जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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18 February 2009

जैसा देश वैसा भेष

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आम तौर पर मैं पहेली-पचड़े में नहीं पड़ता । एक सर्प पहेली जिसका उत्तर मुझे भी नहीं मालूम ! कोई बताएगा ?    इस विचारोत्तेजक पहेली ने मुझे टिप्पणी बक्से में ज़बरन ढकेल ही दिया । उत्तर देने से पहले सतर्क होकर इधर उधर देखा,  सो माहौल के अनुसार मेरा उत्तर था ; भाई, मैं तो पटखनी खा गया,
                                                थोड़ा आयोडेक्स मिल सकता है, क्या ?
                                                उसे मल कर काम पर चला जाय ।

सर्प-पहेली का मेरा उपरोक्त उत्तर ' जैसा देश वैसा भेष ' नीति के अंतर्गत ही लिया जाय । उत्तर देकर मैं संतुष्ट था कि साँभा अगली कड़ी में तो खेल का मज़ा दिखायेगा ही । पर सरदार खुस न हो सका । आज चंद घंटे पहले अपनी वैलेन्टाइन को सँवारने की गरज़ से आया, तो मेल बक्से ने साउंड एलर्ट दिया. खोला तो वहाँ पहेली के उत्तर की कड़ी विराजमान है, चलो देखें !

क्या इडेन के बगीचे में अजगर था ...? का उत्तर प्रकाशित है “ यह पता चला है कि वह अजगर था जिसने बिचारे आदम और हौवा को भवसागर में उतरने और बल बच्चे पैदा करने को उकसा दिया था -इसलिए आज भी कई संस्कृतियों में साँप लिंग का प्रतीक का मन लिया गया है ! “ हालाँकि इसके साथ ही एक प्रश्नचिन्ह नत्थी करके इसे उत्तर का डिस्क्लेमर होने का टैग भी दिया है । सो, एक अच्छा प्रसंग असमय दम तोड़ता दिख रहा है । बात को आगे बढ़ाते हुये..

आपसे असहमत होने की अनुमति चाहूँगा.. मेरे विद्वान मित्र !  दो संभावनायें दी गई हैं.. अज़गर और पुरुष जननाँग ! पर.. संभावनायें अपनी प्रकृति के अनुसार अनंत होती हैं, न दोस्त ? सो.. मैं अपने इस पृष्ठ की असहमति का टैग थोड़ा जी लेना चाहता हूँ, कोई बुराई ?  आपको असहमत होने का पूर्ण अधिकार है, क्योंकि मैं तालिबानी नहीं.. कि जो उनसे सहमत नहीं.. उनका इस दुनिया में स्थान नहीं !

आपका... अज़गर ?   कभी नहीं... कदापि नहीं । कविता जी द्वारा प्रतिपादित ‘ पुरुष जननांग ? ‘ अरे राम भजो भाई ! 
इस पोस्ट के  कारण हैं, क्योंकि मेरे पास पड़े इसके संदर्भ अकारण ही व्यर्थ हो रहे थे ।  देखिये स्वयं की लाइब्रेरी के मेरे संदर्भ :

 
1. " So The Serpent (satan) successfully tempts Eve to "eat the forbidden fruit" and everything changed forever as innocence was lost."  यहाँ वर्जित फल को ही आप पुरुष जननांग से  परिभाषित तो  कर सकते हैं, क्योंकि आगे  दिया है कि.. ..  

 2. And Adam and Eve heard the
Voice of The Lord and they were
ashamed and covered themselves with fig leaves. "
  यह परिणाम मिला उन्हें, यह वर्जित फल चखने का..           जो कि सेब तो कदापि नहीं हो सकता ।

3. The shame of Adam and Eve clearly shows a new "knowledge" and awareness of sexuality and their own nakedness. अपने माइथोलोजी में.. खीर खाने से सन्तानोपत्ति के कई उल्लेख हैं, यह तथाकथित खीर आखिर वीर्य क्यों नहीं ?  सेब या खीर पेट में पहुँच जाने मात्र से क्या गर्भाधान हुआ करता है ?  फिर तो, यह देश में कब का प्रतिबन्धित हो गया होता !क्योंकि इसके परिणामों से चेताते हुये आकाशवाणी  ( इस पर फिर कभी .. )  होती है, कि.. 
4. And the Lord said unto the woman,

"You shall have pain
in childbirth and your desire
shall be towards your husband."

