आज सुबह सोकर उठा..वह तो देर सबेर सभी उठते ही हैं, ख़ास बात क्या है ? लेकिन आज मेरा मन कुछ भारी था, अनमना सा बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठा शरीफ़े में आते हुये फूलों की कलियाँ गिन रहा था । वह बगल में खड़ी हो जैसे आर्डर ले रही हों, “ ब्लैक टी या नींबू पानी ? ” कुछ ज़वाब दूँ कि उससे पहले ही वह पत्नी-अवतार में दरस दे दिहिन, “ जो बोलना है, जल्दी बोलो.. अभी बहुत काम है । अभी नहाया भी नहीं हैं, तुम मैक्सी में घूमते देख चिल्लाने लगोगे !
सुघड़ पत्नियाँ पति का ज़वाब सुनने का इंतेज़ार नहीं किया करतीं, सो एक फ़रमान जारी करते हुये पलट गयीं, “ चाय बना देती हूँ !” मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिये.. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.. वाले अँदाज़ में मैं घिघियाया, “ बना दे यार, जो बनाना है, बना दे !” लो जी, यह तो लेने के देने पड़ गये, यहाँ तो उल्टे मेरी ही चाय बनने लगी । उनका पलटवार, “ कल रात देर तक खटर पटर करते रहे,किसी की अच्छी पोस्ट पढ़ कर डिप्रेशन मे तो नहीं चले गये, या तो फिर किसी से पँगा हुआ होगा ?” मैंने शाँति-प्रस्ताव का सफेद झँडा फहरा दिया, “ काहे का पँगा.. नैतिकता के तक़ाज़े को पँगा क्यों कहती हो..जबकि तुम तो जानती हो कि.. “ पति की बात पूरी होने के मँसूबों पर पानी फेरने का उनका पत्नीधर्म उबाल खा गया, “ मै सब जानती हूँ, मुझको न बताओ । चैन कहाँ रे..,” पर आख़िर हुआ क्या ? अभी आती हूँ तब ठीक से सुनूँगी, रुको जरा चाय तो ले आऊँ ।” पेंचपँगादि कथाप्रेम की स्त्रीसुलभ कोमलता उन पर छा गयी । चुनाँचे, मुझे टुकड़े टुकड़े कल का वह सब बताना पड़ा, जो मैं नहीं चाहता था । लेकिन सामने बईठ के मेरी नारको सब उगलवा लिहिन, अउर फौरन रिपोर्ट लगा दिहिन,“ ई फ़ुरसतिया तुमको.. बल्कि तुम सब को कौन सी लकड़ी सुँघाये हैं, भाई ? जब देखो तब छुट्टा बछड़े की तरह भिड़ते रहते हो ? “ लेयो, ई सामने ही एक्ठो अउर बियास जी बईठी हैं ? शाह जी एक फैसला और ठोंकती भयीं कि अब दर्पण जी से कोई बैर मत लेना । मानों सामने वाली लुगाई दर्पण से बैर होने की कल्पना से ही सिहर गयीं हो ! अब इनको क्या कहें, भाई यह भी एक तरह का बायस्डियत ही तो ठहरा ?
मन एकदम्मैं किचकिचा गया, ससुरी अँग्रेज़ी का एक शब्द इतना बवाल मचाये है ? इसका तो है, अर्थ और ही और ! लाओ तो जरा मुई की बाल की खाल खींची जाये….
बायस्ड बोले तो पूर्वाग्रह और अनुग्रह दोनों ही
पूर्वाग्रह बोले तो भाँति भाँति के बिरादरी वाले हैं
मसलन : शिवकुमार मिश्र या चलिये मैं ही सही, बड़े लड़ाका हैं । हर कथन में लड़ाकात्मकता खोजा जायेगा ।
इसके उलट यदि परसाई जी की कोई किताब दिख गयी, तो खरीदी ही जायेगी । परसाई जी हैं तो अच्छा ही होगा ! जबकि दोनों में से कोई भी ज़रूरी नहीं कि, सदैव अपेक्षित ही मिले । अब आप अपने पूर्वग्रसित होने का दँश बाद में भले सहलाते रहिये ।
अब अनुग्रह जी को नहीं छेड़ूँगा, यह तो इतनी जगह पर इतने किसिम के भेष बदले हुये परिलक्षित होते हैं कि, जब तक आप सँभले सँभले और लो जी, अनुग्रह हो गया । आपकी टकटकी को ताड़ कर उन्होंने एक मुस्की मार दी, अनुग्रह होय गवा रब्बा रब्बा.. गुनगुनाते हुये आप बायस्ड हो गये कि हो न हो, पक्का है कि, आपका गेट-अप गुटर गूँ खान को मात दे रहा है । मायने कि उनका अनुग्रह आप तक कैच होते होते पूर्वाग्रह बन गया कि नहीं ? मामला सफा क्लीन बोल्ड !
