जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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31 December 2007

तो आज यही सही - एक

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Calvin_and_Hobbes_comics_cartoons_freecomputer_desktopwallpaper_1024 Nitthalle ki soch
तलाश है , एक साफ़ सुथरे दिमाग की

इस श्रृंखला की पहली कड़ी में, एक प्रसंग और एक प्रश्न उपस्थित है । निराकरण आप करें ।

एक रेलवे टिकट कलेक्टर महोदय 3rd वातानुकूलित कूपे में दाखिल हुए । 6 लड़कियों का जत्था विराजमान था । " टिकट ? ", अपना प्रश्न दागा । आँखें नीची पर कनखियाँ सक्रिय, देखा एक तो झीनी नाइटी में, दूसरी टू पीस नाइट सूट में, तीसरी शार्ट स्कर्ट में, चौथी हाट पैन्ट में सामने खड़ी हैं । टिकट किसी के पास भी नहीं ! अपने विवेकानुसार फ़ाईन ठोंका ।

शार्ट स्कर्ट - 200 रुपये

हाट पैन्ट - 150 रुपये

टू पीस नाइट सूट - 100 रुपये

अंग-प्रत्यंग झलकाती झीनी नाइटी - 50 रुपये मात्र

तभी बाकी बची दो लड़कियाँ टायलेट से लौटती नज़र आयीं । " टिकट ? ", उन दोनों ने उनको जो भी दिखाया हो वह यहाँ बताना न्यायसंगत न होगा । बहरहाल, दोनों ही बिना किसी अर्थदंड लिये छोड़ दी गयीं । क्यों ? यह तो आप बतायें ।

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29 December 2007

मेरी पड़ोसन. . . बेनज़ीर !

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A_M_A_Rआज दिन भर मन में उदासी छायी रही,बेनज़ीर नहीं रहीं ।
अल-क़ायदा के दहशतगर्दों ने ऎसा क्यों किया होगा, यह तो वक़्त ही बतायेगा , लेकिन सच है कि बेनज़ीर तो अब हमारे कायनात से ज़ुदा कर दी गयीं ।

' पूरब की बेटी ' उनका तख़्ख़लुस क्यों पड़ा, बता नहीं सकता । मेरे लिये तो वह बहन-बेटी से कुछ अलग ही थीं । ग़र बवंडर न उठाने का इतमिनान आपसब बिरादरान दें, तो इसकी वज़ह भी ज़ाहिर की जा सकती है । खैर मैं जां-बख़्सी के भरोसे पर आगे यह खुलासा भी कर दूँगा ।

जैसा कि रस्म है कि हर मरहूम शख़्सियत के लिये हमेशा उसकी नेकी और नेकपरस्ती गिनवाने वालों एक सैलाब उमड़ पड़ता है । कम-ब-कम उसके ख़ाक-ए-सुपुर्द होने तक कोई भी तुफ़ैल की बात पाक-मरहूम के शान-ए-गुस्ताख़ी में करना कुफ़्र में शुमार किया जाने का रिवाज़ है । मुझे भी इसमें कोई शक ओ शुबहा नहीं है कि उस जैसी हिम्मती, खुले ख़यालों वाली, ज़म्हूरियत की हिमायती हरदिल अज़ीज़ औरत उस मिट्टी पर अब तक पैदा न हुई होगी ।

( पहले मैं यह ख़ुलासा कर दूँ कि ज़ासूसी दुनिया लिखने वाले ज़नाब इब्ने सफ़ी साहब मेरे पसंदीदा अफ़सानानिगारों में हुआ करते थे और मुझे यह बताया गया कि ओरिज़िनल तो ओरिज़िनल ही होता है, तरज़ुमें में वह बात नहीं आ पाती, लिहाज़ा मैंने ज़ाती तौर पर उर्दू की बुनियादी ट्युशन ले डाली थी और इसे अपनी मादरी ज़ुबान हिंदी के एक शाख के बतौर लेता हूँ, और यह सनद रहे कि मेरी निगाह में उर्दू सिर्फ़ मुसल्मीनों की मिल्कियत नहीं है )

