जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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29 April 2009

कभी कभी मेरे दिल में..

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….  यह ख़्याल आता है कि, ब्लागिंग में मुआ ब्लागर आख़िर करता क्या है ...  क्या केवल यही तो नहीं,   कि   " रमैया तोर दुल्हिन लूटै बजार " ?
शायद ऎसा नहीं ही होगा.. काहे कि सदियन पाछै कबीरौ पलटि के ठोकिं गये रहें,

" हम तुम तुम हम और न कोई । तुमहि पुरुष हम ही तोर जोई ॥ "
ब्लागर के जोई का कोई सगा सम्बन्धी क्यों न हो ? सो, ब्लागस्पाट की मेहरारू और पाठकों की भौजाई बने बिना ब्लागिंग  करना दिनों दिन जैसे दुष्कर होता जा रहा है..  sambhal ke- nitthalle( छिमा करो, माता ! )

जौन मज़बूरी में भौजाई बने हो.. तौनै मा ननद जी की गारी भी सुनो । वर्ड-वेरीफ़िकेशन  का नेग माफ़ करवा लेने से ही  काम   न चलेगा ..  बस जरा, आती हुई टिप्पणियों पर निगाह रखो ।

क्या पता, कोई गरियाने की आड़ में कहीं सच ही न उगल रहा हो ?  गरियाओ.. नेता को... अभिनेता को .. सराहो सतयुग को.. त्रेता को.. अर्थात,  कुल ज़मा अर्क-ए-ब्लागिंग यह है,

कि " हे तात तुस्सीं सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयान्न .. चँगी चँगी मिठियाँ गल्लाँ कीत्ता कर ! " मेरी भाषा ही गड़बड़ है क्या, दिल ने धिक्कारा, " ई का लिख रहा है, बे ? "  दिमाग ने ऊपरी मँज़िल से अलग दहाड़ लगायी, " जितना कहना था कह दिया, अब इससे आगे एक भी लैन नहिं लिखने का ! " ठीक है, श्री व्यवहारिकता जी.. इतने ही पर छोड़ देते हैं.. सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयान्न ! अर्थात हे पशु, पुच्छविहीना .. तुम सच ही बोलो , और प्रिय ही बोलो !  अब इससे आगे एक लफ़्ज़ भी निकालने की कौनो ज़रूरत नाहीं है !

तो,    फिर यहीं छोड़ते हैं.. आगे की लाइनें आज रहने देता हूँ, कि
सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम
सत्य बोलो प्रिय बोलो । अप्रिय सत्य ( काने को काना ) मत बोलो ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेव धर्म सनातनः ॥
पर, ऎसा ठकुरसुहाती प्रिय भी न बोलो, जिससे धर्म की हानि हो !kabhi kabhi

अधूरी जानकारी और अधूरे उद्धरण बड़ा सुख देते हैं !   नो हाय हाय.. एन्ड आफ कोर्स नो चिक चिक !
तब्भीऽऽ…  ऊपर वाला डाँट रहा था, कि दूसरी लैन मत पकड़ना,    अवश्य ही यह कोई स्पैम है !

लो,  स्थूलकाया मधु्रवाणी आपकी भौज़ी यानि पंडिताइन प्रकट हो कर, बरजती हैं,  “ तुम भीऽऽ.. ना,     क्या सुबह सुबह इस मुई को लेकर बैठ गये ? “ मैं विहँस पड़ा, ’ कुछ नहीं.. भाई,  जरा मैं भी दो लाइना मार दूँ,    यहाँ तो नित नये अनुभव हो रहे हैं ! "       फिर तो उधर से सीधा एक लिट्टाई हमला,  “ तो .. तुम अनुभव की कँघी पर लपकते रहो.. जब तक यह हाथ आयेगी, तुम खुद ही गँज़े हो चुके होगे ? " मुझे तो आज तक सैन्डिल भी नसीब न हुई, और यह मुझे ज़ूते का भय दिखा रहीं हैं ! भला  आपही     बताइये..         शब्दबाणों से कभी कोई गँज़ा हुआ है,   क्या ?     मैं तो आलरेडी पहले से ही सेमीगँज़ा हूँ !   शायद इसीलिये, कभी कभी मेरे दिल में...

