जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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23 April 2008

बचना, ओऽ ..ऽ ख़बीसों....लो मैं आ गयाःऽ

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लोजी लो, मैं तो राँची से लौट भी आया, अब कहोगे कि  अपनी मनगढ़ंत पूरी करो । सो, पूरी तो करना ही पड़ेगा वरना सबलोग क्या कहेंगे ? यही ना कि दो दो ब्लाग का बयाना लिये पड़ा है, वहाँ ' काकचरितम'  अधूरी छोड़, एक मनगढ़ंत पोस्ट को भी अधर में टाँग कर यहाँ टहल रहा है । कल की पैदाइश और ख़लीफ़ागिरी चालू ! बाँयीं आँख भी सुबह से फड़क रही है, इधर शीर्षक में भी ख़बीस घुस आया है, अल्लाह जाने क्या होगा आगे ? कोई भी जीवित या मृत बंधु ख़फ़ा न हों । ख़बीस महोदय क्योंकर आये , यह वही जानें क्योंकि.... मैं  त्त्तो  देबुदा के किल्ले सै जुझ्झ रहा थ्था, ई ब्लगिया अधीक्रित्त्त कर्र रहा थ्था, ब्लगिया अधिकृ नईं हुयी त्तो मैंकिया करूँ सो ख़बीस का ख़ुलासा मेरे बैग में ही पड़ा रहने दें, वह सब बाद में... ' फ़िलहाल तो यह पोस्ट पूरा करना भी पहाड़ लग रहा है ।

ऎज़ आलवेज़ हैपेन्स ... ,दिस पूअर मैन पोज़ेज़ एंड पंडिताइन डिस्पोज़ेज़, करलो जो करना है और इनका हौसला बढ़ाने वाले भी हैं । पंडिताइन उवाच " रेलयात्रा का मोर्चा फ़तह कर लेने से ही क्या होता है ? उस मनगढ़ंत के घुरहू को  पहले जस्टिफाई तो करलो .. वरना लोग क्या सोचेंगे ? " मन हुआ बोलूँ, लोगों की छोड़ो ! तुमको कब से फिकर होने लगी ? लेकिन अँखिया पहले से ही फड़क रही है, हटाओ जाने दो । आज खटखटाय लेयो कुंजी , ओ डाक्दर राज्जा..

                                                     बचना ओ ख़बीसों, लो मैं आगया बाई अमर 

अब घुरहू का साक्षात्कार  लगता है, मुझसे तो  इस जन्म में शायद पूरा नहीं हो पायेगा । यह अकारण ही नहीं ? इसकी एक ज़ेनुइन वज़ह है, श्री घुरहू महाराज मौके पर से फुर्र हो चुके हैं । सावधानी हटी, दुर्घटना घटी जैसा केस है ।

मात्र चार दिनों में ही मेरे इस मानस चरित्र को कतिपय हरफ़न मौलाओं व ज़ब्बरों ने नेपथ्य में धकेल दिया । मुझे अटपटा तो लग रहा है, लेकिन ? यह लेकिन कोई ऎवेंई प्रश्नचिन्ह नहीं, बल्कि ध्रुवसत्य सरीखा  है । ऎसा तो होता ही आया है, और यह शायद कभी हमारी बचीखुची मान्यतायें भी हथिया ले , तो ताज़्ज़ुब न होगा । सारे ढोल तमाशे के बाद, ऎन मौके पर कई सयाणे घुरहू   जैसे आम चरित्र को परे हटा , स्वयं सामने हो सारा फ़ोकस समेट लेते हैं । फोकसवा का सब लाइट लई लियो रे.... लाइमलाइटवा के बनिया .... साक्षात्कार टी०आर०पी० के हिसाब से ख़रीदे और बेचे जाते हैं। बेचारा घुरहू ! वह चिरकाल से इनकी परछाईं में लोप होने को अभिशप्त रहा  है । का करियेगा ? चलिये, यही सही ....

