सुबह सुबह पंडिताइन ने झकझोर मारा, " एई उट्ठो.. एई उठो न, देखो बाघ लखनऊ तक आगया !
अरे, मैं तो अपना ही किस्सा लेकर बैठ गया, एक आवश्यक औपचारिकता तो पहले पूरी कर लूँ !
आपसब ब्लागर भाई व भौजाईयों को समस्त उत्तरायण पर्वों की हार्दिक शुभकामनायें !
जिनको भौजाई कहलाने में आपत्ति हो, कृपया नोट करें.. वह मेरी पोस्ट भले न पढ़ें, पर, उनका एतराज़ किसी भी दशा में दर्ज़ नहीं किया जायेगा !
एई उट्ठो.. एई उठो न, देखो बाघ लखनऊ तक आगया ! “ क्या यार, धत्तेरे की जय हो ! तुम भी क्या बच्चों की तरह किलकारी मार रही हो ? बाघ-साँप मंगल-जुपिटर के अलावा तुम्हें कुछ और नहीं सूझता ?” दरअसल यह सब इनको बड़ा रोमांचित करता रहा है । सो, मैं गिड़गिड़ाया, “ बाघ अभी 80 किलोमीटर दूर है, अभी सोने दो.. बेकार शोर मत मचाओ ! बाघ है तो मैं क्या करूँ ? “ और, मैं दुबारा से रज़ाई में कुनमुनाने लग पड़ा !
प्रसंगवश बता दूँ, कि इन मैडम जी ने शादी करने के लिये तो मुझ गदहे को चुना, पर मोहतरमा की दिलचस्पी हमेशा से बाघ, शेर, हाथी, साँप, ग्रह.. नक्षत्र और भी न जाने क्या क्या में रहती है ? कुल ज़मा किस्सा यह कि आजकल मुझपर रोब गाँठने के सिवा मुझसे शायद ही इनका कोई नाता हो ? तिस पर भी दिसम्बर माह में मेरा कीबोर्ड आतंक और आतंकवादियों से ही जूझने में खरच होता रहा ! वह नाराज़ी अलग से है.. “ एई सुनो, अब आजकल तुम अपने, क्या कहते हैं कि पोस्ट में.. मेरा ज़िक्र तक नहीं करते हो ! अरी भागवान, तू नादान क्या जाने कि तेरा आतंक उन आतंकियों का पसंगा भी नहीं है ! जो भी हो, तेरा आतंक तो मैं अकेले झेल ही रहा हूँ, डियर ! उधर सारा देश दाँव पर लगा है !
ईश्श्श, पोस्टिया तो लगता है, फिर आतंकियों की तरफ़ रेंग चली है ! पीछे मुड़.. कीबोर्ड चला.. सामने देख.. नज़र सामने रख, निगाह बाघ पर.. 80 किलोमीटर दूर है, तो क्या हुआ ? तेरा कीबोर्ड अटलांटा ज़र्मनी तक का रेंज़ रखता है ! बाघ तो मात्र 80 कि.मी. पर है !
पूरे दिसम्बर माह बड़ा शोर रहा.. दुधवा का एक बाघ नखलऊ की तरफ़ बढ़ रहा है ! जी हाँ, जगप्रसिद्ध लखनऊ अपने घर में नखलऊ ही कहलाता है !
हाँ तो, बाघ नखलऊ की तरफ़ बढ़ रहा है.. रोज सुबह पंडिताइन अख़बार आते ही, चट से उसकी लोकेशन देखतीं, और मुझे झकझोर देतीं । मैं खीझ जाता, " तो मैं क्या करूँ ? " उनका तुर्रम ज़वाब होता, " मैं क्या करूँ.. अरे भाई बाघ है, कोई मामूली चीज नहीं, कुछ लिखो. !."
