पहले तो यह बता दूँ कि,यह पोस्ट भँग की तरँग में नहीं लिखी जा रही है । मानता हूँ कि शीर्षक बड़ा अटपटा बन पड़ा है, बल्कि यदि मुझे स्वयँ ही टिप्पणी देनी होती, तो उसे फ़कत एक लाईन में समॆट देता, " तेली के सिर पर कोल्हू ! " पर इस शीर्षक के पीछे एक मज़बूरी भी है , कृपया इसे सारथीय टोटका न मानें । मँगलवार 9 जून को सायँ चँद सतरें मरहूम हबीब तनवीर साहब पर पोस्ट करने का इरादा था कि, अचानक एक पारिवारिक आपदा आन पड़ी । मेरे बहनोई देवाशीष नहीं रहे,अब वह स्वर्गीय देवाशीष के नाम से याद किये जाते रहेंगे । अस्तु, यह रह ही गया ।
कल वृहस्पतिवार 11 जून को हुतात्मा बिस्मिल जी की जयँती थी । पूरे दिन उन पर दो शब्द सुमन अर्पित न कर पाने का मलाल बना रहा । रात में कुछ समय चुरा कर ब्लागर पर आया, तो आते ही बहक गया । शिव-भाई की पोस्ट ऎसी न थी कि, देख कर टहल लिया जाय ।
आज लिखते वक़्त यह भान भी न हुआ कि, इनको एक मँच देखना कितना कठिन है ? इस तरह द्राविड़, उत्कल, बँगा-नुमा इस पोस्ट को एक पँक्ति का यह शीर्षक देना पड़ा, मानों जाट और तेली की तकरार हो रही हो.. सो, बन गया " तेली के सिर पर कोल्हू ! " इनमें तुक मिलाना आपका काम है, पर लगता है कि, शीर्षक मे वज़न है
اَلہمدُلِّاہ ربدِلآلمین اَلرہمانے رہیم
مالِک یومیتّدین ایدنت پھِراتل مُتّکیم
अलहमदुल्लिाह रबदिलआलमीन अलरहमाने रहीम
मालिक योमेत्तदीन एदनत फिरातल मुत्तकीम
हबीब तनवीर साहब को यूँ इन लफ़्ज़ों से रुख़सत कर देना मौज़ूँ रहेगा ? नहीं, क्योंकि अब तक उनकी शख़्सियत पर तकरीरें लिख कर कई कालमिस्ट चेक की रकम ज़ेब के हवाले कर चुके होंगे । मेरी उनसे कोई ऎसी मुलाकात भी न थी कि, उसका दम भरा जाय । एक इन्सान के तज़ुबों में दस मिनट कम नहीं होते । बहुत कुछ हासिल किया और खोया जा सकता है, उनसे मेरी मुलाकात दस मिनटों की ही रही है । पर उन मिनटों ने साफ़गोई के मेरे ऊसूल में बेइख़्तियार इज़ाफ़ा किया , बल्कि समझिये कुछ और पुख़्ता ही हुआ । आमीन !
