जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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19 January 2009

तुम पार नेट परमेश्वर तुम ही नेट पिता

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google-animated-holoween-logo 

ॐ जय गूगल हरे, स्वामी जय गूगल हरे
फ़्रस्ट (एटेड ) जनों के संकट, त्रस्त जनों के संकट
एक क्लिक में दूर करे
ॐ जय गूगल हरे…

जो ध्यावै सो पावै
दूर होवै शंका, स्वामी दूर होवै शंका
सब इन्फ़ो घर आवै, सब इन्फ़ो घर आवै
कष्ट मिटै मन का
ॐ जय गूगल हरे…

नेट पिता तुम मेरे
शरण गहूं किसकी, स्वामी शरण गहूं किसकी
तुम बिन और न दूजा, तेरे बिन और न दूजा
होप करूं किसकी
ॐ जय गूगल हरे…

तुम पूरन हो खोजक
तुम वेबसाइटयामी, स्वामी तुम वेबसाइटयामी
पार नेट परमेश्वर, पार नेट परमेश्वर
तुम सबके स्वामी
ॐ जय गूगल हरे…

तुम ब्लागर. के फ़ादर
तुम ही इक सर्चा, स्वामी तुम ही इक सर्चा
मैं मूरख हूं सर्चर, मैं मूरख हूं सर्चर
कृपा करो भरता
ॐ जय गूगल हरे…

तुम सर्वर के सर्वर
सबके डाटापति, स्वामी सबके डाटापति
किस विधि एन्टर मारूं, किस विधि एन्टर मारूं
तुममें मैं कुमति
ॐ जय गूगल हरे…

दीनबंधु दु:खहर्ता
खोजक तुम मेरे, स्वामी शोधक तुम मेरे
अपने फ़ण्डे दिखाओ, कुछ तो टिप्पणी दिलाओ
साइट खड़ा तेरे
ॐ जय गूगल हरे…

बोरियत तुम मिटाओ
टेंशन हरो देवा, स्वामी टेंशन हरो देवा
गूगल अकाउण्ट बनाया गूगल अकाउण्ट बनाया
पाया ब्लागिंग मेवा स्वामी पाया ब्लागिंग मेवा
जो नर ब्लागिंग धावैं करैं निजभाखा सेवा
ॐ जय गूगल हरे

go

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15 January 2009

चला बाघ मंत्री बनने !

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सुबह सुबह पंडिताइन ने झकझोर मारा, " एई उट्ठो.. एई उठो न, देखो बाघ लखनऊ तक आगया  !
अरे, मैं तो अपना ही किस्सा लेकर बैठ गया, एक आवश्यक औपचारिकता तो पहले पूरी कर लूँ  !

आपसब ब्लागर भाई व भौजाईयों को  समस्त उत्तरायण पर्वों की हार्दिक शुभकामनायें !
जिनको भौजाई कहलाने में आपत्ति हो, कृपया नोट करें.. वह मेरी पोस्ट भले न पढ़ें, पर, उनका एतराज़ किसी भी दशा में दर्ज़ नहीं किया जायेगा !