हाँ तो, असल बात यहाँ अपनी सफ़ाई पेश करने में ही गुम हो जाये ,याकि मैं अपना शोग बयाँ करने में वक़्त ज़ाया करता रहूँ । उसके पहले ही मैं साफ़गोई से कह दूँ कि मैं बेनज़ीर से मुहब्बत करता था, भले इकतरफ़ा हो लेकिन मुहब्बत करता था ! यह बात यहाँ साझी न करूँ तो फिर कोई अख़बार या रिसाला तो इसे छापने से रहा । ग़र आपको यह सब पढ़ना नाग़वार गुज़र रहा हो तो भले पेज़ बन्द कर दें, लेकिन मैं उन मोहतरमा से प्यार करने के वहम में बहुत अरसे तक जीता रहा ( ज़नाब ज़ाफ़री साहब मुआफ़ करें ), जी तो अभी भी रहा हूँ, जैसे ज़ाफ़री साहब बाकी ज़िन्दगी जी लेंगे ।

मैंनें तो अक्टूबर में यह पढ़ते ही कि मुशर्रफ़ की पाक-सरज़मीं पर उतरते न उतरते उन पर जानलेवा हमला होगया, एकदम से बेचैन हो गया । ' मेरी न बन सकी तो क्या, तुम बस बनी रहो । ' ये दुआ है मेरी....यही ख़्याल दिल में आया और मैं एक सांसत में पड़ गया । किससे इनके लिये दुआ माँगूं ? ख़ुदा से, वह तो भगा देगा । मैं मोमिन तो नहीं जो मेरे सज़दे में झुके सिर पर हाथ रख देगा, क़ाफ़िर की तो वहाँ पर ' नो एंट्री ' होगी । हनुमान जी से कहूँ ? लेकिन वह तो अपने बास के लिये भवन बनवाने की जुगाड़ में तागड़िया, मोदी वगैरह के साथ बिज़ी होंगे ।

a.m.a.r और फिर, उनसे एक यवन यौवना के लिये गुहार लगाऊँ तो पता नहीं उनका मूड कितना बिगड़ जाये । इस दरवाज़े से उस दरवाजे की ओर ताकता ही रह गया और यह सब हो गया

bhutto-dramar AmarK

Dr.Amar Amarजरा गौर फ़रमायें, ऎसी हसीन शख़्सियत को कौन नज़रअंदाज़ कर सकता है ? ख़ास तौर से जब आप फ़क़त 20 साल के हों । सन 1972 में वह शिमला अपने वालिद के साथ आयीं थीं, बला कि खूबसूरती के साथ आँधी की मानिंद दिल ओ दिमाग पर जैसे कब्ज़ा सा कर लिया, मानों बाँग्लादेश पर हुए कब्ज़े का बदला मुझ नाचीज़ के दिल से ले रहीं हों । एक तो जीत का नशा हर हिंदुस्तानी के ज़ेहन पर तारी था, कानपुर सेन्ट्रल से गुज़रने वाली स्पेशल ट्रेनों में ठुँसे युद्धबंदी इस नशे का शुरूर और भी बढ़ा देते थे । राजा पुरु ( बोले तो पोरस ) के वंशज, हम सब एक रोटी भी अगर उनकी ओर बढ़ाते, तो वह बेशर्मों की तरह टूट पड़ते । उन दिनों मुझे भी भूख कुछ ज़्यादा ही लगने लगी थी ( वैसे मेडिकल कालेज़ में जाकर अच्छों अच्छों की भूख गायब हो जाती है-गौर फ़रमायें ममता जी ! ) तो उस भरे हुये पेट में ग़र कोई खुशनुमा चेहरा आपके आँखों के सामने तैरता रहे, तो आप कहाँ तक उसको नकार सकते हैं ? बेनज़ीर मायने जिसकी कोई मिसाल न हो, अब तो आप कुछ समझें

