जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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27 May 2009

नँगे सच में नहायी बहना

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देख भाया, मेरी गलती नहीं हैं । आजकल हाल है कि, ’ जाते थे जापान .. पहुँच गये चीन समझ लेना ’ तो पढ़ा ही होगा । अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल एक मिन्नी सी,  सौम्य.. लजायी हुई पोस्ट देकर अपने जीवित होने की गवाही देनी पड़ी । बताइये भला.. मेरी एक चिरसँचित इच्छा पूरी हुई,  दादा विनायक सेन रिहा हुये,  और  मैं  ब्लागर होकर  भी  अपनी खुशी की चीख-पुकार खुल कर न मचा सका । बिजली की आवाज़ाही, अफ़सरों का विदाई और स्वागत समारोह एटसेट्रा करीने से एक पोस्ट भी न लिखने दे रहा है !कुश जी,  अब तुम न कह देना, कि पहले ही कौन सा करीने से लिखा करते थे । मुझे यूँ छेड़ा ना करो, मैं ठहरा  रिटायर्ड नम्बर !

भूमिका इस करके बन रही है कि, आज बड़ी जोर की ठेलास लगी है.. और बुढ़ाई हुई बिजली नयी माशूका की तरियों कब दगा दे जाये कि अपुन कोई रिक्स लेने का नहीं ! लिहाज़ा, आज अपनी एक पुरानी वाली को ही ठेल-ठाल कर सँतोष किये लेते हैं,का करें ?

अप्रैल 2008, एक नया राष्ट्रीय मुद्दा उठा रहा, कि युवराज राहुल विदेशी साबुन से नहाते हैं : और समय का फेर देखो कि पट्ठा खुदै धूल फ़ाँक के सबैका धूल चटाय दिहिस । हमरी हिरोईन तिलक तलवार तराज़ू के तिपहिये पर दिल्ली कूच करते करते रह गयीं !

पहले तो यह बतायें कि इस पोस्ट का उचित शीर्षक क्या होना चाहिये था , नंगे सच की माया या  माया का नंगा सच ? जो भी हो, आपके दिये शीर्षक में एकठो नंगा अवश्य होना चाहिये, वरना आपको भी मज़ा नहीं आयेगा ! वैसे राजनीति पर कुछ कहने से मैं बचता हूँ । एक बार संविद वाले चौधरी के बहकावे में, मै ' अंग्रेज़ी हटाओ ' में कूद पड़ा था, अज़ब थ्रिल था, काले से साइनबोर्ड पोतने का ! लेकिन इस बात पर, मेरे बाबा ने अपने  इस चहेते पोते को धुन दिया था, पूरे समय उनके मुँह से इतना ही निकलता था, "भले खानदान के लड़के का बेट्चो ( किसी विशेष संबोधन का संक्षिप्त उच्चारण, जो तब मुझे मालूम भी न था ) पालिटिक्स  से  क्या मतलब ? " यह दूसरी बार पिटने का सौभाग्य था, पहली बार तो अपने नाम के पीछे लगे श्रीवास्तव जी  से पिंड छुड़ाने पर ( वह कहानी, फिर कभी ) तोड़ा गया था । खैर....

आज़ तो सुबह से माथा सनसना रहा है, लगा कि बिना एक पोस्ट  ठेले काम नहीं चलेगा, सो ज़ल्दी से फ़ारिग हो कर ( अपने काम से ) यहाँ पहुँच गया.. पोस्ट लिखने । पीछा करते हुये पंडिताइन  भी  आ  धमकीं, हाथ में छाछ का एक बड़ा गिलास ( मेरी दोपहर की खोराकी का लँच ! ) ,तनिक व्यंग से मुस्कुराईं, " फिर यहाँऽ ऽ , जहाँ कोई आता जाता नहीं ? " इनका मतबल शायद पाठक सँख्या  से  ही  रहा होगा । बेइज़्ज़त कर लो भाई, अब क्या ज़वाब दूँ मैं तुम्हारे सवाल का ? अब थोड़ी थोड़ी ब्लागर बेशर्मी मुझमें भी आती जारही है, पाठकों का अकाल है, तो हुआ करे ! ज़ब भगवान ने ब्लागर पैदा किया है, तो पाठक भी वही देगा , तुमसे मतलब ?  आज़ तो लिख ही लेने दो कि..

सुश्री मायावती, नेहरू गाँधी के बाथरूम में साबुन निहारती मिलीं, किस हाल में मिली होंगी  यह न पूछो ! कभी कभी यह पंडिताइन बहुत तल्ख़ हो जाती हैं,' जूता खाओगे, पागल आदमी !' और यहाँ से टल लीं । मुझको राहुल बेटवा या मायावती बहन से क्या लेना देना, लेकिन यह लोकतंत्र का तीसरा खंबा मायावती की मायावी माया में टेढ़ा हुआ जा रहा है, इसको थोड़ा अपनी औकात भर टेक तो लूँ, तुम जाओ अपना काम करो ।

मुझसे यानि एक आम आदमी से क्या मतलब, कि राहुल अपने घर में इंपीरियल लेदर से नहाते हैं या रेहू मट्टी से ? चलो हटाओ, बात ख़त्म करो, हमको इसी से क्या मतलब कि वह नहाते भी हैं या नहीं ? हुँह, खुशबूदार साबुन बनाम लोकतंत्र ! लोकतंत्र ? मुझे तो लोकतंत्र का मुरब्बा देख , वैसे भी मितली आती है, किंन्तु ... !