tiger एई उट्ठो.. एई उठो न, देखो बाघ लखनऊ तक आगया  ! “  क्या यार, धत्तेरे की जय हो !  तुम भी क्या बच्चों की तरह किलकारी मार रही हो ? बाघ-साँप मंगल-जुपिटर के अलावा तुम्हें कुछ और नहीं सूझता ?” दरअसल यह सब इनको बड़ा रोमांचित करता रहा है । सो, मैं गिड़गिड़ाया, “ बाघ अभी 80 किलोमीटर दूर है, अभी सोने दो.. बेकार शोर मत मचाओ !  बाघ है तो मैं क्या करूँ ? “  और,  मैं दुबारा से रज़ाई में कुनमुनाने लग पड़ा  !
प्रसंगवश बता दूँ, कि इन मैडम जी ने शादी करने के लिये तो मुझ गदहे को चुना, पर मोहतरमा की दिलचस्पी हमेशा से बाघ, शेर, हाथी, साँप, ग्रह.. नक्षत्र और भी न जाने क्या क्या में रहती है ? कुल ज़मा किस्सा यह कि आजकल मुझपर रोब गाँठने के सिवा मुझसे शायद ही इनका कोई नाता हो ? तिस पर भी दिसम्बर माह में मेरा कीबोर्ड आतंक और आतंकवादियों से ही जूझने में खरच होता रहा !  वह नाराज़ी अलग से है.. “ एई सुनो, अब आजकल तुम अपने, क्या कहते हैं कि पोस्ट में.. मेरा ज़िक्र तक नहीं करते हो ! अरी भागवान, तू नादान क्या जाने कि तेरा आतंक उन आतंकियों का पसंगा भी नहीं है !  जो भी हो,  तेरा आतंक तो मैं अकेले झेल ही रहा हूँ, डियर ! उधर सारा देश दाँव पर लगा है !
मैंने तो अब तक एक गुनाह तुमसे ब्याह करने का ही किया है और अब मैं उतना मासूम भी न रहा । पर.. पहले इन आतंकियों पर अपना गुस्सा निकाल लेने दे, जो मासूम, बीमार.. बेगुनाहों में फ़र्क़ करने की तमीज़ भी नहीं रखते.. पता नहीं, किन नामाकूल आकाओं ने इनको ट्रेनिंग देकर भेजा है ?  संसद वसंद पर एक बार और हो आते, एक दो खद्दर-कुर्ता टोपी-अचकन टपका भी देते तो,  देश न सही  मैं तो कृत्तज्ञ  होता ही  और, आप लोग भी अगर बाई-चाँस पकड़ में आ भी जाते, तो कसाब जैसा हाल तो न बनता, और  अफ़ज़लवा की तरह दोनों मुल्क की सरकारों को लटकाये रखते, वो अलग से ? tdots5tdots5tdots5tdots5
ईश्श्श, पोस्टिया तो लगता है, फिर आतंकियों की तरफ़ रेंग चली है ! पीछे मुड़.. कीबोर्ड चला.. सामने देख.. नज़र सामने रख, निगाह बाघ पर.. 80 किलोमीटर दूर है, तो क्या हुआ ?  तेरा कीबोर्ड अटलांटा ज़र्मनी तक का रेंज़ रखता है ! बाघ तो मात्र 80 कि.मी. पर  है !
पूरे दिसम्बर माह बड़ा शोर रहा.. दुधवा का एक बाघ नखलऊ की तरफ़ बढ़ रहा है ! जी हाँ, जगप्रसिद्ध लखनऊ अपने घर में नखलऊ ही कहलाता है ! हाँ तो, बाघ नखलऊ की तरफ़ बढ़ रहा है.. रोज सुबह पंडिताइन अख़बार आते ही, चट से उसकी लोकेशन देखतीं, और मुझे झकझोर देतीं । मैं खीझ जाता, " तो मैं क्या करूँ ? " उनका तुर्रम ज़वाब होता, " मैं क्या करूँ.. अरे भाई बाघ है, कोई मामूली चीज नहीं, कुछ लिखो. !." तुम्हें क्या बताऊँ ऎ अनारकली, कि बाघ की टी०आर०पी० इन दहशतगर्दों के सामने दुई कौड़ी की भी नहीं ! एक मौज़ आयी कि समीर भाई इंडिया पधारे हैं.. इनको ही एन-रूट दुधवा तैनात कर दूँ, यहाँ भी बाघ दुबक जाता । अब छोड़िये.. उनकी पावर तो बांधवगढ़ में ही शेष हो गयी.. बाकी जो बचा था वह शायद कमसन समधन ले गयी ! चुँनाचें, आज फिर बाघ महोदय हेडलाइनों में प्रकट होते भये हैं । यह साला दुधवा से सीधे लखनऊ को ही क्यों चल पड़ता है  ?  पर, सोना क्या था ?  इस प्रयास में, बाघ को लेकर मन में किसिम किसिम की धमाचौकड़ी  मचती रही.. वह निट्ठल्लई  भी बताऊँ क्या ?
अरे, बाघ  तो ज़ंगल का राजा है, भला लखनऊ आकर क्या कर लेगा ? भूखा है.. तो उसे वहीं आस पास के गाँवों में हाड़-मांस के पुतले मिल ही जाते ! पर, उन बेचारे पुतलों में सिर्फ़ हाड़ ही हाड़ बचा हो ?  सो,  किबला मांस की तलाश में राजधानी की तरफ़ चल पड़े  हैं ?  लेकिन, यहाँ के रसीले, गठीले, स्वस्थ, दमकते मांसल पुतले तो सरकारी ख़र्चे  के सुरक्षा-कवच से घिरे रहते हैं.. क्या बाघ महाशय  का  इंटेलीज़ेन्स-डिपार्ट भारतीय सुरक्षा-तंत्र से भी गया बीता है, जो उन तक इतनी मामूली सूचना भी न पहुँचायी होगी ? ज़रूर  मामला  कुछ और ही है.. झपकी आ गई.. सामने अभय की मुद्रा में साक्षात बाघ महाशय दिखते भये । नहीं, डर मत, तू मुझे ब्लागर पर कवरेज़ देता रह, मैं अपनी सरकार  में सूचना सलाहकार बना दूँगा ! आईला, बाघ ज्जिज्जी जी, क्षमा करें.. माननीय बाघ जी, सरकार बनायेंगे ? पर.. दिल की बात रही मेरे मन में, कुछ कह न सका कच्छे की सीलन में
