अब इन्हें छलिया न कहूँ तो आप ही कोई नाम सुझायें । वैसे तो इनका परिचय शाह हनुमानुद्दीन के रूप में दिया जा चुका है, पर ये मौके पर हाथ से फिसल जाते हैं नतीज़न इनके इंटरव्यू की तारीख़ दिवानी के मुकदमें की तरह आगे बढ़ती जाती है । ज़ालिम, तुम क्या ब्लागिंग से मेरे उखड़ जाने बाद ही आओगे ? इस माथमंथन की नौबत ही न आती, ग़र मैं इनकी ज़ुस्तज़ू छोड़ किसी हिट होते आदमी को आईना दिखा देता ।
कल रात की ही बात है, मेरे मित्र मुन्ने उर्फ़ अज़हर खान का एकाएक फोन आया, " अरे यार डाक्टर, अब तुम जम्पिंग ब्लागिंग पर उतर आये हो, आख़िर कौन ज़ल्दी पड़ी है, तुम्हें ? "मैं अचकचा गया, " अमें क्या हो गया मियाँ, और यह जम्पिंग ब्लागिंग क्या बला है ? इसको किस डिक्शनरी से खोद लाये हो, बताओगे ? " वह प्रतिवाद पर उतर आये, "बेट्टा मैं तुमको रेगुलरली वाच कर रहा हूँ, तुम कुछ ज़्यादा ही कूद-फाँद रहे हो ? अरे यार कोई काम का सलीका भी होता होगा कि जब मर्ज़ी जो पकड़ में आ गया, उसीको लेकर ठेल दिया यहाँ ! अब मैं कमेन्ट नहीं कर पाता हूँ तो क्या? " ( मेरा स्वगत कथन - छोड़ो, यह सौजन्य तो अधिकांश ब्लागर बंधु में भी नहीं है, तुम तो महज़ पाठक हो ) मैं-" अब बोलोगे भी मियाँ, क्यों उखड़ रहे हो ? " उनकी आलोचना में मुझे रस आ रहा था, वह भाँप गये । स्वर मद्धिम हुआ, " ट्रैक न छोड़ा करो, एक अच्छी खासी चल रही थीम का कबाड़ा हो जाता है ।" मसलन ? मैंने दागा । "अमें मसलन वसलन क्या ? एक दिलचस्प किरदार हनुमानुद्दीन को तुमने अलग टाँग के रख दिया । अब किस भकुये की दिलचस्पी रह गयी होगी कि इन ज़नाब का हश्र क्या हुआ ?" ( स्वगत- यह किरदार नहीं, बल्कि हक़ीक़त हैं और हस्बे मामूल राँची में कहीं रिक्शा चला रहे होंगे, इनके हश्र को रोने वाला ही कौन है ? ) उधर भाईज़ान चढ़े ही जा रहे थे, " हिट होने की उतावलनेपन में, आजकल जो भी सामने दिखता है, तुम उसी को पकड़ कर पिल पड़ते हो । ट्रैक न छोड़ो डाक्टर, किसको फ़ुरसत है कि रोज़ रोज़ तुम्हारी एक नयी लंतरानी पढ़े ?
बात में कुछ दम तो है, सब एक दूसरे की पढ़ने में मगन हैं, फ़ुरसत तो शायद फ़ुरसतिया का पेटेन्ट हुआ चाहता है । ख़ान ठीक कह रहा है, इसको मैं दख़लअंदाज़ी नहीं कहूँगा । मैंने उनको डिसमिस किया, " चलो यार , आज ही निपटाये देते हैं इनको, अब तो ख़ुश ?" और फोन रख के साँस ली
पलटा तो देखा कि सामने मेरी ज़िन्दगी का एक शाश्वत दख़लअंदाज़ मौज़ूद है ! पैचान कउन ? बट नेचुरल पंडिताइन ही हैं, यह इम्यूनिटी उनको ही हासिल है । वह शायद हमारी बातचीत सुन चुकी थीं, सो डिफ़र कर रही थीं । डिफ़र बोले तो डिफ़ेरेंस आफ ओपिनियन ! भले ही एक दो सूत बाँयें दाँयें किसी भी रिलेवेंस को ख़िसका दें, पर डिफ़र करना..असहमत होना, हर ज़ुमला मेरे ख़्याल से के सम्पुट से बोलना इन चोखेरबालियों का जैसे जन्मसिद्ध है ! और यही हुआ, " जब टाइम नहीं है, तो इतना क्यों फैलते जारहे हो ? अचपन पचपन का क्या होगा ? कुछतो उस पर डालो, आज । तुम्हीं बता रहे थे कि अभी टेस्ट पोस्ट है, फिर भी 6 विज़िटर आ चुके हैं, अब तक । न हो तो किसी 8-9 साल पुरानी मैगज़ीन से ही कुछ उठा कर पचपन में डाल दो,ऎसे अच्छा नहीं लग रहा । अब इन दाल-रोटी-चावल ब्राँड को इस हवाई दुनिया के दाँव-पेंच क्या बताऊँ कि यह विज़िटर कोई मेरे पंख नहीं, बल्कि टोही-टटोलू हैं । हमारी इंटरनेट की दुनिया में, बहुतेरे ऎसे धूर्त भी हैं, जिनका काम केवल यहाँ वहाँ टटोलना ही हुआ करता है।
