जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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04 October 2009

ग़ैरज़रूरी बहसों में अटके हुये

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ऐसे क्या कारण हैं कि हिन्दी कि फॅमिली बेकग्राउंड होते हुआ भी हिन्दी विषय मे कोई डिग्री नहीं हैं बहुतो से ब्लॉगर के पास ??  क्यूँ ??

क्षमा चाहूँगा, रचना…
मेरा  जैसे  आपसे मतभेद योग चल रहा है ।
आपका यह प्रश्न ब्लागर के सँदर्भ में तो क्या, साहित्य के सँदर्भ में भी बेमानी है ।
पृष्ठभूमि होने के मायने यह नहीं है कि, उस क्षेत्र या भाषा विशेष पर एकाधिकार ही माना जाये ।
यदि परिवारवाद को लेकर चलें तो भी बेबुनियाद है । परिवार का जिक्र आया ही है, तो यह बता दूँ कि
स्व० जयशँकर प्रसाद अपने पुश्तैनी धँधे, इत्र, तम्बाकू और सुँघनी के व्यापार से ही जीवनपर्यँत  ही जुड़े रहे,
परँतु जो उन्होंनें रच दिया, वह पी.एच.डी. करने वाले पर भी भारी पड़ता है । मैथिलीशरण गुप्त, श्रीलाल शुक्ल जैसे बीसियों उदाहरण हैं । विमल मित्र एक मामूली स्टेशन मास्टर थे, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी भी रेलवेकर्मी रहे थे । अँग्रेज़ी तक में उदाहरण लें तो सामरसेट मॉम पेशॆ से डाक्टर थे । जीविकोपार्जन का माध्यम कुछ भी हो, साहित्यिक अभिरुचि इसमें कहाँ आड़े आती है, आपसे जरा तफ़्सील से समझना चाहूँगा । हम सब को ( कम से कम मुझे )आपसे इस विषय को सँदर्भित किये गये पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी । खेद है कि, हम हिन्दी को कुछ देना तो दूर, देने और देते रहने का दम भरते हुये अपनी मातृभाषा को इन्हीं ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर जहाँ के तहाँ लटकाये  हुये हैं । क्योंकि हमें अपने अलावा किसी अन्य का सुर्ख़ियों में उभरना ग़वारा नहीं है । किसी डिग्री विशेष का रचनाधर्मिता से क्या वास्ता निकलता है,  यह रिश्ता जरा मुझे भी भी समझायें । हिन्दी को लेकर अँग्रेज़िन च्यूइँग-गम कब तक चबाया और थूका जाता रहेगा ? क्या ऎसे बहस से हिन्दी माता का यह भ्रम बनाये रखा जाता है कि, उसके तीनों राजकाजी, विद्वान और जनमानस बेटे उसकी सेवा में लगे हुये हैं । सो, इन सबका निराकरण करें, आपका कृपाकाँक्षी हूँ ।

Rachna ke bahane

इससे आगे

28 September 2009

क़न्फ़्यूज़ियाई पोस्ट - हमका न देहौ, तऽ थरिया उल्टाइन देब

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मसल है...
खाय न देब तऽ थरिया उल्टाइन देब

अर्थात, हे पाठकों
यदि मुझे अपनी मर्ज़ी अनुसार पसँद नहीं मिलेगी,
तो मैं परसी हुई पूरी थाली उल्टा तो सकता ही हूँ !

खेद तो यह है कि, यह सब देखते देखते हो गया, जब  मैं  ब्लागवाणी  खोल  कर टिप्पणी के लिये पोस्ट चुन रहा था ।
रात्रि के 11.37 पर पेज़ रिफ़्रेश करने को F5 दबाया और आईला ’ रुकावट के लिये खेद है ’ जैसा ब्लागवाणी का पन्ना चमकने लगा । अफ़सोस दिल गड्ढे में जा गिरा । कीबोर्डवा से फौरन F5 नोंच कर फेंक दिया, ससुरी यही है, झगड़े की जड़ !  Freedom at Midnight पढ़ने में मन लगाना चाहा, देसी रियासत रज़वाड़ों की खुदगर्ज़ी के किस्से पढ़ कर अपनी कौम पर गर्व हो आया, लगा कि हम उनसे किसी मायने में अलग नहीं हैं । आख़िर अपने ब्लाग का मालिकाना हक़ है, हमरे पास..  जुगाड़ से चार ठो चारण भी जुटा लिये हैं । अयहय, अब कोई यह तो कहेगा कि ’ अलि कली सों बिन्ध्यौं, अब आगे कौन हवाल ! “ अउर हवाल यह कि अपने हाथन कली नोंच कर फेंक दिया । पाठकों के पसँद नापसँद को लेकर ऎसी सजगता, और कहाँ ? आख़िर कीबोर्ड के वाज़िद अली शाह हैं हम !

blogvani 
सिरफिरा था भगत सिंह जो कल अपने जन्म दिन पर अपने वतन में याद तक न किया गया । वयम पोस्ट लिखित्वा ब्लाग वाः साहित्यवाः के फेर में चिन्तामग्न साहित्यलॉग कर्मी दुष्यँत  कुमार की बरसी पर किसीको याद भी न आये | या तो स्मृति समारोह में जाने को पहनने को कमीज़ उठायी होगी, और लेयो थमक गये, “  हँय मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से मैली क्यों ? मेरे अद्वितीय पोस्ट की पसँद उसके सड़े पोस्ट से निचली क्यों ? “ लिहाज़ा  धप्प से बईठ गये, उनके शून्य विचार में बस यही आया होगा कि, " चलो आज एक धत्त तेरी की – हत्त तेरी की पोस्ट लिखी जाय, यह नूतन विधा है, मैथिली बाज़ार बड़े शवाब पर है ,थोड़ी भगदड़ सही !  ऎसे कुविचार ब्लागलेखन के अनिवार्य तत्व हैं, यह सब अनाप शनाप सोच नींद को अपने पैर जमाने से रोक रही थीं । एम.पी.थ्री प्लेयर का हेडफोन कान से लगा लिया,  धीरे से आजा री निंदिया अँखिंयों में निंदिया आजा री आजा !

अयईयो ये किया गडबड जे.. श्रीधर सुनिधि की जोड़ी हेडफोन में घुस कर चिढ़ाने लगीं । इनको कैसे पता चला कि, ब्लागवाणी ने रुसवाई चुन ली है ? चाहें तो आप ही लपक लें, वाह क्या स्क्रिप्ट बन पड़ी है, " ब्लाग आज कल ! "

चोर बाजारी दो नैनों की,
पहले थी आदत जो हट गयी,
प्यार की जो तेरी मेरी,
उम्र आई थी वो कट गयी,
दुनिया की तो फ़िक्र कहाँ थी,
तेरी भी अब चिंता मिट गयी...

तू भी तू है मैं भी मैं हूँ
दुनिया सारी देख उलट गयी,
तू न जाने मैं न जानूं,
कैसे सारी बात पलट गयी,
घटनी ही थी ये भी घटना,
घटते घटते ये भी घट गयी...

चोर बाजारी...
तारीफ तेरी करना, तुझे खोने से डरना ,
हाँ भूल गया अब तुझपे दिन में चार दफा मरना...
प्यार खुमारी उतारी सारी,
बातों की बदली भी छट गयी,
हम से मैं पे आये ऐसे,
मुझको तो मैं ही मैं जच गयी...
एक हुए थे दो से दोनों,
दोनों की अब राहें पट गयी...

अब कोई फ़िक्र नहीं, गम का भी जिक्र नहीं,
हाँ होता हूँ मैं जिस रस्ते पे आये ख़ुशी वहीँ...
आज़ाद हूँ मैं तुझसे, अज़स्द है तू मुझसे,
हाँ जो जी चाहे जैसे चाहे करले आज यहीं...
लाज शर्म की छोटी मोटी,
जो थी डोरी वो भी कट गयी
,
चौक चौबारे, गली मौहल्ले,
खोल के मैं सारे घूंघट गयी...
तू न बदली मैं न बदला ,
दिल्ली सारी देख बदल गयी...
एक घूँट में दुनिया सारी,
की भी सारी समझ निकल गयी,
रंग बिरंगा पानी पीके,
सीधी साधी कुडी बिगड़ गयी...
देख के मुझको हँसता गाता,
जल गयी ये दुनिया जल गयी....

वईसे विजयादशमी शुभकामनाओं की तो होती ही है, इसे चाहे जिस रूप में ग्रहण करें, मर्ज़ी आपकी

vvvvvv

ताज़ा अपडेट

ब्लागवाणी का यह निर्णय किन्हीं निहित तत्वों के मँसूबों को फलीभूत कर रहा है,
बल्कि होना तो यह चाहिये था कि, इनकी अवहेलना कर इस पर तुषारापात किया जाये,
ऎसा तभी सँभव है, यदि यह टीम अपने फैसले पर पुनर्विचार कर कुछ कड़े तेवर के साथ प्रकट हो ।

बल्कि होना तो यह चाहिये कि अभी कुछ दिनों तक त्राहि त्राहि मचने दें,
जिसके लेखन में दम हो वह अपनी पोस्ट अपने कलम और सम्पर्क के बूते औरों को पढ़वा ले ।

एक मज़ेदार तथ्य यह कि, मैं मूरख से ज्ञानी जी की पोस्ट पर ब्लागवाणी के जरिये ही पहुँचा,
उत्सुकता केवल इतनी थी कि, कल सर्वाधिक पसँद प्राप्त पोस्ट में आख़िर क्या है
!

मज़बूरी में, चलिये यही गाते हैं

तारीफ तेरी करना, तुझे खोने से डरना ,
हाँ भूल गया अब तुझपे दिन में चार दफा मरना...
प्यार खुमारी उतारी सारी,
बातों की बदली भी छट गयी,
 

इससे आगे

09 September 2009

नो.. नो.. नो.. दर्पण दर्शन क्यों ?

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आज सुबह सोकर उठा..वह तो देर सबेर सभी उठते ही हैं, ख़ास बात क्या है ? लेकिन आज मेरा मन कुछ भारी था, अनमना सा बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठा शरीफ़े में आते हुये फूलों की कलियाँ गिन रहा था । वह बगल में खड़ी हो जैसे आर्डर ले रही हों, “ ब्लैक टी या नींबू पानी ? ” कुछ ज़वाब दूँ कि उससे पहले ही वह पत्नी-अवतार में दरस दे दिहिन, “ जो बोलना है, जल्दी बोलो.. अभी बहुत काम है । अभी नहाया भी नहीं हैं, तुम मैक्सी में घूमते देख चिल्लाने लगोगे !

