जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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30 June 2008

आह, नारको रोको... रोको ना... ये नारको

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टाइमिंग के मामले में, मुझे कमज़ोर समझा जाता रहा है , गलत समय पर टप्प से बोल देना । शायद आज फिर यह साबित होने जा रहा है । पिछली बार डा० अमित कांड के समय, मैं एम्स के हड़ताली ( ? ) डाक्टरों के पक्ष में कुछ लिख-विख रहा था... अब डाक्टर तलवार सुर्ख़ियों में हैं, तो नारको टेस्ट पर लिखने को ऊँगलियों में कई दिन से ऎंठन हो रही है । लिखूँ  ?
बड़ा फ़ैशन में है यह नारको, अ हैपेनिंग थिंग । हम भारतीयों की एक विशेषता है, अंधानुकरण ! बहुधा फ़ैशन को केवल एक शब्द ' प्रचलन ' से ही परिभाषित करके फ़ारिग हो लिया जाता है । ठीक है, लेकिन प्रचलन तो प्रचलित होने के बाद ही तो उपजता होगा, यह जैसे मुर्ग़ी और अंडे के अबूझ पहेली सरीखा समीकरण है । बिना दिमाग लगाये, किसी भी अच्छी-बुरी चीज को लपक लेना, अंधानुकरण ही कहलायेगा, शायद ? इतने सारे शायद क्यों ? क्योंकि मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूँ, इसलिये !
नारको आख़िर है क्या ? यह केवल इस अवधारणा पर आधारित है कि एक व्यक्ति यदि कोई झूठ बोलता है तो उसमें  वह अपनी कल्पनाशक्ति से ही ऎसा झूठ गढ़ने में सक्षम हो पाता है । किंतु अर्द्धचेतन अवस्था में, ऎसा संभव नहीं हो पाता ..वह केवल ज्ञात तथ्यों को ही बता पाता है। इसके लिये ट्रुथ सीरम (Truth Serum) का प्रयोग कर उसे इस अवस्था में लाया जाता है ।
                                      नारको कार्टून-अमर ट्रुथ सीरम-कितना ट्रुथफ़ुल बताओ साले बताओ-कि तुमने ही ख़ून किया है-अमर
और, क्या है ट्रुथ सिरम ? यह कम अवधि वाले शल्यचिकित्साओं में प्रयोग किया जाने वाला निःश्चेतक सोडियम पेंटाथाल या ऎमाइटाल सोडियम है, जो कि एक निर्धारित मात्रा में सूई से नसों के ज़रिये दी जाती है । मनुष्य इतना निःस्तेज हो जाता है कि अर्धबेहोशी में पूछे जाने वाले सवालों के मनमाने ज़वाब गढ़ने लायक ही नहीं रहता । क्या जादुई चीज है, यह ट्रुथ सिरम ?
किसने खोजा ट्रुथ सिरम ? सच बतायें, तो आधुनिक विज्ञान के अधिकांश खोजों की तरह यह भी अनायास ही हाथ में आया बटेर है । यह किसी चरणबद्ध अनुसंधान का परिणाम नहीं है । सन 1916, शहर- डेलास, प्रैक्टिशनर डा० राबर्ट अर्नेस्ट हाऒस किसी महिला को दर्द कम करने के प्रयास में स्कोपेलेमाइन दवा से मूर्छित करके प्रसव कराने के लिये जाने जाते थे । एक बार वह इस तरह से कराये गये प्रसव के उपरांत कोई घरेलू वस्तु, संभवतः स्केल खोज रहे थे । उस महिला ने बेहोशी में भी जैसे उनकी परेशानी भाँप ली हो, और उसने उस वस्तु का बिल्कुल सही ठिकाना उसी स्थिति में बता दिया । अब डाक्टर राबर्ट के चौंकने की बारी थी । उन्होंने इस कोटि की दवाओं के इस प्रकार के प्रभाव से चमत्कृत होकर इसे ट्रुथ सिरम नाम दिया, जो अबतक चला आ रहा है । 1920-30 के दशक में कुछ अदालतों ने इसको साक्ष्य के रूप में मान्यता दे तो दी, किंतु एक ही व्यक्ति पर इसके अलग अलग परिणाम देख 1950-51 में वैज्ञानिकों ने स्वयं ही इसे अनुचित करार दिया । दुनिया के अधिकांश विकसित देश इसको आज़मा कर, बहुत पहले ही छोड़ चुके हैं, कारण कि परिणामों में अस्थायित्व का होना,..यानि गैर-भरोसेमंद !
                               नारको रे नारको-अमर नारको शय्या वाह रे-अमर नारको की बानगी-अमर 