इससे आगे

16 April 2009

कँघा आरक्षण के लिये ग़ँज़ों की गणना

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बड़ा बेहूदा शीर्षक है, न ? मुझे भी लग रहा है, पर समय के पैंतरेबाजी के आगे सभी नतमस्तक.. तो मैं भी नतमस्तक !  हालाँकि ऎसे समय लोकतंत्र के हज़्ज़ाम सबसे ज़्यादा नतमस्तक हैं !
जरा ध्यान से.. आचार संहिता जारी आहे .. गड़बड़ लिखोगे तो माफ़ीनामें पर दस्तख़त करने को हाथ भी न बचेंगे । यह कोई और नहीं.. बल्कि मेरी स्वतंत्र अभिव्यक्ति की पहरेदार पंडिताइन हैं !    थोड़ा सा दिनेश जी का लिहाज़ है, वरना गंज़ों से अधिक धर्म-निरपेक्ष, वर्ग निरपेक्ष सदियों से उपेक्षित मुझे तो कोई अन्य वर्ग न दिखता ! किसी मीडिया वाले ने ध्यान ही न दिया, इनपे !
हाँ तो बात “  तू मेरा चाँद.. मैं तेरी चाँदनी “ के श्री चँदा जी की हो रही थी ! अच्छा तो चलिये जरा आप ही बताइये, आपके शहर में कितने होंगे ? इस अनुपात से आपके जिले में इनकी संख्या कितनी होगी ? फिर तो पूरे प्रदेश में इनकी जनसंख्या का आकलन करना भी आपके लिये बहुत ही सुगम होगा । न होय तो ज्ञान दद्दा से पूछि लेयो । लो, अपना तो  बन गया काम !
तो अब एक छोटी सी सहायता और,जरा यह जानकारी भी एकत्रित कर लें कि इनमें से अधिकांश का रूझान किधर है,  कंघा पार्टी की तरफ़ या आईना पार्टी की तरफ़ ? यह भंग की तरंग नही है, यह मश्शकत तो हमारे मीडियाकर्मी कर तो  रहे हैं । आपौ बुड्ढीजीवी कहात हो, अपने दालान बैठ के आपौ ई चुनाव सार्थक कर लेयो ।
मुला,उनके इस वर्गीकरण का खाका कुछ अपनी ही तरह का होता है । अगड़े, पिछड़े, सवर्ण, जनजाति, मुस्लिम, हिंदू , सिक्ख इत्यादि इत्यादि । इतने पर भी संतोष नहीं,तो फिर इनकी शाखायें और परिशाखाओं पर सिर खपाऊ रिपोर्ट उछाली जाती हैं । अगड़े मानी ब्राह्मण ( घर में खाने को नहीं है ) , क्षत्रिय कुलीन वर्ण , पिछड़े बोले तो .. कोनो मँहगी कार का नाम बताओ भाई, हाँ तो, उसी में घूमते यादव जी सहित  कुर्मी ,पासी जैसे मलिन वर्ण । हमारी छोड़ो.. हम कायस्थ तो खैर त्रिशंकु जैसे टंगे हैं वर्ण निरपेक्ष ! काहे में हैं, आज तलक यहि पता नहिं.. कोनो कहत है, तुम तो आधे ऊई मा हो !  मतलब हम धरम से भी गये !