उपरोक्त सभी संदर्भ Ontario Consultant's Book on Religious Tolerance  से लिये गये हैं ! यह सी.डी. पर उपलब्ध है।
बात को और आगे बढ़ाते हुये लीमिंग बन्धुओं को भी गवाह कठघरे में बुलाना चाहूँगा

The Punishment upon Eve (womenhood) was pain in childbirth. This seems directly linked to sexual intercouse and pregnancy. Also her "desire" is to bear her husband's children yet have to endure this great suffering to do so. This "curse" provides more proof that "eating the forbidden fruit" does represent SEX. Soon after their "eating of the fruit", Adam and Eve were banned from the tree of life (that prevents aging leading to death). D. Leeming & M. Leeming, "A Dictionary of Creation Myths", Oxford University Press, New York, NY,

एहि बीच अज़गर महाराज कहाँ दुबक गये, हो ?
उनको सामने लाने का प्रयास करता हुआ, एक मान्य ग्रँथ Urantia Book  कहता है, कि जिसको आदम-हव्वा गँदा कर दिये थे , ऊ वाला ईडेन गार्डेन कोलकाता में नहीं, साईप्रस में पहले से ही था ।

Sarmast_Atlantis_525

Urantia Book :

Revealing the Mysteries of God, the Universe, Jesus  and  Ourselves.

As it has on numerous occasions, current scientific discovery confirms the dates, places, and events originally disclosed in The Urantia Papers more than 70 years ago. One of those recent discoveries shows a connection between the legend of the lost continent of Atlantis and of the first Garden of Eden. The picture at right  is from Robert Sarmast’s newly released book, Discovery of Atlantis (Copyright Robert Sarmast, Origin Press, October 2003). It pinpoints the lost continent of Atlantis in the exact location that The Urantia Book describes as that of the first Garden of Eden.

और किसी अज़गर के साईप्रस में ग्रीनकार्ड लेने का कोई रिकार्ड नहीं है । सो, अज़गर के साईप्रस में देखे जाने के सबूत का कोई अभिलेख लाइयेगा, तो.. मज़ा आयेगा असली खेल का !  आप द्वारा वैज्ञानिक जानकारियों को हिन्दी में दस्तावेज़ीकरण करने के प्रयास का यह टाइमखोटीकार सदैव से प्रशंसक रहा है, इसीलिये अपना मत / पक्ष रख रहा हूँ । आगे आपकी मर्ज़ी !

Keyway.ca_edenपिछले वर्ष दिल्ली से किताब-ए-अक़दस ( Kitab-i-Aqdas ) ले आया था, जिसमें भी इससे सम्बन्धित प्रसंग का उल्लेख है, थोड़ा ही पढ़ा था, कि पंडिताइन महाशय ने गायब कर दिया है, कि " तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है ! "  यदि आप भी मेरे लिये यही सब  न मान रहे होते तो.. यहाँ संदर्भित किया जा सकता था । सो, चलता हूँ.. अपनी वैलेन्टैनिया को सँवारने, जो निश्चित समय से विलम्ब से चल रही है । यह ज़रूरी नहीं है, कि सभी  भारतीय परंपरा के  विलम्बित रहो नीति  के सभी फ़ालोअर ही हों ?वैलेन्टाइन डे के दिन भेलपूड़ी खाने पर भाई्कुश पहले ही डाँटें जा चुके हैं । कहीं हमारा भी लम्बर लग गया कि, समय-चौकस विदेशी आदत वाले संस्कृति का यह त्यौहार इतना लेट काहे कर रहे हो, भाई  !  तो,  आईएगा आप हमको बचाने ?