 कैसे होता है यह सब ? एक ऎनेस्थिसिया एक्सपर्ट उस व्यक्ति को उसके स्वास्थ्य, वज़न एवं अन्य जाँच रिपोर्टों के आधार पर पेंटाथाल की एक निश्चित मात्रा देकर उसे अर्धमूर्छित अवस्था में ला देता है । अपराध मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि का दूसरा एक्सपर्ट उससे सरल किंतु केस से संबन्धित  व दिशाग्रित प्रश्न पूछता, दोहराता रहता है, और उसके उत्तर रिकार्ड होते रहते हैं, विश्लेषण हेतु ।
सही तो है, फिर लफ़ड़ा क्या है ? एक आम हिंदुस्तानी नज़रिये से देखा जाय, तो कोई लफ़ड़ाइच नहीं । राज काज है... , कौन सिर खपाये ? मुझ जैसे अवैतनिक मुल्ले तो ख़्वामख़ाह परेशान रहा करते हैं  ! यदि पढ़ना जारी रखा हो तो लफ़ड़े भी गिनवाऊँ ?
तो गिनिये ...arrow7_e0 एक - यह तो जाँच एज़ेंसियाँ भी मानती हैं कि इसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता, केवल यह किसी जाँच का हिस्सा भर है ! फिर, इस नाटक की वजह ?  इसके परिणामों पर भरोसा इतना कि साथ में ब्रेन-मैपिंग कर इसकी सत्यता आँकी जाती है ।  arrow7_e0 दो - क्या यह बर्बर तरीका नहीं है ? एक अर्धमूर्छित व्यक्ति के गाल पर लगातार चाँटे पड़ रहे हों, और उससे सुझाने वाले प्रश्न पूछे जा रहे हों । सूखे ओठों से निकलती मुरझायी उदास आवाज़ों में किसी सच्चाई का अन्वेषण किया जा रहा हो ।  असंगत क्या, यह हास्यास्पद भी है !   I dont knowएक पल को कल्पना करें - अमर कुमार का नारको टेस्ट हो रहा है, उसके गाल पर तड़ाक से एक चाँटे के साथ पूछा जाता है, " बताओ, उड़न तश्तरी का इस अपहरण में क्या हाथ है ? " मेरे उस प्रतिरोधहीन अवचेतन से सिर्फ़ इतना ही निकल पाता है कि, " अँ..अँ.. टिप्पणीसम्राट... 71 टिप. टिप्प .. ...अँ अँ..हँ आज 71 टिऽऽ..टिप्पणी... टिप्पा..णि ..जी उड़नटिप्पणी हैं वो ! " आगे फिर एक जोरदार चाँटा, " तुमने कहाँ देखा था इस उड़नतश्तरिया को ? " मेरा ज़वाब, " अँ.. कनाडा के जब्बल्पु... में.. हाँअँ ..कन्नाडा केह.. हँ.. जबलपुर मँय ! " अब माई का लाल एक्सपर्टवा अपना निष्कर्ष निकाल ले, जो निकालना होमैंने तो कोई झूठ नहीं बोला,सच ही कहा । सारे तथ्य तो दे ही दिये । उनके हाथ हाथी की सूँड़ आयी या दुम, यह उनकी किस्मत ! और हो गया ऎलान, जाँच असफ़ल रही..अमर कुमार से सच उगलवाना आसान नहीं ! I dont know   arrow7_e0 तीन - मादक द्रव्य की सहायता से किसी के शरीर को अवश कर अपना मनोवांछित प्राप्त कर लेना अपराध माना गया है.. बलात्कार ! यदि मैं दारू पिला कर, नशे की हालत में डा० अनुराग की सारी ज़ायदाद लिखवा लेता हूँ, तो यह भी एक अपराध ही बनेगा.. धोखाधड़ी ! अब इसी तर्ज़ पर नशे की दवा से किसी के मन को अवश कर अपना सोचा  हुआ सच उगलवाने की चेष्टा अपराध क्यों नहीं ? मेरा तार्किक मन यह तथ्य निगल नहीं पाता । हो सकता है, कि दिनेश जी इस पर कुछ प्रकाश डालें, मेरा तो भाई, सिर घूम रहा है ! आपने सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर ले लिये हैं, तो कोई कमाल नहीं किया... भारतीय पुलिस तो हाथी से भी उसकी सूँड़ ऎंठ कर उसका चूहा होना कबूलवा सकती है । arrow7_e0 चार - इस पूरे परिप्रेक्ष्य को देखते हुये, इसे साइकोलोज़िकल थर्ड डिग्री से अलग करके कैसे देखा जाये ? मेरे मूढ़ मन का मनन - मरोड़ तो यही चिल्ला कर कह रहा है, क्यों व कैसे ? arrow7_e0 पाँच - क्या वज़ह है कि सन 2000 से फ़ोरेंसिक-साइंस लैब, बैंगलोर द्वारा फोर इन वन ( 4 in 1 ) का यह किफ़ायती पैकेज़ दिये जाने के बाद से ही नारको टेस्ट .. नारको टेस्ट होने लगा है ? कम  ख़र्च  तो  ठीक  है.. पर बालानँशीं कहाँ है ? तेलगी से तलवार तक हम्मैं तो ना दिक्खी ! arrow7_e0 छः - छ से छोड़िये । छोड़िये  भी ..पोस्टिया  लंबी खिंच रही है...होना जाना , कुछ है नहीं फ़ालतू का टाइमपास । आज बहुत ब्लगिया लिये.. बाकी फिर !
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26 June 2008