सुश्री मायावती का सार्वज़निक बयान कि " यह राजकुमार, दिल्ली लौटकर ख़सबूदार ( मायावती उच्चारण !! ) साबुन  से नहाता है ।" मेरी सहज़ बुद्धि तो यही कहती है, बिना राहुल के बाथरूम तक गये , ई सबुनवा की ख़सबू उनको कहाँ नसीब होय गयी ? अच्छा चलो, कम से कम उहौ तो राहुल से सीख लें कि दिन भर राजनीति के कीचड़ में लोटने के बाद, कउनो मनई खसबू से मन ताज़ा करत है, तो पब्लिकिया का ई सब बतावे से फ़ायदा  ? दलितन का तुमहू पटियाये लिहो, तो वहू कोसिस कर रहें हैं ! दलित कउन अहिं, हम तो आज़ तलक नही जाना । अगर उई इनके खोज मा घरै-घर डोल रहे है, तौ का बेज़ा है ?

माफ़ करना बहिन जी, चुनाव के बूचड़खाने में दलित तो वह खँस्सीं है, वह पाठा है, कि जो मौके पर गिरा ले जाय, उसी की चाँदी ! दोनों लोग बराबर से पत्ती, घास दिखाये रहो । जिसका ज़्यादा सब्ज़ होगा, ई दलित कैटेगरी का वोट तो उधर ही लपकेगा । ई साबुन-तेल तो आप अपने लिये सहेज कर रखो, आगे काम आयेगा । अब आप जानो कि  न जानि काहे..   चुनाव पर्व  के  नहान  के फलादेश पर बज्रपात कईसे हुई गवा .. रामा रामा ग़ज़ब हुई गवा .. चोप्प, मैं कहता कहती हूँ चौप्प ! चुप हो जाओ, चुप्पै से !

लो भाई, चुपाये गये.. अब तो राम का नाम लेना भी गुनाह हो गया । लोग  सँदिग्ध निगाह से  घूरते हैं, कि  अडवाणी  से अब भी सबक  नहीं ले रहे.. राम  का  नाम  बदनाम  करके  ऊहौ  कुँकुँआत  फिर  रहे  हैं,  फिर  तो  कोई  रावणै  इनका  भला  करी..  
करै दो यार,  भलाई  के  नाम  पर  कोई  तो कुछ  करे, भले  ही  वह प्रजापालक रावण होय ! सीताहरण तो अबहूँ होबै करी ..          जस नेता रहियें तौ सीताहरण होबै करी.. चुनविया का हुईहै अगन परिच्छा तौ धमक हुईबे करी…
एक कुँवारी-एक कुँवारा ! बेकार में, काहे को खुल्लमखुल्ला तकरार करती हो ? भले मोस्ट हैंडसम के गालों के गड्ढे में आप डूब उतरा रही हो, लेकिन पब्लिकिया को बख़्स दो । सीधे मतलब की बात पर आओ, हम यानि पब्लिक मदद को हाज़िर हैं ।  अब दुनिया  भर  का  ई साबुन - तौलिया वाला…  टिराँस्फ़र पोस्टिंग की नँगी माया .. काहे ?
सोनिया बुआ, उधर अलग बड़बड़ा रही हैं, " मेरा लउँडा होआ बैडनेम, नैस्सीबन तिरे लीये...ऽ ..ऽ

 

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18 May 2009

जीवनदास को कड़ी से कड़ी सजा दी जाये

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बड़े दिनों से यह “ चलता रहे.. चलता रहे.. “ देख व सुन रहा हूँ । यूँ तो मैं ’ निट्ठल्ला इफ़ेक्ट ’ से इतना पका हुआ हूँ कि, टेलीविज़न बहुत ही कम देखता हूँ । एक म्यान में दो तलवारें वैसे भी कहाँ रह पाती हैं ? अरे, निगोड़ी ब्लागिंग को शामिल न भी करें, तो भी आप यही समझ लीजिये कि “ बुद्धू को कहाँ बुद्धू बक्सो सों काम ? “ फिर भी.. कुछ तो है,  कि आज  एक बेकार सा मुद्दा पकड़ कर बैठा हूँ, कि  न्याय मिले 
                                                       पहले तो आप इन जीवनदास से मिलिये
         
मिल भये… क्या समझे ? अभी फ़िलवक़्त मुझे प्लाई-व्लाई तो लेनी नहीं है, सो मैं तो यही समझ रहा हूँ, कि भारतीय न्याय-वयवस्था इतनी धीमी और लचर है कि, “ चलता रहे… चलता रहे…. ! “ है कि, नहीं ?

इस मख़ौल की पराकाष्ठा तो यह है कि, ’ बैल से दँगा करवाने के ज़ुर्म में .. ’ जैसा आरोप और बैल को अदालत में तलब किये जाने की माँग, जैसा अदालत का बेहूदा कैरीकेचर खींचा गया है, सो तो अलग !

आदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी से आग्रह है कि, या तो वह जीवनदास को न सही, पर उसके आरोपी बैल को ही कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवायें, और इस नाटक का पट्टाक्षेप करवाने का प्रयास तो कर ही लें !

मुआ ग्रीनवुड प्लाई न हो गया, राम-मँदिर का मुद्दा हो गया ! मुझे तो इसमें आख़िरी बार बोले जाने वाला ’ चलता रहे.. चलता रहे ’ में पिटे हुये अडवाणी की आवाज़ सुनायी दे रही है.. या यह  मेरा भ्रम है ?