lion3 सरकार, आप तो खुदै ज़ंगल के राजा हो, फिर ? माननीय बाघ जी दहाड़ते दहाड़ते एकदमै संभल गये, लहज़ा बदल कर बोले.. “ भई देख डाक्टर, वहाँ भी सभी मौज़ है, लेकिन यह ज़गमगाती बिज़ली बत्ती, ठंडक देने वाली ए,सी. वगैरह वगैरह कहाँ ? अगर हम्मैं ज़ंगल ही पर  राज करना है, तो  तेरे इस बेहतरीन ज़ंगलराज में करेंगे । भला बता तो,  तेरे नखलऊ से अच्छा ज़ंगलराज और कहाँ मिलेगा, रे ? तू वहाँ घूमने जाता है,हमारे लोग यहाँ घूमने आयेंगे !
पर, माननीय महामहिम दुधवा से सीधे.. हा हा हा, अरे मूर्ख दुधवा क्या उल्टा-प्रदेश से अलग है, क्या ? यहाँ अलीगढ़ के वकील, इटावा के मास्टर, मांडा के राजा, बिज़नौर की बहनजी आ सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं ? कड़क्ड़कड़ मेरे दिमाग में जैसे हज़ार पावर की बत्ती जल उठी.. अब्भी अबी माननीय ने मांडा के राजा का नाम उचारा था, पकड़ लो  इनको । “ हुज़ूर, आप तो पैदायशी राजा हैं, सत्ता पर आपका  जन्मजात अधिकार होता है… नहीं मेरा मतबल है, आप तो  आलरेडी डिक्लेयर्ड राजा होते हैं, फिर यहाँ हम इंसानों के बीच…मतबल ? ज़ब्त करते हुये भी बाघ जी गुर्रा पड़े,  और अपनी तो..?
निकल पड़ी ? निकल पड़ी न, तुम्हारी गंदी ज़ुबान से चालबाजी की बातें ? बताओ तुम्हारे कने परिवारवाद.. वंशवाद नहीं है, क्या ? ज़ाल तू ज़लाल तू, आई बला को टाल तू.. सो तो है, सरकार ! फिर, मेरे को क्या समझाता है ?  मुझे तुम इंसानों की पोल पट्टी पता है !
पर, हज़ूर वहाँ...  आपके मतबल राजा के जूठन पर सैकड़ो गीदड़-सियार लोमड़ी पलते हैं । उसकी चिन्ता मत कर, यहाँ भी पहले से बहुत पल रहे हैं, हमारे भी उन्हीं में खप जायेंगे.. बोल आगे बोल ?  डर मत, तेरे बहाने  मेरा प्रेस-कांफ़्रेन्स का प्रैक्टिस हो रैया है ।
यार, इनको यहीं से दफ़ा करो, नहीं तो राजनीति के नाम पर तो, यह हमारे दाद बन जायेंगे ! सो, मैं मानवता की रक्षा के लिये सनद्ध होता भया.। यदा यदा हि लोकतंत्रस्य… पर, सरकार यहाँ तो लोकतांत्रिक बवाल चलता है.. भला आप ? अपने लिये सरकार सुनकर वह नरम पड़े । रहने दे, रहने दे.. वह मीठे स्वर में गुर्राये, " मुँह न खुलवा.. लेकिन सिर्फ़ तेरे को बताता हूँ, लोकतांत्रिक-वांत्रिक के लिये मेरे कने  बंदरों की बहुत बड़ी फ़ौज़ है, सभी बूथ कवर कर लेंगे ।"  तो, यह जनशक्ति की धौंस दे रहें हैं  ?
अब तक मेरी घिघ्घी बँध चुकी थी.. बंदरों की फ़ौज़ से घिरे होने की कल्पना मात्र से, आगे के सैकड़ों प्रश्न उड़न-छू हो चुके थे । ज़्यादा बोलना, अब ऎसे भी उचित न था, इनका महामहिम बनना तय था । क्या पता, यह सूचना सलाहकार के भावी पद से अभी से सस्पेन्ड करके कोई जाँच-वाँच बैठा दें ! पर, भईय्यू वह ठहरे ज़ंगल के राजा सो, फ़ौरन मेरा असमंजस भाँप गये, "लोकतंत्र-पोकतंत्र कि चिन्ता मत किया कर ! नखलऊ में सभी लोकतंत्र की दहाड़ मारते हुये आते हैं । फिर, कोई फ़कीर बन जाता है, कोई मुलायम हो जाता है, कोई माया बन जाती है । मैं बाघ बन कर आऊँगा.. तो आख़िर तक बाघ ही रहूँगा .. राज करने के लिये हाथी नहीं बन जाऊँगा, समझे कि नहीं ? मैं मिनमिनाया, " समझ गया सरकार, हमारी क्रांति का प्रभाव हमसे ज़्यादा ज़ानवरों पर है । लो, चलते चलाते महामहिम का मूड बिगड़ गया.. " फिर तुमने ज़ानवरों को इंसानों की बराबरी में रखा ? छिः, तौबा कर ! "
आभार: डा. अनुराग का, जिन्होंने मुझे यह पोस्ट लिखने को टँगे पर चढ़ा दिया था । आफ़कोर्स पंडिताइन का, जिन्होंने आतंकवाद पर अरण्य-रूदन पर झाड़ पिलायी..और सामने रखी घड़ी का, जिसमें तीन नहीं बजे हैं,एवं सोचताइच नहीं, लिखेला ठेलेला के टैग का Nerd
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13 January 2009