सुघड़ पत्नियाँ पति का ज़वाब सुनने का इंतेज़ार नहीं किया करतीं, सो एक फ़रमान जारी करते हुये पलट गयीं, “ चाय बना देती हूँ !” मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिये.. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.. वाले अँदाज़ में मैं घिघियाया, “ बना दे यार, जो बनाना है, बना दे !” लो जी, यह तो लेने के देने पड़ गये, यहाँ तो उल्टे मेरी ही चाय बनने लगी । उनका  पलटवार, “ कल रात देर तक खटर पटर करते रहे,किसी की अच्छी पोस्ट पढ़ कर डिप्रेशन मे तो नहीं चले गये, या तो फिर किसी से पँगा हुआ होगा ?” मैंने शाँति-प्रस्ताव का सफेद झँडा फहरा दिया, “ काहे का पँगा.. नैतिकता के तक़ाज़े को  पँगा क्यों कहती हो..जबकि तुम तो जानती हो कि.. “ पति की बात पूरी होने के मँसूबों पर पानी फेरने का उनका पत्नीधर्म उबाल खा गया, “ मै सब जानती हूँ, मुझको न बताओ । चैन कहाँ रे..,” पर आख़िर हुआ क्या ? अभी आती हूँ तब ठीक से सुनूँगी, रुको जरा चाय तो ले आऊँ ।”  पेंचपँगादि कथाप्रेम  की स्त्रीसुलभ कोमलता उन पर छा गयी । annoyed with charchaचुनाँचे, मुझे टुकड़े टुकड़े कल का वह सब बताना पड़ा, जो मैं नहीं चाहता था । लेकिन सामने बईठ के मेरी नारको सब उगलवा लिहिन, अउर फौरन रिपोर्ट लगा दिहिन,“ ई फ़ुरसतिया तुमको.. बल्कि तुम सब को कौन सी लकड़ी सुँघाये हैं, भाई ? जब देखो तब छुट्टा बछड़े की तरह भिड़ते रहते हो ? “ लेयो, ई सामने ही एक्ठो अउर बियास जी बईठी हैं ? शाह जी एक फैसला और ठोंकती भयीं कि अब दर्पण जी से कोई बैर मत लेना । मानों सामने वाली लुगाई दर्पण से बैर होने की कल्पना से  ही सिहर गयीं हो ! अब इनको क्या कहें, भाई  यह भी एक तरह का बायस्डियत ही तो ठहरा ?

दर्पण साह "दर्शन" ने आपकी पोस्ट "सफर में ख़ो गई मंज़िल,उसे तलाश करो" पर एक नई टिप्पणी छोड़ी है:

Still i would say....
again in English (@अविनाश वाचस्पति ..हमें अंग्रेजी नहीं आती है)

Biased blog and biased posting should not be appreciated anyways even if it is for any specific blog(शब्दों का सफ़र ब्लाग की चर्चा वाली पोस्ट पर कोई biased कहता है तो मुझे अच्छा ही लगेगा), infact that's what the biasedness is...

दर्पण साह "दर्शन" द्वारा चिट्ठा चर्चा के लिए September 08, 2009 11:50 PM को पोस्ट किया गया

डा. अमर कुमार ने आपकी पोस्ट "सफर में ख़ो गई मंज़िल,उसे तलाश करो" पर एक नई टिप्पणी छोड़ी है:

@ 'Darshan'

I am not a spokeperson of anyone.
But, don't you think that its we only, who can protect the Sanctity of our common platform ?
No reservations whatsover, so Let it be like that way only, nothing more or less.
It is intrigueing to see someone appearing at the last bench, just to put a comment full of annoyance.

I honour your affection for being Biased.
BIAS has two meanings.. albeit both are cousines
1. Prejudiced : as your comment reflects.
2. Inclined : as charcha convener's Choice presents.

Who are we to challenge his inclination or choice ?
Someone uses Cow excreta for treating multiple ailments, alright !
Other one likes to get examined, investigated and treated by some other way of his choice & belief, Its pretty okay !

Furthermore, why the hell mention of Ajit ji's Safar has made you sick ?
He is a admired Blogger, loved one by his atleast 500 regular readers. Any sanity in the world would agree that such dignity can never be acheived on a biased basis.

Ofcourse, after your narrow angle obsevation, We realized it and feel delighted over ourselve being biased for Him .

डा. अमर कुमार द्वारा चिट्ठा चर्चा के लिए September 09, 2009 1:00 AM को पोस्ट किया गया

दर्पण साह "दर्शन" ने आपकी पोस्ट "सफर में ख़ो गई मंज़िल,उसे तलाश करो" पर एक नई टिप्पणी छोड़ी है:

Aapki baat ka uttar dene se pehle ye batana avayashak samajhta hoon ki, shabdon ka safar mera bhi priya(if not, then one of the favourite) blog hai,aur is post pe tippani karne se pehle maine wahan pe tippini ki thi.
aapki baat se poorntya sehmat hoon ki aadmi ke apne vichar ho sakte hain kisi bhi blog, post ya koi bhi vastu hetu.
main ye bhi manta hoon ki us specific blog(shabdon ka safar) ke liye wo comment katai uchit nahi tha.Aur na hi maine us specific post ke liye wo comment kiya tha, ye to aap bhi samajh gaye honge. Wo Blog bura tha ye anya blog(jinki charcha ki gayi thi) bure the, ya unki post buri thi ya wo bura likhte hain....
ye mainie katai nahi kaha.Aur na hi mera arth tha, biased ka arth prakshit blogs se na liya jaiye, biased ka arth aprakashit bolgs ki backlink se liya jaiye
is mamle main mujhe chittha charcha blog biased lagta hai aur ye main tab tak kehte rahoonga jab tak mujhe iske ulat koi praman nahi mil jaata. And again i want to justify my words with ur quotation
Who are we to challenge his inclination or choice ?. Sir aap bahut padhe likhe hai aur har ek baat ke do pehlu dekte hain...
main kisi vivad ko janm nahi dena chahta, aur main koi vivad nahi chahta, piche 9 mahino se blogging main hoon kabhi kisi baat ko tool bhi nahi diya. Aur na hi kisi ek vyakti ke uppar koi akeshep kiya hainbas main chahta hoon vivaad na ho atmmanthan ho ki kya ye blog biased nahi hai. Agar aap thoda sa sochne ke baat dil se keh dein ki hum (ya ye blog) biased nahi hain Main maan loonga.
No Personal Grudeges.

It is intrigueing to see someone appearing at the last bench, just to put a comment full of annoyance.

Meri baat nahi hai par generally "History tells Great Brains came from last banches"
Sir ek baat aur kisi ke vichar acche ye tuchcha nahi hote bus hote hain.
Main aapko apni baat nahi manwaaonga, balki ho sakta hai ki main galat houon.
chittha charcha ek general blog hai, jismein kum se kum kuch naye aur undiscovered blog ke bhi charche hone chahiye, moreover kuch blog aise hain jinke har post ka (note: har post ka) back link diya jaat hai. kya koi blogger itna consistence ho sakta hai? Tell me logically (no emotions please).
Kehna bahut kuch chahta hoon, examples bhi bahut de sakta hoon par mera maksad na koi controversy khada karna hai na hi kisi ko dosharopan, bus chahta hun ki sacchai ko log sweekar karein.
yahan blog jagat main(aisa US UK ke english blogs main bhi dekha hai aur india main bhi) ek link, back link, comment, followers ki hod hai....
theek hai honi chahiye .But these should be secondary things. And you know what should be the primary concerned. Sir mujhe meri baaton ka koi uttar nahi chahiye , Bus aap itna keh dijiye ki chittha charha as in whole biased nahi hai main maan loonga.

Who are we to challenge his inclination or choice ?

Sir this blog, as far as i know, is for general reader, not for a group of pelple. (i can't see any moderatorfor specific group)
अँतर के ऊदल का कूदल-करतब शुरु हो,
इससे पहले ही अपना आल्हा इसी आलाप पर रोक देता हूँ..

Sir maine to kisi bhi individual ke uppar aur uski ability ke uppar koi shque nahi kiya, to fir meri annoyance se aapka kya matlab hai? maine to ye baat tab bhi kahi jab aaj mera backlink aapki post main hai, aur pehle bhi 3-4 links meri post ke chittha charcha ne diye hain. maine to chota sa comment kiya tha taki aap log aatm manthan kar sakein agar aap kehte hain ki aap biased nahi hain ya biased hona accha hai to main maan leta hoon.

No reservations whatsover, so Let it be like that way only, nothing more or less.

jaldi main office likh raha hoon isliye baaton ki 'continiuty' ke liye kshama karein.

खुशदीप सहगल ने कहा… ग़ैरों पे करम, अपनों पे सितम
ए जाने वफ़ा, ये ज़ु्ल्म न कर...
(अनूपजी, कभी हौसला बढ़ाने के लिए नौसिखियों पर भी नज़रें-इनायत कर दिया कीजिए...

दर्पण साह "दर्शन" द्वारा चिट्ठा चर्चा के लिए September 09, 2009 10:09 AM को पोस्ट किया गया

Shiv Kumar Mishra ने आपकी पोस्ट "सफर में ख़ो गई मंज़िल,उसे तलाश करो" पर एक नई टिप्पणी छोड़ी है:
Blog, chitthacharcha is biased.

Because I am from the far most corner of the last bench, I carry the greatest brain ever. And this greatest brain on the planet earth wants me to announce that the blog chitthacharcha is biased. Greatness of a brain is not proved till it announces someone somewhere biased.

So, from now onwards, do remember that if I hold someone as biased, its unquestionable since I not only have the greatest brain, I am also from the far most corner of the last bench.

Unhappy blogging.

Shiv Kumar Mishra द्वारा चिट्ठा चर्चा के लिए September 09, 2009 10:54 AM को पोस्ट किया गया

cmpershad ने आपकी पोस्ट "सफर में ख़ो गई मंज़िल,उसे तलाश करो" पर एक नई टिप्पणी छोड़ी है:

"History tells Great Brains came from last banches"

Three Cheers for Saha jI from the back bench. He has now donned the mantle of GREAT BRAIN.... so no more argument please:)

cmpershad द्वारा चिट्ठा चर्चा के लिए September 09, 2009 11:06 AM को पोस्ट किया गया

मन एकदम्मैं किचकिचा गया, ससुरी अँग्रेज़ी का एक शब्द इतना बवाल मचाये है ?  इसका तो है, अर्थ और ही और ! लाओ तो जरा मुई की बाल की खाल खींची जाये….