( मेरी तो एक पैरोडी भी खुद-ब-ख़ुद तैयार हो गयी थी- मैं विशवामित्तर तो नहीं.. मग़र ऎ हसीं...शायद ऎसा ही कुछ ! ) यह तो गुरुजनों, मेरी कच्ची ( या किसी और की गदरायी ) उम्र का तकाज़ा था, जो मैंनें बेबाकी से आपके सामने बयान कर दिया । फिर कन्फेशन से बड़ा प्रायश्चित तो है ही नहीं कन्फेशन कर लेने से खोदाई-बाप भी इंसान के गुनाहों को बख़्स देता है, क्या आप नहीं बख़्सेंगे ?

benazirफिर भी जाते जाते इतना अर्ज़ कर लेने की इज़ाज़त तो दे ही दीजिये...
रश्क क्यों करता है मेरी किस्मत से
क्यों मेरे हाथों में यह लकीर मिली
पड़ोसी ग़र खबीस है तो ग़म क्या

पड़ोसन तो बेनज़ीर मिली
और वह हमेशा बेनज़ीर ही रहेंगी ! आमीन ...

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27 December 2007

उस अनाम रेलवई वाले को धन्यवाद !

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आखिर यह क्या बात हुई ?
जिन सज्जनों को यहाँ खेमेबंदी की बू आरही हो, वह कृपया यहाँ से हट जायें
आज तिरंगे को देख बैठे-बिठाये एक तरंग उठी
, आखिरकार इस भारतदेश को आज़ादी कैसे मिली ? बड़ी अज़ीब तरह की बात है, अरे कौन नहीं जानता उस गाँधी महा-हुतात्मा को ?
तो लीजिये हम ही पहल करते हैं और यह प्रसंग ही बदले देते हैं । जूते पड़ेंगे मुझे यह तो पक्का है लेकिन सभी महान चिंतकों को आरंभ में अपमान का घूँट पीना ही पड़ा था , किसी को ज़हर का प्याला तो किसी को शूली नसीब हुई थी । किंतु मुझ सरीखे सत्यान्वेषी को, जिसकी गिनती ' दो कौड़ी के ब्लागीरों ' में भी न होती हो, अनायास ही ' यूरेका ' के दर्शन हो जायें तो आप इस सत्य को प्रकाशित करने से मुझे रोक नहीं सकते ! गनीमत मानें कि बंदा सड़कों पर ' यूरेका-यूरेका ' चिंघाड़ता हुआ नंगा नहीं दौड़ता दिख रहा है।
तो शिरिमान, मेरा यूरेका है कि अपने भारतदेश को आजादी एक अनाम रेलवई वाले ने दिलायी थी । अब यह आपके और आने वाली पीढ़ीयों के जिम्मे है कि उस गुमनाम रेलवेकर्मी को इतिहास के अंधेरों से खींच वर्तमान के उजाले में लायें । यह कोई बकवास नहीं, कद्रदान !
जरा गौर करें, यदि साउथ अफ़्रिका का वह रेलवे कंडक्टर कुछ ले-लिवा के मोहनदास करमचंद को उसी अपर क्लास डिब्बे में बना रहने देता, जिसमें वह मय टिकट विराजमान थे, तो भारत की आज़ादी के कहानी का वहीं ' दि एंड ' हो गया होता । बार-एट ला मोहनदास जी की वकालत और भारतदेश की ग़ुलामी दोनों ही अपनी अपनी जगह पर फल-फूल रही होती ।
वजह जो भी रही हो, अपनी ड्यूटी के प्रति निष्ठा या काली चमड़ी से घृणा, उसने करमचंद को धकिया कर डिब्बे से बाहर धकेल दिया, यदि कुछ इतिहासकारों की मानें तो ' फेंक दिया ' का भी उल्लेख हुआ है । हालाँकि उस दिन ड्यूटी पर वह अपनी बीबी से झगड़ कर याकि पिट कर आया था इसका प्रमाण मिलना शेष है किंतु यह तो सिद्ध है कि उसने वकील साहब के डिग्री की परवाह किये बिना उनको उस डिब्बे से नीचे प्लेटफार्म पर फेंक दिया था । शायद उस सिरफिरे अंग्रेज़ को यह भी नागवार गुज़रा हो कि ' इस वकील का कोट मेरे रेलवे के कोट से ज़्यादा काला क्यों ? ' और इस स्याह-सफ़ेद के चक्कर में मिस्टर गाँधी प्लेट्फार्म पर औंधे पड़े देखे गये । अफ़सोस तब सबसे तेज़ चैनल नहीं हुआ करता था वरना वार्णनिक रेखाचित्र से संतोष न करना पड़ता ।
जो भी हो, पैन्ट झाड़ते हुए उस काले के दिल में क्या चल रहा था, उपस्थित तमाशबीन भाँप नहीं पाये, और उल्टे हँस पड़े । ' इस अपमान का बदला लेकर ही दम लूँगा ', अवश्य ही यह उनका तात्कालिक संकल्प रहा होगा । कालान्तर में उनका संभ्रमित हठी सोच सिद्धान्त का जामा पहन वापस भारतदेश की ओर चल पड़ा !
आगे तो आपसब जानते ही हैं । लेकिन मुझसे लाख असहमत होते हुये भी आप एक बात ईमानदारी से बतायें, पहला श्रेय किसका है, आग प्रज्ज्वलित करने वाले का, या उस आग में घी डाल अलख जगाने वाले का ? मैं तो कृतज्ञ हूँ, उस अज्ञात रेलवई वाले का ।
मन में एक संतोष और भी है कि महात्मा आज़ मेरे बीच नहीं हैं, वरना वह देखते कि उनके ' पीर परायी जाने रे ' का कैसा वीभत्स रूपांतरण यहां चल रहा है !
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24 December 2007