नायक बदल गया तो क्या ? यह बेजोड़ ज़ब्बर , अनायास मेरी पोस्ट का दावेदार बन कर प्रकट हो गया.. चिपक ही तो गये हैं  यह शाह हनुमानुद्दीन , मेरी सोच में !  इसमें दम है,  न कि यह कोई लंतरानी है, सो मैने लपक कर इनको गले लगा लिया। एक चरित्र गढ़ने की मशक्कत से छुट्टी मिली और मेरे मनगढ़ंत पोस्ट को वाक़ई एक वास्तविक चरित्र नसीब हो गया। वैसे भी मुझे चरित्रों का टोटा बहुत कम ही पड़ा है, ज़्यादातर खाँटी ही मिले हैं ।

नाम- शाह हनुमानुद्दीन, बाप- कमरुद्दीन, मुकाम- प्लाट नं 78, चक- न्यू कालोनी, बरियातू रोड, शहर- राँची

अब भला इं० मुकुल श्रीवास्तव अपनी ज़ोरू के भाई से पंगा थोड़े ही लेंगे ? सारी ख़ुदाई से तौला जाता रहा हूँ। जानता तो था कि कोई उनका विशिष्ट सेवक है, जिसे वह लख़नऊ से साथ ले गये थे ।किंतु इतने विलक्षण होंगे, यह न जानता था । इनसे मिल कर लगा कि नाटकीय उत्पत्ति याकि जन्मकथा अकेले कबीर की ही कहानी नहीं है।

अतिरंजित भाषा मेरी सही, किंतु तफ़सीलात बकौल मुकुल ही हैं... Ӂ*

Ӂ* चारबाग़ स्टेशन के सम्मुख स्थित श्री हनुमान मंदिर का निर्माणकार्य जारी था । सन 1981 की कोई सुबह, इसी मंदिर परिसर के पिछवाड़े, एक कुली को नवजात बालक मिला । मज़मा जुट गया, लोग उचक उचक कर देखते, अपनी अपनी हाइपोथिसीस पेश करते, जन्म देने वाली कोख की कल्पना कर-करके गुदगुदाते मन को संभाल,  अपनी लार सुड़कते हुये , ज़ाहिराना तौर पर हज़ारहाँ लानतें भेजते, और वहाँ से सरक लेते ।  रिक्शे से उतर, कमरुद्दीन ने भीड़ में अपनी मुंडी घुसेड़ी, गंध आयी कि माज़रा जरा इत्मिनान का है, सो झट एक बीड़ी दाग कर , धुँआ गुटकते मज़में के केन्द्र में अपनी जगह बनाने में सफल रहे । गौर से बच्चे को देखा, ' रोंयेंदार लाल लाल, आदमी का बच्चा, दोनों हाथ व घुटने समेट कर कुनमुनाता हुआ, '  उनको इस तरह बच्चे में तल्लीन देख अगले ने पूरा का पूरा बच्चा ही उनकी गोद में नज़र कर दिया । ज़नाब बच्चे की सोंधी सोंधी ख़ुशबू, अपनी साँसों में भरते हुये मदहोशी के  आलम में मस्त हुये जारहे थे कि एकाएक सारी भीड़ ख़ाकी वर्दी को आते देख छिटक खड़ी हुई।

' क्या होरहा है बे, मियाँ ?  भीड़ क्यों लगा रखी है और यह सुबह सुबह बच्चा लिये कहाँ डोल रहा है, तेरा है ? ' सवालों की ताबड़तोड़ आमद से मियाँजी खड़बड़ा गये । हाँ-नहीं, ऊँ-आँ करने लगे, कि पिंडलियों पर दो तीन पड़ गयी और मियाँजी होश में आ, माज़रा समझाने की कोशिश में गोंगिंयाते हुये रुँआसे होकर कुछ बताने जा रहे थे कि गरदन पकड़ कर धकेल दिये गये । ज्जास्सालेः, इस गठरी को थाने में दर्ज़ करा कर जमा करवाके आ ।  ख़ाकी नं० 1 हँस रहा था।

बहुत ही बुरा दिन बीता, क़मरूद्दीन का ! दूसरे के रिक्शे से बच्चे को लपेटे सपेटे थाने पहुँचे, पच्चीस सवालों का सामना किया, दसेक गालियाँ खायीं और गरदनिया देकर भगाये गये । अबे स्टेशन का मामला है, फिर यहाँ क्यों मराने आगया ? जा, जीआरपी वालों की पकड़ ! यहाँ दुबारा इस चूज़े के साथ दिखा तो... ! और.. मुंशी अपनी बायीं मुट्ठी में, दायें हाथ से डंडे को  आगेपीछे करते हुये, दाँत पीसता हुआ, अगली बार होने वाले अंज़ाम का ट्रेलर पेश करने लगा। दूसरे जन हो हो कर हँस रहे थे, मानों आवारा कुत्ते के पिछवाड़े पटाख़े की लड़ी बाँधी जानी हो ।

अब आज इतना ही.....शेष कल 

  

 

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