इतना विशाल देश.. क्या अकेले मेरे बस में ?

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हरतरफ़ चर्चा है, कि देश मुसीबत में हैं, आतंकी इसे रौंद रहे हैं, घोटाले इसे लील रहे हैं ! सत्यम भी आख़िरकार असत्यम साबित हो रहा है ।  अब, भला आप ही बताइये, मैं अकेला क्या कर सकता हूँ ?  कल जोड़ने बैठा तो .. देश की आबादी निकली : 100 करोड़
जिसमें 9 करोड़ तो सेवानिवृत हैं, जिनसे शायद ही कोई उम्मीद हो

ATT00001

e2285 नौकरीपेशा वर्ग में केन्द्रीय कर्मचारी ठहरे 17 करोड़ और राज्य कर्मचारी हैं 30 करोड़

इनमें शायद ही कोई काम करता हो ?

और.. हमारे यहाँ हैं 1 करोड़ आई० टी० प्रोफ़ेशनल !ATT00002 

इनमें अपने देश के लिये कौन काम करता है, जी ?

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18 करोड़ तो बेचारे अभी स्कूलों में ही हैं, इनसे क्या होना है ?

 happy_feet इन 8 करोड़ दुधमुँहों को, जो अभी 5 वर्ष भी पार नहीं कर पायें हैं..तो अलग ही रखिये !

यह 15 करोड़ बेरोज़ग़ार अपनी ही चिन्ता में हैं… ATT00005 देश के लिये…  बाद में देखा जायेगा !

ATT00006 और यह 1.2  करोड़ बीमार तो अस्पतालों में कभी  भी  देखे जा सकते हैं, आतंकवादी इन्हें भले न बख़्शें, पर यह बेचारे अभी कुछ करने लायक ही नहीं हैं , सो इनको तो आप फ़िलहाल बख़्श ही दो !

जरा जोड़िये तो... कितने हुये ?  98 करोड़.. ठीक !
अब...हमरी न मानों,तो दिनेशराय द्विवेदी जी से पूछो, funny-animated-gif-004                                                                                      पिछले माह तक 79,99,998  विचाराधीन या सज़ायाफ़्ता ज़ेलों में थे !

बचे केवल दो व्यक्ति.. यानि कि आप और हम !

आप तो इस समय मेरी पोस्ट पर टिप्पणी करने जा रहे हो, और... मैं ? mail (2)

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि,  चल के आपकी पोस्ट पर टिप्पणी चुकता करूँ avatar247_0                

या देश की चिन्ता करूँ ? यही तो रोना है.. कि, इतना विशाल देश.. क्या अकेले मेरे बस में है ?