उन दिनों मुझे मुगालता बना रहता , कि मैं ही एक तन्हा साफ़गो हूँ । यह एक ज़िद थी, जो बढ़ती ही जा रही थी, तभी तनवीर साहब से मुलाकात का एक सबब बन गया । सुना कि, वह लखनऊ में हैं, और हम निकल पड़े
हम यानि कि मेरे बालसखा सँतोष डे और मै । इन्होंने मेरे रुझान को देखते हुये इप्टा में शामिल कर लिया । और मेरी निष्क्रियता से आज़िज़ होकर मुझे स्थानीय यूनिट के सँरक्षक होने का प्रस्ताव भी पारित करा लिया, आजकल वह इप्टा के प्रान्तीय यूनिट के कार्यकारी उपाध्यक्ष हैं, अविवाहित भी हैं, लिहाज़ा खुल कर सक्रिय हैं ।
तो.. हम पहुँचे लखनऊ । सँतोष आगे चलते और मैं कार्यकर्तानुमा एक चमचे सरीखा उनके पीछे लगा रहता । अल्ला अल्ला ख़ैर सल्लाह, मुलाकात हुई । वह बैठे थे, सोफ़े पर इस कदर पसरे हुये कि आपको एकबारगी यह इहलाम हो कि उस पर देवदार की एक शहतीर टिकी हुई हिल सी रही है । उन्होंने अपने को सीधा किया, और पाइप का धुँआ खिड़की की तरफ़ मुँह करके बाहर को उगला । सलाम के उत्तर में सँतोष डे के लिये होठों पर एक स्मित रेख, और मेरे लिये आँखों में जैसे " जी कहिये ? " अपनी प्रश्नवाचक भँगिमा और मुस्कुराते होंठों को इस बखूबी बाँट रखा था, कि साफ़ ज़ाहिर होता, कौन किसके लिये है । मेरे मित्र ने मेरा तवार्रुफ़ उनके पेश ए नज़र की, " यह डाक्टर... " ताकि आइँदा मैं परिचय का मोहताज़ न रहूँ । ज़वाब में सिर की एक ज़ुँबिश.. और वह फिर खिड़की से बाहर देखने लग पड़े, पाइप के क़श के साथ । दो सेकेन्ड भी न बीते होंगे कि, मैं बेहाल सा होगया, मेरे चेहरे ने घूम कर सँतोष का चेहरा देखा " यह कुछ बोलते क्यों नहीं ? " शायद रँगमँच को लेकर व्याप्त उदासीनता ने उनको तल्ख़ बना दिया होगा, " तो.. कुमार साहब आपकी हम नौटँकी वालों में दिलचस्पी कैसे हुई ? " मैं भला क्या कहता, बस एक ठहरे हुये इँज़िन की तरह ढेर सा स्टीम बटोर कर कुछ अटक फटक ही कर सका । और उसी तरह ठिठक कर रुक भी गया ।
अब इससे आगे बढ़ता हूँ, तो आपका पढ़ने का टेम्पो जाता रहेगा । इसलिये यह मुलाका्ती ब्यौरा यहीं पर छोड़ें, किस्सा कोताह यह कि उस दिन से मैं उनकी साफ़गोई और पारेषण क्षमता का आशिक व शागिर्द हूँ ।
श्रद्धेय श्री रामप्रसाद ’ बिस्मिल ’ को भला कौन नहीं जानता ? पर यह भी सच है कि, बहुत से जन उन्हें नहीं जानते । क्योंकि उन्हें जानने का मौका ही न दिया गया । अचपन के एक मुख्य पात्र तन्मय जी, जो आजकल रायबरेली आये हुये हैं । मैं बिस्मिल जी का जन्मदिन उनसे पूछ बैठा, ऎसे कठिन क्षणों में भी मेरे मन में उनका जन्मदिन घुमड़ रहा था । वह तो बिस्मिल नाम से ही अनभिज्ञ थे, लेकिन " सरफ़रोशी की तमन्ना " में निहित रुमानियत के दीवाने हैं । उनका तर्क है, " जब कोर्स में ही नहीं है, तो मेरी चिन्ता नाज़ायज़ है । "
इस कड़ी में, यही प्रश्न मैं कई किशोरों से पूछता रहा, वह सिर खुज़ला कर प्रतिप्रश्न दाग बैठे कि, “ अग़र मह्त्वपूर्ण जयँती होती , तो आज छुट्टी क्यों नहीं है ? “ तभी निरुत्तर हो, मैं यह पोस्ट लिखने को बैचैन हो उठा
हर वर्ष छुट्टीट्यूड से ग्रसित देश के लिये एक नये जयँती की घोषणा हो जाती है । व्यक्तिगत और राजनैतिक हितों को जनजागृति से ऊपर रखने की शुरुआत तो बहुत पहले ही हो गयी थी । ओह,यह क्या कह रहा है ?
The three appellants Ram Prasad, Rajendra Nath Lahiri and Raushan Singh, who were sentenced to death and subject to confirmation by this Court, became entitled, under a practice of the local Government which has been in force for some years, to legal assistance at the expense of the Crown. The appellants, who had not been sentenced to death, were not entitled to legal assistance at the expense of the Crown. But as a special case the Crown had allowed them legal assistance & paid for it. Ram Prasad in his petition of appeal, demanded as of right to select his own counsel. He stated that he would only be satisfied if he was represented by a Gentleman called Mr Gobind Ballabh Panth ….. The Crown approached Mr Gobind Ballabh Pant and offered him the brief. He refused to accept it on the fee that the Crown was ready to pay.” Gobind Ballabh Pant, who had refused to defend the great freedom fighter only because of less money went on to become the Home Minister of India & the longest serving Chief Minister of Uttar Pradesh.