किंतु इस प्रकार के जाति एवं वर्णव्यस्था को लेकर चलने वाले जद्दोजहद की कोई मिसाल इस सदी में कहीं और भी है ?  हमारे  यहाँ तो है.. आओ देखो इनक्रेडिबल इन्डिया ! अब आप भी वक़्त की नज़ाकत पहचानो.. और जरा अपने पितरों के गोत्र और पुरखों के ठौर ठियाँ का पता लगा के रखो । अब अगले के अगले के अगले के पिछली बार यही होने वाला है । वँशावली तलाशी होगी.. फिर न कहना कि आगाह न किया था ! सरम काहे का.. हमरे मर्यादा देशोत्तम यूएसए का तो यही चलन है.. मेड इन यू.एस.ए. भाई साहब आपन झोला उठाइन और चल दिये हिन्दुस्तान दैट्स इन्डिया.. भटक रहे मालेगाँव तालेगाँव टिंडा भटिंडा .. जाने कहाँ कहाँ ! क्या कि अपना रूट्स तलाश रहे हैं !
हद्द खतम है, हमरे सुघढ़ मीडिया वाले इतने थोथी बुद्धि के कैसे निकले ? कैच इट गाय.. जस्ट बिफ़ोर एनिवन एल्स टेक्स द क्रेडिट । माफ़ करना,  ऊ लोग भी अँग्रेज़िये में सोचते हैं, बोलते भी वोहि मा हैं ( धुत्त ! लालू झाँक रिया था ! ) क़ाफ़ी हाउस के बाहर आकर हिदी उचारना उनकी मज़बूरी है.. पैसा मिलेगा तो हिन्दी चनलों में ताक जाँक करने वालों की दया से !
यह इनकी लोमड़पँथी है, यदि यह आंकड़े न पैदा करें, तो हमारे स्वयंभू भारत भाग्यविधाता ऎसी नितांत अप्रासंगिक समीकरण कैसे बैठायेंगे ? लोगों के ' माइंडसेट ' में अपनी गणित कैसे आरोपित की जाये, यही इनकी मुख्य चिंता है । आख़िर वह कौन से लोकतांत्रिक सरोकार हैं, जो इनको इस मुद्दे में अपनी मथानी चलाने को बाध्य करती हैं ? उनके सरोकार किसी को लेकर नहीं हैं किंतु उनका संदेश स्पष्ट है, "अरे ओ भारतवासियों , बहुत नाइंसाफ़ी है रे, पोंगापंथी सेकुलर सरकार में !" इस मंथन से नवनीत कैसा निकलता रहा है, आप स्वयं साक्षी हैं !
जनतंत्र का चौथा स्तम्भ कितना लचर होता जा रहा है क्या किसी गवाह सबूत की वाकई ज़रूरत है ?  क्या हम गँवारों को यह सब गणित पढ़ने समझने की जरूरत है ? कहां से, कैसे इस जातिगणित की शुरुआत हुई और इसे समीकरणों ,थ्योरम की हवा देकर मीडिया कहां तक ले जाकर इसका अंत करेगी ? इसके पटाक्षेप का कोई अंधा मुकाम तो होगा ही, जहां इनके अपने हित सधने पर ' इति सिद्धम ' के उदघोष की ध्वनि क्षीण होती जायेगी ।
आज यह क्या हो गया डाक्टर साहब को, कहां की लंतरानी कहां घुसेड़ रहे हैं ? इस आलेख को मीडिया पर हमला न समझा जाये, चलिये हमला ही समझिये.. पर जो मन में समाया था , वह निकाल दिया । इसके ज़ायज और नाज़ायज होने का फैसला आप  करें न करें ।
सच है, क्योंकि यहां कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है,  यह बानगी महज़ आपको कुरेदने की कवायद भर है। इस सिक्के का दूसरा पहलू है देश के आबादी के शिक्षा का प्रतिशत ! ज़ाहिर है शिक्षा और किरानी के नौकरी का आनुपातिक संबन्ध मैकाले के समय से ही शाश्वत चला आ रहा है ।
