का हरज़ है.. भाई, आज थोड़ा सा माइक्रो हो लिया जाय, तो ? माइक्रो और वह भी थोड़ा सा.. क्या केने क्या केने !
तो, मेरे बाबा जी रजनी के संग कल रात कहीं गायब हो गये, शरद मेला की भीड़भाड़ में फिसल के निकल गये होंगे । आज सुबह 9 के दरमियान पान के दुकान तक जाकर, पनवरिया को दूर से इशारा किया, कि मुझ तक इन दोनों को पहुँचा जाओ । वहाँ एक पंडितजी और उनके मित्र बेचारे पान वाले के दम किये हुये थे, जरा 132 तेज रखना और किवाम डाला ? तो ठीक, अब यह भी डाल दो.. और सुनो जरा वह भी, इत्यादि इत्यादि..
ई सब निरख अउर तदोपरांत ऊ सब देखत हमरे दिमाग में कुछ कुछ होता है वाला कुछ नहीं, बल्कि सबकुछ हो गया वाला कुछ कुछ हो गया । यदि आप भी दिल वाले हो तो, एसी कार के बंद शीशों के उसपार देखो.. तो पता चलता है कि कुछ कुछ नहीं, बल्कि बहुत कुछ होता है, इस भरी दुनिया में.. भला यह बात डाक्टर अनुराग और मुझ नाचीज़ के सिवा, दूसरा और कौन असंवेदनशील हृदय समझ सकता है ? अलबत्ता नेता-ऊता की बात अलग है, वह तो संवेदना के सताये हुये हुये वर्ग को बिलांग करते ही हैं । जनता के सीने का मामूली दर्द भी वह इन्टेंसिव केयर की निष्ठा से जीते हैं, छोड़िये उनको…. वह ससुरे हमारे माइक्रो के योग्य नहीं .. …
अब ओमपरकास पनवारी ने क्या डाला, क्या नहीं… वह बाद की बात है । अभी तो पंडित जी बातों बातों में मेरे मानसिक बवंडर में किवाम की पूरी शीशिये उलट के चल दिहिन, अउर एकठो माइक्रो पोस्ट प्रसव करने की प्रेरणा पकड़ा गये, अलग से ! ज़माने के हिसाब से तो ठीकै बात है, जनता के ज़ेब में पइसा नहीं, तो कैरीपैक, इज़ीपैक व सैशे वगैरह पकड़ा दो… कुछ तो उसके ज़ेब से निकसेगा ! ब्लागर के पास टैम नहीं, पाठक के पास दिमाग नहीं, वह तो मँहगाई की मार से पहले से ही फ़ुक्कस हुई पड़ी है… सो एक माइक्रोपोस्ट थमा देयो । ताक-झाँक की तक़ल्लुफ़ में भी कुछ तो बाँच ही लेगा ! सो, बचत ही बचत.. अपने दिमाग की, पाठक के नेटसमय की, और ज़्यादा लिख जाने पर बाँयें दाँये बगलें झाँकने की नौबत आने की.. डबलमज़ा नहीं बल्कि मल्टिपल मज़ा है, जी । आज ही माइक्रो अपनाइये, पोस्ट शेड्यूल करके चैन की नींद सोइये… मैंने तो अपना लिया.. हाहः हाः हाः हः ह !
अमाँ, यह शॊशा तो बड़ा टेढ़ा है, हाईस्कूल से माइक्रो महाशय ने ऎसा पकड़ रखा है.. कि अब तलक माइक्रोस्कोप से जूझ रहा हूँ । छुटकारा पाने को अहंम ब्लागिंग शरणम आगच्छष्याम, तदं विधनास्य षड़यंत्रकारी यहाँ भी माइक्रो पोस्ट, माइक्रोब्लागर का भेष धर के किच्चपिच मचायतिष्यामि । मैं ठहरा फुलस्केपिया ब्लागर, कहाँ फँस गया ? लेकिन यह आधुनिकता ओढ़ने का मोह बड़ा अँधा बना देता है, सो आज ‘ चरैवति चरैवति ‘ भावना से एक्ठो माइक्रो ठेलने की इच्छा होती सी प्रतीत हो रही है । तो, हो जाने दो… धारा 144 पता नहीं कब नसीब हो ?