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12 May 2009

अक्षरश:

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कई दिनों से ब्लागर पर सक्रिय नहीं हूं। इधर-उधर एक इक्का-दुक्का टिप्पणी ठोकी व " धन्यवाद  देने की आवश्यकता नहीं है " की औपचारिकता निभाते हुए नन्हा मन का टेम्पलेट तैयार कर दिया ।  अब क्या  करें ?   नये-नये इन्सटाल किये विन्डो – 7  के नयनाभिराम विशिष्टतायें व नयी सहूलियते संगाल रहा हूं । इधर दो दिनों से पूरी तैय्यारी से आ बैठता, कि 1857 के ग़दर की सालगिरह ( 10 और 11 मई )  पर पोस्ट लिखूँ  । पर ऎसा है न कि,  अभी हम अपने  शैशव को भरपूर जी तो लें..  फिर क्राँति व्राँति की बातें बाद में देखी  जायेगी । सो कोई भी पोस्ट लिखना ही टाल गया, क्या पता यह भी ’ बिस्मिल ’ की तरह उपेक्षित हो जायें, और कोई इन्हें भी " पीछा करो Follow Me का सँदेश डाल जाय, सो नहीं लिखा ।

1857-amar

आज की चिटठा चर्या देखी । अनूप जी की चर्चा अधिक सामयिक होती है । ग़ुँज़ाइश होने के बावज़ूद भी आज की चर्चा पर मैंने कोई टिप्पणी न दी, क्योंकि आज मेरे पास कोई अनूकूल लिंक ही न था । मुझमें साहित्यिक समझ हो न हो, ब्लागरीय समझ बिल्कुल नहीं है । लगातार एक के बाद एक फ़्लाप पोस्ट देने के बाद लगता है कि ज्ञान स्कूल आफ ब्लागर्स में प्रवेश लेना ही पड़ेगा । यदि ताउ फैकल्टी  के दिग्गज़ या प्रोफेसर  फुरसतिया  पढ़ाय देंय, तो बेड़ा पार समझो ! तब  शायद उपकुलपति  समीर लाल जी का दिया एक सार्टिफिकेट  इहां साइडबार में  चिपकाने को मिल सकेगा । यदि उसके बाद,  बात बन जाये तो कुलपति के रिक्त पद पर मैं स्वयं ही काबिज़ हो लूंगा । मेरे फतवे ब्लागर पर वेद वाक्य माने जायेंगे । तब मेरी लिखाई के अजदकायमान होने पर भी  लोगबाग अश अश कर उठेंगे । अप्रासंगिक स्वगत कथन में से तब हट जाया करेगा । अंग्रेजियत के नियमों के प्रति आदर भाव व हिन्दी वाले के आग्रह मात्र पर तू-तू   मैं-मै  होने की  व चर्चा पर लिंक देने के सुझाव पर कोई विचार कर सकेगा ।

mother-thr potrait poem चुनाँचें, माता पर एक पोस्ट लिखने का मन बना कर बैठा हूं । तो.. कम्प्यूटर जी पर अपनी निगाहें लाक किये हुए, मेरा मनन चल रहा है, कि मातृ, माता, मां, अम्मा जैसे किसी विषय पर एक पोस्ट लिखना है, जो मेरे मातृप्रेम की सनद रहेगा । पर,  कैसे लिखूंगा ? हम्म, क्या लिखा जाय... मेरा यह कलम सप्रयास  तो कविता की गहराई तक उतरने से रहा,   ठठेरी,  चितेरी, लुटेरी  जैसे काफिये भिड़ाये जाने  तक ही  बात नहीं है  । क्योंकि  मुझे तो भाई, यह ग्राह्य न हुआ कि समाज के एक नकारात्मक खल तत्व,  लुटेरे  से माता जी को नवाजने  की  नौबत तक कोई रचना दी जाय,  समीर जी क्षमा करें । फिर ?  फिर, एक लेख तैयार करें " मातृ दिवस पर समकालीन भारत के युवावर्ग का उफनता ज्वार ", शायद  यह ठीक रहेगा ? नहीं, यह ठीक न होगा, कोई अकेली डा0 वाचक्नवी  मेरी  पाठक थोड़े ही हैं ? फिर...बचपने के दिनों में घूम फिर कर माँ को ही गोहरा लिया  जाय ? लेकिन मेरा बचपन तो अभी गया ही नहीं है । फिर., एक मारात्मक प्रभाव वाली एक तिकड़मी इमेज लगा कर और माँ तुझे नमन का कैप्शन लगा कर ही इतिश्री कर ली जाय ? लेकिन यह स्वयं मुझे ही गवारा नहीं, तो भला आप क्यों बर्दाश्त करें ? की बोर्ड पर मेरी उंगली घिसाई जाया हो जाय, वह अलग !   इसी असमँजस में डूब  और उतरा रहा हूँ,   कि ?

 

amma-bachcha सहसा  आना... एक आवाज का, " ऎई तुम कुछ कर रहे हो क्याऽऽ ? "
मैं चुप रहा । भला  इन्हें क्या जवाब दें, यह तो पहले से ही पंडिताइन हैं ।
चुप रहने में भलाई हो या न हो, इस समय मुंह में बाबा श्री 120, कुमारी रजनी के संग कल्लोल  कर रहे हैं,   और   इनके एकाकार होते  जाने  का रस जैसे मन में घुलता सा  जा रहा है । यह  तुम क्या जानो..
इतने में दुबारा, “  ऐईऽऽ , ऎई तुम कुछ कर रहे हो क्याऽऽ ? " 
इस बार का संबोधन पंचम स्वर में आरोह के साथ सम पर स्थिर है !
इन्हें क्या जवाब दें ? प्लास्टर बंधे हाथ को देख कर भी कोई पूछे कि फ्रैक्चर हो गया क्या ? आप क्या कहेंगे....शौकिया बाँध रखा है, या घर में बासन मांजने से छुट्टी पाने का यही बेहतर जरिया बचा है, या ऐसा ही कुछ न ?    ऎंवेंईं जिज्ञासाओं के ऎंवेंईं समाधान.. का करियेगा ई अपुन का इन्डिया है !
सुनो तो.. तुमसे एक बात कहनी थी ! लो जी, बिना पूछे तो दस बातें सुना डालती है, आज अनुमति मांगने का कारण ? मन मेरा आशँकित हो गया । यदि हाँ बोलू, तो पंडितइनिया मारेगी, ना बोलूं तो भी पंडितइनिया ही मारेगी । बीच का रास्ता यदि कुछ है, तो क्या है ?
सो, कुछ न बोल अपनी गरदन एक विशेष कोण पर आगे पीछे कर अपनी मजबूर सहमति दे दी ।