किंतु यहां तो मीडिया अपनी सुविधानुसार इस पहलू को फ़िल्म 'शोले' में डबलरोल का किरदार निभाने वाले सिक्के की तरह छुपाये रखना चाहती है, शायद वांछित क्लाईमेक्स की प्रतिक्षा में ।
अब शायद धुंधलका कुछ छंट रहा हो, यह उनका शग़ल है, जनमानस के सोच की दिशा बदलने का । बोले तो ? पब्लिक माइंडसेट पर फटका मारने का माफ़िक । ई साला अपुन के माइंड का स्टीयरिंग रखेला हाथ में , बहुत बड़ा ग़ेम है, बाप ! आप मुझसे सवाल करें, क्या वाकई ऎसा ही है .... तो तुम भी तो इसी को टापिक बना कर ठेले पड़े हो !
अधिकांश जन शायद भोजपुरी न पकड़ पायें, अवधी में कहते हैं, " गाये गाये तौ बियाहो हुई जात है ", आप न मानें पर यह सही  है, अच्छा खासा समझदार आदमी भी " यह देश है अगड़े पिछड़े का.. " के लगातार बजते जाते बैंड पर सम्मोहित होकर पाँच-साला फंदे के सम्मुख शीश नवा देता है । अब भी संशय है तो  किसी  प्रोपेगंडा मशीन तक न जाकर अपने को ही ले लीजिये .. 
नहीं लेते..  पर मैंने तो खुद सुना है कि लगातार 'कांटा लगा..हाय रे हाय...', 'बीड़ी जलईले ज़िगर से..' और 'झलक दिखला जा..आज्जा आज्जा आआज्जा' सुनते सुनते आप स्वयं भी विभोर हो कर गुनगुना रहे थे ,..' उंअंज्जाअंजाअंज्जाअंजाउंउंउंऊं ! ' 
स्टीयरिंग मेरे हाथा या चैनल के साथ Indian General Election 2009
स्टीयरिंग किसके हाथ.. हमारे या उनके ? 
क्यों उस पल हमारी सारी लिखाई पढ़ाई संस्कार सरोकार मास कैज़ुअल लीव पर चली गयी ?
तो यह मीडिया के माइंडसेट स्टीयर करने के इस खेल का अंपायर बन प्रबुद्ध समाज भी लगातार ’ नो बाल या वाइड बाल ' दिये जा रहा है । सबकी निग़ाह घुड़सवार पर है.. Sheep-01-june
जाकी होशियार.. घोड़ा कमजोर.. जाकी कमजोर तो घोड़ा मज़बूत !   घोड़े पर दाँव लग रहा है.. यह जीतेगा वह जीतेगा । लेकिन मीडिया वाले  दादा,हमका ई तौ बताय देयो ई रेसवा काहे हुई रहा है, मकसद ?  फिर तो देश के अस्सी फ़ीसदी निरक्षर भट्टाचार्यों की क्या बिसात !  बेचारे इसी में बह रहेंगे, कि 'कुछ तौ है.........झूठ थोड़े होई ? साँचै जनात है,  तबहिन सबै जउन देखो तउन  टी-वी मा एकै चीज देखावत हैं ' झूठ थोड़े होई ? मज़किया नाहिं हौ ! सरकार केर आय ई टीवी.. ऊप्पर अकास से आवत है ! " लो कर लो बात !
BREAKING NEWS : चुनाव परिणामों के बाद गँजों को कँघा देने का वादा कर जीतने वाले घुड़सवार ने  अब इन्हें उस्तरा देने की पेशकश की !  कँघा आरक्षित !
उधर अपुन के निट्ठल्ले ने इसके लिये उस्तरे आयात  किये जाने की आशंका जतायी !
इससे आगे