परसों यानि कि 11 जून को बिस्मिल जयँती थी । कहीं कोई हलचल नहीं, कहीं कोई उल्लास नहीं, उनके गाँव वाले घर ( जो अब बिक गया है ) उत्सव के माहौल में भी आक्रोश का स्वर था । शायद ज़ायज़ भी है, मँचासीन होकर “ भगत सिंह, बिस्मिल, अशफ़ाक जैसे सपूतों की धरती “ की दहाड़ लगाना अलग बात है । मैं नहीं समझता कि झलकारी, लोहिया, या पँत ने इन सिरफ़िरों से अधिक त्याग किया होगा कि स्मारक के हकदार हों
ऎसे सिरफ़िरों को श्रद्धाँजलि देने के लिये, मेरे पास शब्दों का भँडार है । पर, यह मेरी पहुँच से बाहर है । क्योंकि इनके ज़ज़्बों के सम्मुख हर भारतवासी बौना है , मैं उनको बस स्मरण ही कर सकता हूँ ।
मृत्यु पूर्व होशो हवास में लिखे हुये इन ज़ज़्बों को भला कौन छू सकता है, एक्स-वाई-ज़ेड सेक्यूरिटी पाने वाले ?
19 तारीख को जो कुछ होगा मैं उसके लिए सहर्ष तैयार हूँ।
आत्मा अमर है जो मनुष्य की तरह वस्त्र धारण किया करती है।
यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्रो बार भी ।
तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी ।।
हे ईश! भारतवर्ष में, शतवार मेरा जन्म हो ।
कारण सदा ही मृत्यु का, देशीय कारक कर्म हो ।।
मरते हैं बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैंकड़ों, उनके रूधिर की धार से ।।
उनके प्रबल उद्योग से, उद्धार होगा देश का ।
तब नाश होगा सर्वदा, दुख शोक के लव लेश का ।।
सब से मेरा नमस्कार कहिए, तुम्हारा- बिस्मिल" ( यह एक पुर्ज़े पर लिखा हुआ पत्राँश है.. )
पर उन्हें यही सँतोष रहा किया कि,
शहीदों की चिता पर लगेंगे, हर बरस मेले । वतन पर मिटने वालों का यही आख़िरी निशाँ होगा..
यूँ ही निट्ठल्ले के सँग कुछ न कुछ तो है.. कि जाते थे जापान पहुँच गये चीन समझ लेना ! यान्नि यान्नि यानि .. इतने झँझावात के बावज़ूद भी, मैं मौका पाते ही नेटायस्थ होता भया, कि चलों मेला वेला देखि आयें, ऎसे किसी मेले का ब्लागर पर निशाँ तो क्या, नामो-निशाँ भी न था । दिख गया शिवभाई का एक टटका पोस्ट !