भईया, परिशान मत होवा.. जब माइक्रो बोला है तो माइक्रो ही लिखबे, यह लाला का कौल है ! जब पेन से मसिस्राव हो ही रहा है, तो माइक्रो पोस्ट की एक मिडी प्रस्तावना तो लिखी ही जा सकती है ! कवि आँसू बहाता है, लेखक स्याही बहाते है, बड़कऊ लोग थोड़ा बहुत पसीना बहा लेते हैं, महीने डेढ़ महीने के लिये, छोटकऊ जन बाद के 58-59 महीने खून के आँसू बहाते रहते हैं, और, गंगा भी निर्विकार बहती रहती है ! बहते रहने में ही जीवन है.. देखो जनता अपना जाने क्या क्या बहा कर जनसंख़्या को कहाँ से कहाँ बहाये लिये जा रही है, कि बेचारे प्राइमरी के मास्टर बटोरते बटोरते हलाकान हुई रहे हैं । अब वह बेचारे किसको रोयें..
ग़ालिब फ़रमा भये हैं, “रोने से अउर इश्क में बेबाक हुई गैए”, कितना दारू बहा कर बेचरऊ यह इल्म हासिल किये होंगे, इल्म बोले.. तो ज्ञान ! कहीं ज्ञानजी भड़क न जायें, सो इसे इल्म ही पढ़ें और इल्म ही समझें । ज्ञान को दारू के संग संदर्भित करने का हमको साहस नेहीं न हो रहा है, हमारे श्री गुरुवर जी का नाम धँसा पड़ा है, इस इलिमवा में ! और कहीं ताऊ के घरारी से वह प्लेबियन लट्ठ उधार लईकै ( उल्लेखनीय है, कि ज्ञानजी का लट्ठ अभिजात्य वर्ग के मालखाने में जमा है ) तो, वह प्लेबियन लट्ठ लईकै माइक्रो के इन्वर्सली प्रोपोशनल इक्वीवैलेन्ट फोर्स से हमार म्यू स्कवायर सिग्मा कर दें , तो टिप्पणी सिरमौर श्रीसमीरलाल अपना माइक और मंच प्रेम तज के तो आने से रहे ! ख़ुदा करे, वह अभी तो न ही आयें, वरना ‘ अतिसुंदर एवं उत्साहप्रद.. लगे रहिये.. जमायें रहें… आपका आभार ’ वगैरह वगैरह जैसा कुछ कह कर आगे बढ़ लेंगे ! आने दो उनको नवम्बर में, इंडिया आये तो ठीक, वरना यदि दैट्स भारत में मिल गये तो ऊप्पर निच्चै सबै देखि लेहा जाई !
ऎ भाई लोगों, मैं बहक तो नहीं रहा ? यदि ऎसा है, तो सुझाव व शिकायतें डिब्बा नीचे उपलब्ध है, उसका प्रयोग करें । ब्लागिंग ग़र नशा है, तो मेरे बहकने पर किसी की नज़रें टेढ़ी क्यों ? अउर अगर टेढ़ी होय तो सबजनै आँख मूँदिकै पढ़ लियो, टेढ़न का हम डेराइत नहिं न ! तौन आजु तो पेशल टाइगर भदौरिया का अद्धा चढ़ावा है, ऊपर से हमरे मेल बकसिया में एकु दुई तीन नहीं, चार चार भड़ासी न्यौता पहिले से पड़ा भवा है, ऊई अलग । अब हमका हृदयपरिवर्तन करे का मज़बूर न किहौ ! टेढ़ी मत करो बंधु, बस हुई गवा… आजु एक ठईं हमार माइक्रो जाय देयो ! दुबारा हम न लिखबे, अउर लिख दिहा तो तुम पलट के आवै वाले नहीं… सो आजु तौ पढ़ि लियो भाय
बात रोने पर जा टिकी थी, तो भला बताइये… अगर रोयेंगे नहीं तो लोकतंत्र झेलने को बेबाक कैसे होंगे ? ग़ालिब ख़ासे क़ाफ़िर किसिम की सोच रखते होंगे, तभी तो उनको कभी से भी, कुछ भी ख़तरे में पड़ा कभी दिखा ही नहीं ? सही बात है यार, तभी बेचारे ग़ालिब मरते दम तक ‘ख़ाक मुसलमाँ’ होने की आस लिये जीने को अभिशप्त रहे । माँग के लाये हुये चार दिनों में दो तो इसी इंतेज़ार में कट गये कि कौम का ग़म उन्हें अब सताये कि तब सताये ! तबके इमाम भी उसूलों पर नहीं, बल्कि अपने सरकारी वज़ीफ़े पर ही कुर्बान होने में खर्च हो गये । उनके ढाँपे हुये ग़म के मलबे अब कुरेदे जा रहे हैं । हम इस बेसिरे नाइत्तेफ़ाक़ी के मलबे का नतीज़ा भी झेल ही रहे हैं …