अनुशासन ही देश को महान बनाता है ?

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यही तो मैं भी कहूँ, कि दिमाग से कुछ फिसल रहा है ! क्या, क्यों और कैसे ? मुझे आज दोपहर तक स्वयं ही मालूम न था । आज क्लिनिक जाते समय, अचानक वोह मारा इस्टाइल में  बोधित्सव ( ब्लागर वाले नहीं ) ज्ञान कौंधा कि अनुशासन ही देश को महान बनाता है । सत्य वचन, हम तो  भुलाय बैठे थे कि इस मुलुक में अनुशासन नामक चिड़िया  भी हुआ करती है । भला हो इस मानसून का कि हमें इसका याद दिलाय दिया ! अनुशासन ही देश को महान बनाता है, हुँह यह कौन सी नयी बात है ? कुशल बहुतेरे महाशय का तो यह तो पुराना पर-उपदेश है ! 

यह तो भूल ही गया था कि यह मेरे भारत महान का महान राष्ट्रीय नारा है । मानसून की बारिश ने आज याद दिलाया ।  नहीं भाई , आप सबने तो गलत लाइन पर सोचने का जैसे ठेका ले रखा है ? मानसून का जिक्र आते ही आप  नरकपालिका  क्यों पहुँच जाते हैं ? यहाँ मैं म्यूनिसपालिटी की बखिया क्यों उधेरूँगा ? वैसे भी म्यूनिसपालिटी का अनुशासन से क्या लेना देना ? घबराइये नहीं, आज एक छोटी सी अनुशासित पोस्ट लिखूँगा, पूरी पढ़ते जाइयेगा । हाँ, यदि अनुशासन से एलर्ज़ी हो तो अलग बात है । वैसे भी हम हिंदुस्तानियों के पास अनुशासन पर लिखने-कहने को कुछ बचा ही कहाँ है ? खैर, नरकपालिका वालों के लाख मनौती-मिन्नतों के बावज़ूद भी इसबार मानसून झूम कर आ गया । उनकी तक़लीफ़, वो जानें, मेरी तो बला से ।

तो मित्रों, आज दोपहर बरसते हुये पानी में प्रस्थान-ए-क्लिनिक कर रहा था, कि एक जगह रोडसाइड होर्डिंग पर निगाह टिक गयी । उस पर से झरझर बहते पानी ने  चिपके  हुये कोचिंग इंस्टीट्यूटों को धो कर अंदर की कलई उजागर कर दी । होर्डिंग पर जमी हुयी इन्दिरा गाँधी बड़े सलीके से मुस्कुराते हुये थप्पड़ दिखाती, देश को होमवर्क दे रही थीं ' अनुशासन ही देश को महान बनाता है ।'  कार में ब्रेक लगते लगते रह गयी, बाँयें से एक सुज़ुकी फर्रर्र से लहरा कर निकल गयी । पीछे की सीट पर एक लड़का, इस तेज़  रफ़्तार सुज़ुकी पर खड़ा दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठाये हो-हो करता हुआ जा रहा था । मैंनें दाँत पीसे, " कहाँ कहाँ देखें ? इस अनुशासन कुलक्षणी के चक्कर में तो आज एक्सीडेंट ही हो जाता । "  वैसे तो मैं बहुत ही वीर हूँ, लेकिन ईश्वर के बाद सिर्फ़ पंडिताइन और एक्सीडेंट, इन्हीं दो से डरता हूँ । हँसो मत यार, यदि कोई  डाक्टर अपने क्लिनिक में "एक्सीडेंट होगया, रब्बा रब्बा.."  गाते कराहते, लँगड़ाते हुये दाखिल हो, तो आपको कैसा लगेगा, एक घायल सुपरमैन ? कत्तई नहीं न !   यह अनुशासन और नागरिक का  चक्कर  तो चोर सिपाही का खेल है, छोड़िये इसे यहीं ! उनकी तक़लीफ़, वो जानें, मेरी तो बला से ।