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04 February 2009

बिन बुलायी, एक अपूर्ण कविता

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आज व्याधिग्रस्त माया श्रीवास्तव धुर 5 बजे अवतरित हुईं, टालने का प्रश्न नहीं.. पर थोड़ी व्यग्रता थी क्योंकि यह आज के परामर्श समय की अंतिम बेला थी, हिस्ट्री लेने के दौरान मेरे मुँह से ' परिवेश ' शब्द का उल्लेख  हुआ । बस, उनके पतिदेव महोदय ने मुझसे एक छोटा सा ब्रेक लेने का अनुयय किया,  और बिना किसी भूमिका के यह पंक्तियाँ सुनाने लग पड़े । एक-डेढ़ मिनट के बाद ही मैंने एक ट्रैफ़िक पुलिसिया इशारा कर उन्हें रूकने का संकेत दिया, और अपना काम पूरा कर सका.. पर एक स्थानीय कवि के इस कविता की पंक्तियाँ रह रह कर जैसे चिंचोड़ रही है, इतना अलाय-बलाय, लटरम-पटरम नेट पर ठेलता / पेलता रहता है, थोड़ा बहुत जगह मुझे भी दे दे । मैं खीझ गया, " तू तो अभी अपूर्ण है.. जो कुछ लाइनें छोड़ आयीं है.. जा उन्हें भी लेकर आ, तो विचारार्थ सहेज लूँगा । " कविता के मुखड़े से ही उसके सामयिक होने का दंभ छलका पड़ रहा था । सो, एकदम से तमक गयी, तैश में अपनी दो-चार और लाइनें झटक कर फेंक दीं और मटक कर चल पड़ीं " तू तो स्वयं में ही अपूर्ण है मानव ! निरूपाय होकर या विभोर होकर, तू मेरे आँचल में ही आँसू छलकाने आता है । अब इतना बढ़ चढ़ कर तो न बोल ।" ई का हो ? अई देखा, कवितिया एतना अकड़ती काहे है, भाई ? हम ठहरे ताऊ स्कूल आफ़ ब्लागर के ज़ाहिल-बुच्च डाक्टर मनई, जो असोक चक्रधर जी से एथिआ ई कबीता की खास फरमाईसी परिभाखा लिखाईस है :

गोया रोगी होगा पहला कवि, कराह से उपजा होगा गान
टीसती फुड़िया से चुपचाप ,  बही होगी कविता अनजान

अरी दईय्या रे, कविता जी बिफ़र कर पलटीं.. "ऎई, मवाद से मेरी तुलना तो करना मत ? पहले ही मेरा ऋँगार पोंछ पाँछ कर दुनिया की गंद मेरे से परोसवा रहा है, और अब सीधे सीधे मवाद पर मत उतार ।" फिर ठिठक कर जैसे मुझे निरूत्तर करने को प्रहार किया, " अच्छा चल, मवाद ही सही.. लेकिन बह जाने से तू और तेरे रोगी का दर्द हल्का हुआ कि नहीं, बोल ? " बोलिये न !

feelingwarpedvअय-हय, इनका देखो  ? अधूरी हैं, तब ये हाल है, दो चार अच्छी लाइनें और मिल जायें तो हम जैसे टाइमखोटीकारों की गुलामी भी मंज़ूर न करें ! सो, मैंने अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश की, " अच्छा चल, तू जैसी है वैसी ही रह, मेरे को क्या ? आओ, जरा  इधर को आ.. तुझे अंतर्जाल पर टाँग दूँ.. ताकि तेरी हसरत भी पूरी हो जाये । पर तेरी वज़ह से कोई मुझे हूट-हाट करेगा, तो तेरा गला घोंट दूँगा । वईसे भी ईहाँ ब्लाग-प्रदेश में गुणीजन अल्पसंख्यक हैं ! और यह बहुसंख्यक समाज भी चर्चाजगत का अल्पसंख्यक कोटा  तक हड़पे बैठे हैं,  हाँज्जी.. सच्ची !  उसको क्या कहते हैं.. हाँ, तो  अपलोड होते होते  भी वह  ढीठायी से हँसती है... डाक्टर,  बहाना चाहे जो भी बना लो.. पर गाहे बगाहे अपनी सुविधानुसार मेरा गला तुम लोग वैसे भी घोंटते रहते हो कि नहीं ?