12 April 2009

मत मानो मेरा मत, पर यह मत कहना कि मत नहीं दिया था

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विष्णु प्रभाकर जी नहीं रहे । कुछेक शीर्ष अख़बारों के लिये यह ब्रेकिंग न्यूज़ न रही होगी ! अनूप जी ने उचित सम्मान दिया !  विष्णु जी ने आवारा मसीहा के लिये सामग्री जुटाने के लिये जो कल्पनातीत श्रम किया है, मैं तो केवल इसी तथ्य से ही उनका भक्त बन गया । बाद के दिनों में तो उनके अन्य तत्व भी दिखने लगे थे ! अपने साहित्य साधना में वह विवादो की काग़ज़ की रेख से अपने को बचा ले गये, यह उनकी एक बड़ी उपल्ब्धि है !
उन्हें सच्चे मन से श्रद्धाँजलि ! 
चिट्ठा-चर्चा को लेकर अनूप जी की व्यथा बहुत ही स्पष्ट है,  इससे  भी  अधिक इसके प्रति आज उनका दृष्टिकोण भी स्पष्ट और मुखर है । 
     
हालाँकि एक बार उन्होंने ही चिट्ठों के चयन को लेकर चर्चाकार की अबाध्यता को ज़ायज़ ठहराते हुये अपना पल्ला झाड़ लिया था !  एक वरिष्ठ चिट्ठाकार को सलाह देना कितना प्रासंगिक हो सकता है, नहीं जानता .. पर मेरा ’ सचेतक ’ चरित्र अपनी बात ठेलने को प्रेरित कर रहा है !
आगे बढ़ने के लिये परस्पर विमर्श आवश्यक है, क्या वज़ह है कि आज़ तमिल चिट्ठाकारी हिन्दी से कहीं आगे है ? कोई 2005-2006 के मध्य वहाँ चलने वाली बहसों की बानगी लेकर देख सकता है ! आपसी सिर-फ़ुट्टौवल तो नहीं, पर बाँगला ब्लागरों में परस्पर अहंभाव ने उसे भी न पनपने दिया ! बीस पोस्ट के बाद स्वयं का डोमेन लेकर अपना चूल्हा अलग !
बहुचर्चित  एक लाइना को चिट्ठों के शीर्षक के पैरोडी मात्र के रूप में लिया जाना, मुझे कभी से भी अच्छा न लगा । हरि अनन्ता-संता बंता अपवाद भले हो, संभवतः आज तक मैंनें इनकी तारीफ़ न किया होगा !  आनन्द अवश्य लेता रहा ! पोस्ट के लिंक को सपाट रूप से न देकर रोचक बनाने का प्रयास ही माना जाय, एक लाइना !  होता यह है, कि लोग चर्चा के मूल पाठ को भी न पढ़. .. सीधे एक लाइना पर एक टिप्पणी ठोक कर बढ़ लेते हैं ।
और.. इसमें भी वह इतने ईमानदार हैं, कि जिस भी चिट्ठे के शीर्षक और लाइना की जुगलबन्दी पर झूम उठते हैं, शायद ही वहाँ पहुँचते हों !
जी हाँ, मैंने चिट्ठाचर्चा के कई नियमित टिप्पणीकारों का ’ पीछा किया है :), और ताज़्ज़ुब है कि पोस्ट तो छोड़िये.. पूरे के पूरे ब्लाग पर ही उनकी टिप्पणी नदारद है !  मानों वह यहाँ चर्चा पर, केवल छींटाकशी करने के लिये ही आते हों !
फिर तो हो चुका कल्याण ? यदि पाने की अपेक्षा रखते हैं, तो देने की क्यों नहीं ?