वह बोलीं, " न हो तो, अम्मा को आगरा न छोड़ आओ ? " सदके जावाँ व्याकरणाचार्य, न पश्यन्ति प्रश्नम तदोपि न जानामि कथोपकथन ! यह प्रश्न है, या व्यक्तव्य है, याकि अपरोक्ष सुझाव है ? अहो, तो यह है, फ़्यूचर इनडिफ़ेनिट इन्ट्रोगेटिव सेन्टेन्स !    बहुत छकाये रहे हमका  पी सी रेन साहब के गिरामर ने । मैं  सचेत  होता हूँ, किन्तु  बाबा-रजनी  युगल को  मुख  से बहिस्खलन  करवाना ही पड़ेगा । उनके असमय बहिर्गमन से थोड़ी कोफ़्त होती है,  मुखारविन्द खाली करके उन्मुख होता हूँ, " क्यों भला ? "
इस बार निराधार चिन्ता की एक ज़ायज़ आतुरता थी
" ऎसे ही.. उनका, तुम्हारा, हम सबका कुछ बदलाव हो जाता । "
" छोड़ आओ बोले तो,आगरा छोड़ आओ, जँगल में छोड़ आओ, यानि कि कहीं भी, बस इन्हें छोड़ आओ
  रूँआसी हो उठीं, " बेकार बातें मत करो । मैंनें जँगल कब कहा, आगरा में चुन्नु भैय्या रहते हैं, उनके पास तीन चार महीने रह आतीं ।"
मैं असँयतली भी सँयत बना रहा, " यानि कि, मैं माता श्री को नगरी नगरी द्वारे द्वारे बाँटता फिरूँ ? "
" बात मत बढ़ाओ, नगरी नगरी द्वारे द्वारे बाँटने की क्या बात है ? वहाँ आगरा में तुम्महारा भाई रहता है । "
   इस बार खाँटी झनझनौआ अँदाज रहा, मैं भाँप गया, अब ऎसी तैसी होने वाली है ।
सो वन स्टेप बैकवार्ड होता भया । " अरे यार, मैंनें मना कब किया है, वह सहर्ष आकर ले जाये न ! "
" उनको तो फ़ुरसत ही नहीं है, एक फोन तक तो करते नहीं, कि अम्मा कैसी हैं ! "
उछल पड़ा  मैं, " बस यही तो बात है, माँ तो आग्रह से या हक़ जता कर, लड़ झगड़ कर हासिल की जाती है, और उन्हें समय नहीं है ! " एक असहज चुप्पी... मात्र सत्रह सेकेन्ड काटना असह्य हो गया,
मैंने निर्णय दिया, " अमर कुमार अम्मा को कहीं छोड़ने नहीं जा रहे ! "
वह कातर हो उठीं, " मैं तो तुम्हारे लिये कह रही हूँ । अभी मार्च में तो उनकी लैट्रीन तक तुमको साफ़ करनी पड़ी,  तुमको यह सब करते मुझसे नहीं देखा जाता । "
मैं अब बोर हो रहा हूँ, " क्यों,  क्यों नहीं देखा जाता ?
कभी उन्होंनें भी तो खाना पीना छोड़ कर मुझे साफ किया होगा, तब आपने क्यों नहीं देखा ? " 
अब शायद अश्रुप्रपात होने वाला है, क्योंकि इसके पहले का उनका रौद्र गर्जन आरँभ हो चुका है,
" ज्यादा बनो मत ! आख़िर कब तक यूँ रात रात भर जागते रहोगे,  कुछ अपनी भी सोचो ?   एक नर्स ही रख लो । " आह, यह तो स्वयँ ही मुझे कोमल स्थल पर ले आयीं, " अच्छा जी.. मैं अपनी सोचूँ ? तुमने अपनी सोचा था जब जाड़ों की रात में उठ कर बाबू और मुनमुन को दूध गर्म करके देती थीं ।
उनका गीला बिस्तर बदलती थीं ! तब क्यों न कहा कि एक दाई रख दो । "  Amma-11.5.09 तीर निशाने पर पड़ा, क्योंकि अब किंचित इतराहट थी, " वह तो मेरा कर्तव्य था । " 
अब लगे हाथ एक और पातालभेदी बाण चला तो दे, अमर बाबू !
" तो यह भी तो मेरा कर्तव्य है । इन्होंने भी तो माघ पूस में मेरे लिये यही सब तो किया होगा ! तब तो बिजली भी न थी,  कि फट्ट रोशनी हो गयी, और बुरादे की चिमनी खास तौर पर गर्म  रखना  पड़ता था वह  अलग । " सुबह छः बजे उठ कर कोयलें की धुँआती अँगीठी भरना तो  सोच भी न सकतीं हैं ।