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12 January 2009

अथ क़ाफ़िर कथा

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शिवभाई की पोस्ट पर कल देखने को मिला कि, हड़ताली ब्लागरों में मैं भी शहीद हो गया हूँ ! नहीं भाई, मेरा हड़ताल उड़ताल नहीं चल रहा है..तेल वाले हड़ताल पर थे.. या हड़ताल वाले गये तेल लेने ! आप तो दिन तक गिन ले गये…  कि, 16 दिन से गायब हूँ । ‘ काना देखे जिऊ जराये.. काना बिना रहा न जायBatting Eyelashes.. ’ , मैं तो यहीं हूँ, भाई ! हाल में एनिमेटेड इमेज़ बनाने का व्यूह तोड़ा है, सो उसी के संग प्रयोग चल रहा है ! आख़िर कहीं तो टाइम खोटी करना है, न ?  पोस्ट तो दूर,  शुद्ध मन से की टिप्पणी पर ही,  न जाने कौन उखड़ जाये ?  सो, वह भी नाप-तौल कर ही होती है !  स्व. मेज़र उन्नीकृष्णन के एक बहुचर्चित मुद्दे पर मेरा अनुसंधान चल रहा है, पढ़ लेना ! अब इतनी ज़ल्दी नई पोस्ट कहाँ से टीपूँ ? लो एक पुरानी रिसाइकिल की हुई पोस्ट देखो, शायद ठीक लगे ? दरअसल आज कविता जी की चिट्ठाचर्चा पर भाषाओं के बहुआयामी प्रयोग ने मुझसे मलेच्छों की भाषा में टिप्पणी करवा दी ! लाहौल बिला कूवत.. तौबा तौबा जैसी प्रतिटिप्पणी अब तक तो नहीं आयी, पर कुछेक अहं-सहलाऊ प्रशंसकों ने लसंसे भेज कर अपनी जुगुप्सा ज़ाहिर की.. लिहाज़ा आज यही पोस्ट मौज़ूँ लग रही है ! क्यों लसंसे नहीं समझे ?  अरे हिन्दी वालों, अपुन राबचिक हिन्दी  तईय्यार कर रैले हैं  ! लसंसे बोले तो लघु संदेश सेवा यानि एस.एम.एस... अब तो खुश ?  लो पोस्ट बाँचों..
अथ क़ाफ़िर कथा
अपने एम०बी०बी०एस के दौरान हास्टल में मैंने पाया कि बाँग्लादेश की मुक्ति के बाद हमारे चंद मुस्लमीन भाईयों का मिज़ाज़ ही कुछ बदला हुआ है । ज़ल्द ब ज़ल्द नज़रें मिला कर बात तक न करते थे । बड़ी क़ोफ़्त होती थी, क्यों भाई ? समर्पण तो ज़नरल नियाज़ी ने किया है, पाकिस्तान की फ़ौज़ें हारी हैं । भला आपकी नज़रें नीची क्यों ?  मेरे मित्र व रूम पार्टनर अशोक चौहान मुझपर खीझा करते थे, " यार, तुम बलवा करवाओगे ", बेनाझाबर, चुन्नीगंज़ वगैरह ज़्यादा दूर भी नहीं था । फिर अचानक यह दिखने लगा कि उनमें से चंद शख़्शियत दाढ़ी रखने लगी, हैलेट की ड्यूटी से फ़ारिग हो, हास्टल आते ही ऎप्रन वगैरह फेंक फाँक अलीगढ़ी पोशाक पहन कर टहला करते थे, और सिर पर गोल टोपी ! एक-ब-एक कौमी निशानियाँ याद आने का सबब आप  बाद में  समझते रहें, फिर मुझे  भी बतलाइयेगा !  अभी तो मैं आगे बढ़ता हूँ …
मेरे मित्रों में इक़बाल अहमद जैसे भी थे, जो हर मंगलवार को मेरे संग एच०बी०टी०आई के पीछे वाले  नवाबगंज़ हनुमान मंदिर भी जाया करते थे । बाकायदा माथा टेकते थे, हँस कर कहते कि , यार अपने पुरखों ने जो ब्लंडर मिस्टेक किया उसकी माफ़ी माँग लेता हूँ । मेरे व्रत तोड़ते ही एक सिगरेट सुलगा मेरे संग शेयर करते थे, तब 60 पैसे डिब्बी वाली कैप्सटन अकेले अफ़ोर्ड कर पाना कठिन होता था । उसके आधे दाम में चारमीनार आया करती थी, हम लोगों के अध्ययन के घंटों की अनिवार्यता थी, वह तो ! एक एक कश के लिये छीन-झपट का मज़ा ही और है, यह लक्ज़री में शुमार नहीं की जा सकती ।
दूसरी तरफ़ इमरान मोईन जैसे शख़्स भी थे, जो इक़बाल अहमद सरीखों पर लानतें भेजा करते । इमरान मोईनुल यानि कि एक कृशकाय ढाँचें पर टँगा हुआ छिला अंडा, जिससे लटकती हुई एक अदद बिखरे हुये तिनकों सी कूँचीनुमा दाढ़ी , पंखे की हवा में दाँयें बाँयें डोला करती । बातें करते हुये वह बड़े नाज़ से उसे सहलाते रहते । एक दफ़ा किसी बात पर उनकी रज़ामंदी वास्ते मैंने लाड़ से उनकी दाढ़ी सहला दी । ऊई अल्लाह, यह तो लेने के देने पड़ गये । मियाँजी पाज़ामें से बाहर थे, गुस्से से थरथर काँपते हुये बोले, ' अमर , हमसे दोस्ती करो, हमारी दाढ़ी से नहीं । आइंदा यह हरकत की तो निहायत बुरा होगा ।'  एकाएक मैं कुछ समझा ही नहीं, बस इतना समझ में आ रहा था कि इनको पटक दूँ फिर पूछूँ , ' बोल, कहाँ  से निहायत और कहाँ  से बुरा कर लेगा ?  