बायस्ड बोले तो पूर्वाग्रह और अनुग्रह दोनों ही
पूर्वाग्रह बोले तो भाँति भाँति के बिरादरी वाले हैं
मसलन : शिवकुमार मिश्र या चलिये मैं ही सही, बड़े लड़ाका हैं ।  हर कथन में लड़ाकात्मकता खोजा जायेगा ।
इसके उलट यदि परसाई जी की कोई किताब दिख गयी, तो खरीदी ही जायेगी । परसाई जी हैं तो अच्छा ही होगा ! जबकि दोनों में से कोई भी ज़रूरी नहीं कि, सदैव अपेक्षित ही मिले । अब आप अपने पूर्वग्रसित होने का दँश बाद में भले सहलाते रहिये ।
अब अनुग्रह जी को नहीं छेड़ूँगा, यह तो इतनी जगह पर इतने किसिम के भेष बदले हुये परिलक्षित होते हैं कि, जब तक आप सँभले सँभले और लो जी, अनुग्रह हो गया । आपकी टकटकी को ताड़ कर उन्होंने एक मुस्की मार दी, अनुग्रह होय गवा रब्बा रब्बा.. गुनगुनाते हुये आप बायस्ड हो गये कि हो न हो, पक्का है कि, आपका गेट-अप गुटर गूँ खान को मात दे रहा है । मायने कि उनका अनुग्रह आप तक कैच होते होते पूर्वाग्रह बन गया कि नहीं ?  मामला सफा क्लीन बोल्ड !

असहमत रहना तो जैसे नारी का ईश्वर प्रदत्त अधिकार है, यदि सहमत हों भी जायें तो, “ भाई तुम जानो “ का डिस्क्लेमर तो पक्का ही लगा मिलेगा । सो, मेरा केस यह कह कर ख़ारिज़ हुआ कि, “ बस तुम हर जगह बीच में कूदने की आदत छोड़ दो ।” जब से समीर भाई ने कचोट में, यह बोल क्या  दिया कि, “ भाई  थोड़ी  बनावट लाओ ” इनका हौसला बुलँद है । गलत का हौसला तोड़ना मेरा मैन्यूफ़ैक्चरिंग डिफ़ेक्ट है, कानजेनिटल एनामली ! का  करें ?  हिन्दी ब्लागिंग से जब पहला पहला प्यार हुआ था, तब ज्ञानदत्त जी ने नवभारत टाइम्स के एक कवरेज  गाजियाबाद में रिश्वत को मिली सरकारी मान्यता  पर अपना आलेख दिया था, वाह, अजय शंकर पाण्डे ! तब न जानता था कि, सँक्षिप्त टिप्पणी देना या एकदम्मैं टिप्पणी देना ब्लागरीय शिष्टता है, सो मैनें ताव में एक लम्बी टिप्पणी दे डाली । यह इसलिये बता रहा हूँ  कि गलतफ़हमी  न  रहे कि, मैं शुरु  से ऎसा न था । यह ऎब तो कफ़न दफ़न तक रहेगा,  जी

कुछ तो है.....जो कि ! said...
माफ़ करियेगा बीच मे कूद रहा हू.
का करियेगा बीच मे कूदना तो हम लोगन का नेशनल शगल है.
ई अजय जी की दूरदर्शिता समझिये या बेबसी कि उनको यह तथ्य अकाट्य लगा कि ई सब रोक पायेगे तो इसको घुमा के मान्यता दे दिये. वाहवाही बटोरने की क्या बात है ? लालू जी भी तो इस अन्डरहैन्ड खेल का मर्म समझ के घुमा के पब्लिक के जेब से पइसा निकाल रहे है अउर मैनेजमेन्ट गुरु का तमगा जीत रहे है. पब्लिक के जे्ब से धन तो निकल ही रहा है,  बस खजाना गैरसरकारी से सरकारी हो गया

.हम लोग भी दे-दिवा के काम निकलवाने के थ्रिल के आदी पहले ही से थे अब रसीद मिल जाता है,इतना ही अन्तर है . गलत करिये ,दे कर छूट जाइये,यही चातुर्य या कहिये कि दुनियादारी कहलाता है.  गाजियाबाद का खेला तो हमारी मानसिकता को परोक्ष मान्यता देता है, और सुविधा कितना है, अब दस सीट पर अलग अलग चढावा का टेन्शन नही, फ़ारम भरिये १५ % के हिसाब से भर कर काउन्टर पर जमा कर दीजिये . रसीद ले लीजिये . खतम बात ! दत्त जी क्षमा करेगे, ब्लागगीरी की दुनिया मे आपकी हलचल खीच ही लाती है ,

एक आपबीती बयान करना चाहुगा, जब पहले पहले शयनयान चला था, बडी अफ़रातफ़री थी नियम कायदा स्पष्ट नही था ( वैसे अभी भी कहा है,अपनी अपनी व्याख्याये है ) तो शिमला से एक अधिवेशन से एम०बी०बी०एस० लौट रहा था , अम्बाला से इस शयनयान मे शयन करता हुआ सफ़र कर रहा था बीबी बच्चे आरक्षण दर्प से यात्रा सुख ले रहे थे, कभी नीचे कभी ऊपर .लखनऊ तक का टिकट था जाना रायबरेली ! बुकिग की गलती, ठीक है भाई.. लखनऊ मे टिकट बढवा लेगे परेशान मत करो का रोब मारते हुये लखनऊ तक आ गये, लखनऊ मे महकमा का काला कोट लोग चा-पानी मे इतना बिजी था कि एक लताड  सुनना पडा अपनी सीट पर जाइये न क्यो पीछे पीछे नाच रहे है

.चलो भाई ठीके तो कह रहे है ड्युटी डिब्बवा के भीतर है न, घर तक दौडाइयेगा ? बगल से कोनो बोला .चले आये ,मन नही माना बाहर जा कर चार ठो जनरल टिकट ले आये, प्रूफ़ है लखनऊवे से बैठे है, मेहरारु को अपनी समझदारी का कायल कर दिया. रायबरेली बीस किलोमीटर रह गया तो काले कोट महोदय अवतरित हुये. टिखट.. कहते हुये हाथ बढाये , टिकट देखते ही भडक गये, इ स्लीपर है अउर रिजर्भ क्लास है.. जनरल पर चल रहे है, सर..ये देखिये अम्बाला से बैठे है, लखनऊ से टिकट नही बढा तो ये ले लिया. नाही बढा मतलब, इसमे बढाने का प्रोभिजन नही है जानते नही है का ? जानते तो शायद वह भी नही थे,

असमन्जस उनके चेहरे से बोल रहा था. अपने को सम्भाल कर बोले लिखे पढे होकर गलत काम करते है, टिकटवा जेब के हवाले करते हुए आगे बढ गये. मेरी बीबी का बन्गाली खून एकदम सर्द हो गया ,मेरी बाह थाम कर फुसफुसाइ- ऎ कैसे उतरेगे ? देखा जायेगा -मै आश्वस्त दिखना चाहते हुये बोला. करिया कोट महोदय टट्टी के पास कुछ लोगो से पता नही क्या फरिया रहे थे . अचानक हमारी तरफ़ टिकट लहरा कर आवाज़ दिये- मिस्टर इधर आइये...मेरे निश्चिन्त दिखने से  असहज हो रहे थे. पास गया ,सिर झुकाये झुकाये बोले लाइये पचास रूपये !  काहे के ? बबूला हो गये- एक तो गलत काम करते है, फिर काहे के ? बुलाऊ आर पी एफ़ ?

बीबी अब तक शायद कल्पना मे मुझे ज़ेल मे देख रही थी, यथार्थ होता जान लपक कर आयी. हमको ये-वो करने लगी. मै शान्ति से बोला सर चलिये गलत ही सही लेकिन इसका अर्थद्न्ड भी तो होगा, वही बता दीजिये. एक दम फुस्स हो गये आजिजी से हमको और अगल बगल की पब्लिक को देखा, जैसे मेरे सनकी होने की गवाहो को तौल रहे हो. धमकाया- राय बरेली आने वाला है पैसा भरेगे ? स्वर मे कुछ कुछ होश मे आने के आग्रह का ममत्व भी था. नही साहब हम तो पैसा ही देगे, रसीद काटिये रेलवे को पैसा जायेगा. सिर खुजलाते हुये और शायद मेरे अविवेक पर खीजते हुये टिकट वापस जेबायमान करते हुये बोले- ठीक है स्टेशन पर टिकट ले लीजियेगा. उम्मीद रही होगी वहा़ कोइ घाघ सीनियर इनको डील कर लेगा.. आगे क्या हुआ वह यहा पर अप्रासन्गिक है. तो मै देने के लिये अड गया और गाजियाबाद के अजय जी सरकार के लिये लेने पर अड गये ..तो इस पर चर्चा क्यो ?  यह सनक ही सही लेकिन आज इसकी जरूरत है...चलता है...चलने दीजिये की सुरती बहुत ठोकी जा चुकी, कडवाने लगे तो थूकना ही तो चाहिये न सर !

तो नो.. नो.. नो.. कर ही लिया न, तुमने ?
उनका गर्व भाव एकदम से टूट जाता है, जब मैं बेशर्मी से हँस कर कहता हूँ ,
" वह तो आज सारी दुनिया कर रही होगी, आज 9 सितम्बर 09 है ना, मेरी ज़ान ! "
मेरा बेशर्मी से हँसना जारी है, ब्लागर जो हूँ ? भले अपने को हिन्दी का सेवक कहता फिरूँ, इससे क्या  !

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16 August 2009

ज़ाकिर भाई.. ओ ज़ाकिर भाई !

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ज़ाकिर भाई, आपकी पोस्ट देर से देख पाया । सटीक प्रश्न उठाया है, आपने । और मैं आपकी बेबाक दृष्टि का कायल भी हूँ ।  पहले तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि, मैं आस्थावान सनातनी हिन्दू हूँ । बहुत सारे वितँडता और प्रत्यक्ष , अप्रत्यक्ष अनुभवों के बाद मैंने पूजा करना छोड़ दिया है । इस पर एक पोस्ट लिखने की इच्छा भी है, पर समय और विषयवस्तु में सँतुलन नहीं बन पा रहा है ।

1 आपकी पोस्ट में गायत्री मँत्र का जो अर्थ दिया है, वह वास्तव में इसका अनर्थ है ।
प्रचोदयात वैदिक सँस्कृत की धातु है, जिसका तात्पर्य " हमें अग्रसर करें.. हमें उत्प्रेरित करें " से समझा जा सकता है ।
बहुत सारे पौराणिक मँत्रों में " भविष्यति न सँशयः " लगा रहता है । यह भी एक प्रकार की साँत्वना या स्व-आश्वस्ति है 

 2 किसी भी पूजा या इबादत की पहली शर्त है, अपने को समर्पित कर दो.. जो भी उपास्य है उसमें लीन हो जाओ ।
यह आपको सेमी-हिप्नोसिस या सम्मोहन की स्थिति में ले जाती है तत्पश्चात निरँतर एक ही मँत्र का जाप अपने आपमें आटो सज़ेशन है । ऎसा होगा .. ऎसा होगा.. ऎसा ही हो ऎसा ही हो.. आख़िर क्या है ? इन मँत्रों का एक निश्चित सँख्या में दोहराये जाना आपके एकाग्रता और लगन और धैय की परीक्षा है । ऎसी प्रक्रियाओं को एक निश्चित समय पर ही किये जाने का तात्पर्य दिनचर्या को अनुशासित करने से अधिक कुछ और नहीं !
इन प्रक्रियाओं को नियम सँयम और निषेध से बाँधना भी यही दर्शाता है ।