न तुम मानो ना हम.. ई लेयो, चलो कुट्टी हो गयी ! अपनी तो दो तीन दिनाँ की छुट्टी हो गयी । लेकिन ना, वह ज़नानी ही क्या, जो अपने मियाँ को चैन के चार दिन नसीब होने दे ? इस समय रात्रि के ग्यारह बज कर छियानबे मिनट हुये हैं,  यानि  कि घड़ी में  तीन का  समकोण बनने  में अभी  दो घँटे  से  कुछ ज्यादा ही मिनट शेष है । यह बिस्तरा-कक्ष से प्रकटती हैं, झाँकने की नौबत ही नहीं, अम्मा की तस्वीर दूर से ही चमक रही  है । " यह क्या…  मदर्स डे पर अब लिख रहे हो, बुद्धू कहीं के ? समीर लाला ठीक ही कहते हैं, रहे तुम वही के वही ..
अमाँ यार, यह सब लटका मैं नहीं जानता । सबै भूमि गोपाल की.. हमरे लिये तो सभी दिन हेन तेन लालटेन डे है । वह कौतुक से हँस पड़ती हैं, "  वाह,  लालटेन डे ! " मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिलता है, " और क्या ? जरा तुम ही बताओ, आज बरसात हुयी है, मौसम बड़ा अच्छा हो रहा है । कम्प्यूटर स्क्रीन से छन कर आती रोशनी में तुम भी अच्छी लग रही हो.. अब कहो तो, अमर कुमार बईठ के फ़रवरी वाले वैलेन्टाइन बाबा की राह जोहें ? इसपर इनकी सारी विद्वता धरी रह गयी, कुछ कन्फ़्यूज़ हो गयीं, " हाँ, बात तो तुम सही कह रहे हो.. " और..   और..   और क्या ?   और हममें फिर से मिल्ली हो गयी ।

सब ठीक ठाक हो गया, हम सुख से रहने लगे ।
अम्मा भी जी रही हैं, बस जिये जा रहीं हैं,   कुछ  अनमनी सी !

 

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07 May 2009

अप्रासँगिक स्वगत कथन

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सुबह सुबह अख़बार पढ़ दिन ख़राब करने से बेहतर लत है, चिट्ठाचर्चा !
आदत के मुताबिक आज भी पलटाया तो .. 

" उपस्थित श्रीमान /  मैडम  साथ एक बेहतरीन लिंक लेकर अनूप जी को पाता हूँ, ”

जो कि स्वयँ में चर्चाकार का ही टैगलाइन है, और बहुत अच्छा है 

बड़ा भला लग रहा है, चुहल सूझ रही है..कि
एक पोस्ट लिखूँ, " आओ सखि, लिंक मिलि बाँटैं "
कौन जानता है, कब समय मिल पाय...
अभी ही लिख लेता.. लेकिन सिंह साहब की पत्नी नीरू किसी काम से पँडिताइन से मिलने आयीं हैं,
और जम कर बैठ गयीं, क्योंकि उनके पास टैम नहीं है  (यदि  होता.. तो शायद एक अदद बिस्तर और डोलची के संग पधारतीं ! ) अपना प्रिय विषय ’ रिशि का अँग्रेज़ी स्कूल ’ पर सराहना भरे अँदाज में बिसूर रहीं हैं .." देखिये न भाभी .. इत्ती गर्मी में सभी स्कूल बंद हैं, इनलोगों ने बँद न किया,
और तो और, ज़ूते साफ़ नहीं थे, तो आज स्कूल से लौटा भी दिया ! "
पँडिताइन की टिप्पणी भी सुन लीजिये, " सही बात है..
डिसिप्लिन तो होना चाहिये, न ?  भला कब तक  बच्चे बने रहेंगे ?
अँग्रेज़ी स्कूल है, कोई मज़ाक बात थोड़े है ? "
मेरा मन कर रहा, मैं इन ज़नानियों के बीच टपक पड़ूँ..
मुझे भी तो मऊ नाथ भँजन वाले स्कूल में बैठने के लिये अपने संग टाट-पट्टी ले जानी होती थी ! "
पर, दोपहर के बारह बजने को हैं । मुझे भी क्लिनिक जाने की देर हो रही है,
अपने मरीज़ों की मैंने इसी समय की आदत डाल रखी है ! "

 

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03 May 2009

एक एक्कनम एक, दो दूनी चार, तीन तियाँ नौ.. ..

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ई लेयो, दुनिया चैन से रहने भी न दे.. और पूछे ’ बेचैन क्यों रहते हो ? "
हम पहले ही ब्लागर से मोहोबत करके सनम.. रोते भी रहे.. हँसते भी रहे गुनगुनाय रहे थे, कि आजु एकु मोहतरमा हमसे पूछि बैठीं, " क्षमा करें डाक्साब, आप काहे के डाक्टर हैं ? "

अब जानवरों के डाक्टर होते तो अपने प्रिय ब्लागर भाईयों के लिये क्यों लिखते ? हम भी किसी चुनावी जनसभा में भाड़े की जुटी भीड़ में शामिल मिमिया रहे पब्लिक से मुख़ातिब होते, या अपनी पढ़ाई-लिखाई का भरपूर दुरुपयोग करते हुये कहीं चैनल-नवीसी कर रहे होते ! और कुछ नहीं तो.. ’ नखलऊ लायब्रेरी  में लोकसाहित्य की अनुपब्धता ’ पर एक्ठो शोध का जुगाड़ करके मेहता अँकल के गाइडेन्स में एक दूसरे किसिम की डाक्टरी का जुगाड़ बना लेते ! और..  अब तक हिन्दी जी के बीमार दिल में कई प्राकृत , अपभ्रँश इत्यादि के शब्दों का प्रत्यारोपण भी कर चुके होते ?   पर,  हाय री फूटी किस्मत.. इतनी घिसाई के बाद एक अदद ’ पब्लिक प्रापर्टी डाक्टर ’ बनना ही नसीब में रहा, सो होय गये !

