‘स्कन्दमाता श्रीमती शिवेसर्वार्थसाधिके आज प्रातः से ही अनमनी सी थीं । कई बार शिवशंकर भोलेनाथ भूतभावन ने प्रश्नवाचक दृष्टि डाली, नज़रें बचा गयीं ! गणेश तो सुबह से ही सजने बजने में भागदौड़ मचाये हैं । कल अम्मा के साथ मृत्यलोक की तीन दिन की पिकनिक पर जाना है, कार्तिकेय को तो कोई चिन्ता ही नहीं है । रिद्धि- सिद्धि गणपति से उदासीन हो गयीं हैं, अब इनके सूँड़ कौन लगे.. अभी अभी विदायी लेकर आये हैं, चिल्ला चिल्ला कर प्राणियों ने कहा अगले बरस तू जल्दी आ, फिर भी ये है कि.. ऊँह कौन समझाये ? विनायक माज़रा भाँप ही तो गये, सफाई पेश की "अरे भागवानों, तब मैं जम्बूद्वीपे भारतखंडे कहाँ गया था ? वह तो दुष्ट ठाकरे का आमची महाराष्ट्र था, पगलियों ! पिताश्री के सेना के सेनानी हैं, सो संकोचवश चला जाता हूँ । पिताश्री के सखा निर्वासित अयोध्यानरेश राम की गुहार पर अम्मा ने साथ चलने को कहा, तभी तो जाता हूँ वरना मिलावटी मोदक का मुझे कोई लोभ नहीं । भला बताओ 25-30 हाथ की प्रतिमाओं के सम्मुख स्वयं कितना अपमान लगता होगा ?
उधर दुष्टदमिनी अपने शस्त्र वगैरह बेमन से चमका रहीं थीं ! व्यस्त सी दिखने को , वह भूतभावन ब्रह्मवेदस्वरूपं के सामने इधर से उधर को डोल रहीं थीं । गिरिजापति से दृष्टि-विनिमय होते ही, अनायास ठुनक पड़ीं, " मन नहीं कर रहा जाने का, फिर भी जाऊँ क्या तुम क्या कहते हो ?" महादेव ठठा कर हँस पड़े, " क्यों अनमनी हो रही हो, त्रिपुरसुंदरी ? जाओ अपने क्षेत्र का एक बार तो दौड़ा कर ही आओ, इतना तो मान रखो ।" अरे बाप रे, करुणामयी तो एकदम से बिफ़र पड़ीं, " ऎ महाराज, यह आशुतोषवृत्ति अपने ही तक सीमित रखो । देखो, देवों के बीच ही तुम्हारी चतुराई शोभा देती होगी, जो तुमसे घड़ी घड़ी समर्थन माँगा करते हैं ! मैं अर्धांगिनी तुम्हारी, क्या पूछ सकती हूँ कि संहार के अधिष्ठाता तुम हो, और तुम ही नहीं जानते कि वहाँ संहार ही नहीं नरसंहार चल रहा है, और मैं वहाँ अपने को पुजवाने जाऊँ ? " भँग की तरंग में शिवदूती अरूपा ने जैसे कंकड़ फेंक दिया हो, किंचित तिलमिलाये फिर सहसा ही संभल कर ईश्वरोचित गरिमा से बोले, " जा भक्तों का मन रख ले, थोड़ा पूजपाज लेंगे तो तेरा क्या ? उन आर्तजनों में किंचित साहस व सांत्वना की लौ जलाती आना ।" घृणा से नारायणी एकदम काली पड़ गयीं, बोलीं " स्वामी मेरे पास आपके जैसा हलाहल रोक लेने वाला नीलकंठ नहीं है, सो जो देखती हूँ वह पीना ही पड़ता है । मुझे स्वयं ही आग्नेयास्त्रों की सुरक्षा में प्रवास करना पड़ता है । माटी बाँस का एक महिषासुर मेरे चरणों में डाल कर, सहस्त्रों महिष अपने मनोकामना फलप्राप्ति निमित्त हाथ जोड़ कर वंदना करने लगते हैं । माँ माँ.. चहुँओर माँ माँ .. का ऎसा कोहराम मचाते हैं, कि अपनी सदार्तर्चित्ता की छवि बचाना कठिन हो जाता है ।
" क्या करें, यह आदिशक्ति नामी आदिमाता ? जब सभी कपूत हो जायें, तो कोई माँ उनका क्या भला कर लेगी ? यह मूढ़ तो बस ' कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि ' गा गा कर दुर्गा-सप्तशती का ऎसा पाठ सुनाते हैं, कि खिन्नता व्यापने लगती है ।" दुर्गतिशमनी का भुनभुनाना जारी था, कल षष्टी है ! त्रयंबकम की तरंग तो तिरोहित हो चुकी थी, सो मौज़ लेने लगे, स्वांग करते हुये उवाचे, " रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि " ... थमक गये ।