किसी भी बहस के निष्कर्ष सभी को एक दिशा देते हैं ।  भले ही पाठक-चिट्ठाकार उस पर न चले, पर दिशा तो मिले ? इसका यहाँ अभाव केवल इसलिये है, कि ऎसी बहस में अंतिम मत मोडरेटर या चर्चाकार का होना ही चाहिये, जो कि बहुधा नहीं होता  ! गोया हनुमान गुरु अपने चेलों का रियाज़ देख रहे हों ।  नतीज़ा.. हर सार्थक  बहस ’ दूर खड़ी ज़मालो के आग़ ’ जैसी बुझ कर राख़ हो जाती है  !  यह अलंकार लगभग हर बहस में खरी उतरती है,  आपके पास अनुभव है,  चिट्ठाकारी का रोमांचक इतिहास है.. सो विषम मोड़ों पर,  कुछ तो.. मोडरेटर का मत होनाइच मँगता, बास !  बुरा मानने का नेंईं..
अपने पोस्ट का लिंक यहाँ सभी देखना चाहते हैं.. पर, दूसरे के लिये ?
मत लीजिये मेरा मत, कि चर्चा के लिये माडरेशन का एक सार्थक उपयोग भी  हो सकता है.. !
वह यह कि हर टिप्पणीकार के लिये अपनी टिप्पणी में एक पढ़े हुये पोस्ट का लिंक और उसके  साथ उस पोस्ट पर अपनी मात्र दो पंक्तियाँ जोड़ कर देना अनिवार्य समझा जाये  .. अन्यथा उनकी टिप्पणी हटा दी जायेगी ! हाँ, मुझ सरीखे लाचार टिप्पणीकार को यह छूट मिल सकती है ! इससे लाभ ?
१. चर्चा का दुरूह का कार्य चर्चाकार के लिये आसान हो पायेगा !
. दूरदराज़ के अलग थलग पड़े चिट्ठों का संचयन स्वतः ही होने लग पड़ेगा !
३. एक लाइना की नयी पौध भी सिंचित हो सकेगी !
४. यदा कदा कुछ चर्चा जो थोपी हुई सी लगती है, न लगेगी !
५.  मेरे सरीखा   घटिया आम पाठक भी चर्चा तक ले जाने को एक बेहतर लिंक तलाशेगा,
६. ज़ाहिर है, कि ऎसा वह अपनी मंडली से बाहर निकल कर ही कर पायेगा !
मानि कि, कउनबाजी तउनबाजी कम हो जायेगी !
७. ’ तू मेरा लिंक भेज-मैं तेरा भेजूँगा ’  जैसी लाबीईंग हो शुरु सकती है, पर ऎसे जोड़े भी काम के साबित होंगे ! क्योंकि  तब भाई भाई में मनमुटाव भी न होगा !
८. क्योंकि इस होड़ में नई और बेहतर पोस्ट आने की रफ़्तार बढ़ेगी.. धड़ाधड़ महाराज़ का हाल आप देख रहे हैं, श्रीमान जी स्वचालित हैं.. वह क्यों देखें कि यूनियन बैंक की शाखा के उद्द्घाटन सरीखी पोस्ट हिन्दी को क्या दे रहीं हैं ?
. मेरे जैसा भदेस टिप्पणीकार अपने साथी से पूछ भी सकता है, चर्चाकार ने तुमको क्या दिया, वह बाद में देखेंगे ! पहले यह दिखाओ कि, टिप्पणी बक्से के ऊपर वाले हिस्से में तुम्हारा योगदान क्या  है ?
१०. लोग कहते हैं, चर्चा है कि तुष्टिकरण मंच.. मैं कहुँगा कि, नो तुष्टिकरण एट आल ! तुष्टिकरण के दुष्परिणामों पर यदि हम पोस्ट लिखते नहीं थकते, तो अपने स्वयं के घर में तुष्टिकरण क्यों ?
११. यहाँ पर मैं श्री अनूप शुक्ल से खुल्लमखुला नाराज़ हूँ.. किसी के ऎतराज़ पर कुछ भी हटाया जाना.. नितांत गलत है !   कीचड़ में गिरने को अभिशप्त या संयोगवश, मैं उस रात धुर बारह बजे पाबला-प्रहसन देख रहा था ! बीच बीच में तकरीबन डेढ़ घंटे तक मेरा F5 सक्रिय रहा, निष्कर्ष यह रहा कि कुश ( बे... चारा ! )  को सोते से जगा कर उनकी अनुमति  से एक चित्र हटाया गया.. अन्य भी प्रसंग हैं ।
कुश देखने में शरीफ़ लगते हैं, तो होंगे भी ! क्योंकि मैं इन दोनों की तीन कप क़ाफ़ी ढकेल गया.. पर यह अरमान रह गया कि वह इस प्रकरण को किस रूप से देखते हैं, कुछ बोलें !