इत्तेफ़ाक़ से.. चढ़ती उमिर में एक बुरी सँगत होय गयी । पँडिताइन के शासनकाल के बहुत पहले की बात है,  लेकिन वुई भी एक ठँई ज़नानिये रहीं.. यानि कि वह कोमल भावनायें  अउर मैं फूटी कौड़ी  भी नहीं !
फिर भी रँग था, कि जम ही गया ! तब यह ’ खूब जमेगा रँग ’ वाला विज्ञापन नहीं चला था.. सो हम साहित्य-वर्चा  करके ही मदहोश हो लिया करते थे ! ग़र मदहोश हो बैठे, तो कुछ लिखने-ऊखने का गुनाह भी त होबे करेगा, एक किताब मयखाना नाम से पढ़ा तो था .. पर, मयखाना होता कहाँ है, यही न जानता था  ! थोड़ा बहुत सुलेखा रोशनाई खरच करके हल्के हो लेते थे । मत याद दिलाओ, वह सब !

दिन भर की मगज़मारी के बाद ज़ीमेल खोला, . 384 अनपढ़े मेल ( ये अपुण का इनबाक्स है, भिडु ! अक्खा यूनिवर्स अपुण का भेज़ाफ़्राई करनाइच माँगता ) साहस ज़वाब दे इससे पहले ही देवनागरी फ़ान्ट वाले सभी मेल खोलकर अपने कच्चे-पक्के ढंग से बाँच मारे, कुछ का उत्तर भी दे दिया । आगे एक मेल और देखा , बड़े नाज़ुक अँदाज से पूछा गया है, " आप काहे के डाक्टर हैं ? "

उनके शब्दों की सौजन्यता, मानों कह रहीं हों, "  ग़ुस्ताख़ी माफ़ ! चेहरे पर झुकी ज़ुल्फ़ें हटा दूँ तो...... "
मैडम जी, बहुत देर हो चुकी है, अब वोह चेहरा.. वोह ज़ुल्फ़ें.. सब बीते लम्हों में कैद हैं !
अब क्या ज़वाब दूँ, मैं तुम्हारे सवाल का ?

एक दफ़ा यही सवाल , यही सवाल ’ चिट्ठाकार ’ से भी फेंका गया था । मैंने किसी तरह इसको गली में सेफ़ ड्राइव करके, अपने को आउट होने से बचाया ! जी हाँ, मैडम जी.. हमरा दिमाग हर बेतुकेपन पर  आउट होने वाला लाइलाज़ ट्यूमर पाले है ! हालाँकि, समीर भाई आश्वासन दे गये हैं, कि वह कनाडा जाते ही जल्द ब जल्द मुझे इलाज़ के लिये बुलावेंगे ! अब देखो, उनके आश्वासन का क्या होता है ? सुना है, वह राजनीति में भी कभी सक्रिय रहे हैं । यह और बात है, कि तब  उनके घाघ साथियों ने आपके टँकी चढ़ते ही सीढ़ी गायब कर दी ! उतरने के प्रयास में लेखन की डाल पर अटक कर रह गये ।

पर्याप्त मनोरँजन हो चुका हो, तो फिर अपने पुराने पहाड़े पर आया जाय , या टाला जाय । अब तो मैं भी वरिष्ठ में घुस सकता हूँ । सो, चुप मार लिया जाय ? अब क्या ज़वाब दूँ, मैं तुम्हारे सवाल का ?

या फिर, मेहरबान कद्रदानों की तरफ़ टिप्पणी बक्से की चौकोर टोपी घुमा कर, क्रमशः लिख, इसे कभी न पूरा करने को यहाँ से सरक लिया जाय ?  वैसे भी आजकल मेरा ’वृहद-पोस्ट लेखन कलँकोद्धार व्रत ’  चल रहा है !  अपना सेहरा स्वयं ही पढ़ना तो शोभा न देगा, सो सकल प्रोटोकाल,  शिष्टाचार तज एक पोस्ट में मामला आज लगे हाथ यहीं सलटा दिया जाय ?

उत्सुकता एकदम ज़ेनुईन है, बहुतेरे डाक्टर घूम रहे हैं । ज़रूरी नहीं कि शोध करके ही Ph.D. शोधा हो, मानद भी तो बाँटी जा रही है । कई रंगबाज तो अपने को ऎसे ही डाक्टर लगाते हैं और लगभग ज़बरन आपसे मनवाते भी हैं । कच्छे से लेकर लंगोटावस्था तक आपने उनको गर्ल्स कालेज़ के इर्द गिर्द ही पाया होगा , फिर अचानक ही उनके नेमप्लेट पर एक अदद डाक्टर साहब नाम बन के टँगे दिखने लग पड़ते हैं,  डा.  हुक्का, ए. ट. पो. री. ( हि. ब्ला.)  ,  क्या करियेगा ? ये अपुण का इंडिया है, भिडु ! आपका मेरे ' कुछ ' होने पर संदेह नाज़ायज़ नहीं है । होना भी नहीं चाहिये,  माहौल ही ऎसा है !