' आठवीं फेल गारंटीड हाईस्कूल पास करें ' इन्दिराजी के नाक से लिसड़ता हुआ बरसते पानी में चूने चूने को था । क्या यार, क्या मुलुक है ? लगता है, अफ़सरों को होर्डिंग सफ़ाई का ठेका देने की नहीं सूझी । टेंडर होता, मंज़ूरी दी जाती, सफाई हो गयी की रिपोर्ट लगा कर पेमेंट हो जाता, फिर से नया टेंडर होता, फिर मंज़ूरी .... ! लहरें गिनने का अंतहीन सिलसिला सदैव जारी रहता, चलो देश न सही, देश का अफ़सर और ठेकेदार तो समृद्ध हो रहा होता|फिर एक से अनेक समृद्धों की जमात बढ़ती जाती । आख़िर नदियों से ही तो समुद्र बनता है । यह लोग आगे बढ़ना ही नहीं चाहते, पता नहीं क्यॊं ? यह वही जानें, मेरी तो बला से !

अंतर से मेरा चिल्लाता है, " तब से क्या मेरी बला से.. मेरी बला से अलापे जा रहे हो ? इसी मेरी बला से वाली सोच ने तो तुमको इतनी बलाओं से ढक दिया है । चढ़ा दे कहीं ब्लाग पर, मलाल तो नहीं रहेगा कि ' जनम..उदर-पोषण-उपक्रम...मैथुन..प्रजनन.. .और मृत्यु '  के अलावा भी तुम दुनिया में कहीं नहीं  याद किये जाते । " मैंने हड़क दिया, ' चुप्पबे, इस समय एक शरीफ़  डाक्टर के रोल में हूँ । भले आदमी लोग सिर्फ़ अपने काम से काम  रखा करते  हैं, बस्स ! थोड़ा बहुत यानि ख़ाना हज़म होने भर को देश दुनिया पर चिन्ता कर लेते हैं, यही कम है क्या ?  अब बाकी दुनिया क्या करती है, क्या कर रही है ? यह वो जानें, मेरी तो बला से !

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        सर, क्लिनिक तो पिच्छू को रै गई !  " अच्छा, यह टापिकवा तो लपक ले, चल आज यही टीप दे धाँय से ! " अंतर ने क्षीण प्रतिवाद करके    दूसरी  तरफ़ को करवट ले ली । ठीक तो है, ब्लागर तो खोजत फिरत टपोरी टापिक टिप्पणी ! यहाँ दो मौज़ूद हैं । देखा जायेगा । क्या देखा जायेगा ? देश तो तुम्हारा पहले भी महान था, अब तो बयान भी जारी हो गया कि हम महान हो गये हैं । रोज ही नया बयान जारी होता है, हो रहा है कि 'आगे और.. और... और महान होते जाने की संभावना है । ' फिर अनुशासन पर क्या लिखोगे ?   अनुशासन तो देश को महान बना चुका, अब लकीर पीटने से फायदा ? अनुशासन की ढपली बजाओगे, तो देश के महान होने से गद्दारी करोगे । और अगर अनुशासनहीनता का दामन पकड़ते हो तो अपने यहाँ की  राजनीति  और बेचारे बेरोज़गार राजनीतिज्ञ क्या  घास  खोदेंगे ? अंदर के शरीफ़ आदमी ने चेताया, ' छोड़ो भी, क्या खोदते हैं, क्या खोदेंगे ? ' यह तो वही जानें, मेरी तो बला से !

 

" सर, आप आगे चले जा रहे हैं,"  पिच्छू से मेरा अटेंडेंट बोला, " क्लिनिक तो पीछे रह गयी ।" मैंने झट से अनुशासन पर ब्रेक लगाया, और बैक में ले लिया । लौट लो यार, अपनी मंज़िल तो यहीं तक है !  अच्छा, तो चलें ? ओक्के..बॅ।य !