असहमत रहना तो जैसे नारी का ईश्वर प्रदत्त अधिकार है, यदि सहमत हों भी जायें तो, “ भाई तुम जानो “ का डिस्क्लेमर तो पक्का ही लगा मिलेगा । सो, मेरा केस यह कह कर ख़ारिज़ हुआ कि, “ बस तुम हर जगह बीच में कूदने की आदत छोड़ दो ।” जब से समीर भाई ने कचोट में, यह बोल क्या दिया कि, “ भाई थोड़ी बनावट लाओ ” इनका हौसला बुलँद है । गलत का हौसला तोड़ना मेरा मैन्यूफ़ैक्चरिंग डिफ़ेक्ट है, कानजेनिटल एनामली ! का करें ? हिन्दी ब्लागिंग से जब पहला पहला प्यार हुआ था, तब ज्ञानदत्त जी ने नवभारत टाइम्स के एक कवरेज गाजियाबाद में रिश्वत को मिली सरकारी मान्यता पर अपना आलेख दिया था, वाह, अजय शंकर पाण्डे ! तब न जानता था कि, सँक्षिप्त टिप्पणी देना या एकदम्मैं टिप्पणी देना ब्लागरीय शिष्टता है, सो मैनें ताव में एक लम्बी टिप्पणी दे डाली । यह इसलिये बता रहा हूँ कि गलतफ़हमी न रहे कि, मैं शुरु से ऎसा न था । यह ऎब तो कफ़न दफ़न तक रहेगा, जी
कुछ तो है.....जो कि ! said...
माफ़ करियेगा बीच मे कूद रहा हू.
का करियेगा बीच मे कूदना तो हम लोगन का नेशनल शगल है.
ई अजय जी की दूरदर्शिता समझिये या बेबसी कि उनको यह तथ्य अकाट्य लगा कि ई सब रोक पायेगे तो इसको घुमा के मान्यता दे दिये. वाहवाही बटोरने की क्या बात है ? लालू जी भी तो इस अन्डरहैन्ड खेल का मर्म समझ के घुमा के पब्लिक के जेब से पइसा निकाल रहे है अउर मैनेजमेन्ट गुरु का तमगा जीत रहे है. पब्लिक के जे्ब से धन तो निकल ही रहा है, बस खजाना गैरसरकारी से सरकारी हो गया.हम लोग भी दे-दिवा के काम निकलवाने के थ्रिल के आदी पहले ही से थे अब रसीद मिल जाता है,इतना ही अन्तर है . गलत करिये ,दे कर छूट जाइये,यही चातुर्य या कहिये कि दुनियादारी कहलाता है. गाजियाबाद का खेला तो हमारी मानसिकता को परोक्ष मान्यता देता है, और सुविधा कितना है, अब दस सीट पर अलग अलग चढावा का टेन्शन नही, फ़ारम भरिये १५ % के हिसाब से भर कर काउन्टर पर जमा कर दीजिये . रसीद ले लीजिये . खतम बात ! दत्त जी क्षमा करेगे, ब्लागगीरी की दुनिया मे आपकी हलचल खीच ही लाती है ,
एक आपबीती बयान करना चाहुगा, जब पहले पहले शयनयान चला था, बडी अफ़रातफ़री थी नियम कायदा स्पष्ट नही था ( वैसे अभी भी कहा है,अपनी अपनी व्याख्याये है ) तो शिमला से एक अधिवेशन से एम०बी०बी०एस० लौट रहा था , अम्बाला से इस शयनयान मे शयन करता हुआ सफ़र कर रहा था बीबी बच्चे आरक्षण दर्प से यात्रा सुख ले रहे थे, कभी नीचे कभी ऊपर .लखनऊ तक का टिकट था जाना रायबरेली ! बुकिग की गलती, ठीक है भाई.. लखनऊ मे टिकट बढवा लेगे परेशान मत करो का रोब मारते हुये लखनऊ तक आ गये, लखनऊ मे महकमा का काला कोट लोग चा-पानी मे इतना बिजी था कि एक लताड सुनना पडा अपनी सीट पर जाइये न क्यो पीछे पीछे नाच रहे है
.चलो भाई ठीके तो कह रहे है ड्युटी डिब्बवा के भीतर है न, घर तक दौडाइयेगा ? बगल से कोनो बोला .चले आये ,मन नही माना बाहर जा कर चार ठो जनरल टिकट ले आये, प्रूफ़ है लखनऊवे से बैठे है, मेहरारु को अपनी समझदारी का कायल कर दिया. रायबरेली बीस किलोमीटर रह गया तो काले कोट महोदय अवतरित हुये. टिखट.. कहते हुये हाथ बढाये , टिकट देखते ही भडक गये, इ स्लीपर है अउर रिजर्भ क्लास है.. जनरल पर चल रहे है, सर..ये देखिये अम्बाला से बैठे है, लखनऊ से टिकट नही बढा तो ये ले लिया. नाही बढा मतलब, इसमे बढाने का प्रोभिजन नही है जानते नही है का ? जानते तो शायद वह भी नही थे,
असमन्जस उनके चेहरे से बोल रहा था. अपने को सम्भाल कर बोले लिखे पढे होकर गलत काम करते है, टिकटवा जेब के हवाले करते हुए आगे बढ गये. मेरी बीबी का बन्गाली खून एकदम सर्द हो गया ,मेरी बाह थाम कर फुसफुसाइ- ऎ कैसे उतरेगे ? देखा जायेगा -मै आश्वस्त दिखना चाहते हुये बोला. करिया कोट महोदय टट्टी के पास कुछ लोगो से पता नही क्या फरिया रहे थे . अचानक हमारी तरफ़ टिकट लहरा कर आवाज़ दिये- मिस्टर इधर आइये...मेरे निश्चिन्त दिखने से असहज हो रहे थे. पास गया ,सिर झुकाये झुकाये बोले लाइये पचास रूपये ! काहे के ? बबूला हो गये- एक तो गलत काम करते है, फिर काहे के ? बुलाऊ आर पी एफ़ ?