तुम्हें क्या बताऊँ ऎ अनारकली, कि बाघ की टी०आर०पी० इन दहशतगर्दों के सामने दुई कौड़ी की भी नहीं ! एक मौज़ आयी कि समीर भाई इंडिया पधारे हैं.. इनको ही एन-रूट दुधवा तैनात कर दूँ, यहाँ भी बाघ दुबक जाता । अब छोड़िये.. उनकी पावर तो बांधवगढ़ में ही शेष हो गयी.. बाकी जो बचा था वह शायद कमसन समधन ले गयी ! चुँनाचें, आज फिर बाघ महोदय हेडलाइनों में प्रकट होते भये हैं । यह साला दुधवा से सीधे लखनऊ को ही क्यों चल पड़ता है ? पर, सोना क्या था ? इस प्रयास में, बाघ को लेकर मन में किसिम किसिम की धमाचौकड़ी मचती रही.. वह निट्ठल्लई भी बताऊँ क्या ?
अरे, बाघ तो ज़ंगल का राजा है, भला लखनऊ आकर क्या कर लेगा ? भूखा है.. तो उसे वहीं आस पास के गाँवों में हाड़-मांस के पुतले मिल ही जाते ! पर, उन बेचारे पुतलों में सिर्फ़ हाड़ ही हाड़ बचा हो ? सो, किबला मांस की तलाश में राजधानी की तरफ़ चल पड़े हैं ? लेकिन, यहाँ के रसीले, गठीले, स्वस्थ, दमकते मांसल पुतले तो सरकारी ख़र्चे के सुरक्षा-कवच से घिरे रहते हैं.. क्या बाघ महाशय का इंटेलीज़ेन्स-डिपार्ट भारतीय सुरक्षा-तंत्र से भी गया बीता है, जो उन तक इतनी मामूली सूचना भी न पहुँचायी होगी ? ज़रूर मामला कुछ और ही है.. झपकी आ गई.. सामने अभय की मुद्रा में साक्षात बाघ महाशय दिखते भये । नहीं, डर मत, तू मुझे ब्लागर पर कवरेज़ देता रह, मैं अपनी सरकार में सूचना सलाहकार बना दूँगा ! आईला, बाघ ज्जिज्जी जी, क्षमा करें.. माननीय बाघ जी, सरकार बनायेंगे ? पर.. दिल की बात रही मेरे मन में, कुछ कह न सका कच्छे की सीलन में
सरकार, आप तो खुदै ज़ंगल के राजा हो, फिर ? माननीय बाघ जी दहाड़ते दहाड़ते एकदमै संभल गये, लहज़ा बदल कर बोले.. “ भई देख डाक्टर, वहाँ भी सभी मौज़ है, लेकिन यह ज़गमगाती बिज़ली बत्ती, ठंडक देने वाली ए,सी. वगैरह वगैरह कहाँ ? अगर हम्मैं ज़ंगल ही पर राज करना है, तो तेरे इस बेहतरीन ज़ंगलराज में करेंगे । भला बता तो, तेरे नखलऊ से अच्छा ज़ंगलराज और कहाँ मिलेगा, रे ? तू वहाँ घूमने जाता है,हमारे लोग यहाँ घूमने आयेंगे !
पर, माननीय महामहिम दुधवा से सीधे.. हा हा हा, अरे मूर्ख दुधवा क्या उल्टा-प्रदेश से अलग है, क्या ? यहाँ अलीगढ़ के वकील, इटावा के मास्टर, मांडा के राजा, बिज़नौर की बहनजी आ सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं ? कड़क्ड़कड़ मेरे दिमाग में जैसे हज़ार पावर की बत्ती जल उठी.. अब्भी अबी माननीय ने मांडा के राजा का नाम उचारा था, पकड़ लो इनको । “ हुज़ूर, आप तो पैदायशी राजा हैं, सत्ता पर आपका जन्मजात अधिकार होता है… नहीं मेरा मतबल है, आप तो आलरेडी डिक्लेयर्ड राजा होते हैं, फिर यहाँ हम इंसानों के बीच…मतबल ? ज़ब्त करते हुये भी बाघ जी गुर्रा पड़े, और अपनी तो..?
