूरदेश से शोक-समाचार आयेगा । यदि नीचे की तरफ मुख करके काक शब्द करे तो पुत्र से शोक होगा, ऎसा समझो ।

 

समयाभाव के कारण काक महोदय कुछेक काल के बाद दर्शन दे रहे हैं । यह तीस प्रश्नोत्तरी का संकलन वस्तुतः  श्री हनुमङ्ज्यौतिषं प्रश्नफलकथनं से साभार लिया गया है, एवं अब नियमित देने का प्रयास रहेगा ।

इससे आगे

02 April 2008

अप्रैल फ़ूल के बहाने

Technorati icon

कुछ दुआ सलाम हो जाये । वैसे मेरा तो, राम राम कर के आज़ का दिन बीत गया , किसी ने मुझे अप्रैल फूल बनाने की कोशिश नहीं की । थैंक गाड ( इसमें बेचारे अपने रामजी को तक़लीफ़ देने का औचित्य ? ) हाँ, तो थैंक गाड ! आज़ बच गया, इसकी कई वज़हें हो सकती हैं 1. यह कि, मैं पहले से ही रेडीमेड फूल लगता होऊँ और भाई लोगों ने सोचा हो कि इस पर समय बर्बाद करने में कोई लाभ नहीं । 2. दूसरे यह कि मेरी गिनती शायद बुज़ुर्गों में होने लगी हो, इससे अच्छा किसी नये रंगबाज़ को पकड़ें तो तू-तू , मैं-मैं का मज़ा भी आये , सो बंधुगण आगे बढ़ लिये होंगे । 3. नये आइडिया का अकाल पड़ा हो शायद, क्योंकि अब तक नयी पीढ़ी भी मेरे गढ़े हुये पुराने टोटकों से ही काम चला रही है 4. या कि लोगों का इन चोंचलों से मोहभंग हो रहा हो । यदि ऎसा हो रहा हो, तो ठीक है , देर आयद, दुरुस्त आयद ! मैंने भी विगत कई वर्षों से यह नाटक छोड़ रखा है । भला पूछिये , क्यों ? तो मेरा प्रतिप्रश्न होगा आख़िर इसको मनाने की पृष्ठभूमि क्या है ? यह कोई स्वदेशी रिवाज़ तो है नहीं कि हम इसको होली दिवाली की तरह काँख-कराह कर मनाने को मज़बूर हों । खैर छोड़िये, बात आगे न बढ़ाते हुये केवल एक उद्धरण दूँगा, जो बिना किसी काट छाँट के यहाँ कापी पेस्ट कर रहा हूँ । यदि याद रहा तो आप भी अगले वर्ष ध्यान रखियेगा , इस वर्ष जो किया, सो किया ।

There are several explanations for the origin of April Fools' Day, but here is the most plausible one. April 1st was once New Year's Day in France. In 1582, Pope Gregory declared the adoption of his Gregorian calendar to replace the Julian calendar and New Year's Day was officially changed to January 1st. It took awhile for everyone in France to hear the news of this major change and others obstinately refused to accept the new calendar, so a lot of people continued to celebrate New Year's Day on the first of April – earning them the name April fools. The April fools were subjected to ridicule and practical jokes and the tradition was born. The butts of these pranks were first called poisson d'avril or April fish because a young naive fish is easily caught. A common practice was to hook a paper fish on the back of someone as a joke. This evolved over time and a custom of prank-playing continues on the first day of April.

कालांतर में अंगेज़ों ने भी इसे अपना ही लिया क्योंकि वह किसी भी हालत में फ़्रांसीसियों से  पतला नहीं मूतना चाते थे । और फिर क्या था, जँह जँह पाँव पड़े लाट-बहादुर के, तँह तँह कँटाधार ! कँटिया हम भी लीले तो सही, अब उगलते नहीं बन रहा है अक्खी इंडिया से ! आख़िर प्रगतिशील होने का होलोग्राम है, यह सब ! आप यह पोस्ट पढ़ना यहीं बंद कर सकते हैं, क्योंकि अंग्रेज़ी नववर्ष पर भी मैंने ऎसा ही कुछ अपरंपरागत लिख मारा था जो पसंद नहीं किया गया रहा होगा ।

खैर जो भी हो...  इस विषय पर कुछ लिखूँ या न लिखूँ, कैसे अपनी बात रखूँ कि एक पोस्ट आज़ की तारीख़ में देने की रस्म निभ जाये । इसी सोच विचार में कोरल ड्रा 14 पर खिलवाड़ कर रहा था कि एक प्रेम संदेश बन गया । बिना अतिरिक्त प्रयास के, शायद अंतर्मन से फूट पड़ा हो ।

हैप्पी अप्रिल फ़ूल ------ कुछ तो है...पर अमर 1.4.08

बाकी सब राज़ी-ख़ुशी समझना .. और फ़ालतू लिखा पढ़ा माफ़ करना । चलो मुझे माफ़ न करो किंतु उनको कैसे माफ़ करोगे  , जो जनवरी, फरवरी ...... जून, जुलाई यानि की साल के हर महीने, हर सीज़न , हर मौके बेमौके एक दूसरे को बेवकूफ़ बनाते ही रहते हैं । इस में हम आप सभी शामिल हैं । बिना दूसरे को फ़ूलिश माने, बिना उनसे पैंतरेबाजी किये, बिना अपने ज़्यादा बुद्धिमान होने का दंभ दिखाये , अब किसी का गुज़ारा नहीं चलता । लोग ऎसा कहते पाये जाते हैं । नेतागण तो हर भाषण में एक हिप्नोटाइजिंग अप्रैल फ़ूल पूरी पब्लिक को बना जाते हैं । सो, एवरीडे इज़ फूल्सडे , अब वह चाहे अक्टूबर हो या मई ! खैर...छोड़िये भी, बस आपकी दुआ से सब ठीकठाक है । नमस्कार ! 

इससे आगे
MyFreeCopyright.com Registered & Protected

यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

ब्यौरा ब्लॉग साइट मैप