3 प्रारँभिक वैदिक मँत्र पूर्णतया प्राकृतिक तत्वों में निहित अतुल शक्तियों को समर्पित हैं । ऋग्वेद इसका उदाहरण है । मानवीय विस्मय से उपजा आज भी अपने अर्थ में उतना ही सार्थक है, जितना  पहली  बार  उच्चरित  होने  पर  रहा होगा । इस्लाम में भी اَلم  अलिफ़ लाम मीम को कोई समझा नहीं पाता ।

4 मनुष्य जब भी हारा है, प्रकृति से ही हारा है । चाहे वह रोग आपदा महामारी बाढ़ सूखा भूकम्प चक्रवात ही क्यों न हो ? प्रकृति अपने नियमों की अवहेलना सहन नहीं करती । आदिम सभ्यता ने  प्रकृति के ऎसे प्रकोप को शैतानी शक्तियों में मूर्त कर लिया । यही कारण है कि, हर धर्म में एक नकारात्मक तत्व शैतान राक्षस और भी न जाने क्या क्या हैं । हर्ष विषाद विस्मय जैसी मूल मानवीय भावनाओं में आत्म रक्षात्मक डर सदैव भारी पड़ा है । एक नवजात शिशु को थप्पड़ दिखाइये, यह प्रत्यक्ष हो जायेगा ।

5  मँत्रों की शक्ति पर  किसी को निर्भर बना देना, डर की भावना का दोहन है, साथ ही मनुष्य की महत्वाकाँक्षाओं का पोषण भी ! इनको पालन करनें में एक आम आदमी अपने असमर्थ पाता है, तो ज़ाहिर है बिचौलिये पनपेंगे और डरा डरा कर पैसा वसूलेंगे । यही हो भी रहा है । तक़लीफ़ यह है कि, ऎसे तत्व सत्ता के ड्योढ़ी के चौकीदार बहुत पहले ही बन गये थे । चाहे वह सम्राट अशोक के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े हों, या अडवानी के रथ में जलने वाला डीज़ल !  ख़ून तो आम आदमी का ही जाया होता आया है ।

6 एक बात जो रही जा रही थी, वह यह कि वैदिक मँत्रों के उच्चारण में आरोह अवरोह और शब्दों का बिलँबित लोप का उपयोग, ध्वनिविज्ञान के नियमों द्वारा आपकी मनोस्थिति को प्रभावित करती है, सकारात्मक प्रेरणा देती है, यह सर्वमान्य सत्य है । इसमें कोई सँशय नहीं !

7 अँतिम बिन्दु पर मैं यह कहूँगा कि, जिस तरह मुल्लाओं का इस्लाम अल्लाह के इस्लाम पर भारी पड़ने लगा । उसी तरह कर्मकाँडी सँस्कारों ने निःष्कलुष सनातनी हिन्दू मान्यताओं को दूषित कर दिया है । हम प्रतीकों के प्रति उन्मादी हो गये हैं, और मूल्यों के प्रति उदासीन ! आस्था में तर्क का स्थान नहीं है, यह डिस्क्लेमर भी तभी लागू हो पाया । शुक्र है, कि मनुष्य के विवेक को उन्होंने नहीं लपेटा, वह तो हम इस्तेमाल कर ही सकते हैं । आइये इन बहसों को छोड़ कर हम वही करें, जो सहअस्तित्व का विवेक कहता है  । इसका मज़हब याकि किसी ख़ास धर्म से क्या लेना देना ?

चूँकि आपका टिप्पणी बक्सा ज़ियोटूलबार कि वज़ह से दगा दे रहा है, यह स्वतःस्फ़ूर्त असँदर्भित त्वरित टिप्पणी यहीं दे दे रहा हूँ । यदि चाहेंगे तो सँदर्भ भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं । अन्यथा न लें , अल्लाह हाफ़िज़ ! 

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22 July 2009

पता नहीं क्यों ?

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लगता है, आजकल मैं निष्क्रीय हूँ... पूरी तौर पर तो नहीं, कम ब कम ब्लागर पर निष्क्रीय तो हूँ ही.. पता नहीं क्यों ? इस पता नहीं क्यों का ज़वाब तलब करियेगा, तो टके भाव वह भी यही होगा कि, " पता नहीं क्यों ? " यह पता नहीं क्यों हमेशा एक नामालूम सी कशिश भी लिये रहता है, लगता है कि कहीं कोई जड़ता मुझे जकड़ रही है, जकड़ती जा रही है.. पर आप हैं कि, अपने पर हज़ार लानतें भेजते हुये भी, खामोशी से इस निष्क्रियता को समर्पित रहते हैं, पता नहीं क्यों ? मुआ पता नहीं क्यों न हुआ कि इब्तिदा ए इश्क हो गया । है न अनुराग ?

Letter-
अबे पहले तय कर ले, ब्लाग लिखने आया है कि साहित्य रचने ? " यह कोई और नहीं, अपने निट्ठल्ले सनम जी हैं, अँतर से ललकार रहे हैं । कनपुरिया प्रवास के बाद साढ़े तीन दशक से साथ लगे हैं । जब तब मुझे ललकार कर चुप बैठ जाते हैं, गोया पँगे करवाना और उसमें मौज़ लेना ही इनका शगल हो । इनको डपट देता हूँ, ऒऎ खोत्या वेखदा नीं कि असीं लिख रैयाँ, बस्स ।

माफ़ करना मित्रों, यह इसी टाइप की भाषा समझते हैं, आप तो जानते ही हैं कि, फ़ैशन की तरह ही ब्लागिंग और ब्लागर की तरह फ़ैशन कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं ? नित नये प्रयोग !

सो ब्लागिंग के इस दौर में साहित्य की गारँटी ना बाबा ना ! मौज़ूदा दौर तो जैसे गुज़रे ज़माने का बेल बाटम है.. कल यह रहे ना रहे.. पर हम तो रहेंगे, और.. जब रहेंगे तो कुछ ओढ़ेंगे बिछायेंगे भी ! आने वाला कल साहित्य का कोई धोबी जिसकी भी तकिया चादर गिन ले, उसकी मर्ज़ी ! जैसे यहाँ लाबीइँग में वक्त जाया कर रहे हैं, समय आने पर वहाँ सार्थक कर लेंगे ।

अभी से लाइन में लगने की भगदड़ काहे ? चोट-फाट लग जाये तो इससे भी जाते रहोगे । लाइन में लगने की क्या जल्दी थी.. जवाब मिलेगा, " पता नहीं क्यों ? इधर कोई ग्राहक नहीं आ रहा था, तो सोचा खाली बैठने से अच्छा कि अपना ही बँटखरा तौलवा लें, कहीं बाँट में ही तो बट्टा नहीं ?.. ससुर उहाँ भी लाइन लगी थी, घुसे नहीं पाये इत्ती भीड़ रही, पता नहीं क्यों ? “

निट्ठल्ला उवाच : कोई यह न कह दे, " पता नहीं क्यों, ई उलूकावतार इत्ती रतिया में का अलाय बलाय बकवाद टिपटिपाय गये ? याकि ससुर छायावाद की मवाद ठेल गये .. सीधे सुर्रा मूड़े के उप्पर से निकर गवा ! "

तो भईया ई डिस्क्लेमर-वाद है, अर्थ और ही और ! चित्त गिरो या पट्ट.. बाई आर्डर दुईनों एलाउड !

निट्ठल्ला उवाच : इसका भेद हम बताता हूँ, यह कँट्रोल पैनल के पुराने पोस्ट खँगाल रहा था.. इतने दिमागदार नहीं हैं, सो एक घँटे बाद से ही इनका सिर भारी होने लगा और एक घँटा पच्चीस मिनट बाद समझदानी के आउटर पर इँज़नवाँ फ़ेल ! " फिर भेजा इनको कि जायके आज की चिट्ठाचर्चा पढ़ा, सो गये बिचरऊ । बढ़िया है.. विवेक बाबू, बढ़िया है.. बोलि के लौट आये । टिप्पणी न दी, ज़रूरी भी न रहा होगा । कल बछड़ों के दाँत गिनना है, यही सब बतियाते भये खाना खाइन । "

आम खाओगे ? " पँडिताइन जी पूछिन.. " नहीं ! " मुला मुँह से बोले नहीं, मूड़ हिलाय दिहिन, बड़बड़ लगाय रहे आम खाऊँगा तो गुठलियाँ भी देखनी पड़ेंगी । पेड़ कौन गिनेगा, पर गुठली ?

मेरा प्रतिवाद : " चुप्पबे, खुद मेरा ही मन न था... आम जो है.. वह एक मीठा फल होता है ! "

अब ? कुछ ही पन्ने बच रहे थे.. सो, नँदीग्राम डायरी लेकर बैठा और दो सफ़े बाद ही कुछ लाइनें ऎसी मिली कि, अपने आपसे घृणा के प्रयोग करने लग पड़ा । आपको भी बताऊँ ?

लेकिन पहले श्री पुष्पराज जी से क्षमा माँग लूँ । क्योंकि मैं उनकी लिखी कुछ ही लाइनें शब्दालोप के साथ उद्धरित कर रहा हूँ .. " हमें नई बात समझ में आयी कि, जो (............) कहलाने के प्रचार से घृणा नहीं करते थे, वे ही (........ ) होने के प्रचार से आपसे घृणा कर रहे हैं । घृणा की यह चेतना जब ख़त्म हो जायेगी कौन किसके क्या होने से दुःखी होगा ? हम उनके कृत्तज्ञ हैं, जो हमारी चूकों पर नज़र रखते हैं और तत्काल घृणा करना भी जानते हैं । आपकी घृणा ने ही हमें शनैः शनैः इंसानियत की तमीज़ सिखायी है ! "

निट्ठल्ला : आप ई सब काहे लिख रहे हैं, जी ?

भईय्या, भाई जी, मेरे दद्दू.. अपनी सुविधानुसार, आप ही रिक्त स्थानों में ब्लागर और साहित्यकार भर कर देखो न । जो निष्कर्ष निकासो, तनि हमहूँ का बताओ । इतने दिमागदार नहीं हैं, सो इत्ती टिपटिपाई में ही मूड़ भारी हुई रहा है । तो अपुन चलें ? घृणा के साथ मेरे प्रयोग अभी कुछ बाकी रह गये है, फ़िलवक्त तो आप हमें निष्क्रीय ही समझो ।
" पावस देखि ’रहीम’ मन कोयल साधे मौन ।
जित दादुर वक्ता भये इनको पूछत कौन ॥ "

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08 July 2009

जिन्दगी की रेल कोई पास कोई फेल

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आज अभी चँद मिनटों पहले एक पोस्ट पढ़ी.. निठल्ले , सठेल्ले और ............ठल्ले :)

उब दिनों एक गाना सुना करता था, उसे अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ भी लिया ( अभी  ईस्वामी  की टिप्पणी के बाद यह अँश जोड़ा है.. धन्यवाद स्वामी ! )

तो एक गाना सुना करता था.. " जिन्दगी की रेल कोई पास फेल.. अनाड़ी है कोई खिलाड़ी है कोई " बस इसी को पकड़ लिया, " रेल जब हुईहै, तौनि डब्बवा भी हुईबे करि... डब्बवा मा जब हुईहैं जगह तो सवारिन केरि लदबे करी… , सवारिन केरि लदबे करीऽऽ भईया सवारिन केरि लदबे करीऽऽ "

बस इसी को पकड़ लिया, इसके दर्शन को आत्मसात कर लिया.. लगे हुये डिब्बों को परखा, फ़र्स्ट किलास.. सेकेन्ड किलास, जनता, पैसेन्ज़र,  बाटिकट सवारी, बेटिकट सवारी, इस भीड़ में धँसे ज़ेबकतरे, डिब्बे के हाकिम भ्रष्ट टी. टी. वगैरह वगैरह !