तिरिया से हार मानने का सुख व फ़ायदे कुछ अलग ही हैं, सालिड टर्म डिपाज़िट माफ़िक़ । एक दो बार टेन-लव पर गेम छोड़ दो फिर बाकी उम्र चैन से वाकओवर लेते रहो । चलो आज फिर इन्हीं की मान लो, पचपन के बचपन में ही झाँक लो । ख़ान का क्या बिगड़ जायेगा, भाड़ में जाये ।
वैसे मेरा बहुत मन कर रहा है कि आज रात सुश्री मायावटि को लपेटा जाये । समेट लो अमर बाबू आज इन्हीं को, इनको तुम ही समेट पाओगे । ( यदि दूसरे बंधु भी कतार में हैं, तो अपनी दावेदारी पेश करने के लिये यहाँ चटका लगायें ) आजकल सुश्री बहुत चहक चहक कर बहक सी रहीं हैं
सुना करता हूँ कि कोई मोहतरमा क्लियोपेट्रा हुआ करती थीं, जो गधी के दूध से नहाती थीं, उड़ती उड़ती चर्चा उनके सौंदर्य की भी मेरी जानकारी में आयी है । झूठ नहीं बोलूँगा, मैंने तो उन्हें देखा नहीं । जो देखा नहीं तो मान कैसे लूँ, मैं तो आब्ज़ेक्टिव सांइस का छात्र हूँ । जो देखता हूँ, वही मानूँगा । वैसे देख तो माया जी को भी रहा हूँ, सत्तासुख का निखार चेहरे से फ़ोकसिया सर्चलैट मार रहा है । तबियत खुसकैट हो जाती है, चंदा को देख कर । ऎसा नूर बरकरार रहे, बड़े भाग्य से मिलता है । किसी ज़माने में फोटो स्टुडियो वाले पैसा लेकर भी फोटो खींचने में बत्तीस कोने का मुँह बनाते थे ( अपुष्ट सूत्रों से ) वहीं अब कुमारी श्री के फोटो लेने के लिये बड्डे बड्डे फोटूबाज़ों में भी धक्कमधुक्का हुआ करती है । कौन कहता है कि ज़माना नहीं बदला ? या हमारी नज़रों का ही कसूर हो, कहा नहीं जा सकता ! ऎसे में भला हूर भी कोई चीज़ है ? लगता है मैं ही बहक गया ।
लेकिन शायद नहीं, अब देखिये इन्होंने हाथी को पसंद किया । तो अब सभी हाथी देख देख ललचाये जा रहे हैं, तृषित दृष्टि से निहार रहे हैं । इशारा मिलते ही हाथी के पाँव के नीचे भी आने को सन्नद्ध ! कुछेक तो नाँवा लेकर टहल रहे हैं, पता नहीं कब सुश्री का मन बदल जाये । ( बाई द वे, यह हाथी भी तो किसी वर्ण में आता ही होगा, कोई सज्जन जानकारी देंगे ? वाईकेपेडिया में तो नहीं है, नाहर साहब ध्यान दें । खैर, वर्ण वगैरह की बात छोड़िये, अलबत्ता पिछड़ा तो नहीं लगता । देखो, कैसे मदांध डोल रहा है । अभी अभी सूचना मिली है कि हाथी क्रीमी लेयर में रखा गया है, मोटे क्रीमी लेयर में ! महावत गुज़र गया तो क्या, हाथी भी गया गुज़रा नहीं है । ) माफ़ करियेगा, कुछ ज़्यादा विभोर हो रहा हूँ, बात ही ऎसी है ।
सुश्री जी ने अभी हाल में बीते कल परसों नरसों में अपनी सरकार के जन्मदिन पर करोड़ो लुटा डाले । उसी दिन से सुश्री ने इस पोस्ट की सुरसुरी पैदा कर दी । तीन दिन तक तो पंडिताइन ने दबोच कर रखा, " रानी हैं भाई, वह कुछ भी करें ।" घणी खम्मा अन्नदाता, मैं लम्बी साँस लेकर रह गया । पूरे जोर शोर से समारोह मना, पूछा क्या है भाई ? फल का ठेला वाला सेब सजाते हुये बगल मुँह करके पिच्च से थूक कर बोला," कुच्छौ नहिं, गौरमिंन्टिया हिट्ट होय गई, वही चिल्लाहट मचाये हैं । बाबूजी सेब तौल दें ?" इतना पूछने के एवज़ में 80 रुपिये किलो का सेब, आरे नाहीं ! ज़शन अपने टशन पर है, बन्देमातरम कहना होगा वाले अंछल-कंछल बिरझ गये वरना उस दिन प्रदेश में सबकुछ मुफ़्त में मुहैया किया जाना था ।
ज़िन्दे रह कुड़ी, लक्ख लक्ख पद्धाईयाँ । तेरी और तेरे चमचों की उमर हज़ार बरस होवे । हर वर्ष यदि 85-90 करोड़ रूपिये लुटाती रहीं तो हज़ार छोड़, दहाई बरस में ही शहद की नदियाँ बहेंगी और हर खरा खोटा शुद्ध दूध से कुल्ला करते पाया जायेगा । ठीक कैंदा तुस्सी, ज़िन्दे रह पुत्तर !
