
आखिर यह क्या बात हुई ?
जिन सज्जनों को यहाँ खेमेबंदी की बू आरही हो, वह कृपया यहाँ से हट जायें 
आज तिरंगे को देख बैठे-बिठाये एक तरंग उठी, आखिरकार इस भारतदेश को आज़ादी कैसे मिली ? बड़ी अज़ीब तरह की बात है, अरे कौन नहीं जानता उस गाँधी महा-हुतात्मा को ?
तो लीजिये हम ही पहल करते हैं और यह प्रसंग ही बदले देते हैं । जूते पड़ेंगे मुझे यह तो पक्का है लेकिन सभी महान चिंतकों को आरंभ में अपमान का घूँट पीना ही पड़ा था , किसी को ज़हर का प्याला तो किसी को शूली नसीब हुई थी । किंतु मुझ सरीखे सत्यान्वेषी को, जिसकी गिनती ' दो कौड़ी के ब्लागीरों ' में भी न होती हो, अनायास ही ' यूरेका ' के दर्शन हो जायें तो आप इस सत्य को प्रकाशित करने से मुझे रोक नहीं सकते ! गनीमत मानें कि बंदा सड़कों पर ' यूरेका-यूरेका ' चिंघाड़ता हुआ नंगा नहीं दौड़ता दिख रहा है।
तो शिरिमान, मेरा यूरेका है कि अपने भारतदेश को आजादी एक अनाम रेलवई वाले ने दिलायी थी । अब यह आपके और आने वाली पीढ़ीयों के जिम्मे है कि उस गुमनाम रेलवेकर्मी को इतिहास के अंधेरों से खींच वर्तमान के उजाले में लायें । यह कोई बकवास नहीं, कद्रदान !
जरा गौर करें, यदि साउथ अफ़्रिका का वह रेलवे कंडक्टर कुछ ले-लिवा के मोहनदास करमचंद को उसी अपर क्लास डिब्बे में बना रहने देता, जिसमें वह मय टिकट विराजमान थे, तो भारत की आज़ादी के कहानी का वहीं ' दि एंड ' हो गया होता । बार-एट ला मोहनदास जी की वकालत और भारतदेश की ग़ुलामी दोनों ही अपनी अपनी जगह पर फल-फूल रही होती ।
वजह जो भी रही हो, अपनी ड्यूटी के प्रति निष्ठा या काली चमड़ी से घृणा, उसने करमचंद को धकिया कर डिब्बे से बाहर धकेल दिया, यदि कुछ इतिहासकारों की मानें तो ' फेंक दिया ' का भी उल्लेख हुआ है । हालाँकि उस दिन ड्यूटी पर वह अपनी बीबी से झगड़ कर याकि पिट कर आया था इसका प्रमाण मिलना शेष है किंतु यह तो सिद्ध है कि उसने वकील साहब के डिग्री की परवाह किये बिना उनको उस डिब्बे से नीचे प्लेटफार्म पर फेंक दिया था । शायद उस सिरफिरे अंग्रेज़ को यह भी नागवार गुज़रा हो कि ' इस वकील का कोट मेरे रेलवे के कोट से ज़्यादा काला क्यों ? ' और इस स्याह-सफ़ेद के चक्कर में मिस्टर गाँधी प्लेट्फार्म पर औंधे पड़े देखे गये । अफ़सोस तब सबसे तेज़ चैनल नहीं हुआ करता था वरना वार्णनिक रेखाचित्र से संतोष न करना पड़ता ।
जो भी हो, पैन्ट झाड़ते हुए उस काले के दिल में क्या चल रहा था, उपस्थित तमाशबीन भाँप नहीं पाये, और उल्टे हँस पड़े । ' इस अपमान का बदला लेकर ही दम लूँगा ', अवश्य ही यह उनका तात्कालिक संकल्प रहा होगा । कालान्तर में उनका संभ्रमित हठी सोच सिद्धान्त का जामा पहन वापस भारतदेश की ओर चल पड़ा !
आगे तो आपसब जानते ही हैं । लेकिन मुझसे लाख असहमत होते हुये भी आप एक बात ईमानदारी से बतायें, पहला श्रेय किसका है, आग प्रज्ज्वलित करने वाले का, या उस आग में घी डाल अलख जगाने वाले का ? मैं तो कृतज्ञ हूँ, उस अज्ञात रेलवई वाले का ।