बस हर डिब्बे के माहौल को बारी बारी से अपने जीवन का हिस्सा देता हूँ, अउर कौन ससुर ईहाँ से कछु ले जाय का है, यहीं जियो और यहीं छोड़ जाओ ।
आज तक कोई सवारी अपनी यात्रा खत्म होने के बाद… .. डिब्बवा खींच के अपने साथ न ले जा सका है । जउन लेय गवा होय तो बताओ !

तो पार्टनर अपनी चाट में अकड़ लचक बकैत विनम्र भदेस अभिजात्य सबै मसाला की गुँज़ाइश रहती है ! फ़ारसी पढ़वावा चाहोगे तो पढ़ देंगे.. और तेल बिकवाना चाहोगे तो वहू बेच देंगे ।anibl

लेकिन ये न होगा कि अमर कुमार जब डाक्टर साहब बन कर जियें तो ब्लागर प्रेमी अमर कुमार  उनका सतावै और जब डाक्टर जी को जीना न चाहें, तो डाक्टर साहब ज़बरई अमर कुमार में प्रविष्ट हो जायें ! इसी तरह अमर कुमार अपने को जीवित रख पायेंगे ! कुछ लोगों को देखता हूँ, वह अपने पद या अफ़सरी को इस तरह आत्मसात कर लेते हैं, कि  यही  अफ़सरी  उनके  अपने ही स्व  को  उभरने  ही नहीं देती , फिर  वह  दूसरों को  मस्त  देख  बिलबिलाते  हैं ।

जीवन में वेदाँत और वेद प्रकाश कम्बोज दोनों आवश्यक है, कुछ भी त्याज्य नहीं है ! ज़रूरत उसके एक निश्चित मिकदार को समाहित करने भर की हुआ करती है । अउर आपन पोस्ट हम निट्ठल्लन को डेडिकेट न किया करो, ग़र दिमाग ख़राब हो जाय तो फिर न कहना कि... बईला गवा है, बईलान है !

लेकिन आपौ जउन है कि तौन एकु राबचिक फँडे का अँडा लाके इहाँ  झक्कास राखि दिहौ …वा वा वाऽ वाह ! बड़ा सक्रिय चिंतन बड़े निष्क्रीय निर्विकार भाव से प्रस्तुत किया भाई !
मुला हँइच के दिहौ ब्लागरन का !
मेरी यह पोस्ट एक तरह से आपकी पोस्ट पर टिप्पणी है !

अगर अबहूँ समझ मा नाहिं आवा तो, ई सुनि लेयो..

 

 

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05 July 2009

हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है

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यह है जुलाई का महीना, और  इस महीने की पहली तारीख़ हम डाक्टरों के लिये एक ख़ास मायने  रखती है । इन  पँक्तियों के लेखक को  विश्वास है कि, आप में से  अधिकाँश  कुछ कुछ  ठीक पकड़ रहे हैं । यदि ऎसा है तो, आप इन्टेलिज़ेन्ट कहे जा सकते हैं । हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

यदि इस सेवा को जनता मानवतासेवा के रूप में देखना प्रारँभ करती है, तो  इस  दिवस  पर  डाक्टरों द्वारा निःशुल्क जनसेवा का विचार सराहनीय ही नहीं बल्कि अपेक्षित है । मेरे गृहनगर रायबरेली  में यह  प्रतीक्षित  दिवस  त्रयदिवसीय  स्वास्थ्य  मेले  के  उपराँत  आज  की  सुविधाजनक  तिथि  पर  ( यानि 4 जुलाई को ) मनाया  जा रहा है । हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

’ इण्डिया दैट इज़  भारत ’ में इसे डाक्टर स्व० बिधानचन्द्र राय जन्मदिवस पर एक जुलाई को मनाया जाता है । सँयोगवश यह तिथि उनकी निर्वाण-दिवस भी है । सो,  इस  दिन  डाक्टर्स डे  मनाया जाता है । मनाया क्या जाता है, हम  स्वयँ  ही  मना मुनू  लेते हैं । हर वर्ष स्थानीय स्तर पर आई० एम० ए० की शाखा एक वरिष्ठ चिकित्सक को खड़ा कर सम्मानित भी कर देता है । भाषण देने वाले माइक पकड़ लेते हैं, और बाकीजन अपने मित्रों द्वारा उनकी स्वयँ की प्रशस्ति सुनते हुये भोज खाने में व्यस्त हो जाते हैं,  फिर गुडनाइट वगैरह भी होता है । हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

तत्पश्चात सब अपने अपने घर चले जाते हैं । कुछ लोग गुडनाइट से पहले ही वुडनाइट हो जाते हैं, इतने  जड़ और मदहोश  कि  उनको अपने घर  भिजवाना  पड़ता  है । एक दो दिन  तक सम्मानित होने वाले की ईर्ष्यात्मक प्रसँशा की जाती है, उनकी  अनुसँशा  करने  वाले  की भर्त्सना की जाती है, फिर  अगले  वर्ष  तक  के  लिये  सब  ठीक ठाक हो जाता है । हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

सबके  सब  डाक्टर  एक  दूसरे  से  बेख़बर  अपने  अपने  काम  में  लग  जाते  हैं, एकता  की  यह अनोखी मिसाल अन्यन्त्र कहीं देखने  में  कम  ही आती है । हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

उल्लेखनीय है कि,अपने उत्सव मनाने में हम कितने स्वालम्बी हैं, इस तथ्य की अनदेखी कर मोहल्ला सभासद, अपने भारतविख़्यात शायर ’ बेहिसाब कस्बाई जी,’ और उभार  लेती  हुई  इन्डियन  आइडल प्रतियोगी वगैरह अपना सम्मान वा अभिनँदन समारोह मनाने के लिये नाहक ही प्रचार पाते रहे है ।

सामान्य जन द्वारा ऎसी डाक्टरी घटनाओं ( पढ़ें, महत्वपूर्ण अवसरों ) के  प्रति  उदासीनता  निश्चय  ही निन्दनीय है । अवश्य ही हम शर्म करो दिवस या हाहाकार दिवस जैसा कोई आयोजन नहीं कर पाते, पर इस उदासीनता की निन्दा की जानी चाहिये । हम  मानवतासेवी  तो  अभी  तक  ठीक  से  निन्दा  भी  नहीं  कर  पाते । हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

हर व्यावसायिक सेवा में किन्हीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारणों से एक ख़ास वर्ग असँतुष्ट रहा करता है, यह लघु प्रतिशत यहाँ भी उपस्थित है । वैसे मैंने तो लगा रखा है "प्रवेश पूर्व कृपया यह सुनिश्चित कर लें  कि, आप रोगी  हैं  या  जनता का हक  मारने वाले समाजसेवी, लोभी पत्रकार या दँभी अफ़सर ? " पर मीडिया द्वारा केवल इन्हीं को इस तरह प्रचारित किया जाता है, जैसे मानव सेवा के नाम पर चल रहे इस पेशे में चहुँ ओर दानव ही व्याप्त हों ! सच तो यह है कि, जीवन अमूल्य है का मानवीय मूल्य केवल यहीं जीवित है ।

बहुतेरे सुधी पाठक न जानते होंगे कि, यह दिन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर डाक्टर्स डे के रूप में नहीं जाना जाता है । यह भारतीय डाक्टरों के लिये चुना गया एक अखिल भारतीय दिवस है । ई० सन 1933 में डा० चा अलमान्ड की विधवा यूडोरा ब्राउन अलमान्ड को ख्याल आया कि 30 मार्च 1842 को ही उनके स्वर्गीय पति ने जनरल एनेस्थेसिया के रूप में ईथर का प्रयोग करके विश्व की पहली शल्य चिकित्सा की थी ।

सर्वप्रथम यह 30 मार्च 1933 को उनके पैतृक निवास बैरो काउँटी, अमेरिका में स्थानीय स्तर पर मनाया गया । 30 मार्च 1958 को अमेरिकी काँग्रेस ने इसे राष्ट्रीय दिवस के रूप में स्थापित करने का प्रस्ताव पास किया :

Whereas society owes a debt of gratitude to physicians for their contributions in enlarging the reservoir of scientific knowledge, increasing the number of scientific tools, and expanding the ability of professionals to use the knowledge and tools effectively in the never ending fight against disease and death.
जी हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

ई०  सन 1 जुलाई 1962  को  डा०  बिधानचन्द्र राय  के  देहावसान  और  चीन से  मोहभँग के  बाद, अमेरिका  की  तर्ज़ पर  प्रधानमँत्री  ज़वाहरलाल नेहरू  ने 1963 जुलाई से इसे डाक्टर्स डे के रूप में मनाये जाने की घोषणा की थी । सँभवतः यह तत्कालीन महामनाओं को उनके व्यक्तित्व के अनुरूप सम्मान न दे पाने के असँतोष को शमन करने की उनकी नीति रही हो । यह मेरे व्यक्तिगत गवेषणा का विषय है कि,पँ० ज़वाहरलाल नेहरू किस सोच के अन्तर्गत व्यक्ति विशेष के जन्मतिथियों को राष्ट्रीय पर्व घोषित कर दिया करते थे । जी हाँ, आप ठीक पढ़ रहे हैं, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

अमेरिकी सीनेट और राष्ट्रपति जार्ज़ बुश ने 1990 में  डाक्टर्स डे  को  कानूनी  ज़ामा  पहनाया  और इसे  अनिवार्य  राष्ट्रीय दिवस  की  मान्यता दे दी ।

Whereas society owes a debt of gratitude to physicians for the sympathy and compassion of physicians in administering the sick and alleviating human suffering. Now, therefore, be it resolved by the Senate and House of Representatives of the United States of America in Congress as follows:
1. March 30 is designated as National Doctors Day.
2. The President is authorised and requested to issue a proclamation calling on the people of the United States of America to celebrate the day with appropriate programmes, ceremonies and activities.
The enactment of this law enables the citizens of the United States to publicly show their appreciation to the role of physicians in caring for the sick, advancing medical knowledge and promoting health.