चल, दोनों अलग अलग करके बता कि क्या कर लेगा ? '  लेकिन जैसा कि शरीफ़ आदमी करते हैं, यह सब मैं मन ही मन बोल रहा था । उनसे तो ज़ाहिराना इतना ही पूछा, यार तेरी दाढ़ी की क़लफ़ क्रीज़ तक डिस्टर्ब नहीं हुई, फिर तू क्यों इतना डिस्टर्ब हो रहा है ? ज़नाब चश्मे नूर फिर बिदक गये, 'तुम साले क्या जानो , दाढ़ी का ताल्लुक़ हमारे  ईमान से है ! इस पर हाथ मत लगाया करो, समझे कि नहीं ? अब मुझे भी 100% असली वाला गुस्सा आ गया, " चलो घुस्सो ! अग़र दाढ़ी में ही तेरा ईमान है तो बैठ कर अपना xx सहलाते रहो । " और उनके इनसे-उनसे भविष्य में संभोग कर लेने की कस्में खाता हुआ , मैं वहाँ से पलट लिया । वह पीछे से चिल्ला रहे थे, " सालों तुम भी तो चुटइया रखते हो और अपने धरम को उसमें बाँधे बाँधे तुम्हारे पंडे घूमा करते हैं, जाकर उसको सहलाओ, फिर मेरी सहलाना । "  हमारे इक़बाल भाई , जो  स्वयं ही सफ़ाचट्ट महाराज थे, मेरे इस डायलाग के पब्लिसिटी मॆं जी जान से जुट गये और लगभग सफ़ल रहे । ख़ुदा उनको उम्रदराज़ करे… 
पोस्ट लंबी हो रही है, चलते चलते इसी संदर्भ की एक अन्य घटना का ज़िक्र करने की हाज़त हो रही है । तो, वह भी कर ही लेने दीजिये, कल हो ना हो ! दसेक वर्ष पहले शाम को मेरे क्लिनिक में एक सज्जन आये । लहीम-शहीम कद्दावर शख़्सियत के मालिक , वह बेचैनी से बाहर टहल रहे थे यह तो काँच के पार दिख रहा था, लेकिन बरबस मेरा ध्यान खींच रहे थे । उनसे ज़्यादा मैं उतावला होने लगा कि इनकी बारी ज़ल्द आये, देखूँ तो यह कौन है ? खैर, वह दाख़िल हुये, बड़े अदब से सलाम किया, फिर अपना तआर्रूफ़ दिया कि मुझे नक़वी साहब ने भेजा है और मुझे यह-वह तक़लीफ़ है । मेरे मुआइने के बाद, वह फिर मुख़ातिब हुये , " डाक्टर साहिब, दवाइयाँ कैसे लेनी हैं, यह निशान बना दीजियेगा । "  मैं हिंदी में ही अपने निर्देश लिखता हूँ, इसलिये थोड़े ग़ुमान से बोला अंग्रेज़ी-हिंदी जिसमें चाहें लिख दूँगा । वह फ़ौरन चौंक पड़े, प्रतिवाद में बोले कि उनको हिंदी अंग्रेज़ी नहीं आती लिहाज़ा निशान के ज़रिये ही समझ लेंगे । अब मैं चौंका, क्या चक्कर है ? अच्छा भला पढ़ा लिखा लगता है, सन्निपात के लक्षण भी नहीं दिखते फिर भी कहता है कि पढ़ना नहीं जानता ! अलबत्ता वह मेरे चेहरे को पढ़ ले गये । थोड़ी माफ़ी माँगने के अंदाज़ में बोले, "मैं दरअसल बिब्बो की शादी में कराची से आया हूँ, और सिंधी ( मुल्तानी-पश्तो लिपि का मिश्रण) व उर्दू के अलावा कुछ और नहीं पढ़ पाते । उनकी परेशानी समझ मैंने बड़ी सहज़ता से लिखना शुरु किया ....
 ايک ايک دن ٔم تين بار ک کپسول روذ رات  यानि एक एक दिन में तीन बार, एक कैप्सूल रोज़ रात
लो,जी ! वह फिर चौंके, थोड़े अविश्वास से कुछ पल मुझे देखते रहे । मेरे माथे पर एक छोटा सा लाल टीका, बगल में माँ दुर्गा कि मूर्ति...कुछ संकोच से पूछा, ' आप तो हिन्दू हैं ? ' हाँ भाई, बेशक ! बेचारे हकला पड़े, " तो..तो, फिर यह उर्दू आपके ख़ुशख़त में कैसे ? " अच्छा मौका है, चलो एक सिक्सर ठोक दिया जाये । मैंने कहा , ' मैं क्यों नहीं लिख सकता ? क्या उर्दू आपकी ही मिल्कियत है ? उर्दू भी तो आप इसी मुल्क़ से ले गये हैं ! '  एकदम से खड़बड़ा गये श्रीमान जी," नहीं नहीं हम लोगों को वहाँ कुछ और ही बताया जाता है । "  मैदान फ़ेवर कर रही है, सिक्सर ठोंक दो,  अमर कुमार ! अतः मैंने हँस कर कहा, ' यही न कि क़ाफ़ (    ک  )  से क़ाफ़िर ( کافر     ) , जिसमें धोती कुर्ता में एक आदमी दिखाया गया है, और हे ( ح   ) से हिंदू (    حندو   ) जिसमें एक सिर घुटे चुटियाधारी पंडितजी तिलक लगाये हुये अलिफ़ अव्वल की क़िताबों में बिसूर रहे हैं । ' एकदम से खिसिया गये, चंद मिनट पहले उनका फटता हुआ माथा जैसे फ़िस्स हो गया , " यह तो अब सारी दुनिया जानती है कि हमारे हुक़्मरानों ने पाकिस्तान को क्या दिया और दे रहे हैं । वापस जाने से पहले एक बार आपसे फिर मिलूँगा, अल्लाह हाफ़िज़ ! "  वह मिलने तो नहीं आये, लेकिन कुछ वर्षों तक ख़तों का आना जारी रहा जिसके ज़रिये उन्होंने इत्तिल्ला दी कि मेरा पर्चा उन्होंने फ़्रेम करवा कर अपने होटेल में लगवा रखा है और वह उनके लिये कितना बेशकीमती है । एक पल को हर आने वाला उसके सामने ठिठक कर एक नज़र देखता ज़रूर है । यह किस्सा मैंने कोई आत्मप्रशस्ति में नहीं लिखा है यह तो , केवल एक झलक  देता है कि लोचा कहाँ पर है !  क्या हम यह नहीं जानते कि भाषा का प्रयोग इंसानों को बाँटने का प्राचीनतम ज़रिया  है ?
अब जरा मेरा टाइमखोटी करने का परिणाम भी बताते जाइये
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08 January 2009