न जन कैसे जी रहा है, उमस के वातावरण में
दुःस्वप्न में दिन बीतते रात बीतती जागरण में

है यदि बेशर्म आँखें, घूँघट व्यर्थ ही क्या करेगा
मानवता नग्न घूमती सौजन्यता के आवरण में

कपटयुग है घोर यह, हुये राम औ'  रावण एक हैं
लक्षमणों का ही हाथ रहता आज सीताहरण में

शब्द को पकड़ो यदि तो सहसा अर्थ फिसल छूटते
सन्धि कम विग्रह अधिक आज क्यों व्याकरण में

छल-बल के माथे मुकुट है सत्य की है माँग सूनी
क्यों कोयल गीत सीखती बैठ कौव्वों के चरण में

चिढ़ा रहे  ये तुच्छ जुगनू चाँदनी के चिर यौवन को
भगत बगुले  हैं मेंह हड़पते हँस के छद्म आवरण में

यह मुँहजोर ठहाके के साथ ऊपर से भी एक ताना कसने से बाज न आयी, " अब, अब.. इस स्थिति की जैसी पूर्णता चाहता है.. वैसी लाइनें तू ड्राइंगरूम में आराम से चाय सुड़क सुड़क कर गढ़ता रह ! या फिर, वर्ष दर वर्ष अनाचार कि नयी लाइनें स्वतः ही जुड़ती जायेंगी और तुझे बिना प्रयास ही अपनी दुर्दशा के नये तराने मिलते रहेंगे ।" पर, दो हज़ार से कम में इसे मंच से न पढ़ना

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03 February 2009

क्षमा करें डा. मान्धाता

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ब्लाग में आख़िर क्या लिखा जाना चाहिये..  पढ़ कर मेरी प्रतिक्रिया रोके ना रूक सकी ।
बड़ा अनुकूल विषय है,सो टिप्पणी के रूप में यह पोस्ट यहीं चेंप देता हूँ ।

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डा. मान्धाता जी, आपने मेरा मनोनुकूल विषय उठाया है, अतएव..
सहमत हूँ, कि हिन्दी ब्लागिंग स्तरहीनता से ग्रसित है ।
पर किसी भी घटक को स्तरहीन मानने के सभी के अपने अपने मापदंड हैं, और सभी ज़ायज़ हैं ।

हिन्दी किताबों के स्टाल पर, यदि भीष्म साहनी और कृष्णा सोबती शोभायमान हैं..
तो उनको काम्बोज, शर्मा और भी न जाने कौन कौन अँगूठा दिखाते धड़ाधड़ माल बटोर रहे हैं ।
यह अपनी अपनी रूचि है.. और व्यवसायिकता की माँग है ।

पर, डा. मान्धाता, इसे बहस का मुद्दा न बनाते हुये मैं केवल यह बताना चाहूँगा,
कि यह तथाकथित स्तरहीनता हर भाषा के ब्लागिंग में समानांतर चलती रही, फलती फूलती और फिर दम भी तोड़ती रही है ।
यहाँ भी यह स्तरहीनता आर्कुटीय हैंग-ओवर के चलते उपस्थित है ।
साथ ही, साहित्यतिक स्तर बनाये रखने को कृतसंकल्पित ब्लाग भी यहाँ उपस्थित हैं ।
सो, दोनों ही समानांतर रूप से चलने चाहियें, हम अपना स्वरचित अंतर्जाल पर देते रहें.. नाहक क्यों परेशान हों ?

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अंग्रेज़ी ब्लागिंग को मापदंड का आदर्श मानना तर्कसंगत नहीं है,
फिर तो, अपनी पहचान ही तिरोहित होने का खतरा सामने आ खड़ा होता है ।
अंतर्जाल पर हिन्दी-लेखन को बढ़ावा देने की मुहिम के पीछे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के
अपने निहित अदृश्य स्वार्थ हो सकते हैं... पर यह बाज़ार आधारित एक अलग ही मुद्दा है ।

कुछ भी लिखते वक़्त, कम से कम मैं तो यह ध्यान रखता हूँ,
कि यदि इसे आगामी 25-30 वर्षों के बाद की पीढ़ी पढ़ती है,
क्योंकि लगभग हर सर्च-इंज़न के डाटाबेस में हिन्दी का अपना स्थान होगा.. ..
तो इस सदी और दशक के हिन्दी ब्लागिंग के किशोरावस्था को किस रूप में स्वीकार करेगी ?