जी हाँ, बात डाक्टर्स डे की हो रही है ।

docday2बस यहीं पर मेरा असँतोष मुखर होता है, क्योंकि डाक्टरों में कोई राजनैतिक भविष्य हो, या ना हो पर, डाक्टर्स डे को लेकर जनसमाज में निरँतर बसी उदासीनता मन में एक क्षोभ या अलगाव पैदा करती है । चलो फिर भी, कम से कम यह कहने को तो है कि, इवन अ डॉक हैज़ हिज ओन डे ! 
जी हाँ, अब तक बात डाक्टर्स डे की ही हो रही थी ।

DrBC Roy -composed by Amar

tn_docचलते चलते :

जरा इन डाक्टर साहबान से भी मिलना न भूलियेगा.. सीरियसली भई, एक बार मिल तो लें, पछताना न पड़ेगा !

 

 

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14 June 2009

विस्मृत बिस्मिल और ब्लागर च तनवीर

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पहले तो यह बता दूँ कि,यह पोस्ट भँग की तरँग में नहीं लिखी जा रही है । मानता हूँ कि शीर्षक बड़ा अटपटा बन पड़ा है, बल्कि यदि मुझे स्वयँ ही टिप्पणी देनी होती, तो उसे फ़कत एक लाईन में समॆट देता, " तेली के सिर पर कोल्हू ! " पर इस शीर्षक के पीछे एक मज़बूरी भी है , कृपया इसे सारथीय टोटका न मानें । मँगलवार 9 जून को सायँ चँद सतरें मरहूम हबीब तनवीर साहब पर पोस्ट करने का इरादा था कि, अचानक एक पारिवारिक आपदा आन पड़ी । मेरे बहनोई देवाशीष नहीं रहे,अब वह स्वर्गीय देवाशीष के नाम से याद किये जाते रहेंगे । अस्तु, यह रह ही गया ।

कल वृहस्पतिवार 11 जून को हुतात्मा बिस्मिल जी की जयँती थी । पूरे दिन उन पर दो शब्द सुमन अर्पित न कर पाने का मलाल बना रहा । रात में कुछ समय चुरा कर ब्लागर पर आया, तो आते ही बहक गया । शिव-भाई की पोस्ट ऎसी न थी कि, देख कर टहल लिया जाय ।
आज लिखते वक़्त यह भान भी न हुआ कि, इनको एक मँच देखना कितना कठिन है ? इस तरह द्राविड़, उत्कल, बँगा-नुमा इस पोस्ट को एक पँक्ति का यह शीर्षक देना पड़ा, मानों जाट और तेली की तकरार हो रही हो.. सो, बन  गया  " तेली के सिर पर कोल्हू ! " इनमें तुक मिलाना आपका काम है, पर लगता है कि, शीर्षक मे वज़न है

اَلہمدُلِّاہ ربدِلآلمین اَلرہمانے رہیم
مالِک یومیتّدین ایدنت پھِراتل مُتّکیم 

अलहमदुल्लिाह रबदिलआलमीन अलरहमाने रहीम
मालिक योमेत्तदीन एदनत फिरातल मुत्तकीम

हबीब तनवीर साहब को यूँ इन लफ़्ज़ों से रुख़सत कर देना मौज़ूँ रहेगा ? नहीं, क्योंकि अब तक उनकी शख़्सियत पर तकरीरें लिख कर कई कालमिस्ट चेक की रकम ज़ेब के हवाले कर चुके होंगे । मेरी उनसे कोई ऎसी मुलाकात भी न थी कि, उसका दम भरा जाय । एक इन्सान के तज़ुबों में दस मिनट कम नहीं होते । बहुत कुछ हासिल किया और खोया जा सकता है, उनसे  मेरी  मुलाकात  दस  मिनटों  की  ही  रही है । पर उन मिनटों ने साफ़गोई के मेरे  ऊसूल में  बेइख़्तियार इज़ाफ़ा किया , बल्कि  समझिये  कुछ  और पुख़्ता  ही हुआ । आमीन !

उन दिनों मुझे मुगालता बना रहता , कि मैं ही एक तन्हा साफ़गो हूँ । यह एक ज़िद थी, जो बढ़ती ही जा रही थी, तभी तनवीर साहब से मुलाकात का एक सबब बन गया । सुना कि, वह लखनऊ में हैं, और हम निकल पड़े

हम यानि कि मेरे बालसखा सँतोष डे और मै । इन्होंने मेरे रुझान को देखते हुये इप्टा में शामिल कर लिया । और मेरी निष्क्रियता से आज़िज़ होकर मुझे स्थानीय यूनिट के सँरक्षक होने का प्रस्ताव भी पारित करा लिया, आजकल वह इप्टा के प्रान्तीय यूनिट के कार्यकारी उपाध्यक्ष हैं, अविवाहित भी हैं, लिहाज़ा  खुल कर सक्रिय हैं ।

तो.. हम पहुँचे लखनऊ । सँतोष आगे चलते और मैं कार्यकर्तानुमा एक चमचे सरीखा उनके पीछे लगा रहता । अल्ला अल्ला ख़ैर सल्लाह, मुलाकात हुई । वह बैठे थे, सोफ़े पर इस कदर पसरे हुये कि आपको एकबारगी यह इहलाम हो कि उस पर देवदार की एक शहतीर टिकी हुई हिल सी रही है । उन्होंने अपने को सीधा किया, और पाइप का धुँआ खिड़की की तरफ़ मुँह करके बाहर को उगला । सलाम के उत्तर में सँतोष डे के लिये होठों पर एक स्मित रेख, और मेरे लिये आँखों में  जैसे " जी कहिये ? " अपनी प्रश्नवाचक भँगिमा और मुस्कुराते होंठों को इस बखूबी बाँट रखा था, कि साफ़ ज़ाहिर होता, कौन किसके लिये है । मेरे मित्र ने मेरा तवार्रुफ़ उनके पेश ए नज़र की, " यह डाक्टर... " ताकि आइँदा मैं परिचय का मोहताज़ न रहूँ । ज़वाब में सिर की एक ज़ुँबिश.. और वह फिर खिड़की से बाहर देखने लग पड़े, पाइप के क़श के साथ । दो सेकेन्ड भी न बीते होंगे कि, मैं बेहाल सा होगया, मेरे चेहरे ने घूम कर सँतोष का चेहरा देखा " यह कुछ बोलते क्यों नहीं ? " शायद रँगमँच को लेकर व्याप्त उदासीनता ने उनको तल्ख़ बना दिया होगा, " तो.. कुमार साहब आपकी हम नौटँकी वालों में दिलचस्पी कैसे हुई ? " मैं भला क्या कहता, बस एक ठहरे हुये इँज़िन की तरह ढेर सा स्टीम बटोर कर कुछ अटक फटक ही कर सका । और  उसी तरह ठिठक कर रुक भी गया ।

  इससे आगे  बढ़ता हूँ, तो आपका पढ़ने का टेम्पो जाता रहेगा । इसलिये यह मुलाका्ती ब्यौरा यहीं पर छोड़ें,  किस्सा कोताह यह कि उस दिन से मैं उनकी साफ़गोई और पारेषण क्षमता का आशिक व शागिर्द  हूँ । 

श्रद्धेय श्री रामप्रसाद ’ बिस्मिल ’ को भला कौन नहीं जानता ? पर यह भी सच है कि, बहुत से जन उन्हें नहीं जानते । क्योंकि उन्हें जानने का मौका ही न दिया गया । अचपन के एक मुख्य पात्र तन्मय जी, जो आजकल रायबरेली आये हुये हैं ।  मैं बिस्मिल जी का जन्मदिन उनसे पूछ बैठा, ऎसे  कठिन  क्षणों  में  भी  मेरे  मन  में उनका  जन्मदिन  घुमड़  रहा  था । वह तो बिस्मिल नाम से ही अनभिज्ञ  थे, लेकिन " सरफ़रोशी की तमन्ना " में निहित रुमानियत के दीवाने हैं । उनका तर्क है, " जब कोर्स में ही नहीं है, तो मेरी चिन्ता नाज़ायज़ है । "

इस कड़ी में, यही प्रश्न मैं कई किशोरों से पूछता रहा, वह सिर खुज़ला कर प्रतिप्रश्न दाग बैठे कि, “ अग़र मह्त्वपूर्ण जयँती होती , तो आज छुट्टी क्यों नहीं है ? “ तभी निरुत्तर हो, मैं यह पोस्ट लिखने को बैचैन हो उठा

हर वर्ष छुट्टीट्यूड से ग्रसित देश के लिये एक नये जयँती की घोषणा हो जाती है । व्यक्तिगत  और  राजनैतिक हितों को जनजागृति से ऊपर रखने की शुरुआत तो बहुत पहले ही हो गयी थी । ओह,यह क्या कह रहा है ?

The three appellants Ram Prasad, Rajendra Nath Lahiri and Raushan Singh, who were sentenced to death and subject to confirmation by this Court, became entitled, under a practice  of the local Government which has been in force for some years, to legal assistance at the expense of the Crown. The appellants, who had not been sentenced to death, were not entitled to legal assistance at the expense of the Crown. But as a special case the Crown had allowed them legal assistance & paid for it. Ram Prasad in his petition of appeal, demanded as of right to select his own counsel. He stated that he would only be satisfied if he was represented by a Gentleman called Mr Gobind Ballabh Panth ….. The Crown approached Mr Gobind Ballabh Pant and offered him the brief. He refused to accept it on the fee that the Crown was ready to pay.”  Gobind Ballabh Pant, who had refused to defend the great freedom fighter only because of less money went on to become the Home Minister of India & the longest serving Chief Minister of Uttar Pradesh.

परसों यानि कि 11 जून को बिस्मिल जयँती थी । कहीं कोई हलचल नहीं, कहीं कोई उल्लास नहीं, उनके गाँव वाले घर ( जो अब बिक गया है ) उत्सव के माहौल में भी आक्रोश का स्वर था । शायद ज़ायज़ भी है, मँचासीन होकर “ भगत सिंह, बिस्मिल, अशफ़ाक जैसे सपूतों की धरती “ की दहाड़ लगाना अलग बात है । मैं नहीं समझता कि झलकारी, लोहिया, या पँत ने इन सिरफ़िरों से अधिक त्याग किया होगा कि स्मारक के हकदार हों

ऎसे सिरफ़िरों को श्रद्धाँजलि देने के लिये, मेरे पास शब्दों का भँडार है । पर, यह मेरी पहुँच से बाहर है । क्योंकि इनके ज़ज़्बों के सम्मुख हर भारतवासी बौना है , मैं उनको बस स्मरण ही कर सकता हूँ ।

मृत्यु पूर्व होशो हवास में लिखे हुये इन ज़ज़्बों को भला कौन छू सकता है, एक्स-वाई-ज़ेड सेक्यूरिटी पाने वाले ?