समय निकाल आया तो था, बिस्मिल जी को उनकी जयँती पर याद करने.. लेकिन शिवभाई की पोस्टिया ने जैसे लपक कर रास्ता छेंक लिया । उसे पढ़ा, फिर गौर से पढ़ा और यही समझा कि, यहाँ पर भी स्वतँत्रता जैसा कुछ कुछ हो गया था और वह गुज़र चुका है । लाओ हम तनिक लकीरै पीटि देंय
तब का बुद्धिजीवी अँग्रेज़ों के भ्रुकुटि का गुलाम था, आज का बुद्धिजीवी अँग्रेज़ी सोच की मानसिकता का ताबेदार है, पिछले छः दशक से भारतीयता और देसी सँदर्भों पर यह कैटरपिलर अवस्था से बाहर आना ही नहीं चाहता ।
सशँकित भी है, न जाने कौन सी चिड़िया उसे चुग जाये ? उस पर तुर्रा यह कि इस कैटरपिलर केंचुवे को खुल्ले में आने की, चर्चित होने की ललक भी है । नोटिस किये जाने व टी.पी.आर. की दुश्चिन्ता को वह छिपाये भी रखना चाहता है, यह बाद की बात है । फ़िलहाल दिखलाता यही है कि,वह रचनाधर्मिता की बग्घी को सँवेदनाओं की सँटी से हाँकने को अभिशप्त है । ऎसी बग्घियाँ आपको हर सर्वहारा टाँगा स्टैन्ड पर सस्ते में मिल जायेंगी ।
देखो अपुन का फ़ँडाइच अलग बैठेगा, शिवभाई ! डर कर लिखना.. दबाव में लिखना.. समझौतों पर लिखना.. पाठकों की पसँद के हिसाब से लिखना.. यानि कि अपने ही विचारों और शब्दों का गला घोंटना, एक तरह की हाराकिरी है । यह अपने अँदर के एक लेखक बटा ब्लागर की आत्महत्या है । क्या यह मौलिक कहलायेगा ?
बेहतर है कि,अभिव्यक्ति के स्वतन्त्रता की मानसिक नौटकीं की स्क्रिप्ट राइटिंग करते रहना ! यही पर एक गड़बड़ भी है, कि ब्लागरीय ठुमके हिट और फ़िट हैं, लेकिन वह फिर कभी.. वरना अपुन के हलके के भाई लोग इसे जलेली-कुड़ेली कुँठित पोस्ट कह कर सरक लेंगे ।
इदर ब्लागर का लफ़ड़ाइच डिफ़रेन्ट है, सच्ची लिकेगा तन कौव्वा काटेगा ! अईसा किस माफ़िक चलेंगा ? जब लिखेला, सच्ची बात लिखेला तण डरने का लोचाइच क्या ? अपुन तो फ़ुल्ल टाइम राइटर बी नईं है, पण अपना लिखा कब्भी से कब्भी भी नहीं हटाया । एडीटर नईं छापता, कोई वाँदा नईं.. अपुन को रोकड़े का चेक नईं मिलेंगा, तो चलेंगा । पण, चित्रगुप्त साहब के खानदानी को कुच लिक के हटाने का प्रेंसिपल बनताइच नईं, जी !
पँडित दिनेशराय द्विवेदी जी मेरे टाप टेन मित्रों में हैं,मैं उन्हें खोना भी नहीं चाहता । वह चाहते तो टिप्पणी बक्से में ही पर्याप्त ऊधम मचा सकते थे, जो उन्होंने नहीं किया । पर मिस्टर डिलीट जी, मित्रवत राय देना एक अलग बात है.. उस पर विचार करके अमल में लाना उससे ज़्यादा अहम बात है । आपसे पूछ कर कौन पँगा लेगा कि आप ब्लागर को महत्व दे रहे हैं, या उसके पेशे को ? अपनी सोच को या मित्रवत राय की पसँद को ?
अपने डाक्टर साहब जब दूभर मचाते हैं, तो सबसे पहले मैं उनको ही खूँटी पर टाँग कर कीबोर्ड के सम्मुख “ प्रथम वन्दहूँ बरहा.. लाइवराइटर , पुनि ब्लागर सुमिरैं गूगलदेव “ गायन के बाद ही ब्लागियाना आरँभ करता हूँ । वरना तो जीना ही मुहाल हो जाता, इतनी बार इतनी जगह इतनी पोस्टों पर डाक्टर कि डकैत की गुहार सुन चुका हूँ , कि खिड़की के बाहर देख कर खुद तस्दीक करनी पड़ती है कि, कहीं मैं ही तो किसी मन्त्री आवास में नहीं घुस आया ? पण श्शाब जी, अईसा है ना कि, जब हम बोलेगा तो बोलेंगे कि चोलता है !