ऎई सीधे चलते चलो.. बात तो रोने की हो रही थी, सो, मिर्ज़ा जी की बात से मुख़ातिब हुआ जाये । हाँ तो, बच्चा रोयेगा नहीं तो बेबाक कैसे होगा, दूध कैसे मिलेगा, मईय्या की छाती में दुद्धू कैसे उतरेगा ? दूध देने के लिये अच्छी खुराक भी तो चाहिये, सो वह अभी अपने खाने-पीने के इंतज़ाम में लगी हुयी है, तो बेजा क्या है ? इधर हमारे भी फेफड़े मज़बूत हो रहें हैं ! हाँ तो, बात… रोने पर ही टिकी थी न ? ठीक है, फिर… रोने को तो हमारे आपके जैसे बीच के आदमी छोटकऊ लोगन का रोना यदा कदा देख भी लेते हैं, बल्कि कभी कभी साथ में रो भी लेते हैं, निहित स्वार्थ हो तो पछाडें भी खा लेते हैं । फिर छठा पे कमीशन मिलते ही हँस भी देते हैं, रिलीज़ होने के पहले ही ज़श्न भी मन जाता है, रोने दो इन सालों को.. कर्महीन हैं.. कामचोर हैं सब के सब ! चुपाय मारिकै अपना लेमनजूस चूसो ! अब इनका क्या है ? आज रो रहे हैं, कल दिहाड़ी पर किसी के भी ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद रैली में शामिल हो जायेंगे, ससुरे ! लेकिन कल तो कुछ और ही देखा, बंधु एवं बाँधवियों...सो लिखबे की इच्छा है
एक जर्जर वृद्धा सोनिया गाँधी के आने वाले निर्धारित रास्ते पर लेटी हुई है, दहाड़ें मार रही है, छाती कूट रही है, बटन टूटे अधखुली ब्लाउज़ से बाहर झूलती हुई चुसकी छातियों से बेख़बर, बदहवास सी सड़क पर लोट लगा रही है, कुछ ज़वान पुलिसिये उसकी छातियों में दिलचस्पी न लेकर भीड़ लगायी पब्लिक में कोई दिलचस्प आइटम टटोल रहे हैं । वृद्धा का प्रलाप जारी है, “ आज हम इनका जाय न देब… हमका फैकटरी दियावें… हमार डेढ़ बिगहा ऊसर जात मुला ई बुढ़ापा तौ हरिया जात … हम कौनो माया-ऊया का नहिं जानित… इनके कहे पर वोटु ढीला है ( डाला है ) तौन इनहिन से आजु पूछिकै जाब … … एकु लउंडवा सूरत में कमात है… आपन मेहरियो राखे है… हम ईहाँ कउनो तेना ( तरह ) पेट जियाइत है… छोटकवा लुधियाना में मज़ूरी करत रहा… तौन ऊहौ लउट आवा कि अब हिंयईन नउकरी चाकरी मज़ूरी पाई जाबै… नास होय ई चमरीनिया का… щПηψЙЫ⺶⺗⺗⺄♀♀⺈मरि जाय तौन डलमऊ निहाय आई… ऊँगली का इशारा अपने लड़के पर,और फेना छोड़ते मुखारबिन्द से फूल झड़ रहे हैं… कुल तीनै दिन की मज़ूरी में चार टनऊका ( सौ रूपये ) गिरा लिहिस… हमका फैकटरी दियावैं.. जाय न देब हम आजु इनका… “ भीड़ में लड़का हाथ बाँधें दो-तीन उभरते आइटमों से घिरा खड़ा था । मज़ू्री से बार बार अपने को संदर्भित किये जाने पर असहज होते होते अचानक फट पड़ा… हम कहित हय चुपाय रहौ… तब तै मज़ू्री… मज़ू्री लगाये पड़ी हो ! माता-पुत्र संवाद सुनने को मैं नहीं रुका । जिले में धारा 144 लगी है, शहर में तो सन्नाटा है, पर ?
