उफ़्फ़ कितनी गर्मी थी, यह अमेरिका, कनाडा व आयरलैंड में बैठे लोग क्या जानें ? वह तो सर्दियों में साइबेरियन प्रवासी पक्षियों की तरह अपने इंडिया आते हैं, और गर्मियों की शुरुआत होते ही फिर फ़ुर्र हो जाते हैं । पर इन बातों का यहाँ क्या लेना देना, फिर मैं यह सब लिख क्यों रहा हूँ ? अब निट्ठल्ला तो बकवास ही करेगा, न ? सो कर रहा हूँ ! अब आप पढ़ने पर आमदा ही हैं, तो मैं क्या करूँ ?
हाँ, तो इस बार की गर्मी ग्लोबल वार्मिंग और बुश्श के भेज़े के तड़के के साथ आयी है, सो ज़ाहिर है कि कुछ ज़्यादा ही गर्म थी । यह कहा जाता है कि गर्मियों में हम डाक्टरों की ज़ेबें भी गर्म हुआ करती हैं, तो भाई मेरे, डाक्टर को खटना भी तो पड़ता है ! और एक आम हिंदुस्तानी को दूसरे की ज़ेब और अपनी बीबी हमेशा से मोटी लगती आयी है, सो यह एक सार्वभौमिक हिंदुस्तानी वहम है । इसको छोड़ ही दो, तभी तुम्हें सुख नसीब होगा । मैं सीज़नल प्रैक्टिस नहीं करता हूँ, उल्टी-दस्त के मरीज़ से अपने स्टाइल में हिस्ट्री लेने लगूँगा तो मेरा चैम्बर ही गँधा जायेगा । लिहाज़ा मन को समझाने को यह ख़्याल अच्छा है कि मैं सीज़नल प्रैक्टिस नहीं करता । फिर भी व्यस्तता कुछ बढ़ ही जाती है, रेफ़रल केसेज़ की वज़ह से । वृश्चिक राशि है ( यह तो गुणीजन अब तक समझ ही गये होंगे ) सो गर्मियों में शिथिल हो फ़ुरसत के लम्हों में कहीं कोने कुचरे में पड़ा रहता हूँ । फिर वही बात यानि ढाक के तीन पात ? मेरी वृश्चिक राशि, मीन लग्न, मेष बुद्धि इत्यादि से अगले को क्या, कोई लग्नपत्रिका तो निकलवानी नहीं है ? फिर, मैं यह सब लिख क्यों रहा हूँ ? यह तो आप सोचें कि आप पढ़ क्यों रहे हैं ? निट्ठल्ले की साइट है, बल्कि ऊपर डिस्क्लेमर भी है तो सोच कर संतोष कर लें कि पढ़ तो रहे हैं, यूँ ही निट्ठल्ला ...
मुझे स्वयं ही लगता है कि गलत बयाना ले लिया । यह सइटिया तो यह सोचकर बनायी थी कि अपने निट्ठल्ले क्षणों का कुछ चिंतन यहाँ उकेरूँगा । लोग कविता उविता लिखते हैं, चलो मैं एक नयी विधा के सृजन में ही थोड़ा हाथ बँटा दूँ । सो, वह तो होता नहीं दिख रहा । आपाधापी में जीने वालों को चिंतन की लक्ज़री कहाँ नसीब है । यदि कोई भदेस विचार मन में कौंध भी गया तो यहाँ तक आते आते और उन सब को शब्दों में संतुलित करने के प्रयास में ही सब धड़ाम हो जाता है । इस पेज़ के थीम की इज़्ज़त तो जैसे तैसे बची हुयी है।
रुकावट के लिये खेद है..., मूसलचंद खरदूषनचंद की वारिस पंडिताइन यहाँ ताकझाँक कर हँसते हुये चली गयीं । जाते जाते एक बोली कस गयीं वह अलग से, "यह क्या अलाय बलाय लिख रहे हो ? न कोई सिर पैर है, न कोई विषय ! अगर किसी की टिप्पणी आयेगी भी तो यही होगी कि आप जैसे चुगद को लिखने उखने की कोई तमीज़ भी है ? " उनका हँसना फिर शुरु हो गया । हँस लो भई, हँस लो.., आपकी इसी हँसी में तो मेरी ज़िन्दगी फँसी है ! गृहस्थी के समरांगन में रोज़ ही तो शहीद किया जाता हूँ, तमीज़ से कुछ होता भी है ?
अब कौन बताये कि मानव विकास की श्रृंखला तो अभी कंप्यूटर के कीबोर्ड पर ही आकर थमी हुयी है, ब्लागिंग जिंदाबाद, जय ब्लागर !