Pandit_Ram_Prasad_Bismil

19 तारीख को जो कुछ होगा मैं उसके लिए सहर्ष तैयार हूँ।
आत्मा अमर है जो मनुष्य की तरह वस्त्र धारण किया करती है। 

यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्रो बार भी ।
तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी ।।
हे ईश! भारतवर्ष में, शतवार मेरा जन्म हो ।
कारण सदा ही मृत्यु का, देशीय कारक कर्म हो ।।

मरते हैं बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैंकड़ों, उनके रूधिर की धार से ।।
उनके प्रबल उद्योग से, उद्धार होगा देश का ।
तब नाश होगा सर्वदा, दुख शोक के लव लेश का ।।

सब से मेरा नमस्कार कहिए,  तुम्हारा- बिस्मिल" ( यह एक पुर्ज़े पर लिखा हुआ पत्राँश है.. )

पर उन्हें यही सँतोष रहा किया कि,
शहीदों की चिता पर लगेंगे, हर बरस मेले । वतन पर मिटने वालों का यही आख़िरी निशाँ होगा..

  AADDEEFFHHHH

यूँ ही निट्ठल्ले के सँग कुछ न कुछ तो है.. कि जाते थे जापान पहुँच गये चीन समझ लेना ! यान्नि यान्नि यानि .. इतने झँझावात के बावज़ूद भी, मैं मौका पाते ही नेटायस्थ होता भया, कि चलों मेला वेला देखि आयें, ऎसे किसी मेले का ब्लागर पर निशाँ तो क्या, नामो-निशाँ भी न था । दिख गया शिवभाई का एक टटका पोस्ट !

समय निकाल आया तो था,  बिस्मिल जी को उनकी जयँती पर याद करने.. लेकिन  शिवभाई की पोस्टिया ने जैसे लपक कर रास्ता छेंक लिया । उसे  पढ़ा, फिर गौर से पढ़ा और  यही  समझा  कि, यहाँ पर भी स्वतँत्रता जैसा  कुछ  कुछ  हो गया  था  और वह  गुज़र  चुका  है  ।  लाओ हम तनिक लकीरै पीटि देंय
तब का बुद्धिजीवी अँग्रेज़ों के भ्रुकुटि का गुलाम था, आज का बुद्धिजीवी अँग्रेज़ी सोच की मानसिकता का ताबेदार है, पिछले छः दशक से भारतीयता और देसी सँदर्भों पर यह कैटरपिलर अवस्था से बाहर आना ही नहीं चाहता ।

सशँकित भी है,  न जाने कौन सी चिड़िया उसे चुग जाये ? उस पर तुर्रा यह कि इस कैटरपिलर केंचुवे को खुल्ले में आने की, चर्चित होने की ललक भी है ।  नोटिस किये जाने व टी.पी.आर. की दुश्चिन्ता को वह छिपाये भी रखना चाहता है, यह बाद की बात है । फ़िलहाल दिखलाता यही है कि,वह रचनाधर्मिता की बग्घी को सँवेदनाओं की सँटी से हाँकने को अभिशप्त है । ऎसी बग्घियाँ आपको हर सर्वहारा टाँगा स्टैन्ड पर सस्ते में मिल जायेंगी ।

देखो अपुन का फ़ँडाइच अलग बैठेगा, शिवभाई ! डर कर लिखना.. दबाव में लिखना.. समझौतों पर लिखना.. पाठकों की पसँद के हिसाब से लिखना.. यानि कि अपने ही विचारों और शब्दों का गला घोंटना, एक तरह की हाराकिरी है । यह अपने अँदर के एक लेखक बटा ब्लागर की आत्महत्या है ।  क्या यह मौलिक कहलायेगा ?
बेहतर है कि,अभिव्यक्ति के स्वतन्त्रता की मानसिक नौटकीं की स्क्रिप्ट राइटिंग करते रहना !  यही पर एक गड़बड़  भी है, कि ब्लागरीय ठुमके हिट और फ़िट हैं, लेकिन वह फिर कभी.. वरना अपुन के हलके के भाई लोग इसे जलेली-कुड़ेली कुँठित पोस्ट कह कर सरक लेंगे ।

इदर ब्लागर का लफ़ड़ाइच डिफ़रेन्ट है, सच्ची  लिकेगा तन कौव्वा काटेगा ! अईसा किस माफ़िक चलेंगा ? जब लिखेला, सच्ची बात लिखेला तण डरने का लोचाइच क्या ? अपुन तो फ़ुल्ल टाइम राइटर बी नईं है, पण अपना लिखा कब्भी से कब्भी भी नहीं हटाया । एडीटर नईं छापता, कोई वाँदा नईं.. अपुन को रोकड़े का चेक नईं मिलेंगा, तो चलेंगा । पण, चित्रगुप्त साहब के खानदानी को कुच लिक के हटाने का प्रेंसिपल बनताइच नईं, जी !

पँडित दिनेशराय द्विवेदी जी मेरे टाप टेन मित्रों में हैं,मैं उन्हें खोना भी नहीं चाहता । वह चाहते तो टिप्पणी बक्से में ही पर्याप्त ऊधम मचा सकते थे, जो उन्होंने नहीं किया । पर मिस्टर डिलीट जी, मित्रवत राय देना एक अलग बात है.. उस पर विचार करके अमल में लाना उससे ज़्यादा अहम बात है ।  आपसे पूछ कर कौन पँगा लेगा कि आप ब्लागर को  महत्व दे रहे हैं, या उसके पेशे को ? अपनी सोच को या मित्रवत राय की पसँद को ?

अपने डाक्टर साहब जब दूभर मचाते हैं, तो सबसे पहले  मैं  उनको  ही खूँटी  पर  टाँग  कर कीबोर्ड  के  सम्मुख   “ प्रथम  वन्दहूँ  बरहा..  लाइवराइटर ,   पुनि ब्लागर  सुमिरैं  गूगलदेव “  गायन के बाद ही ब्लागियाना आरँभ करता हूँ ।  वरना  तो  जीना  ही  मुहाल  हो जाता,  इतनी बार इतनी जगह इतनी पोस्टों पर डाक्टर कि डकैत की गुहार सुन चुका हूँ , कि खिड़की के बाहर देख कर  खुद तस्दीक करनी पड़ती है कि, कहीं  मैं ही तो किसी मन्त्री आवास में नहीं घुस आया ?  पण श्शाब जी, अईसा है ना कि, जब हम बोलेगा तो बोलेंगे कि चोलता है !

वईसे अँदर की बात है कि, एक बार “ बेचारा सफ़ेद एप्रन काले कोट से बहुत डरता है, “ से काला कोट मैंनें भी हटा दिया था, क्योंकि तब हिन्दी ब्लागरीय तहज़ीब ( ? ) से इतना परिचित न था कि तू ये हटा, मै वो हटाता हूँ

वईसे पँडित जी खुद्दै कहिन है,कि, " कोई भी सिरफिरा वकील मीडिया में सुर्खियाँ प्राप्त करने के चक्कर में.. " यानि कि उसकी सँवैधानिक पात्रता और मोटिव दोनों ही उनके इस अदने से ज़ुमले रेखाँकित होते हैं । अगर सिरफ़िरे का साट्टिफ़ीकिट चाही, हमरे लगे पठाओ । हम सबको जब इसी समाज में एक साथ ही जीना है तो, वह भी मुहैय्या करवाया जायेगा । सिरफ़िरेज़ आर द हैपेनिंग थिंग । बँदरबाँट वालों को उनकी ज़रूरत रहती है

एक बार तरकश पर मेरे आलेख को किसी ने भद्दी से भद्दी टिप्पणियों से नवाज़ा था, दो दिन तक उसे माडरेट न होते देख सज्जन कुँठित हो उठे । रोमन में प्रारँभ हुये, इससे पहले कि, वह ग्रीक तक पहुँचते, मैंनें उन्हें ललकार दिया कि, मानहानि का दावा ठोंकि दे यार.. चाहे मैं जीतूँ या तू हारे.. वकील सहित तेरा हिस्सा पक्का ! ज़नाब मुकर गये यानि कि चुप मार गये । तब से मैं उनके पीछे लगा हूँ, बहुत अनुयय भी किया, " भाई साहब, प्लीज़ ... प्लीज़ मान भी जाओ, एक केस डाल दो..। " प्यारे मिरचीलाल जी, आप जहाँ कहीं भी हों, यदि यह पोस्ट पढ़ रहें हों, तो एक बार पुनः निवेदन है कि, कृपया एक मिसाल कायम करने में  मेरी सहायता करें ।

यदि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ यथार्थ लिखा है, तो कुठाराघात को तैयार रहिये । अच्छी बुरी खरी खोटी पसँद नापसँद ही सही आपकी पोस्ट आपका मानसपुत्र है (  चलिये, कविताओं  को भी मानसपुत्रियाँ  मान लीजिये ) । थोड़ी आहट क्या हुई, इसे, अपने सृजित को, कुरूप  ही  सही, पर   अपने  ही  हाथों ( एक अदने से चूहे की मदद से ) ज़िबह कर दो । पोस्ट हटा लो, पुनर्लारवाचः भव,   पुनः लारवे के खोल में लौट जाओ,  यह क्या  है ?  फिर तो,  हिन्दी ब्लागिंग पँख पसार चुकी ? कर जोरि हम मिलि बैठि लारवा कैटरपिलर में विचरते रहें

यह परस्पर सौहार्द व आदर का  दोहन है, जो हर एक ईमानदार ब्लागर की मँशा पर प्रश्न उठाता है । अभी तो, यहाँ पर समय और श्रम के व्यर्थ ही दुरुपयोग की बात ही नहीं की जा रही है । नतीज़ा यह कि, हम जहाँ हैं वहीं पर घूमते रह जाते हैं.. मातृभाषा के आगे न बढ़ पाने में यह अस्वस्थता कितनी बाधक है, यह  तो अभी नहीं लिखूँगा । आप तो जानते ही हैं कि, अभी टैम नहीं है, शिवभाई !