मेरे अंदर बैठे सतत आलोचना ने कुलबुला कर आगाह किया, ' फिर बहक रहे हो, डाक्टर । आख़िर उसने लुटाये तो, तुम्हीं पर ही तो लुटाये । तुम थाली में छेद करने वाली बातें बंद करो । ' मैं अपनी आत्मा कुचल कर बैठ गया । लेकिन कितने देर तक कुचल कर रखोगे ? ज़्यादा कुचलोगे तो हम भी अपनी सरकार बना कर बैठ जायेंगे । मियाँ की जूती और दुनिया का सिर ! पैसा हमारा और ख़ज़ाना खोल दिया आपने, जन्मदिन के नाम पर, कैसे ? भाई, बड़े बड़े अख़बार तो यही कह रहे हैं कि ख़ज़ाना लुटाया । हमीं पर लुटाया और हमारा ही लुटाया, तो ढिंढ़ोरचियों को क्या तक़लीफ़ ?
मन रे तू काहे न धीर धरे ? फिर अंदर से एक चिकोटी आयी, खुल के बोलता क्यों नहीं, कि क्या राजकीय कोष किसी ख़ास दिन ही खोले जाने का प्राविधान है ? हाँ बहना, ज़वाब दो कि चाहे जितनी भी कल्याणकारी योजना हो, किस प्रोटोकाल से एक विशिष्ट मंच से जतलायी गयीं ? पइसा हमारा और राजनीति तुम्हारी, अंगीठी पब्लिकिया की, और रोटी तुम सेंको ! और घोषणा करने का सबब ? अच्छा काम चुपचाप भी किया जा सकता है ।
जनता ? उसकी छोड़ो, यहाँ तो मनचले लौंडे भी बूँदी चाटते हुये गाते जा रहे हैं, " कसमें वादे, आसुवासन सब घोषणा हैं, घोषणा का क्या.... कोई किसी का नहीं राजाआआअनीति में...सब घोषणा है.. घोषणा से चौंधियाना क्याऽ ..ऽ बड़े शरारती हैं यह लड़के ? हँसी ठठ्ठा में भी सच बोल रहें हैं। मेरा मन हो रहा है, पीछे से पुकार कर कहूँ, " अरे लड़कों, यह चौंध नहीं, औंध है । तुम्हरे बप्पा चिरकाल से औंधे पड़े थे, तो औंधे पड़े रहें ! तुम भी जब पहाड़ के नीचे आओगे तो औंधे हो जाओगे । जो कर रहे हो, मन लगा कर करो, बूँदी मिली है..तो बूँदी खाओ ! इन योजनाओं के ब्लूप्रिंट बनने में ही कितना इधर से उधर हो जायेगा, ख़बरदार सूँघने की कोशिश भी न करना । बूँदी मिली है.. .. बूँदी खाओ
इस बार अंतर्मन चिल्ला पड़ा, " अमें हद्द कर दिया, बहकने की भी कोई लिमिट होती है, नहीं लिखते तो लिखते ही नहीं ! लिखने लगते हो तो बेलगाम हो जाते हो । क्या सफ़ाई दोगे पाठकों को, तुम्हारा हनुमानुद्दीन आज फिर कहाँ रह गया ? हरिभजन छोड़ के डेढ़ घंटे से कपास ओट रहे हो, यूज़लेसली ! " चिल्ला लो भाई, मैंने तो ईमानदारी से जो मन में आया सो लिख दिया । ब्लगियाना इसी को तो कहते हैं, फिर चिल्लाये क्यों ?
रहा सवाल हनुमानुद्दीन का ? तो चिल्लाओ उल्लाओ मत भाई, उसको तो रह ही जाना था । बड़े लोगों के बीच, इस आम आदमी को घुसेड़ोगे तो मुँह की खाओगे । आगे कोशिश भी न करना । हनुमानुद्दीन क्यों नहीं मिलेगा ? सामने ज़रूर आयेगा एक दिन ! पोलिंग वाले दिन लोग उसको पकड़ कर बाहर निकाल ही लेंगे , लगे हाथ तुम भी अपना इंटरव्यू ले लेना । उन दिनों उसकी टी०आर०पी० भी हाई रहती है, लोग पैसे देकर तुम्हारा ब्लाग पढ़ेंगे । माफ़ करना अज़हर भाई, आज तो न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम , एक मौका और दो । नमस्कार !
2 टिप्पणी:
वाकई, आज तो न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम.
वाकई ब्लॉगियाना शायद इसे ही कहते हैं. चिल्ला नहीं रहे हैं, बता रहे हैं. :)
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
Note: only a member of this blog may post a comment.