हे , डोल्ला रे, डोला रे....डोला...

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तो क्या सतयुग-त्रेता में भी समर्थन से ही सत्ता चला करती थी ?
बात बेसिर- पैर की नहीं है, जनाब . आई एम सीरीयस !
अपने धार्मिक आख्यानों को पढ़ने में अक्सर महाराज इन्द्रदेव के सिंहासन डोलने का संदर्भ वर्णित है, बचपन में दो-तीन चुनाव देखे जरूर थे, लेकिन तो जनता 'तू ही रे...तू ही रे....तेरे बिना कैसे जियुं ' ही कांग्रेस के लिये गाती रहती थी । हां कुछ सिरफिरे अलबत्ता स्वतंत्र पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट वगैरह की डफ़ बजाते दिख जाते थे । जब चौधरी साहब की संविद आयी ,तब से यदा-कदा इस प्रसंग पर ठिठक जाता था कि मिलीजुली सरकार तो हमें अधुनातन से ही मिली भयी है और शंका समाधान के प्रस्तुत करते ही मेरे बाबा मेरी अजन्मी बेटी से सम्बन्ध जोड़ कर शुरू हो जाते थे । उनकी निगाह में मेरे जैसा कुलबोरन नास्तिक चिंतक पैदा होने पहले ही मर जाता ,तो उत्तम रहता । वही मेरे एकमात्र सखा थे, उनको नाराज़ करके रहा नहीं जासकता था सो लिहाज़ा चुप रह जाता और माफ़ी मांग लेता ।
अब यह शंका लघु से दीर्घ में परिवर्तित होती दिक्खै तो निट्ठल्ले के पल्ले बांध मन हल्का कर लेने में कोई बुराई नहीं दिखती । इस शंका को सर्वसुलभ करदूं,
कभी तो कोई गुनी इधर को भटकेगा और
कमेंटियाने की तकलीफ़ कर बैठेगा
भला मन में रखे रहने से लाभ भी तो नहीं है ।