एक एक्कनम एक
reply-to  dramar21071@yahoo.com
to Chithakar@googlegroups.com
date 6 Feb 2008 01:02
subject  Re: [Chitthakar] Re: याहू पर माईक्रोसॉफ्ट की बोली
mailed-by gmail.com

प्रिय बंधु,
ब्लागीर अभिवादन
विदित हो कि मैं डाक्टर अमर कुमार एततद्वारा घोषित करता हूँ कि मैं
पेशे से कायचिकित्सक बोले तो फ़िज़िशीयन हूँ
,अतः मेरी भाषा या लेखन की
त्रुटियों पर कत्तई ध्यान न दिया जाय । ईश्वर प्रदत्त आयू में से 55 बसंत को
पतझड़ में बदलने के पश्चात अनायास ही हिंदी माता के सेवा के बहाने से
कुछेक टुटपुँजिया ब्लागिंग कर रहा हूँ । वैसे युवावस्था की हरियाली में ही
हिंदी, अंग्रेज़ी,बाँगला साहित्य के खर पतवार चरने की लत लग गयी थी ,
और अब तो लतिहरों में पंजीकरण भी हो गया है ।
गुस्ताख़ी माफ़ हो तो अर्ज़ करूँ... इन उत्सुक्ताओं को देख मुझे दर-उत्सुक्ता
हो रही है कि आपकी उत्सुक्ता के पीछे कौन सी उत्सुक्ता है ? मेरी हाज़त
का खुलासा हो जाय, वरना कायम चूर्ण जैसी किसी उत्पाद के शरणागत
होना पड़ेगा । आगे जैसी आपकी मर्ज़ी..
सादर - अमर

ज़ाहिर है कि उपरोक्त रिप्रोडक्शन से व्यक्तिगत प्राइवेसी का हनन हो रहा है ,तो विवाद भी उठेंगे । उचित अनुचित पर सिर धुने जायेंगे । पर सनद तो सनद ही रहेगा ... यह इंटरनेट भी झक्कास चीज है भिडु , जो लिख दिया सो लिख दिया, दीमक के चाटने का लोचाईच नहीं इधर को !  बड़े बड़े को फँसायला है, बाप.. सोच के लिखने का इधुर को !
दो में लगा भागा
तो सज्जन और ….?, ( सज्जन का स्त्रीलिंग ? मेरे को नईं मालूम, नाहर साहब से पूछो ! )    
अमिं जी०एस०वी०एम० मेडिकल कालेज, कानपुर से चिकित्सा स्नातक इत्यादि इत्यादि हूँ, और सम्प्रति राहू सरीखा हिंदी ब्लागिंग से बरसने वाला अमृत चखने आप देव व देवियों की पंगत में चुपके से  आय  के ठँस गया हूँ । महादशा का अँदेशा तज दें, और इससे ज्यादा और कुछ भी तो नहीं
चोर निकल के भागा
अब यहाँ से फूट रहा हूँ,  आप इस राहू के शान्ति का आयोजन करें । नमस्कार !
us-thy outline
पर, सुराग क्या मिला भला ?
सुराग़ पुख़्ता या ख़स्ता जो भी मिला हो, पँडिताइन जाँच समिति ने 24 वर्षों बाद आज रिपोर्ट दी है.
कि मैं कड़वी दवाई-दारू वाला घिसा हुआ असली टाइटलर  हूँ ।
ओह,  लगता है सारथी जी  से स्लिप आफ़ माँइड , स्लिप होकर यहाँ  भी हिन्दी की निगरानी करने  आ पहुँचा है ! हाँ तो , मैं  अँग्रेज़ी  दवाई  वाला असली डाक्टर हूँ ! अँग्रेज़ी में दवाई लिखता हूँ, फिर  मुई  इसी  अँग्रेज़ी से गद्दारी  कर  के हिन्दी में बिलाग लिखता हूँ !
अलबत्ता कोई दलबदलू नेता नहीं हूँ !
अपने डाक्टर होने का हवाला देने में,  व्यक्तिगत मेल बिना इज़ाज़त सार्वजनिक कर दिये, तो क्षमा किया जाय । वैसे भी मैं आप सब की दया का पात्र हूँ । बड़ी बदतर हालत है मेरी,   न घर का - न घाट का ! मेरे मरीज़ भी सहज कहाँ विश्वास करते हैं कि मैं नुस्ख़े के अलावा कुछ और भी लिखने की अक्लियत रख सकता  हूँ !   जय हिन्द !

अनूप भाई पूछिन हैं,  कि पिछली पोस्ट कित्ते बजे लिखी गयी है !  वहू वतावेंगे गुरु, जरा  टैम तो मिले ? ब्लागजगत का फ़ुरसत तो आप हथियाये बैठे हो । ’ अथ तीन बजे रहस्यकम ’ जो केवल कुश जानते हैं, आप सब पब्लिक को कब लीक किया जाय ?  डेढ़ – दो  सौ  ग्राम  फ़ुरसत  कभी  इधर  भी  वाया  उन्नाव ट्राँस्फ़र करो न ? वहू बतावेंगे !  दुबारा से, जय हिन्द !

 

इससे आगे

01 May 2009

अनटाइटिल्ड !

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आज यहाँ मतदान का दिन था । हुँह, मतदान .. हम करें दान, ताकि वह कर सकें जनकल्याण !         बेहन माया ने सुबह सुबह मतदान किया ! मीडिया ने पर्याप्त कवरेज़ भी दिया ! अभी स्पष्ट ही नहीं है, 16-17-18-19 मई ( मोटामोटी बाद के बाद यह तीन दिन कुछ मोलभाव के रखिये न, भाई ! )जाने कौन प्रकट कृपाला - दीनदयाला आ जाँय और इन्हें नये सिरे से उनकी विरुदावली रचनी पड़ जाये ! फाइलों में कुछ तो रिकार्ड यह भी रखेंगे कि नहीं ? यही तो है, इनके  तरकश के तीर !
खैर.. मुझे क्या, यह उनकी प्रोब्लेम है !


सो, मतदान महापर्व पर आज पूरी छुट्टी मनाई ! ब्लागर से विद्रोह कर आज एक भरी पूरी पिक्चर भी देख डाली, क्योंकि अपुन ने तो डाक से अपना मत भेज दिया था ! कैसे, जब यह ब्लागर ट्रिक्स में आयेगा.. तो आपको भी  दिया जायेगा ! मत तो देना ही था !  ब्लागिंग करने से ही क्या होता है,  पर उनसे सहमत होने की मज़बूरी में अपना साधुवाद तो ज़ाहिर करना ही पड़ता है, भले ही कोई लाख कुपात्र हो ! खैर.. छोड़िये, यह मेरी प्रोब्लेम है !