१२. विषय का चयन, निजता का हनन, अभिव्यक्ति का हनन इत्यादि नितांत चर्चाकार के विवेक पर हो, और ऎसा डिस्क्लेमर लगा देनें में मुझे तो कोई बुराई नहीं दिखती !
१३. क्या किसी को लगता है, कि इस प्रकार पोस्ट सुझाये जाते रहते जाने की परंपरा से अच्छे पोस्ट की वोटिंग भी स्वतः होती रहेगी ?
१४. चिट्ठाचर्चा के अंत में के साथ ही आभार प्रदर्शन के एक स्थायी फ़ीचर में अपना नाम कौन नहीं देखना चाहेगा ?
१५. स्वान्तः सुखाय लिखने वालों के लिये, कोई भी व्यक्ति बहुजन-हिताय जैसे चर्चा श्रम में क्यों शेष हो जाये ?  जानता है, वह कि, यह श्रमसाध्य कार्य भी अगले दिन आर्काईव में जाकर लेट जायेगी..  कभी खटखटाओ तो Error 404 - Not Found कह कर मुँह ढाँप लेंगीं !
१६. गुरु, अब ई न बोलिहौ..  लेयो सामने आय कै आपै ई झाम कल्लो, इश्माईली !  यह मेरा मत है.. जिसका शीर्षक  है.. मत मानों मेरा मत ! क्योंकि मेरा तो यह भी मत है, कि एक को ललकारने की अपेक्षा सभी को अपरोक्ष रूप से शामिल किये जाने की आवश्यकता है !
१७. इन सब लटकों से पाठकों की संख्या घट सकती है, तो ?  मेरी भी तो नहीं बढ़ रही है !   लेकिन  कमेन्ट-कोला की माँग पर ’कोई  भी बंदा ’  खईके पान बनारस वाला ’  तो नहीं  गा सकता .. " मेरे अँगनें में तुम्हारा क्या काम है ..
यह रहा कविता जी के कालीदास का १८ सूत्र ... उन्नीसवाँ सूत्र निच्चू टपोरी का टिप्पणा वाला डब्बा में पड़ेला सड़ेला होयेंगा !  बीसवाँ सूत्र तो शायद स्व. इन्दिरा गाँधी का पेटेन्ट रहा है, सो, इस चुनाव में कौन गाये… अबकी बरस भेजऽऽ,  उनको रे  तू वोटर…   गरीबी जो देयँ हटाऽऽय हो
माहौल गड़बड़ाय रहा है.. लोकतंत्र लड़खड़ाय रहा है... चिट्ठाचर्चा खड़बड़ाय रहा है.. ज़िन्दा सभी को रहना है.. ज़िन्दा हैं.. तो ज़िन्दा रहेंगे भी ! चर्चा चलती रहेगी..  मरें चर्चा के दुश्मन ..
कुछ अधिक हो गया क्या ?
मैं चाहता तो न था , कि छोटे मुँह से बड़ी बातें करूँ ! लोग मुँहफट कहेंगे..  पर यदि  चर्चा के मोडरेटरगण ने  किसी को चर्चा के लिये चुना है, तो यह उन्हीं का अपना वरडिक्ट है । अगला चर्चा करने ही  न आये तो दुःखी क्यों ?  मैं भी तो ब्लाग  लिखने तक  ही दुःखी  होता हूँ.. जबकि हमारे वरडिक्ट की भी ऎसी तैसी मचा कर भाई लोग संसद ही नहीं पहुँचते, तो ?
मैं कब आपसे या किसी और से रात के डेढ़ बजे तक बैठ कर चर्चा अगोरने का हर्ज़ाना माँग रहा हूँ smile_regular ?
१७ ही बिन्दु रह गये ?  श्री कालीदास जी १७ को १८ ही गिना करते थे, ऎसा उल्लेख मिला है !
हमका लागत है, निट्ठल्ले की आत्मा यहूँ मँडराय लागि काऽऽ हो,  तौन अब चलि ? 
इससे आगे
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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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