अस्तु, मेरा लाख टके का प्रश्न यह है कि जब भी कोई सज्जन पुरुष किंन्ही भी स्वार्थ से तपस्या में लीन होते थे ( निःस्वार्थ तपस्या ! यह क्या होता है ? ). हां तो, वह तपस्या की पराकाष्ठा पर पहुंचने को होते थे कि इन्द्र का सिंहासन डोलने लग पड़ता था ! भाग कर हाई कमान की शरण में उपस्थित हो जाते थे,
मानों कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तिकड़ी सृष्टि संचालन नहीं अपितु उनके सत्ता के संचालन के निमित्तही हों ! उनका परेशान होना स्वाभाविक ही था । ऎरावत हाथी, चंचला लक्ष्मी, सोने का सिंहासन, राजनर्तकियां और न जाने क्या-क्या ! यह सब छिन जाने का भय किसी को भी हिला देगा । सवाल फिर वहीं घूम कर आजाता है कि आखिर इतने भर से उनका सिंहासन कैसे डोलने लग पड़ता था ? क्या तब भी सरकारें कमजोर हुआ करती थीं ? तप किया भक्त प्रह्लाद ने परेशानी उनको, उभर कर आन्जनेय् आ रहे हैं और यह उनका मुंह तोड़ने को वज्र लिये तैयार ! किसी राक्षस को भोलेनाथ वर देने को सहमत और यहां इन्द्रदेव पर आफ़त ! कहां तक गिनाऊं ? और अभी हाल के अपने अध्ययन में मैंने एक संदर्भ और पाया, ज़नाब इन्द्र महोदय सत्ता के संघर्ष की कुटिल चालों में भी माहिर थे । जरागौर करिये...
'वानरेन्द्रं महेन्द्राभमिन्द्रो वालिनमात्मजम् । सुग्रीवं जनयामास् तपन्स्तपतां ।' यानि देवराज इन्द्र ने वानरराज वालीको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया एवं सूर्य ने सुग्रीव को । लो, पहले से ही अपना एक आदमी बैठा दिया ! यह 'डोल्ला रे, डोला रे...डोला' अनायास ही थोड़े लिखने बैठा हूं , संदर्भ और साक्ष्य हैं मेरे पास ! ज़्यादा लिखूंगा तो कोई ऎसे ही नहीं फटकता इधर और मैं एक टिप्पणी को भी तरस जाउंगा, हिट्स तो चला जायेगा , तेल लेने !
वैसे मैं इन्द्रदेव का आभारी भी हूं , मुझे विरोधी घड़े में कतई न समझा जाये । यह सब तो मैंनें अपनी मूढ़ जिज्ञासा रखीं हैं, आप चाहे तो खंडन कर दो । आभारी यूँ कि उन्होंने हमको नित्य स्मरण करने के लिये अनोखी शक्तियों का एक व्यक्तित्व तो दिया ही है !

उनकी खुचड़्पेंच की देन हैं , हमारे हनुमान !
'मत्करोत्सृष्ट्वज्रेण् हनुरस्य् यथा हतः । नाम्ना वै कपिशार्दूलो भविता हनुमानिति ॥'
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02 December 2007

अथ मनुष्य योनिः

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आज तेरी याद आ रही है, विंध्याचल । ist2_1078710_penguin_cartoons_000

हाईस्कूल में मेरे एक सहपाठी हुआ करते थे,विंध्याचल सिंह । महा के मुरहे और खखेड़ी जीव थे, यमदूत से भी पंगा ले लें, कोई ताज्जुब नहीं । अनजाने में ही उन्होंने एक जिज्ञासा मन में छोड़ दी, जो यदा-कदा सुलग उठती है । कोई खास नहीं किंतु निट्ठल्ले चिंतन में दिमाग की वर्जिस हो जाती है ।