यदि टिप्पणी के अभाव में कुछेक ब्लाग दम तोड़ते हैं,
तो उस ब्लागर की हिन्दी के प्रति निष्ठा पर संदेह होने लगता है ।
पर, यह भी यकीन मानें कि वह आपके ऎसे किसी संदेह की परवाह भी नहीं करते ।
ट्रैफ़िक-टैन्ट्रम और टिप्पणी प्रेम पर मेरा कटाक्ष, आप लगभग मेरे हर पोस्ट में देख सकते हैं ।

हाँ, एक गड़बड़ और भी है, जब हम अनायास किसी न किसी स्थापित (?) ब्लागर को
उसकी पाठक संख्या से ही अँदाज़ कर अपना आदर्श बना बैठते हैं या जब अपने किसी समकक्ष पर नज़र डालते हैं,
और पाते हैं कि 'सस्ती वाली साबुन की बट्टी के बावज़ूद भी उसकी कमीज़ मेरे से सफ़ेद क्यों ?'
पर, यह भी तो संभव है, कि आपको सस्ता लगने वाला माल उसकी औकात से अधिक मँहगा हो !

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स्तरहीन और स्तरीय के मध्य के बीच की खाई जब पाट नहीं सकते,
तो उसमें झाँकने और उसकी गहराई आँकने से लाभ ही क्या है ?

इससे आगे

01 February 2009

ऎसी आज़ादी और कहाँ, आज़ाद ख़्याल विवेचन

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विवेक भाई आग लगा कर अगले हफ़्ते के लिये बाई कर गये । गोया, चर्चाकार न हुये ज़मालो हो गये । यह तीसरी बार है, जब मैं इन चिट्ठाचर्चा वालों के उकसावे में पोस्ट लिखने को मज़बूर हो रहा हूँ । भुस्स मे आग लगा कर बी ज़मालो दूर खड़ी ।

मेरी पिछली कई पोस्ट से तो अंदाज़ ही लिया होगा, कि ई डाक्टर धँधे में जैसा भी  ठस्स हो, लेकिन यहाँ दिमाग का निख़ालिस भुस्स डम्प करने आता है । भगवान ठस्स भेजा देता, तो ई आग लगबे काहे करती  ? सो भगवान दुश्मन के दिमाग में  भी ऎसा भूसे का ढेर भर कर न भेजे । इन  चर्चाकार ने गणतंत्र-दिवस पर पोस्ट लिखने वालों की पूरी क्लास ले ली । पाखंडम शरणम गच्छामि संस्कृति में  हम  भी  पाखंड-देव से रक्षा की भीख माँगते हुये,  बरामद हुये, ऊ हमरा बेकूफ़ी पर हँस दीये,  और का हो ?ऎसी आज़ादी और कहाँ-अमर

26 जनवरी मैं क्लिनिक कर्मचारियों की छुट्टी रखता हूँ, सो आते जाते दिन भर नेट-ब्राउज़र को हँकाता रहा । ससुरा ब्राउज़र इधर भागे उधर भागे, और.. जाकर टिक जाये गणतंत्रीय पोस्ट पर ! मैंनें भी सोचा.. चलो 26 जनवरी 2009  वन टाइम इन इंडिया इवेन्ट है, सो  गूगल वाले  भारत  का अपना  नमक- टाटा नमक अदा कर रहे हैं । लिहाज़ा ज़्यादा माइंड-उंड भी नहीं किया । कोई पोस्ट हमसे ज़बरिया कमेन्टियाने का तकादा नहीं करता रहा,सो हमहूँ कुछ कुछ टूँग टाँग के आगे बढ़ते रहे । बधाई  हो, मेरा भारत महान, जीसका हर नेता बेईमान लीखने का मन था, लीखे नहीं, ब्लगिंगिया में पदमशिरी डीक्लेयर कर दीये, तो ? 