पर, यहाँ ऎसा कुछ नहीं है, क्यों ? जानते हैं, श्री अनाम जी से..जरा मौज़ लिया जाय !“काहे भाई 144 लगी है, और आप बेखौफ़ घूम रहे हो ?”उसने पलट कर एक मिनट को मुझे गौर से तौला,फिर अपनी मुंडी को एक लघु अभिवादन झटका दिया, बगल को गरदन घुमा कर अपने मुँह में दबाये आशिकी ( गुटका ) की सिट्ठी को पक्क से थूका, एक सहज ज़वाब.. “ चउआलिस नहिं तौ कुतिया की ..ँटें, हिंया हम पंचन के घरै मा आगु लगाय दिहिस, अउर हम बइठ के ई चमारिन केर चउवालिस का पकड़ि कै चाटी ? “ अब इस पतिप्रश्न का उत्तर तो तुम देकर भी नहीं दे सकते, सो यहाँ से खिसक लेयो अमर कुमार ! पंडिताइन मेरे बाँयें कोख में अपनी तर्ज़नी का तमंचा गड़ाये पड़ीं हैं
पर, वह नौबत नहीं आयी, गाड़ी बैक करने का जुगाड़ तलाश रहा था कि… शोर मचा,”बदल दिहिन… बदल दिहिन, अब सताँव ( दूसरे मार्ग ) से पास होइहैं । डीएम मना किहिस है कि जिम्मेवारी न लेब !” न्यूज़रिपोर्टर लड़की बदहवास सी दौड़ रही है.. यह सताँव किधर है, गायज़ ? लोग उसे घेर कर अपने अपने तरीके से रास्ता बता रहे हैं, समझो कि आधा घंटा से ज़ेदा लगि जायेगा मैडम… एक रंगबाज उसके सीने को ‘देख लो आज इसको जी भर के’ वाले अंदाज़ में घूरता हुआ समझा रहा है,” आपकी भारी बाडी है न ? सो हिचकोला गज़ब का लेगी !“ कहता हुआ वह सांकेतिक रूप से उनके वैन की ओर हाथ बढ़ा देता है, पर नज़रें बचा के उपस्थित जनसमुदाय को अपना मंतव्य भी आँख दबा कर और अपने होंठ काट कर समझा देता है । पब्लिक उसके श्लेष पर मुदित हुई जाती है !
कविवर बिहारी की इस औलाद पर अपने माइक्रो µ पोस्ट की नेपथ्य कथा को समेट ही रहा था, कि उस रिपोर्टर लड़की पर नज़र गयी, बल्कि स्वयं पंडिताइन ने ही दिखायी… वह लौकीनुमा माइक लिये बूढ़ा को ही चेंटे पड़ी थी ! गरदन बार बार पीछे मुड़ कर बताती जा रही थी कि ‘हम अपने दर्शकों को बता दें कि…’ मैं झल्ला रहा था, क्योंकि यह मेरे च्वाय्स का मामला नहीं था । कवरेज़ देखने की यह पंडिताइन की चाह थी, सो मानना ही पड़ा।
अरे, साफ़ साफ़ बोलना सीख ले लड़की..खुल के बोल कि ‘अपने ड्राइंगरूम व लाबी में बैठे तमाशबीनों को हम यह बता दें कि…एटसेट्रा एटसेट्रा..’ उधर बुढ़ियारानी, अब बेचारी बुढ़िया से चरित्र अभिनेत्री बुढ़िया में तब्दील हो चुकी थी.. दो रिटेक सहर्ष दे चुकी थी । वह मुड़ी,” हम अपने…? “ कैमरामैन महोदय को भीड़ में शामिल किसी फोटोजेनिक चेहरे पर उलझे देख, उसका चिल्लाना लाज़िमी था, भला कौन सा न्यूज़चैनल कवरेज़ में खूबसूरती को शामिल करने की इज़ाज़त देता है, यदि यह रैम्प पर न चल रहा हो तो बात भई अलग है ? वह मुल्क की प्रगतिशीलता का प्रायोजित कवरेज़ होता है । सो, वह चिल्लायी, “हे गाय, अपना कैमरा इधर को पैन करके जरा ठीक से ज़ूम करो”..फिर अपने अगल बगल से दबाती हुयी सी पब्लिक को बड़े संयत स्वर में संबोधित किया, “प्लीज़ थोड़ा स्पेस दीजिये न गायज़ !” अब मैं मगन होता भया, क्या बात है, यार.. विहिप बेचारा अपने गोमाता प्रेम को लेकर नाहक बदनाम है, और कान्वेन्ट से अवतरित हुयी यह लड़की गाँव गाँव बतर्ज़ ‘हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी’ में ..गायज़.. गायज़ गोहराती हुई गोधन को हेरती घूम रही है । इसको कहते हैं ’ जिन खोजा तिन पाँईया’ वाह रज्जा, वाह वाह ! यह वाहवाहियाने की बात तो है न, गायज़ ? अरे ब्लागियों, यह मैं आपसे पूछ रहा हूँ
मेरा माइक्रो पोस्ट ? हाँ अभी वह भी तो रहा जा रहा है.. हे राम, कहीं इस मज़में में फुसला तो नहीं लिया गया, मेरा टिनी-मिनी ? जाने मेरा माइक्रो किधर गया जी… अभी अभी इधर था किधर गया जी । वह दूर से मुस्कुरा रहा है, इन्नोवेटिव दिखने का मौका खिसक जाय तो गुस्सा तो आयेगा न, जी । “ चल इधर आ… पेश हो यहाँ “
अथ आरंभ निजस्य माइक्रो पोस्ट
ऊपर की बकवास तो इसकी नेपथ्य कथा थी, जड़ मज़बूत होगी, तभी समझोगे न,भाई ? इसके जन्म लेने का घर दुआर, महतारी बाप से परिचय करवाना ज़ायज़ लगा, सो कर दिया, लेकिन पोस्टवा माइक्रो ही है !