इन्हें भी पढ़ें;

अथ मनुष्य योनिः

कैसे कैसों को दिया है, मेरी ब्लगिया हिट करा दे ..

 

 

 

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21 June 2008

क्यों .. ... ?

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सुबह से मन कुछ अनमना सा हो रहा है । आज क्लिनिक भी नहीं गया । अभी ब्लागजगत की सैर करके लौटा हूँ, कुछ ख़ास पोस्ट नहीं दिखीं । अब बाकी कल देखा जायेगा..सोच कर सोने आया । प्रयास करने पर नींद और भी आँखमिचौली खेलती है । एफ़०एम० लगा दिया है, कुछेक गाने बज गये, क्या सुना, मुझे स्वयं पता नहीं । दो बजने वाले हैं,  जब गानों में मन गड़ाने का प्रयास किया तो फ़ालतू सवाल ज़वाब होने लग पड़ा.. ..

wildlifephotographer

 

FM. क्यों चलती है पवन
मैं. हवा का दबाव कम होने से                                                                            

FM.क्यों झूमे है गगन
मैं.धरती की अपनी धुरी पर घूमने के कारण
FM.क्यों मचलता है मन
मैं.हृदय की गति और साँस बढ़ जाने के कारण
FM.न तुम जानो ना हम
मैं.अरे भाई अभी सभी कारण बताया तो

FM.क्यों आती है बहार
मैं.मौसम बदलने की वज़ह से
FM.क्यों लुटाता है करार
मैं.दिमागी तनाव से
FM.क्यों होता है प्यार
मैं.विपरीतलिंगी आकर्षण से
FM.ना तुम जानो ना हम
मैं.अरे भाई यह सब वैज्ञानिक बाते हैं , इनमें सिर मत खपाओ

FM.क्यों गुम है हर दिशा
मैं.क्योंकि तुम्हें दिशाभ्रम होगया है
FM.क्यॊ होता है नशा
मैं.ड्रुग्स लेने लगे होगे

FM.क्यों आता है मज़ा
मैं.अरे यार सांइस इसका ज़वाब दे चुका है

FM.ना तुम जानो ना हम
मैं.बड़े वाहियात आदमी हो, यार !
इतनी देर से तुमको बता क्या रहा हूँ, समझ नहीं आता !

मैं रेडियो बंद कर देता हूँ, इस अकारण खिन्नाहट की वज़ह ? मैं स्वयं ही नहीं जानता और इस खुशनुमा गीत का कबाड़ा परोसने टेबल पर आ गया हूँ !

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15 June 2008

काहे भाई , काहे परेसान हो ?

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बुश आजुकाल फिर से बौराये भये हैं, पता नहीं उन पर कौन सी खुज़ली सवार होय गयी है ?  डा० आर्या बतावें तो बता दें, चमड़ी की परख रखते हैं, वरना हम तो सीधी बात जानते हैं कि वह अपने जाते हुये राज का डर इस नवी किसिम  के  ख़ाज़ से छुपा रहे हैं । हमारी किताबें तो इसको कन्वर्ज़न रियेक्शन के नाम से पुकारती है । हुच्च हुच्च कर बता रहे हैं कि देखो दुनिया वालों, जिस भारतवर्ष की आबादी दुई बेर खाती थी और अब उसी की आधी आबादी दुई बेर खाने के जुगाड़ में हलाकान है, उसी नवे खलनायक हिंन्डियाः ( भारत ) के नालायकी से पूरी दुनिया में अनाज का टोटा पड़ा है ।

ओऎ बुश, तू अपनी बगलें खुजा । हमें काहे दिखा रहा है ? हमारे यहाँ का तो बच्चा बच्चा जानता है कि ' जो मज़ा ख़ाज़ में है, वह राज में  नहीं  ! ' इसलिये तुझे माफ़ करते हैं । तू चुपचाप अपना ख़ाज़सुख भोग । ऒऎ अमेरिकन झंखाड़, हम्मैं तो तू मुंडेरी पर बैठा बंदर लाग्गे है । बाँयें हाथ में रोट्टी दाब के अटारी से हम्मैं  घुड़क रहा है । तेरे पीठ की ख़ाज़ तो हमैं जैसे दिक्ख ना रही  ? अच्छा चल भई, मान ही लेते हैं कि ये हिंन्डियाः वाले बहुत दुष्ट हैं, सारा अनाज इकट्ठा करके वा में आग लगा दी , पण तेरे को क्या ?  तेरे यहाँ तो सूअर भी मक्का खा खाके मोटा हो रहा है, फिर तू तो उसको भी काट के खा जावेगा । फिर तेरे को क्या ?  अमेरिकन तो पेट भरने के वास्ते कुछ भी ठूँस लेता है, पर अनाजाश्रित तो हमारी आबादी ठहरी   