बीबी अब तक शायद कल्पना मे मुझे ज़ेल मे देख रही थी, यथार्थ होता जान लपक कर आयी. हमको ये-वो करने लगी. मै शान्ति से बोला सर चलिये गलत ही सही लेकिन इसका अर्थद्न्ड भी तो होगा, वही बता दीजिये. एक दम फुस्स हो गये आजिजी से हमको और अगल बगल की पब्लिक को देखा, जैसे मेरे सनकी होने की गवाहो को तौल रहे हो. धमकाया- राय बरेली आने वाला है पैसा भरेगे ? स्वर मे कुछ कुछ होश मे आने के आग्रह का ममत्व भी था. नही साहब हम तो पैसा ही देगे, रसीद काटिये रेलवे को पैसा जायेगा. सिर खुजलाते हुये और शायद मेरे अविवेक पर खीजते हुये टिकट वापस जेबायमान करते हुये बोले- ठीक है स्टेशन पर टिकट ले लीजियेगा. उम्मीद रही होगी वहा़ कोइ घाघ सीनियर इनको डील कर लेगा.. आगे क्या हुआ वह यहा पर अप्रासन्गिक है. तो मै देने के लिये अड गया और गाजियाबाद के अजय जी सरकार के लिये लेने पर अड गये ..तो इस पर चर्चा क्यो ? यह सनक ही सही लेकिन आज इसकी जरूरत है...चलता है...चलने दीजिये की सुरती बहुत ठोकी जा चुकी, कडवाने लगे तो थूकना ही तो चाहिये न सर !
तो नो.. नो.. नो.. कर ही लिया न, तुमने ?
उनका गर्व भाव एकदम से टूट जाता है, जब मैं बेशर्मी से हँस कर कहता हूँ ,
" वह तो आज सारी दुनिया कर रही होगी, आज 9 सितम्बर 09 है ना, मेरी ज़ान ! "
मेरा बेशर्मी से हँसना जारी है, ब्लागर जो हूँ ? भले अपने को हिन्दी का सेवक कहता फिरूँ, इससे क्या !
13 टिप्पणी:
kuch be ho, Badhiya post anyways.
:)
sorry bout roman hindi, (lack of resou resources u see)
...no personal grudges.
infact no grudges et al.
शुक्रिया दर्पण शाह का जो ई सब उनके बहाने इधर आ गया। धन्य हैं जी।
हम तो बाहर थे कल, ई का हुआ?
चलो, चर्चा चल निकली..और कुछ बात बढ़ी. अनूप भाई भी कह ही दिये और हम..पहले पूरा पढ़ तो लें महाराज...तसल्ली से..फिर तो कहबे करेंगे..आप तो जानते ही हैं कि चुप रहते हैं फिर भी मौके पर कहते हैं.
कतई सेंटीयाई हुई हाईफाई टेक्निक से लदी पोस्ट ....खामखां सेंटी होने की अनावश्यक जिम्मेदारी से त्यागपत्र दे दीजिये गुरुदेव...आप को इस माया नगरी में हमसे ज्यादा समय अपना झोपडा डाले हो गया है ...मस्त रहिये गुरुवर ...ओर हाँ पता नहीं इन दिनों आप पिक्चर शिक्चर देखते है या नहीं ..इस शनिवार या रविवार किसी चैनल पे "गुलाल "आ रही है ..जरूर देखिएगा ...पाई लागू .
'गुटर गूँ खान' accha naam hai bhia sa'ab
:)
(ek aur simley)
Gulal ? Wow !!
Is mulk ne har shaksh Ko ek kaam saunpa tha,
har saksh ne us kaam ki MAACHIS jala ke chor di !!
kab aa rahi hai ji?
"असहमत रहना तो जैसे नारी का ईश्वर प्रदत्त अधिकार है,..."
VERY BIASED...VERY BAISED हैं जी आपके विचार। आज की नारी जाग चुकी है...फिर एक ब्लागरी आंदोलन छिड़ जायेगा तो चाय की चाह में भूखे ही रह जाओगे:-)
achcha laga padh ke
किसी की अच्छी पोस्ट पढ़कर डिप्रेशन में भी चले जाते हैं यह पहली बार पता चला ..
सुबह सुबह हँसाने के लिए शुक्रिया भाई जी !
interesting...मज़ेदार पोस्ट !!
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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