वईसे अँदर की बात है कि, एक बार “ बेचारा सफ़ेद एप्रन काले कोट से बहुत डरता है, “ से काला कोट मैंनें भी हटा दिया था, क्योंकि तब हिन्दी ब्लागरीय तहज़ीब ( ? ) से इतना परिचित न था कि तू ये हटा, मै वो हटाता हूँ
वईसे पँडित जी खुद्दै कहिन है,कि, " कोई भी सिरफिरा वकील मीडिया में सुर्खियाँ प्राप्त करने के चक्कर में.. " यानि कि उसकी सँवैधानिक पात्रता और मोटिव दोनों ही उनके इस अदने से ज़ुमले रेखाँकित होते हैं । अगर सिरफ़िरे का साट्टिफ़ीकिट चाही, हमरे लगे पठाओ । हम सबको जब इसी समाज में एक साथ ही जीना है तो, वह भी मुहैय्या करवाया जायेगा । सिरफ़िरेज़ आर द हैपेनिंग थिंग । बँदरबाँट वालों को उनकी ज़रूरत रहती है
एक बार तरकश पर मेरे आलेख को किसी ने भद्दी से भद्दी टिप्पणियों से नवाज़ा था, दो दिन तक उसे माडरेट न होते देख सज्जन कुँठित हो उठे । रोमन में प्रारँभ हुये, इससे पहले कि, वह ग्रीक तक पहुँचते, मैंनें उन्हें ललकार दिया कि, मानहानि का दावा ठोंकि दे यार.. चाहे मैं जीतूँ या तू हारे.. वकील सहित तेरा हिस्सा पक्का ! ज़नाब मुकर गये यानि कि चुप मार गये । तब से मैं उनके पीछे लगा हूँ, बहुत अनुयय भी किया, " भाई साहब, प्लीज़ ... प्लीज़ मान भी जाओ, एक केस डाल दो..। " प्यारे मिरचीलाल जी, आप जहाँ कहीं भी हों, यदि यह पोस्ट पढ़ रहें हों, तो एक बार पुनः निवेदन है कि, कृपया एक मिसाल कायम करने में मेरी सहायता करें ।
यदि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ यथार्थ लिखा है, तो कुठाराघात को तैयार रहिये । अच्छी बुरी खरी खोटी पसँद नापसँद ही सही आपकी पोस्ट आपका मानसपुत्र है ( चलिये, कविताओं को भी मानसपुत्रियाँ मान लीजिये ) । थोड़ी आहट क्या हुई, इसे, अपने सृजित को, कुरूप ही सही, पर अपने ही हाथों ( एक अदने से चूहे की मदद से ) ज़िबह कर दो । पोस्ट हटा लो, पुनर्लारवाचः भव, पुनः लारवे के खोल में लौट जाओ, यह क्या है ? फिर तो, हिन्दी ब्लागिंग पँख पसार चुकी ? कर जोरि हम मिलि बैठि लारवा कैटरपिलर में विचरते रहें
यह परस्पर सौहार्द व आदर का दोहन है, जो हर एक ईमानदार ब्लागर की मँशा पर प्रश्न उठाता है । अभी तो, यहाँ पर समय और श्रम के व्यर्थ ही दुरुपयोग की बात ही नहीं की जा रही है । नतीज़ा यह कि, हम जहाँ हैं वहीं पर घूमते रह जाते हैं.. मातृभाषा के आगे न बढ़ पाने में यह अस्वस्थता कितनी बाधक है, यह तो अभी नहीं लिखूँगा । आप तो जानते ही हैं कि, अभी टैम नहीं है, शिवभाई !
ऊड़ी बाबा !
मात्र 8095 शब्दों की पोस्ट ? कुछ पता ही न चला । भँग की तरँग तो गुज़रे ज़माने की यादें हैं, यह ब्लागर की तरँग थी । कोई ज़रूरी नहीं कि, आप नेट पर उपलब्ध हर आम और ख़ास को पढ़ें, मुझे तो यह लिखना ही था । सो,यहाँ दर्ज़ कर दिया । बाकी आप जानो । वैसे दर्ज़ तो यह भी होना चाहिये कि परस्पर यह क्यों याद दिलाया जाय कि,
हममें से कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं है, जितना कि हमसब एक होकर होंगे । हमारे सँसाधनों, सोच, व्यय किये गये समय एवँ श्रम की पहचान होनी अभी बाकी है, तभी आप हम सुने और स्वीकारे जायेंगे । नमस्ते भले ही आप हम निट्ठल्लों को कुछ नहीं समझते