हिंदी तृतीय प्रश्न्पत्र की तैयारी चल रही थी, छप्पर में कक्षायें लगती थीं । हमारे हिंदी अध्यापक पंडित पूर्णेंद्र मिश्र बड़े मनोयोग से व्याख्यायें लिखवा रहे थे । झुके हुये 45-50 अदद सिर धड़ाधड़ अपनी कापियों पर नोट टांचे जा रहे थे । उनकी किंचित अटपटाती, गुलगुलाती आवाज़ गूंज रही थी, " मः ..नुष्य यो .. निः में .. बड़े भाग्य ..से जनः .. म होता है, जनम हो .. ता है । थूक सुड़कने की दीर्घ आवाज, तत्पश्चात आगे बढ़ने का वाक्य शायद मन ही मन बनाने लगे । इसकी नौबत ही नहीं आयी ।

kakaपीछे से एक आवाज़ आयी, " गुरु जी !" आगे के लिखने में व्यस्त सिर पीछे मुड़ पड़े,देखा विंध्याचल सिंह खड़े हैं । आवाज़ उन्ही की थी, सदा की तरह कोई शरारती शंका लिये खड़े हैं, लेकिन उस दिन तो हद ही हो गयी । उन्होंने अपनी शंका समाधान हेतु प्रस्तुत की, " गुरु जी, ई योनि का होत है ?" हम हंसें या नहीं, इस असमंजस के बाद पूरे क्लास में फिस्स फिस्स, ही ही, खी खी होने लगी ।

- बइठ जावो बिंधाचल, बाद में बता दिया जायी ।

- नहीं गुरु जी, बइठबे तो न, अबै बताओ ।

पंडिज्जी आजिजी से उसको घूरते तिरछे हो खड़े थे । प्रश्न दोहराया गया ।

- बताओ गुरु जी, ई योनि का होत है ? जब समझबै न करबे, तौ ई सिक्छा का मतलब ? वइसे तो आप रटवाय रटवाय इंतन्हनियां पास करवाइन देहौ, हमहूं जानित है ।

पंडिज्जी की गोलमटोल काया, खसखसी सफेद दाढ़ी, टखने तक की धोती समेत किंचित कंपकंपा रही थी बेबस उतावलेपन के भाव से विंध्याचल को तौल रहे थे । कुर्ते की असीमित लंबी आस्तीनों में अदृश्य हाथों को लहरा कर बैठने का इशारा किया गया ।
किंतु
वह ढीठ मांग इस बार लगभग पुकारने के स्वर में फिर से दोहरायी गयी

- बताओ गुरु जी, ई योनि का होत है ? किलसिया मा बतेइहो तो अउरन का फायदा हुई जायी
अब पंडिज्जी क्या बतायें ? शब्दार्थ कि भावार्थ ! यह दोनों आज तलक अभिव्यक्ति की मोहताजी झेल रहे हैं तो उनके ऊपर तो यह प्रश्न भारी पड़ना ही था ।

योनि की संरचना समझाने का मंच नहीं था और ये मुरहा योनि में घुसा पड़ा है । अमूर्त निराकार योनि की व्याख्या का पर्याप्त ज्ञान उनको था या नहीं, या हम ही इस ज्ञान के लिये अपात्र थे, बता नहीं सकता । किंतु एक बात स्पष्ट थी, यह योनि हमारे कोर्स में तो नहीं है। अतः हम सब भी घंटा न बजने को कोस रहे थे। इस पर टिप्पणी भी शायद ही आये।

यह तब तो टल गया ( कैसे ? धैर्य रखिये ) किंतु अनाड़ीपन से निकल जब अगाड़ी पिछाड़ी देखने की अक्ल हुयी तो योनि की गूढ़ता और रहस्यमयता की झलक कुछ वैदिक साहित्य में और तंत्रयामल में देखने को मिली । वैदिक पुरुष तो जैसे योनि से निरंतर अभिभूत ही रहे हों । माहात्म्य और प्रशस्ति से एक तिहायी साहित्य तो भरा ही होगा । मैंने पूरा कहां पढ़ा होगा । आधे अधूरे में ही तबियत भिन्ना गयी । गुठली कहां गिनने बैठें ?