निकल पड़ी ? निकल पड़ी न, तुम्हारी गंदी ज़ुबान से चालबाजी की बातें ? बताओ तुम्हारे कने परिवारवाद.. वंशवाद नहीं है, क्या ? ज़ाल तू ज़लाल तू, आई बला को टाल तू.. सो तो है, सरकार ! फिर, मेरे को क्या समझाता है ? मुझे तुम इंसानों की पोल पट्टी पता है !
पर, हज़ूर वहाँ... आपके मतबल राजा के जूठन पर सैकड़ो गीदड़-सियार लोमड़ी पलते हैं । उसकी चिन्ता मत कर, यहाँ भी पहले से बहुत पल रहे हैं, हमारे भी उन्हीं में खप जायेंगे.. बोल आगे बोल ? डर मत, तेरे बहाने मेरा प्रेस-कांफ़्रेन्स का प्रैक्टिस हो रैया है ।
यार, इनको यहीं से दफ़ा करो, नहीं तो राजनीति के नाम पर तो, यह हमारे दाद बन जायेंगे ! सो, मैं मानवता की रक्षा के लिये सनद्ध होता भया.। यदा यदा हि लोकतंत्रस्य… पर, सरकार यहाँ तो लोकतांत्रिक बवाल चलता है.. भला आप ? अपने लिये सरकार सुनकर वह नरम पड़े । रहने दे, रहने दे.. वह मीठे स्वर में गुर्राये, " मुँह न खुलवा.. लेकिन सिर्फ़ तेरे को बताता हूँ, लोकतांत्रिक-वांत्रिक के लिये मेरे कने बंदरों की बहुत बड़ी फ़ौज़ है, सभी बूथ कवर कर लेंगे ।" तो, यह जनशक्ति की धौंस दे रहें हैं ?
अब तक मेरी घिघ्घी बँध चुकी थी.. बंदरों की फ़ौज़ से घिरे होने की कल्पना मात्र से, आगे के सैकड़ों प्रश्न उड़न-छू हो चुके थे । ज़्यादा बोलना, अब ऎसे भी उचित न था, इनका महामहिम बनना तय था । क्या पता, यह सूचना सलाहकार के भावी पद से अभी से सस्पेन्ड करके कोई जाँच-वाँच बैठा दें ! पर, भईय्यू वह ठहरे ज़ंगल के राजा सो, फ़ौरन मेरा असमंजस भाँप गये, "लोकतंत्र-पोकतंत्र कि चिन्ता मत किया कर ! नखलऊ में सभी लोकतंत्र की दहाड़ मारते हुये आते हैं । फिर, कोई फ़कीर बन जाता है, कोई मुलायम हो जाता है, कोई माया बन जाती है । मैं बाघ बन कर आऊँगा.. तो आख़िर तक बाघ ही रहूँगा .. राज करने के लिये हाथी नहीं बन जाऊँगा, समझे कि नहीं ? मैं मिनमिनाया, " समझ गया सरकार, हमारी क्रांति का प्रभाव हमसे ज़्यादा ज़ानवरों पर है । लो, चलते चलाते महामहिम का मूड बिगड़ गया.. " फिर तुमने ज़ानवरों को इंसानों की बराबरी में रखा ? छिः, तौबा कर ! "
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यदा यदा हि,
पंडिताइन
आभार: डा. अनुराग का, जिन्होंने मुझे यह पोस्ट लिखने को टँगे पर चढ़ा दिया था । आफ़कोर्स पंडिताइन का, जिन्होंने आतंकवाद पर अरण्य-रूदन पर झाड़ पिलायी..और सामने रखी घड़ी का, जिसमें तीन नहीं बजे हैं,एवं सोचताइच नहीं, लिखेला ठेलेला के टैग का