बात बेसिर- पैर की नहीं है, जनाब . आई एम सीरीयस !
अपने धार्मिक आख्यानों को पढ़ने में अक्सर महाराज इन्द्रदेव के सिंहासन डोलने का संदर्भ वर्णित है, बचपन में दो-तीन चुनाव देखे जरूर थे, लेकिन तो जनता 'तू ही

अब यह शंका लघु से दीर्घ में परिवर्तित होती दिक्खै तो निट्ठल्ले के पल्ले बांध मन हल्का कर लेने में कोई बुराई नहीं दिखती । इस शंका को सर्वसुलभ करदूं,
कभी तो कोई गुनी इधर को भटकेगा और कमेंटियाने की तकलीफ़ कर बैठेगा ।
भला मन में रखे रहने से लाभ भी तो नहीं है ।
अस्तु, मेरा लाख टके का प्रश्न यह है कि जब भी कोई सज्जन पुरुष किंन्ही भी स्वार्थ से तपस्या में लीन होते थे ( निःस्वार्थ तपस्या ! यह क्या होता है ? ). हां तो, वह तपस्या की पराकाष्ठा पर पहुंचने को होते थे कि इन्द्र का सिंहासन डोलने लग पड़ता था ! भाग कर हाई कमान की शरण में उपस्थित हो जाते थे, मानों कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तिकड़ी सृष्टि संचालन नहीं अपितु उनके सत्ता के संचालन के निमित्तही हों ! उनका परेशान होना स्वाभाविक ही था । ऎरावत हाथी, चंचला लक्ष्मी, सोने का सिंहासन, राजनर्तकियां और न जाने क्या-क्या ! यह सब छिन जाने का भय किसी को भी हिला देगा । सवाल फिर वहीं घूम कर आजाता है कि आखिर इतने भर से उनका सिंहासन कैसे डोलने लग पड़ता था ? क्या तब भी सरकारें कमजोर हुआ करती थीं ? तप किया भक्त प्रह्लाद ने परेशानी उनको, उभर कर आन्जनेय् आ रहे हैं और यह उनका मुंह तोड़ने को वज्र लिये तैयार ! किसी राक्षस को भोलेनाथ वर देने को सहमत और यहां इन्द्रदेव पर आफ़त ! कहां तक गिनाऊं ? और अभी हाल के अपने अध्ययन में मैंने एक संदर्भ और पाया, ज़नाब इन्द्र महोदय सत्ता के संघर्ष की कुटिल चालों में भी माहिर थे । जरागौर करिये...
'वानरेन्द्रं महेन्द्राभमिन्द्रो वालिनमात्मजम् । सुग्रीवं जनयामास् तपन्स्तपतां ।' यानि देवराज इन्द्र ने वानरराज वालीको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया एवं सूर्य ने सुग्रीव को । लो, पहले से ही अपना एक आदमी बैठा दिया ! यह 'डोल्ला रे, डोला रे...डोला' अनायास ही थोड़े लिखने बैठा हूं , संदर्भ और साक्ष्य हैं मेरे पास ! ज़्यादा लिखूंगा तो कोई ऎसे ही नहीं फटकता इधर और मैं एक टिप्पणी को भी तरस जाउंगा, हिट्स तो चला जायेगा , तेल लेने !
वैसे मैं इन्द्रदेव का आभारी भी हूं , मुझे विरोधी घड़े में कतई न समझा जाये । यह सब तो मैंनें अपनी मूढ़ जिज्ञासा रखीं हैं, आप चाहे तो खंडन कर दो । आभारी यूँ कि उन्होंने हमको नित्य स्मरण करने के लिये अनोखी शक्तियों का एक व्यक्तित्व तो दिया ही है !
उनकी खुचड़्पेंच की देन हैं , हमारे हनुमान !
'मत्करोत्सृष्ट्वज्रेण् हनुरस्य् यथा हतः । नाम्ना वै कपिशार्दूलो भविता हनुमानिति ॥'
1 टिप्पणी:
"ज़्यादा लिखूंगा तो कोई ऎसे ही नहीं फटकता इधर और मैं एक टिप्पणी को भी तरस जाउंगा, हिट्स तो चला जायेगा , तेल लेने !
"
ऐसा नहीं है. शर्तिया नहीं है. आप नित्य दो-चार पोस्ट लिखें और जब आंकड़ा एक हजार पार कर जाए तो फिर ये बात बोलने की सोचें.
आप तो बढ़िया निठल्लानुमा लिखते हैं, नियमित लिखें तो हम पाठकों को नियमित मजा आए...
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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