लेकिन कुछ टला नहीं था, ललकारती आवाज़, " गुरु जी, बाद मा धुन देहौ, इहईं बताओ "?

गुरु जी का अथाह सा तोंद उत्तेजना से थिरकने लगा, आस्तीन में छुपे हाथों से दिल थामने जैसे ही तोंद थामे खड़े, अपने नयनों से अगिया बरसा रहे थे ।
विंध्याचल तो ठहरे विंध्याचल, इहां कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं

और सहसा वह लुढ़कते पत्थर सरीखे गतिशील हुए यानि पंडिज्जी । क्या होने वाला है, यह कोई सोच पाता इससे पहले वह विंध्याचल को दबोच पीठ पर धाँय धाँय दुहथ्थड़ बरसा रहे थे। मुंह से दोहरे या खैनी का जूस टपकाते हुए जैसे मंत्रजाप कर रहे थे, " घरै जायकै आज आपन महतारी से पूछ्यौ, जहां से निकारे गये हन ऊई हमका देखाओ, ससुर नहिंतन योनि केर दरसन हुई जाई । यहिमा गुरुजी का बतावैं ?" धम्म धम्म धाँयधाँय एकबारगी शांत हो गया और पंडिज्जी छ्प्पर से छिटक अंतर्ध्यान हो गये ।

फिर तो वह रार मची क्लास में, बताओ इहां पढ़ै आयें हन कि महतारी केर गारी सुनै ? खासी हनक थी, बिल्कुल आज के मुशर्रफ़ की तरह ! वह फुलपैंट भी पहना करते थे, जिनके आगे हम हाफ़पैंट वालों की क्या बिसात,लिहाज़ा असहमत होते हुए भी सहमत होने को बाध्य थे । फिर अंग्रेज़ी हटाओ की तर्ज़ पर पंडित जी के विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान की रूपरेखा तैयार होने लगी, मैं लाला आदमी ( ? ) चुपचाप फूट लिया । तीन दिन स्कूल की तरफ़ गया ही नहीं । जानेपर पता चला पंडित पूर्णेंद्र जी सस्पेंड हो गये हैं, जाँच चल रही है।

योनि उनको ले डूबी, यही मेरा इससे तात्कालिक परिचय था । किंतु इसके व्याख्या को जानने की हुड़क जब तब सताती है । खोया-पाया की तरह यहाँ प्रकाशित है, जिन सज्जन को पता हो, बताने की कृपा करें ।
पारिश्रमिक तो नहीं, किंतु पूर्णेंदु सम्मान से नवाज़ा जायेगा । नाम व पता गुप्त रखने की गारंटी !

06087212 और हमारे हीरो, विंध्याचल ? संप्रति यहीं रायबरेली कोर्ट में स्टैम्प वेंडर हैं । कमर दोहरी हो गयी है, जाने क्यों । उनसे अब पूछो तो किंचित गर्व से हल्का मुस्कुरा कर फीका सा हँस देते हैं, "अमाँ डाक्टर तूमहूं.. उई तो लौंडियई रही । अउर सुनाओ का हाल है ?"


इति ब्लागस्पाटे निट्ठल्लेखंडे अमरकुमार विरचित द्वितीयठेलमठेल अपूर्ण योनिरह्स्यकम समर्पणायमि ॥
इससे आगे
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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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