आज तिरंगे को देख बैठे-बिठाये एक तरंग उठी, आखिरकार इस भारतदेश को आज़ादी कैसे मिली ? बड़ी अज़ीब तरह की बात है, अरे कौन नहीं जानता उस गाँधी महा-हुतात्मा को ?
तो लीजिये हम ही पहल करते हैं और यह प्रसंग ही बदले देते हैं । जूते पड़ेंगे मुझे यह तो पक्का है लेकिन सभी महान चिंतकों को आरंभ में अपमान का घूँट पीना ही पड़ा था , किसी को ज़हर का प्याला तो किसी को शूली नसीब हुई थी । किंतु मुझ सरीखे सत्यान्वेषी को, जिसकी गिनती ' दो कौड़ी के ब्लागीरों ' में भी न होती हो, अनायास ही ' यूरेका ' के दर्शन हो जायें तो आप इस सत्य को प्रकाशित करने से मुझे रोक नहीं सकते ! गनीमत मानें कि बंदा सड़कों पर ' यूरेका-यूरेका ' चिंघाड़ता हुआ नंगा नहीं दौड़ता दिख रहा है।
तो शिरिमान, मेरा यूरेका है कि अपने भारतदेश को आजादी एक अनाम रेलवई वाले ने दिलायी थी । अब यह आपके और आने वाली पीढ़ीयों के जिम्मे है कि उस गुमनाम रेलवेकर्मी को इतिहास के अंधेरों से खींच वर्तमान के उजाले में लायें । यह कोई बकवास नहीं, कद्रदान !
जरा गौर करें, यदि साउथ अफ़्रिका का वह रेलवे कंडक्टर कुछ ले-लिवा के मोहनदास करमचंद को उसी अपर क्लास डिब्बे में बना रहने देता, जिसमें वह मय टिकट विराजमान थे, तो भारत की आज़ादी के कहानी का वहीं ' दि एंड ' हो गया होता । बार-एट ला मोहनदास जी की वकालत और भारतदेश की ग़ुलामी दोनों ही अपनी अपनी जगह पर फल-फूल रही होती ।

वजह जो भी रही हो, अपनी ड्यूटी के प्रति निष्ठा या काली चमड़ी से घृणा, उसने करमचंद को धकिया कर डिब्बे से बाहर धकेल दिया, यदि कुछ इतिहासकारों की मानें तो ' फेंक दिया ' का भी उल्लेख हुआ है । हालाँकि उस दिन ड्यूटी पर वह अपनी बीबी से झगड़ कर याकि पिट कर आया था इसका प्रमाण मिलना शेष है किंतु यह तो सिद्ध है कि उसने वकील साहब के डिग्री की परवाह किये बिना उनको उस डिब्बे से नीचे प्लेटफार्म पर फेंक दिया था । शायद उस सिरफिरे अंग्रेज़ को यह भी नागवार गुज़रा हो कि ' इस वकील का कोट मेरे रेलवे के कोट से ज़्यादा काला क्यों ? ' और इस स्याह-सफ़ेद के चक्कर में मिस्टर गाँधी प्लेट्फार्म पर औंधे पड़े देखे गये । अफ़सोस तब सबसे तेज़ चैनल नहीं हुआ करता था वरना वार्णनिक रेखाचित्र से संतोष न करना पड़ता ।
जो भी हो, पैन्ट झाड़ते हुए उस काले के दिल में क्या चल रहा था, उपस्थित तमाशबीन भाँप नहीं पाये, और उल्टे हँस पड़े । ' इस अपमान का बदला लेकर ही दम लूँगा ', अवश्य ही यह उनका तात्कालिक संकल्प रहा होगा । कालान्तर में उनका संभ्रमित हठी सोच सिद्धान्त का जामा पहन वापस भारतदेश की ओर चल पड़ा !
आगे तो आपसब जानते ही हैं । लेकिन मुझसे लाख असहमत होते हुये भी आप एक बात ईमानदारी से बतायें, पहला श्रेय किसका है, आग प्रज्ज्वलित करने वाले का, या उस आग में घी डाल अलख जगाने वाले का ? मैं तो कृतज्ञ हूँ, उस अज्ञात रेलवई वाले का ।
मन में एक संतोष और भी है कि महात्मा आज़ मेरे बीच नहीं हैं, वरना वह देखते कि उनके ' पीर परायी जाने रे ' का कैसा वीभत्स रूपांतरण यहां चल रहा है !












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3 टिप्पणी:
अब ट्यूबलाइट जली कि गांधी साउथ अफ़्रीका जा कर गांधी कैसे बने। या आज कोई गांधी क्यों नहीं बन सकता। यहां तो टीटीई से वैसा वर्ताव नहीं मिलता। :-)
नहीं सहेजता, पी जाता अपमान का घूंट।
तो गांधी न होता महात्मा।
आजाद फिर भी होता भारत, ज्यादा मशक्कत होती, तो मसल्स भी मजबूत होतीं।
बड़े दिनों बाद लिखा आप ने! लगता है आप की समस्या सुलझ गई.. बढ़िया है!
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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