   happy_indians

तू काहे परेसान है ? क़ाज़ी के रोल में तो यार, तू फ़्लाप होगया, अब किसने तेरे को मौला बना दिया ?  कौन तेरे से रोट्टी माँगने जा रिया है ?  शायद यही तेरी तक़लीफ़ है ?  बोल तो, भेजूँ ओरिज़िनल हिंन्डियःन चाँदसी वालों को ?  तेरा बवासीर तो अब हमैं तक़लीफ़ देने लग पड़ा है, मान भी जा ऒऎ नासमझ, एक टीके में जड़ से खत्त्म !  नहीं मंज़ूर, तो चुप्प करके बैठ । किसने कहा था, तेरे से चौधरी बनणे को ?  चौधराहट भी तेरे को सूट करती ना दिक्खै । तू तो किसी का नन्हा सा भी ठेंगा देखते ही उछलने लग पड़ता है । अब भई, इतना तो झेल ही लिया कर,  काहे परेसान है ?

नाज़ियों की उलटखोपड़ी के चलते, तेरे को इतनी बेहतरीन खोपड़ियाँ मिल गयीं कि भगोड़ों लुटेरों का बेनाम मुलुक, अमेरिका कहलाने लगा । फिर हमारे हिंन्डियःन दिमागदारों  के तड़के-रेसिपी ने तेरी मार्केट वल्यू  कुछ ज़्यादा ही बढ़ा दी । और अब तेरी भी खोपड़ी नाज़ी तर्ज़ पर नाचती नाचती उलट रही दिक्खै है । चल भई हम  तेरी बकवास  गाँधी बाबा के नाम पर सह लेते हैं । पण एक शर्त है, तू दुनिया के सामने सिर्फ़ एक, बस सिर्फ़ एक पीस कच्ची घानी का ओरिज़िनल अमेरिकन   रक्ख दे ! ईब्ब, इतणा गुमान भी ठीक नहीं, भाई ! ' मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना '

ऒऎ झंखाड़ कहीं के, खों खों करता दुनिया भर में अपनी गाल बजाता हुआ, अपनी चौधराहट की ऎसी तैसी क्यों करवा रहा है ? हर बार उछल कूद मचा कर फिस्स हो जाता है, भकुये ! अच्छा चल, यही बता दे कि हमारे भुक्खड़ भारत ने तो बिना तेरी मदद और धमकी को ठेंगा दिखा कर तीन तीन ज़ंग जीती है । तेरे पिट्ठुओं को छक कर पानी पिलाया है । अब तू अपनी बता, आज तलक कौन सी ज़ंग तैने जीती है ? वियतनाम से शुरु कर और सिर झुका कर अपनी जीत के निशान ढूँढ़ता हुआ  हम अनाजखोरों की गली तक आकर तो दिखा ! छड्डयार, होगा तू अपने मुँह मियाँमिट्ठू का महाशक्ति ? ताकत मशीनी मक्कारी के तामझाम में नहीं, इंसानों के बाजूओं में और हौसले में होती है, बे ! तेरे सिपाही तो मोर्चे पर भी दिल को बहलाने को लौंडिया माँगते हैं, तेरी आतुर बालायें भी देशसेवा के नाम पर लाल-सफ़ेद-नीली सितारा पट्टी की स्कर्ट उतारने फ़ौरन हाज़िर हो जाती हैं । क्यों मुँह खुलवाता है, निट्ठल्ला बैठा हूँ, तो क्या ? सोचता हूँ कि तेरे रंगरूटों का सारी ताकत यूनिफ़ार्म के पैंटों में ही भरी पड़ी है, बुरा मत मान भई ( बुरा मान भी जायेगा तो के कर लैग्गा ? ) तेरे रंगरूट अपना सारा ज़ौहर तो औरतों, बच्चों और बुड्ढों पर ही तो दिखाते हैं ! डरपोक कहीं का !

मानसून मेरे यहाँ अभी भले न आया हो, लेकिन अमेरिका में साइरन बजने लग पड़ा कि मुंबई के सड़कों के मेनहोल से ज़िन्दा बचकर भाग आओ, छिः ! चूहे का दिल भी इससे जियादा मज़बूत होता होगा । अपनी प्लेट के पुडिंग को छोड़, परायी रूखरी देख देख काहे परेसान है, भाई ?