अपनी उनके संग सुरक्षित ड्राइविंग … …

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मोबाइल के उपयोग एवं ड्राइविंग के समय टेप से छेड़छाड़ ( डा. अनुराग Dont tell anyone) के बाद आपकी उनकी चटर चटर ही एक्सीडेन्ट का एक और मुख्य कारण है ! अपुन के उल्हासनगर के कारग़ुज़ारों ने अनोखा सीट-बेल्ट इज़ाद किया है, जी हाँ.. ख़ालिस Made in USA ! बगल में बैठी ख़ूबसूरत दुर्घटना से आपका कान औ’ ध्यान सुरक्षित ..  फिर अगली कोई अनहोनी तो अन + होनी ही समझिये !Wink पेटीकोट सरकार मान्यता प्राप्त है यह !

b82इसकी अग्रिम बुकिंग धड़ल्ले से चल रही है, संपर्क करें – अभिषेक ओझा,  अथवा श्री ताऊ रामपुरिया इंदौर वाले

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05 January 2009

भाई साहब, हैप्पी नियू ईयर टू यू !

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पुरानी पोस्ट है, तो क्या हुआ… 3 जनवरी 2008

हैप्पी न्यू ईयर, सर्र. . . . मैं पलटता हूँ, एक किंचित परिचित चेहरा मेरी तरफ़ मुखातिब मुस्कुराता हुआ दृष्टिगोचर होता है । इनको कहाँ देखा है , दिमाग में चल रहा होता है किंतु ज़ुबान से फिसल पड़ता है, " थैंक यू , सेम टू यू ! "
यहाँ ठहरें कि आगे बढ़ जायें ( न जाने किस वेष में आने वाले कल का कोई  महामहिम ही हो ), मेरे इस असमंजस से उबरने के पहले ही उनका हाथ मेरी तरफ़ को उठता दिखता है । अब रूकना तो लाज़िमी है । ठिठक कर सोच रहा हूँ, किस तरह पेश आया जाये । उन सज्जन की दृष्टि तो सामने के फुटपाथ पर जाती हुई किसी महिला को आँखों ही आँखों मे तौलती हुई सी ' वकोध्यानम एकाग्र ' थी, बाँया हाथ कान से सटे मोबाइल को थामे और दाहिना हाथ जैसे कुछ टटोलती हुई मेरी ओर हवा में लहरा रही थी । अच्छा, लगता तो यह हैंड शेक का न्यौता है ? अशिष्टता न झलके, इस मज़बूरी में ' चलो मिलाय लेते हैं ', मैंने भी हाथ बढ़ा ही दिया ।

सिगरेट दबे होने के कारण वह फ़क़त चार ऊँगलियों से मेरी हथेली को उपर नीचे हिलाते हुए मोबाइल अपने मुँह के सामने ' माइक्रोफोन टेस्टिंग 'के अंदाज़ में ला दहाड़ से रहे हैं, "जल्दि आओ भाई, ईंहाँ डिग्री कलैजिया के सामने दुई घंटे से तुम्हरे इंतजरिया में खड़े हँय । " खट्टाक्क, मोबइलिया बंद, हमारी तरफ़ घूमे, " अउर, बाल बच्चे ठीक ? भाभी जी मज़े में ? आप लोग दिखबै नाँहीं करते हैं । इहाँ एक पार्टी का इंतजार कर रहे थे कि आपै दिखायी दइ गये , नया साल मुबारक़ हो ।"  मुझे भी बोलना ही पड़ता है, " आपको भी "।

सहसा दिमाग में बिज़ली सी कौंधती है, " आप बाजपेयी ठेकेदार हैं न ? " आहाहा हा, हाँ, हाँ । चलो धन्न-भाग हमको, जो आप पहचानै लिये सेवक को । लो, इतने में उनका मोबाइल फिर बीच में कूद पड़ा, पैन्ट की बाँयीं ज़ेब से चीखने लग पड़ा, ' हो रे .. राम, होरे राम, हो रे क्रिश्ना, हो रे राऽऽआम...होऽऽऽ ', और वह मेरी तरफ़ पीठ करके बेचारे मोबाइल का टेंटुआ दबाते हुए फौरन कान से चिपका लेते हैं, ' हलऊ हल्लऊ, हाँ..... ' भाग लो अमर कुमार यही मौका है । एक खिसियाहट से बाहर आने की कोशिश करते हुये, मैं आगे बढ़ लेता हूँ, मन में थोड़ा रंज़ भी है, ' भाभी जी, मज़्ज़े में ? स्साला भाभी के मज़े का ठेकेदार …  ..  हरामी कहीं का ? '

और मेरी वह भी तो ,जिसको देखेंगी मीठी-मीठी मुस्की मार निहाल ही कर देंगी, जैसे एसेम्बली इलेक्सन की उम्मीदवारी मिली हो, बेहया ! हूँह, भाभी जी के मज़े की औलाद कहीं का, स्साला हरामी । ' अब अपनी पूरी बिलागर बिरादरी की पंचायत से दरख़्वास्त है कि, मेरे स्वगत कथन को माइनस करके ज़रा ग़ौर करें कि यह कैसा ' हैप्पी नियू ईयर ' है, और ऎसे रस्मी ' थ्रो अवे गुडविशेज़ ' की कितनी अहमियत है ? चलिये इन बीहड़ बाजपेयी जी को फिलहाल अलग बैठाय देते हैं, लेकिन यह ' नववर्ष की बधाईंयाँ, शुभकामनायें वगैरह वगैरह ' तो जिधर नज़र दौड़ाओ, उधर ही हावी है । यह सब काहे को भाई ?