62 वर्ष के बीमार बूढ़े को ज़िन्दा रखने साथ ही उसकी रक्षा भी करने की अपीलें लगातार आ रही थीं !  ज़ाहिर है, किसने कैसे वोट डाला, क्या क्या न हुआ ! इसपर पोस्ट आना शुरु भी हो चुका होगा, साथ कैमरा भी होता तो पोस्ट में चार चाँद लग जाते ! वह हेलीकाप्टर से उड़ उड़ कर आते रहे, चार पहिया स्कार्पियो  में दूर दराज के अँधेरों तक विचरते रहे ! अपनी पँचसाला खुराक नहीं, बल्कि भीख माँगने आये थे ! सो, आप धूप में घिसट कर ,अपने महापर्वों पर अन्नदान, द्रव्यदान, स्वर्णदान देने की तरह मतदान के लिये भी गये होंगे । वह  एक बार बढ़िया तरीके से , भारतमाता के नाम पर गौदान करना चाहते हैं । यह महापर्व कोई ऎसे ही नहीं है, हम तो पूरी आस्था के साथ इसके साथ हैं ! अब आप ही क्यों, मतदान करने को आतुर धूप में तपते घिसते रहे ।
यह तो भाई आपकी प्रोब्लेम है !

बेहन माया जी, सुबह ’ फ़िरेस ’ होते ही मतदान को निकल पड़ीं, पिरेस मेडिआ वगैरह के कैमरे के सामने अपने खाली पेट होने की दुहाई भी दे डाली ! खाली रहना ही चाहिये, जनसेवा कोई हँसी ठट्ठा नहीं है, मित्रों ! खाली पेट निकली हैं, बताने की कौन ज़रूरत ? शायद यही उनकी निगाह में लोकतंतर के लिये किया जाने वाला त्याग है ! खाली पेट.. आखिर कब तक खाली रखेंगी, बेहन जी, वह तो जनसेवा के चूरे से शनैः शनैः  भर ही जायेगा । उनका पेट कभी भरेगा भी कि, नहीं ?
यही तो पूरे देश की प्रोब्लेम है !

ई क्या तब से प्रोब्लेम प्रोब्लेम किये जा रहा है, कुछ हल्की-फुल्की बेहतरीन टी. पी. आर. वाली पोस्ट लिख न भाई, मेरे.. टिप्पणियाँ प्यारी नहीं है, क्या ? ना ना, मित्रों.. यह पन्डिताइन नहीं, बल्कि निट्ठल्ले महाराज अँदर से कुड़्कुड़ा रहे हैं ! " चुप कर ऒऎ खोत्ते,  इस समय सुँदरम नक्षत्र अस्ताचल पर है, सो गूगल-गुरु के घर में बैठा हुआ मँगल अनायास ही ब्लागर को टिप्पणी-वैल्यू के शनि भाव से देखने लग पड़ा है, शाँत हो लेने दो । तब तक तू निट्ठल्ला ही बैठा रह ! "

शायद मति मारी गयी है, तभी यह पोस्ट बिना किसी विषय के ही लिखने लग पड़ा हूँ ! इसको आप कितना पढ़ पाते हैं, यह तो अब एडसेन्स की भी प्रोब्लेम न रही । बेचारों का स्टैटिक्स ही गड़बड़ा गया, किसी पेज़ पर कोई एक मिनट से अधिक तो ठहरता नहीं, ट्रैफ़िक बढ़ रही है , और क्लिक एक्को नहीं ? जनहित में जारी किये जाने वाले मोफ़त के प्रलोभनों पर तो कोई क्लिक करता नहीं, और ये अँटी ढीली करवाने वाले विग्यापनों की बाट जोह रहे हैं, चिरकुट !"  रहना नहीं देस बेगाना रे ..
शायद अब  हम सभी लोग एडसेन्स की ही प्रोब्लेम हैं !

अब कुछ कुछ ज्ञानोदय हो रहा है.. टी. पी. आर. पर टाइमखोटी करना था ! सोचा कि, जब तक  गूगल बाबा हिन्दी ब्लागिंग के भविष्य और संभावित, प्रोजेक्टेड टी. पी. आर.  पर सेमीनार करने में व्यस्त हैं, लाओ कुछ पोस्ट ही पढ़ डाली जाये । इस समय रात है, सभी सो चुके होंगे ! अभिषेक जी ने ऎसा पिलाया, कि मैं मदहोश होकर स्वाइन फ़्लू पर कुछ लिख आया, यह और बात है, कि यहाँ भी मुझे डम्प ड्रग डिस्पोज़ल की नीति दिख रही है !
 

तो, यदि कोई नवाब या को.. "  छड्डयार, वो मन्तरी बन जावेंगे, तुस्सीं देखदे रहियो "
ई डिस्टर्बिंग एलिमेन्ट कोई और नहीं, पँडिताइन हैं !
अंतिम शब्दों तक की बोर्ड छीना जा रहा है, मैं उसे बचाने के प्रयास में रिरिया रहा हूँ,
" रहम कर मेरी एक्स. अनारकली.. अभी अपने दिमाग का बग तो यहाँ डाला ही नहीं.. ! "
ई मरदानी भला काहे सुनें ? जौ सुन लेतीं, तो आज हमरी ज़नानी होतीं ! "
ईह्ह, लेयो बग डाल दिया, प्रणाम ब्लागिंग बग जी !!

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इससे आगे
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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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