 

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12 June 2008

मैं किस कबीले से हूँ ?

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पता नहीं मुझे कभी कभी क्या हो जाता है, किसी घटना को लेकर लगता है कि अरे, यह तो मेरे साथ घटित हुआ था, या हो रहा है । अनजानी जगह पर अनायास यह भावना जोर मारने लगती है कि यहाँ तो मैं आ चुका हूँ । जानता हूँ कि यह कोई रोजमर्रा की सामान्य घटना नहीं मानी जायेगी । किन्तु यह पागलपन भी नहीं है । यह चिकित्साजगत की एक सर्वमान्य प्रतिभासिक तथ्यपरता ( Phenomenon ) है । कारण ? अभी तक हम अनुसंधान ही कर रहे हैं कि ये Déjà-Vu क्यों होता है ?

कभी कभी लगता है कि पंडिताइन का चेहरा बहुत दूर होते होते अजनबी सा हो गया है, और मैं इस अजनबी चेहरे से कब  और कैसे मिला था, इसमें गुम हो जाता हूँ । दिमाग पर जोर देते देते सहसा एक झटके से मैं वर्तमान में लौट आता हूँ , सबकुछ झटक कर सहज होने के प्रयास में गुनगुनाने लगता हूँ, ' अज़नबी ..ऽ ऽ तुम जाने पहचाने से लगते होऽ ..ऽ ...ऽऽ

रुकिये भाई, खीझिये मत ! आप इस प्रोब्लेम में कुछ कर नहीं सकते, तो यह आपकी प्रोब्लेम है , किंतु ब्लागस्पाट पर आने को कम से कम इस डाक्टर ने तो आपको नहीं ही कहा था । अब आयें हैं, तो थोड़ा शेयर भी करना ही होगा , ब्लागर स्प्रिट का निषेध चल भी रहा है तो क्या ? मान लीजिये आपको सौजन्यवश यदि टिप्पणी ही करनी पड़ जाये तो, क्या लिखेंगे ?

इधर कुछ दिनों से सुबह सुबह अख़बारों  पर सरसरी निगाह मारने मात्र से मुझको लगने लगता है कि मेरा संबन्ध किसी न किसी कबीले से अवश्य है ! ऎसी अनुभूति  Déjà-Vu के सैद्धान्तिक अवधारणा के एकदम उलट है, किंतु यह मेरा सच है ।

अव्वल तो मैं कभी पूरा समाचार नहीं पढ़ता, यहाँ कोई शाश्वत साहित्य तो होता नहीं कि इसपर समय दिया जाये, और दूसरे अल्लसुबह निगेटिव किसिम की सुर्खियों से दिन की शुरुआत करना मुझे रास नहीं आता । स्साला, क्या हो रहा है ... कहते हुये अख़बार को मोड़ बगल में सहेज कर रख देने के शुतुरमुर्ग़ी सोच से मेरा असहमत मौन आहत होता है । क्या करें, भला ?

इन दिनों मैं अपने रूट्स यानि कि जड़ें कबाइली हलकों में तलाश रहा हूँ । अपने ख़ानदान का सज़रा भी टटोल डाला, किंतु ड्राफ्टपेपर पर यह मेरे बाबा स्व० नागेश्वर प्रसाद सिन्हा को लाँघता  हुआ  परबाबा बाबू मनोरथ प्रसाद से उचक कर राय बिलट लाल पर थम जाता है ।  बड़ी मुश्किल है, ब्लागर पर भी आना जाना छूट गया । खैर, लौट कर इसी जहाज़ पर आना पड़ा,  अब आ ही गया हूँ ,तो मेरी  सहायता करें ।  अब श्री बिलट लाल जी को पछाड़ कर मैं पश्चगमन ( Retrograde Journey ) करता हुआ, सुपरफ़ास्ट प्रागैतिहासिक आदिमानव टाइम कैप्सूल से  नानस्टाप द्वापर-त्रेता-सतयुग  छोड़ वहाँ  तक पहुँच भी जाऊँ , तो यह कौन बतायेगा कि, " वह देखो, वह है तुम्हारा छिन्नाछिन्नी लाऊखाऊ पेंचक्कचेंपक  हूओअहोऊ  कबीला ! " सो यह मेरा भ्रम ही था