ऊड़ी बाबा ! mouse_quiet_shh_sm_nwm

मात्र 8095 शब्दों की पोस्ट ? कुछ पता ही न चला । भँग की तरँग तो गुज़रे ज़माने की यादें हैं, यह ब्लागर की तरँग थी । कोई ज़रूरी नहीं कि, आप नेट पर उपलब्ध हर आम और ख़ास को पढ़ें, मुझे तो यह लिखना ही था । सो,यहाँ दर्ज़ कर दिया । बाकी आप जानो ।  वैसे दर्ज़ तो यह भी  होना  चाहिये   कि  परस्पर यह क्यों  याद  दिलाया  जाय  कि,

हममें  से  कोई  भी  इतना  शक्तिशाली  नहीं  है, जितना  कि  हमसब  एक  होकर  होंगे । हमारे सँसाधनों, सोच, व्यय  किये  गये  समय  एवँ  श्रम  की  पहचान  होनी  अभी  बाकी  है, तभी  आप हम  सुने  और  स्वीकारे  जायेंगे । नमस्ते भले ही आप हम निट्ठल्लों को कुछ नहीं समझते

इससे आगे

27 May 2009

नँगे सच में नहायी बहना

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देख भाया, मेरी गलती नहीं हैं । आजकल हाल है कि, ’ जाते थे जापान .. पहुँच गये चीन समझ लेना ’ तो पढ़ा ही होगा । अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल एक मिन्नी सी,  सौम्य.. लजायी हुई पोस्ट देकर अपने जीवित होने की गवाही देनी पड़ी । बताइये भला.. मेरी एक चिरसँचित इच्छा पूरी हुई,  दादा विनायक सेन रिहा हुये,  और  मैं  ब्लागर होकर  भी  अपनी खुशी की चीख-पुकार खुल कर न मचा सका । बिजली की आवाज़ाही, अफ़सरों का विदाई और स्वागत समारोह एटसेट्रा करीने से एक पोस्ट भी न लिखने दे रहा है !कुश जी,  अब तुम न कह देना, कि पहले ही कौन सा करीने से लिखा करते थे । मुझे यूँ छेड़ा ना करो, मैं ठहरा  रिटायर्ड नम्बर !

भूमिका इस करके बन रही है कि, आज बड़ी जोर की ठेलास लगी है.. और बुढ़ाई हुई बिजली नयी माशूका की तरियों कब दगा दे जाये कि अपुन कोई रिक्स लेने का नहीं ! लिहाज़ा, आज अपनी एक पुरानी वाली को ही ठेल-ठाल कर सँतोष किये लेते हैं,का करें ?

अप्रैल 2008, एक नया राष्ट्रीय मुद्दा उठा रहा, कि युवराज राहुल विदेशी साबुन से नहाते हैं : और समय का फेर देखो कि पट्ठा खुदै धूल फ़ाँक के सबैका धूल चटाय दिहिस । हमरी हिरोईन तिलक तलवार तराज़ू के तिपहिये पर दिल्ली कूच करते करते रह गयीं !

पहले तो यह बतायें कि इस पोस्ट का उचित शीर्षक क्या होना चाहिये था , नंगे सच की माया या  माया का नंगा सच ? जो भी हो, आपके दिये शीर्षक में एकठो नंगा अवश्य होना चाहिये, वरना आपको भी मज़ा नहीं आयेगा ! वैसे राजनीति पर कुछ कहने से मैं बचता हूँ । एक बार संविद वाले चौधरी के बहकावे में, मै ' अंग्रेज़ी हटाओ ' में कूद पड़ा था, अज़ब थ्रिल था, काले से साइनबोर्ड पोतने का ! लेकिन इस बात पर, मेरे बाबा ने अपने  इस चहेते पोते को धुन दिया था, पूरे समय उनके मुँह से इतना ही निकलता था, "भले खानदान के लड़के का बेट्चो ( किसी विशेष संबोधन का संक्षिप्त उच्चारण, जो तब मुझे मालूम भी न था ) पालिटिक्स  से  क्या मतलब ? " यह दूसरी बार पिटने का सौभाग्य था, पहली बार तो अपने नाम के पीछे लगे श्रीवास्तव जी  से पिंड छुड़ाने पर ( वह कहानी, फिर कभी ) तोड़ा गया था । खैर....

आज़ तो सुबह से माथा सनसना रहा है, लगा कि बिना एक पोस्ट  ठेले काम नहीं चलेगा, सो ज़ल्दी से फ़ारिग हो कर ( अपने काम से ) यहाँ पहुँच गया.. पोस्ट लिखने । पीछा करते हुये पंडिताइन  भी  आ  धमकीं, हाथ में छाछ का एक बड़ा गिलास ( मेरी दोपहर की खोराकी का लँच ! ) ,तनिक व्यंग से मुस्कुराईं, " फिर यहाँऽ ऽ , जहाँ कोई आता जाता नहीं ? " इनका मतबल शायद पाठक सँख्या  से  ही  रहा होगा । बेइज़्ज़त कर लो भाई, अब क्या ज़वाब दूँ मैं तुम्हारे सवाल का ? अब थोड़ी थोड़ी ब्लागर बेशर्मी मुझमें भी आती जारही है, पाठकों का अकाल है, तो हुआ करे ! ज़ब भगवान ने ब्लागर पैदा किया है, तो पाठक भी वही देगा , तुमसे मतलब ?  आज़ तो लिख ही लेने दो कि..

सुश्री मायावती, नेहरू गाँधी के बाथरूम में साबुन निहारती मिलीं, किस हाल में मिली होंगी  यह न पूछो ! कभी कभी यह पंडिताइन बहुत तल्ख़ हो जाती हैं,' जूता खाओगे, पागल आदमी !' और यहाँ से टल लीं । मुझको राहुल बेटवा या मायावती बहन से क्या लेना देना, लेकिन यह लोकतंत्र का तीसरा खंबा मायावती की मायावी माया में टेढ़ा हुआ जा रहा है, इसको थोड़ा अपनी औकात भर टेक तो लूँ, तुम जाओ अपना काम करो ।

मुझसे यानि एक आम आदमी से क्या मतलब, कि राहुल अपने घर में इंपीरियल लेदर से नहाते हैं या रेहू मट्टी से ? चलो हटाओ, बात ख़त्म करो, हमको इसी से क्या मतलब कि वह नहाते भी हैं या नहीं ? हुँह, खुशबूदार साबुन बनाम लोकतंत्र ! लोकतंत्र ? मुझे तो लोकतंत्र का मुरब्बा देख , वैसे भी मितली आती है, किंन्तु ... !

सुश्री मायावती का सार्वज़निक बयान कि " यह राजकुमार, दिल्ली लौटकर ख़सबूदार ( मायावती उच्चारण !! ) साबुन  से नहाता है ।" मेरी सहज़ बुद्धि तो यही कहती है, बिना राहुल के बाथरूम तक गये , ई सबुनवा की ख़सबू उनको कहाँ नसीब होय गयी ? अच्छा चलो, कम से कम उहौ तो राहुल से सीख लें कि दिन भर राजनीति के कीचड़ में लोटने के बाद, कउनो मनई खसबू से मन ताज़ा करत है, तो पब्लिकिया का ई सब बतावे से फ़ायदा  ? दलितन का तुमहू पटियाये लिहो, तो वहू कोसिस कर रहें हैं ! दलित कउन अहिं, हम तो आज़ तलक नही जाना । अगर उई इनके खोज मा घरै-घर डोल रहे है, तौ का बेज़ा है ?

माफ़ करना बहिन जी, चुनाव के बूचड़खाने में दलित तो वह खँस्सीं है, वह पाठा है, कि जो मौके पर गिरा ले जाय, उसी की चाँदी ! दोनों लोग बराबर से पत्ती, घास दिखाये रहो । जिसका ज़्यादा सब्ज़ होगा, ई दलित कैटेगरी का वोट तो उधर ही लपकेगा । ई साबुन-तेल तो आप अपने लिये सहेज कर रखो, आगे काम आयेगा । अब आप जानो कि  न जानि काहे..   चुनाव पर्व  के  नहान  के फलादेश पर बज्रपात कईसे हुई गवा .. रामा रामा ग़ज़ब हुई गवा .. चोप्प, मैं कहता कहती हूँ चौप्प ! चुप हो जाओ, चुप्पै से !

लो भाई, चुपाये गये.. अब तो राम का नाम लेना भी गुनाह हो गया । लोग  सँदिग्ध निगाह से  घूरते हैं, कि  अडवाणी  से अब भी सबक  नहीं ले रहे.. राम  का  नाम  बदनाम  करके  ऊहौ  कुँकुँआत  फिर  रहे  हैं,  फिर  तो  कोई  रावणै  इनका  भला  करी..  
करै दो यार,  भलाई  के  नाम  पर  कोई  तो कुछ  करे, भले  ही  वह प्रजापालक रावण होय ! सीताहरण तो अबहूँ होबै करी ..          जस नेता रहियें तौ सीताहरण होबै करी.. चुनविया का हुईहै अगन परिच्छा तौ धमक हुईबे करी…
एक कुँवारी-एक कुँवारा ! बेकार में, काहे को खुल्लमखुल्ला तकरार करती हो ? भले मोस्ट हैंडसम के गालों के गड्ढे में आप डूब उतरा रही हो, लेकिन पब्लिकिया को बख़्स दो । सीधे मतलब की बात पर आओ, हम यानि पब्लिक मदद को हाज़िर हैं ।  अब दुनिया  भर  का  ई साबुन - तौलिया वाला…  टिराँस्फ़र पोस्टिंग की नँगी माया .. काहे ?
सोनिया बुआ, उधर अलग बड़बड़ा रही हैं, " मेरा लउँडा होआ बैडनेम, नैस्सीबन तिरे लीये...ऽ ..ऽ

 

इससे आगे

18 May 2009

जीवनदास को कड़ी से कड़ी सजा दी जाये

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बड़े दिनों से यह “ चलता रहे.. चलता रहे.. “ देख व सुन रहा हूँ । यूँ तो मैं ’ निट्ठल्ला इफ़ेक्ट ’ से इतना पका हुआ हूँ कि, टेलीविज़न बहुत ही कम देखता हूँ । एक म्यान में दो तलवारें वैसे भी कहाँ रह पाती हैं ? अरे, निगोड़ी ब्लागिंग को शामिल न भी करें, तो भी आप यही समझ लीजिये कि “ बुद्धू को कहाँ बुद्धू बक्सो सों काम ? “ फिर भी.. कुछ तो है,  कि आज  एक बेकार सा मुद्दा पकड़ कर बैठा हूँ, कि  न्याय मिले 
                                                       पहले तो आप इन जीवनदास से मिलिये
         
मिल भये… क्या समझे ? अभी फ़िलवक़्त मुझे प्लाई-व्लाई तो लेनी नहीं है, सो मैं तो यही समझ रहा हूँ, कि भारतीय न्याय-वयवस्था इतनी धीमी और लचर है कि, “ चलता रहे… चलता रहे…. ! “ है कि, नहीं ?

इस मख़ौल की पराकाष्ठा तो यह है कि, ’ बैल से दँगा करवाने के ज़ुर्म में .. ’ जैसा आरोप और बैल को अदालत में तलब किये जाने की माँग, जैसा अदालत का बेहूदा कैरीकेचर खींचा गया है, सो तो अलग !

आदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी से आग्रह है कि, या तो वह जीवनदास को न सही, पर उसके आरोपी बैल को ही कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवायें, और इस नाटक का पट्टाक्षेप करवाने का प्रयास तो कर ही लें !

मुआ ग्रीनवुड प्लाई न हो गया, राम-मँदिर का मुद्दा हो गया ! मुझे तो इसमें आख़िरी बार बोले जाने वाला ’ चलता रहे.. चलता रहे ’ में पिटे हुये अडवाणी की आवाज़ सुनायी दे रही है.. या यह  मेरा भ्रम है ?

इससे आगे
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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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