बड़े अरमान से रखा है मैंने यहाँ कदम..होओओ... यहाँ कदम, कि ब्लागर की दुनिया में नहीं कोई खसम...होओओ नहीं कोई खसम, हौ ! ऎसी आज़ादी और कहाँ ? देखो अब तक का इतना बेसिर पैर, मैंने इतने लोगों से पढ़वा लिया कि नहीं ? चाहें, तो भी नहीं छोड़ सकते ।
माईस्पेस व ब्लागर के अंग्रेज़न आंटी की गिरफ़्त से निकलने के बाद मुझे बड़ा अज़ीब अज़ीब सा लगा यहाँ ! एक तो गुलामी की आदत ऎसी होगयी है कि अपनी हिंदी माता का साफ़ सीधा संवाद यदा कदा भारी लगता है । खैर, जब पूरा देश 60 साल से इसी में जी रहा है, तो सोचता था अपुन अकेला चना क्या करेगा ? दूसरे यहाँ आकर पाया कि मैं तो जैसे चने की बोरी ही में आ गया हूँ, चलो भाड़ फोड़ने की गुंज़ायश बन रही है, सब अपने अपने से लग रहे हैं । सब एक दूसरे को अभिवादन कर रहे हैं, ' लगे रहो..जमाये रहिये..क्या बात है! ' यानि कि यहाँ मेट्रोपोलिटन बू आने में अभी क़ाफ़ी समय लगेगा, तब तक तो हम भी जमा ले जायेंगे । अभी तो किसीके बिना कहे हुये भी लगे हुये हैं । हिंदी का अनौपचारिक मिज़ाज़ रास आने लगा । यह बाद में बताऊँगा कि आख़िर मैं यह सब लिख क्यों रहा हूँ ? लगे रहिये
मेरी तो शुरुआत ही चौधरी के पन्ने को पकड़ कर हुई । वह मेरा मेरा कहते रहे और मैं फूँद फाँद कर हलचल पर टँग गया । हलचल जी का लिंक पकड़ नित्य रात्रि में उड़न खटोले पर उड़ने लगा । लेकिन उड़न तश्तरी के आगे भला खटोले की क्या औकात ? सो उनको देख धरातल पर आगया । तेरे बस का नहीं है, बंधु ! यह बिरादरी ही दूसरे किसिम के ज़ीनियसों की है । तू कड़के की तरह ज़ेब में हाथ डाल कर घूम । पहले मंडी का ज़ायज़ा ले , फिर लैस होकर आना । इसी फ़ुरसत में फ़ुरसतिया दिखे जो धौंस से ज़बरिया लिख रहे हैं । इनका कोउ कुछ कर भी नहीं सकता, ब्रह्महत्या करके कुंभीपाक का वेटिंग टिकट कौन लेगा ? लेकिन ज़बरिया लिखने का हौसला देख, सोचा, कि जूतों की परवाह मत कर, तमाशा घुस्स के देख । अलबत्ता नभमार्ग छोड़ दे बेटा, जलमार्ग पकड़ ! तो उल्टी गंगा बहाने में जुट गया । हिंदी कैसे लिखें ? चुप्पे से ज्ञानदत्त जी के इंडिक ट्रांसलिटेरशन विंडो में घुस घुस कर दो पोस्टें लिख डालीं । लेखन में बहुत सारी चोरियाँ होतीं हैं, सो यही सही ! पर यह सब मैं लिख क्यों रहा हूँ ?
शायद यहाँ पर अपने होने को जस्टिफ़ाई करने के लिये !
अब तो खुश हो लेयो ! कि राजा अउर नऊआ वाला किस्सा भी आजै सुनाय देई ?
कुछ शेष रहा जा रहा था
उल्टी गंगा पर पहली टिप्पणी उन्मुक्त जी की आयी, एक मीठी झाड़, कुछ आगे भी लिखो टाइप !
सारथी से बहुत प्रोत्साहन मिला । हिंदी चिट्ठाजगत के एक आदिपुरुष बंगबंधु का मिज़ाज़ आज
तक नहीं मिला सो नहीं मिला । ज्ञानदत्त जी की प्रेरणा एवं बरहा के टिप्स भुलाये नहीं जा सकेंगे
इतना सब होने के बावज़ूद भी मेरे मन में यही चल रहा है कि...
मैं यह सब क्यों लिख रहा हूँ ?
7 टिप्पणी:
अरे मुझसे और शास्त्री जी से भेदभाव क्यों - हम दोनो की लिंक क्यों छोड़ दी गयी। लगता है झाड़ दी थी इसीलिये :-)
राजा अउर नऊआ वाला किस्सा -सुनाये दे भाई! :)
काहे दबा गये ..जब इतना ठेले हो और हम झेले हैं त यउहू झेल लेत.
पंडिताईन सहिये कहीं हैं. :)
बढ़िया फेंट रहे हैं आप। पर फेंटते समय मन में सवाल नहीं आने चाहियें। हम पढ़ने को हैं न!
@संतोष जी
आपने नाम ही ऎसा रखा है कि साहस नहीं हुआ उन्मुक्त को लिंक में बाँधने का, चलिये आपका उलाहना दूर किया ।
और भला सवार भी कहीं सारथी को पकड़ सकता है ?
Acchi hai sir ji maja aa gaya
जमा ले गये आप तो!
परिवार व इष्ट मित्रो सहित आपको दीपावली की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं !
पिछले समय जाने अनजाने आपको कोई कष्ट पहुंचाया हो तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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