 ्गु़अज़रा ज़माना - अमर ्सरदार अमर - अमर मेरा कबीला - अमर

भ्रम तोड़ा भी किसने ? कबीरदास नाम के किसी अनपढ़ जुलाहे ने ! पीछे से आवाज़ दी, ' मोको कहाँ ढूँढ़ो रे बंदे... ' तेरा कबीला तो यहीं है, देख तो जरा ।  'पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ ' तो डरता क्यूँ है ? अच्छा पोथी मत पढ़, चल अख़बार तो पढ़ेगा ? चाय की चुस्की का मज़ा दुगना कर, अख़बार पढ़ ! परेशान मत हुआ कर, यदा कदा लाली भी देख लिया कर ।  कबीला बाद में देखना ।

   मेरा परिवार - अमरxxx ्काश मैं ऎसा होता - अमरtt

हा विधाता, यह कैसी बारिश करवा रहे हो कि आज अख़बरवै नहीं आया ।  तो क्या ? जाके आज कुछ रिवीज़न ही कर ले ।     धन्य धन्य कबीरा ज़ुलहे , मेरा कबीला तो यहीं बिखरा पड़ा है !

अरे वाह, बरेली ( मेरी वाली नहीं ) में प्रेम करने वाली लड़की घर वालों द्वारा मार डाली गयी और लौंडे को दौड़ा दौड़ा कर पीटा फिर जला डाला गया । बाँदा में तीन ग्रामीणों ने चौथे की रोटी लूट ली । मार लेयो, रोटी तो गयी पेट में । भूख से मरने से अच्छा कि कुछ झापड़ वापड़ खा लिया जाये । हरदोई में लड़की को निर्वस्त्र करके पेड़ से लटका दिया, क्योंकि वह किसी दूसरे से ब्याह रचाना चाहती थी । महोबा में लाठी डंडों से हमला कर गाँव वालों ने पानी लूट लिया । हुँह, अरे पानी है ही लूटने की चीज ! प्यास से कौन मरना चाहता है ? बंगलुरू में खाद माँग रहे कुछ बेवकूफ़ों में एक मारा गया । कोट्टायम में लड़के के लिये ऊलूऊलूलजुलूल ओझा ने दो वर्षीय कन्या की बलि दे दी ।  देवि खुस्स भयीं, अब देवा आवेगा । देवा अगर होनहार निकला तो बड़े होकर फिर किसी देवी को जलावेगा । गाज़ियाबाद में इस साल अबतक 121 बच्चे गायब किये जा चुके हैं । बलात्कार ? यह तो यहाँ मनोरंजन है । बलात्कारी और न्यायाधिकारी (?) दोनों के मौज की चीज ! अपनी या किसी और की सही माँ, बहन, बहू, बेटी, भाँजी, भतीजी, बच्ची, बूढ़ी... बस औरतिया हो , बदसूरत हो तो भी ठीक, खूबसूरत हो तो क्या कहने.. उसे  उठा लो.. इच्छा तृप्त करो और किनारे फेंक दो, ज़िंदा या मुर्दा ! औरतिया तो मरद की ज़रूरत है..तो फिर बवाल काहे का ?

अब तो कोई शक औ ' शुब़हा न रहा कि मेरा वाला कबीला भी यहीं कहीं होगा । क्या ज़रूरत है पुरखों को कूद फाँद कर पीछे भागने की ? सब तो यहीं है । मेरा मन मृग फिर क्यों कबीलाई कस्तूरी की खोज में भाग रहा है ? यहीं तो है कलयुगी कस्तूरी !

धन्य धन्य कबिरा ज़ुलहे, सो मेरा कबीला तो यहीं बिखरा पड़ा है।                                                                             मैं मूरख déjà-Vu का राग अलाप रहा हूँ, बलिहारी  ज़ुलहे आपनो सत्य दियो बताय । फिर भी एक मुश्किल है  कि  मेरा वाला कौन सा है ?  अभी तो, मैं किनारे खड़ा खड़ा लख रहा हूँ कि अपने लोगों का मौन रहने वाला शांतिप्रिय कबीला आख़िर किस खोह में मिल सकता है ?  मेरे कबीले की भी तो कोई पहचान अवश्य होगी । बस वही पहचान  मुझे चाहिये । प्लीज़,  भले मानुष कृपया सहायता करें, मुझे मेरे अपने कबीले से मिला दें  ! या  कहीं..  ..  आप भी तो चक्कर नहीं खा रहे कि ' मैं किस कबीले से हूँ ? '

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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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