⿸तोमैं गाड़ी में बैठा इंतज़ार करता रहा, वह ओमप्रकास को उलझाये रहे, फिर आराम से पान का
बीड़ा अपने अपने श्रीमुख के कल्लों में स्थापित कर, एक आवश्यक कार्य से फ़ारिग हो लेने जैसा संतुष्ट दिखने लगे । वापस होने की प्रक्रिया में मेरी कार का रास्ता काट गये सो अलग ! आपस में जो भी बतिया रहे थे, वह इतने धीमें स्वर में था कि लोग सहसा पलट कर देखने लगते, यह सदा ( आवाज़ ) कहाँ से आई ? उनमें एक तथाकथित उपाधीयाऎ जी भी रहे होंगे अवश्य, क्योंकि वही परस्पर संबोधन में प्रयुक्त हो रहे थे ।
“ तो, अइसा है न.. उपाधीयाऎजी कि ई कोनो राजनीति नहिं है, ज़मीन दिया कोच फ़ैक्टरी को.. पइसा लिया बकैदा रेलवे वालों से … दाख़िल-ख़ारिज़ भी सुपुर्द कै दिये उनको । अब मुकर रहि हो.. कि ई ज़मिनिया वापस देयो । अब भाई उपाधीयाऎजी हमरे हिसाब से तौ यहिमाँ न कोनो सिद्धांत है.. अउर सुनि लेयो ई कोनो राजनीति भी नहिं है, ई तो भाई, टोटल चमरई है..हन्डेड वन परसेन्ट चमरई, पाल्टी कै औकात गिरा दिहिन !“
हमारे ओमपरकास जी ने आवाज़ दिया, “ भईया ?” बाबाश्री व रजनी हवाले किया, हम इनके बिना कुछ भी नहीं लिख पाते.. सो यह पोस्ट लिख कर अपलोड कर रहे हैं, ताकि सनद रहे व वक़्त-ए-ज़रूरत काम आये
सामने देखा तो दोनों एक मारुति 800 में धँसे, खिड़की से मुँह निकाल पुच्च पुच्च करके गंदी सी भंगिमा बना कर ओमपरकास पर चिल्ला रहे हैं, “अबे कलुये, कितना चूना लगायेगा बे ? अपनी दुकान चलानी है, तो पहले ठीक से चूना लगाना तो सीख ले, स्साले मा..ढर.ओद ! गाँड़ तक कल्लाय रही है, इन ससुरों के मारे
आक्कथू, मारुति सरकी.. मैं भी सरक रहा हूँ पर यह तो बताना भूल ही गया कि उनकी कार के बोनट के बगल लगे डंडे पर एक हाथी महाराज नीले रंग के कपड़े पर टँगे हुये निर्विकार भाव से मूड़ झुकाये हुये थे !
मैं अपना सिर झुकाये बाबा 120 व रजनीगंधा का मिश्रण बना रहा था, यही खाँटी बचा है. मेरा अंतिम सत्य !
जौन मनई, सीधे स्क्राल करके ऊपर से नीचे उतर आये हों.. पोस्ट की लम्बाई गहराई नापने को, वह आगे को सरक लें । यदि आप नेता के कौल पर भरोसा कर लेते हो, तो इस बेचारे लाला के कौल पर क्यों नहीं ? अपने इर्द गिर्द चल रहे प्रहसन पर, मात्र 8927 शब्दों में समेटी कथा माइक्रो ही कहलायेगी न भाई ?