ऊप्पर देखे हैं कि नहीं ? पहले ही बोल दिया हूँ, ई फा्स्ट-ब्लागिंग का ड्राफ़्टिया पोस्ट है.. सो बाई मिस्टेक कोई गलती हुआ हो, और दीखाए तो निचका डिब्बवा में लीख दीजीयेगा । हम भी गुरुवर का सिलो-बिलागिंग का संदेश देखे हैं, अउर ड्राफ़्टिया लीखने पर आपलोगों के ई-स्वमिया हम्मैं डाँटिस भी है, लेकिन हम तो पहले से ही बिन्दास डीक्लेअर कीये हैं, सो भाई ज़्यादा लटर-सटर नहीं जानते ! बस एतना सुन लीजीये, "हम नहीं सूधरुँगा ।"  तनि सोचिये.. हम हूँ आज़ाद भारत के आज़ाद ब्लागर,  ऊ भि हीन्दी के, जिसको कहीये कि... ईश्श !  अरे डा. अरविन्द जी, लगता है, कि हम अज़दकीय मोड में प्रवेश कर रहें हैं ? चलिये, आपके लिये ई पोस्ट पूरा होने तक सुधर जाते हैं ! जाइयेगा नहीं, पोस्ट जारी है

शिवभाई इस ब्रेक में तनी खोजीए तो,कि भासा कहाँ से ऊठा के ईहाँ पटकाया है

हाँ, तो अब ज़्यादा न लपेसते हुये  परदा उठाने देंगे ?  त,  हमलोग हूँ, आज़ाद भारत के आज़ाद ब्लागर.. बाताइये ऎसी आज़ादी और कहाँ ? बोलीए जय हिन्द !

विवेक जी,  ई सब पोस्ट पढ़ते तो अपने गान्हीं महतमा एकदमैं गुलाम अलिये गुनगुनाते,
" स्यापा है क्यों बरपाऽ..♫ आज़ादी ही तो दी है..♩♬" 
अब कोई यह लिखे तो लिखता रहे, कि ' मुल्क ही है.. तो बाँटाऽऽ..♩♬♪,रियासतें ही तो दीं हैऽऽ..♫'
पिताश्री हैं, तो गरियाने दुलराने और बरसी पर फूल-माला पहनाने का सिलसिला तो लगा रहेगा..
वह दुखित मन से सोच रहे होंगे.. कि रिज़र्व कोटा के गोली खाने का यही सिला है,
कि आज़ाद भारत के लोग अबतक यह क्यों नहीं फील कर पा रहे हैं, ऎसी आज़ादी और कहाँ ?

अब अपनी ही एक बात बताता हूँ । छोड़िये, जगह का नाम जान कर भी क्या करियेगा..
पहले का एडविन क्रास, पिछले साल तक शास्त्री चौक कहलाते कहलाते अब झलकारी चौराहा होगया है
लेकिन परसों मुलायम संदेश यात्रा वाले कह गये हैं,
सन 1958 में इस चौमुहानी से गुज़र कर लोहिया जी की मोटर ने इसे ऎतिहासिक महत्व का दर्ज़ा दिया है,
लिहाज़ा इस शहर के लिये उनकी पहली प्राथमिकता यहाँ पर उनकी मूर्ति स्थापित करने की रहेगी.. ऎसी आज़ादी और कहाँ
इले्क्शन शान्तिपूर्ण निपटने के बाद पार्टी मेनिफ़ेस्टो में तय होगा कि,
मूर्ति मोटर की लगेगी या उन मोटरारूढ़ महापुरुष की.
जो भी हो, हमारे शहर में तो होगा स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी.. ऎसी आज़ादी और कहाँ
हम भी कहते हैं, नाम में क्या रखा है ?
सो, हर क्रासिंग का नाम शेक्सपियर ग्रैंडपा को सुपुर्द कर देना चाहिये,
काहे से कि ऎसी आज़ादी और कहाँ