पच्चीस बवालों के बावज़ूद भी लुटते पिटते 2008 निकाल लाये, इसीलिये 2009 की मुबारक़बाद मिल रही है । मानों तिहाड़ से बाहर आ , अब यरवदा में जारहे हों , सुख शान्ति की ओर...बधाई हो । यह सब मेरी संकुचित समझदानी में नहीं आरहा है तो कैसे खीसें निपोर दूँ ? कोई भाव नहीं, कोई सरोकार नहीं, बस हैप्पी नियू इयर उछाले रहो । यह बधाई तो मुझे की बकरे माँ के ख़ैर मनाने जैसा लगता है, कब तक ? भगवान जाने, शायद जब तक ज़िन्दा रहोगे तब तक । यही सब देते दिलाते दम निकल जाये तो भी यह संतोष तो है कि फलाँ साहब हमारे शुभकामनाओं के चलते ही इतने दिन सकुशल काट लाये । वैसे तो इस रिवाज़ में ज़ाहिराना तौर पर कोई खोट नहीं लउकता । वाज़िब बात, दुनिया की रीत है यह सब ।

सभी हमारे जैसे लंठई सोच के पैदा हो जायें , तो हो गया कल्याण ? लेकिन अगर अब्भी भी हमारा पाइंट नहीं पकड़ पाये हों तो बात खुलासा हो ही जाये । इतना लम्बा चौड़ा ख़ाका सिरिफ़ इस लिये खींचा है, कि शायद कोई लाल बुझ्झकड़ सिरे तक पहुँच ही जाये हम अपनी असभ्य लंठई सोच को गठरिया के बगल रख देते हैं, तो आप पंच लोग यह बतायें कि हम भले अंग्रेज़ी में फिस्सड्डी  होंय, लेकिन परंपरा की कसम खाने को अंग्रेज़ियत का बासी गाउन कब तक सूँघते रहेंगे ? क्या गाँधी का स्वदेशी केवल कपड़ों की होली जलाने भर को ही था, या कि हम कभी अपनी भी कोई सुदेशी सोच कायम कर पायेंगे ? यह भारतदेश है मेरा......। अनेकता में एकता की अद्भुत मिसाल ( भरी सभा में सिगार पीते और  भाषा के गठन पर प्रलाप करते राजेन्द्र याद आरहे हैं ) वाह क्या थ्योरेटिकल बात है ? अब जरा देशी नववर्ष की तिथियों की झलक भी देखें ....
उत्तर भारतीय राज्य - चैत्र शुक्लपक्ष प्रथम
गुजरात - दीपावली के दूसरे दिन, ( जिसे हम परेवा कहते हैं, यानि कामधंधा बंद ) पर वहाँ हर्षोल्लास का दिवस !
पंजाब - बैसाखी के पर्व से
बंगाल - पोइला बोईशाख ( वैशाख शुक्लपक्ष प्रथम )
भारतीय मुस्लिम - मोहर्रम की पहली चाँद के दिन से
दक्षिण भारत – पोंगल

 नववर्ष 2009
यदि मेरे अवलोकन में कोई त्रुटि हो, तो नाचीज़ की इल्मअफ़ज़ाई करने की ज़हमत ग़वारा करें एवं यदि कुछ अतिरिक्त जानकारियाँ साझी करने को है, तो क़िबला मेरे सिर आँखों पर नोश फ़रमायें । ग़र मेरी ख़ुज़ली ख़ारिज़ कर भी दें, पर किससे ग़िला ? यह तो आप देख ही रहे हैं कि अंग्रेज़ियत के नकली शिष्टाचार हमारे महान भारतदेश को एक सूत्र में बाँधे हुये हैं तो फिर मैं ही इसको मुद्दा बनाने पर क्यों आमदा हूँ ? ज़वाब तो भाई मेरे पास भी नहीं है, वरना यहाँ क्यों चिचिया रहा होता ?  फिर भी, मेरे प्रलाप के पीछे कुछ तो है ही ...


चलो भाई, मैं दकियानूस खूसट सही.. पर, आदरणीय शास्त्री जी का सूत्रवाक्य ' हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है ' यहाँ पर मुझे कन्फ़्युजिया देती है ! इसका समाधान कैसे हो ? यह भी माना कि, आधुनिकता के संदर्भ में इतनी अंग्रेज़ियत तो ज़ायज़ है .. सहमत हूँ श्रीमान ! पर.. यह पर, किन्तु, परन्तु जैसे मेरे पीछे पीछे डोला करते हैं ! अंग्रेजी में बोले तो.. चलेंगा, लेकिन 'लेडीज़ फ़र्स्ट' की परंपरा वाली अंग्रेज़ियत की पैरवी करने वाले आख़िर बुकिंग विन्डो पर महिलाओं को धकियाते हुये देखे जाते हैं.. ताज़्ज़ुब नहीं कि, वहीं से पलट कर हाँक लगा दें.. 'मैंने कहा हैप्पी न्यू ईयर, डाक्टर साहब !' तो... तो, मेरे ऊपर क्या बीतती होगी ? यही कि, ऎसी बकवास लिख मारो... और क्या ? जो मेरे मन आया, यहाँ उड़ेंल दिया, ज़रूरी नहीं कि आप सहमत ही हों ! नमस्कार !

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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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