यार, तुम अटकते बहुत हो, आगे बढ़ो.. हाँ, बस आने ही वाला है..
इस व्यस्त चौराहे पर जहाँ गुंज़ाइश मिला दिवार पर पोत-पात कर रख दिया है,
बड़ा बड़ा लिखा है, महबूबा को मुट्ठी में कैसे करें.. मिलें या लिखें.
इसके ऎवज़ में मालिक-दीवार ख़ान लखीमपुर खीरवी साहब ने पेंटर से सेंत-मेंत में यह भी लिखवा लिया,
यहाँ पेशाब करना सख़्त मना है, पकड़े जाने पर 50 रूपये ज़ुर्माना
मेरा हाथ ऎटौमेटिक पैंन्ट की ज़िप पर चला जाता है, बताइये ऎसी आज़ादी और कहाँ
हल्के होकर सोचता हूँ, कि नीम का पेड़ तो दिख नहीं रहा,
किस भले मानुष से उन्नाव वाले नूर अहमद " गारंटीड कामाख्या तांत्रिक "  का ठियाँ पूछूँ
हम खुद ही पंडिताइन की चँगुल से आज़ाद कैसे हों.. वाले को तलाश रहे हैं
लगे हाथ अपनी उनसे भी आज़ाद हो लें.. फिर तो मौज़ा ही मौज़ा, क्योंकि ऎसी आज़ादी और कहाँ

बड़ी भीड़ है, आज, क्यों ? अच्छा अच्छा.. बगल के पटेल मार्ग पर पब्लिक ने जाम लगा रखा है,
हाथ कंगन को आरसी क्या.. लीजिये आप ही देखिये.. ऎसी आज़ादी और कहाँ
अब हमारे पास कोई चारा नहीं, घुसेड़ दो कार नो-पार्किंग में,
ऎई लड़के ! कोई पूछे तो बता देना हाथीपार्क वाले डाक्टर साहब की गाड़ी है..
सब स्साला तो मिसमैनेज़्ड है, पर पोस्ट लिखेंगे.. ऎसी आज़ादी और कहाँ
पढ़े लिखे होकर भी, नो पार्किंग में ज़बरिया पार्किंग ?
ऒऎ छ्ड्डयार, यह तो आज़ादी एन्ज़्वाय करने एक छोटा सा आप्शन है, ऎसी आज़ादी और कहाँ
मैं कोई गलत काम जानबूझ कर थोड़ेई करता हूँ, जी !
मेरी मज़बूरी समझिये,  आज सैटरडे है, एक हफ़्ते के लिये टल जायेगा ।

उधर अपने षड़यंत्र की अगली कड़ी भी देनी है, कल भी छूट गई थी
यह न हो कि, शहीद आकर पकड़ लें कि, हम तो बेट्टा तेरे लिये चने खा कर तख़्ते पर टँग लिये थे,
और तू मुझे छोड़ कर यहाँ नो-पार्किंग में विलाप करता फिर रहा है..और क्या चाहिये तुझे, ऎसी आज़ादी और कहाँ
फिर तो मेरी घिघ्घी बँध जायेगी, इतना भी न कह पाऊँगा..कि,
हम अपने ही घर में आज़ाद नहीं हैं, सर 
आज सैटरडे है सर, एक हफ़्ते के लिये टल जायेगा, सर.. प्लीज़ मेरी मज़बूरी समझिये सर,
सो, नूर अहमक " गारंटीड कामाख्या तांत्रिक " को पकड़ना भी ज़रूरी है न, सर

ऒऎ कोई नीं, जितने टैम तक चाहे, जो पकड़ना है.. जिसको पकड़ना है..
जा छॆत्ती पकड़ लै.. पण छड्डणा नीं, जा अपनी पूरी आज़ादी ले लै !
जबसे मेरे कान में यह पड़ा है,  कि
" डैडी सीरियस हो रहे हैं.. भईया ज़ल्दी से एक डाक्टर पकड़ लाओ "
आई रियली लव दिस पकड़ लाओ
हे हे हे, बैठे बैठे फ़ालतू टाइमखोटी करते रहते हो...बेशरम कहीं के !
कौन है ? यह पंडिताइन हैं जी, दूजा न कोई, हे हे हे !

इससे आगे
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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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