" क्या इतने मात्र से, तुम यह सब प्रदान कर देती हो.. विजय भी कहीं भीख में मिलती है ? देहि देहि की रट लगवाये जाओ, भला न होगा कभी .. स्वयमेव मृगेन्द्रा ! विजयश्री तो पराक्रमी का वरण करेगी या आसन पर पलथा लगाये ' रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि द्विषो जहि' का ? सहसा क्रुद्ध हो गये, " कब तक इस भिक्षुक मनोवृत्ति का वरण कर अपने जम्बूद्वीपे भारतखंडे को अकर्मण्य बनाये रहोगी ? पाताललोक वासी मलेच्छपति से भी माँगने पहुँच गये, ये लोग ।" भोलेनाथ थरथर काँपने लगे... हाय बप्पा, ई औघड़नाथ आजु तांडवै देखाय दिहें का ? मेरी सरक गयी !
मैं स्वयं ही जैसे भँग की तरंग में आ गया । इतने वर्षों से पाठ वगैरह करता आया, वह सब लग रहा कि उड़न छू .... ? आस्था में तर्क को स्थान न मिलता हो, किन्तु इस तर्क में तो आस्था ही आस्था है । मनमोदक खाते रहना छोड़ कर बुद्धिबल व बाहुबल पर भरोसा क्यों न रहा ?
जकारो जन्मविच्छेदः पकार पापनाशकः
जन्मपापहरो यस्मात जप इत्यभिधीयते
यह तो हुई जप की महत्ता ! चंड-मुंड मारे गये, शुंभ-निशुंभ भी खेत रहे, रक्तबीज का अंत हुआ और महिषासुर का वध हुआ । 700 श्लोकों में समेटी गयी इस कथा का सार वही अनादि सत्य है, कि बुराई का अंत व अच्छाई की विजय ... यही ना, सहमत ? तो फिर मित्र जरा यह तो बताओ कि इनको हज़ार बार, लाख बार एक जगह बैठ कर जपते रहने से समाज का, और आपके स्वयं का क्या भला होगा ? यस्स, इनमें निहित बीजमंत्रों की उपादेयता से इन्कार नहीं किया जा सकता, बशर्ते हम यह बघारना छोड़ दें कि असली वाले मंत्र तो ज़र्मनी चले गये व एक भारतीय राज भाटिया की देखरेख में हैं, इसीलिये इन बचखुच लाइना में अब दम न रहा । जन्म लेना क्या इतना बड़ा पाप है, कि हम इससे उबरने की कोशिश में पूरा जीवन ही होम कर दें । उस पर भी यह विलासिता कि नारीस्वरूप को पूज्या बनाने में इतनी रसिकता का आश्रय लिया गया है, कि आश्चर्य होता है कि ऋषिगण ने नारीदेह सौष्ठव को कितना नज़र गड़ा कर, बारीकी से देखा होगा । मैं कहीं बहक रहा हूँ क्या ? बता देना भाई, समेट लूँगा ! अच्छा, चलो जल्दी से निपटा ही दिया जाय... वैसे ही फ़र्ज़ी तौर पर, या कि सोदाहरण ? सोच लो, इसमें संस्कृत है ।
पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम । तारिणीं दुर्गसंसारसागर्स्य कुलोद्भवाम । जपत तो एहिका हो, अउर करत का हौ ? आपै देखि लेयो हम न बोलब ! ततो वव्रे नृपः राज्यमिति मंत्रस्य जपे स्वराज-लाभः । गाँधी एहिका पढ़बे नहिं भे, लाठी-डंडा खा लिहिन, जेलु गये सेंत में ! एहिकै जपि लेत, छुट्टी हुई जात अंग्रेज़न की ! बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्यै महोत्सवे । सर्वं ममैतच्चरित मुच्चार्यं श्राव्यमेव ॥ अब आप ही बताओ भाय, कि सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता बकरा-भैंसा से काहे बैर ठाने हैं ? वह तो शायद पशुत्व की बलि माँग रहीं, अउर ई मनई काटि रहे बकरा ! बकरे का पशुत्व भी इतना निरीह कि गाँधी जी प्रायश्चित में एहिका दूध पियत पियत मर गये ! कामदा कामिनी कामा कांता कामांगदायनी । अब एहिका देखि लेयो, साफ़ै साफ़ बतावत हैं कि देवी का अंश नवयौवनाओं में ही है, तबहिन हम सोचित रहा कि कुमारीतंत्र तो है, किंतु वृद्धातंत्र कब्बौ नहिं सुना भवा है ! सही है, भाय सही है... चढ़ी- चढ़ै का सबहिन पूजत है । तबै ई नकलची ललमुँहें भी तो मरियम गढ़ि लिहिन रहा । हमरे ईहाँ तो हद खतम कर दिहिन, भाय । एहिका देखो.. नव तरूणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा । शवहृदि पृथुतुंगस्तन्ययुग्मा मनोज्ञा ॥ अरूणकमल्संस्था रक्तपद्मासनस्था । शिशुरविसमवस्त्रा सिद्ध कामेश्वरी सा ॥ एहिका मतलब माता बहिनन का सोचि कै नाहिं बतावा चाहित है, यहि से मन नाहिं भरा तो.. स्तनौ रक्षेत महादेवी मनःशोक विनाशिनी । नाभौ च कामिनी रक्षेत गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ॥ रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा । शुक्रं भगवती रक्षेत जानुनी विंध्यवासिनी ॥ गिनवा गिनवा कर अंग प्रत्यंग की रक्षा का भार देवी के मत्थे दे दिया, यहाँ तक कि शुक्र भी ! आख़िर तो हम उन्हीं की वंशज ठहरे, ना ? अब डोलते रहिये, इधर-उधर... क्योंकि इधर पहले ही बहुत कुछ सुपुर्द किया जा चुका है ! शूलिनी वज्रिणी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा । शंखिनी चापिनी वाणा भुशुंडी परिघायुधा ॥ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चांबिके । घंटास्वनेन नः पाहि चापज्यानिखनेन च ॥ मतलब साफ़ है, कि एक भी आयुध अपने लिये नहीं रखा.. तौन अब देखि लेयो कि देश देश घूम रहें हैं, हथियार के जुगाड़ में ! तब हमरे मनई इंद्र-वरूण इत्यादि से सहायता माँगा करते थे, अब अमेरिका रूस चीन से ! फ़र्क़ इतना ही है, बस !
तो अब चला जाय, कि अबहिन कछु और खला जाय ?
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेणसंस्थिता
नमःतस्यै नमःतस्यै नमःतस्यै नमो नमः
9 टिप्पणी:
भई एक शिकायत है कि आप का ये ब्लॉग कुछ ढंग का नहीं लग रहा है मुझे, एक तो ईतना क्रिम-पौडर चुपड दिये हो कि लोड होने मे ही काफी समय लग जाता है, पूरा पोज screen से दायें बांये भागता है.....वेब का एक नियम है कि vertical scrolling को जहां तक हो सके वरीयता दें, Horizontal Scrolling से User का ध्यान भटकता है, सो हो सके तो पेज को पुन: नियंत्रित करते हुए Vertical Scrolling पर तवज्जो दें, उपर से एक वरिष्ठ व्यक्ति को बैकग्राउंड मे बैठा दिये जो कि खुद चलने मे असमर्थ लग रहा है :) शायद यही सब कारण है जो पेज लोड होने मे ज्यादा समय लगता है :D ब्लॉग को खूबसूरत बनाना अच्छा लगता है लेकिन ऐसा भी क्या खूबसूरत बनना कि तैयार होने मे घंटो लग जाय :) लगता है गढते गढते एकदम से गढ डाले हो .......बुरा मत मानियेगा पर आपके ब्लॉग को जरा और User Freindly बनायें तो और अच्छा लगेगा।
शुभकामनाओं के साथ - सतीश पंचम
डॉक्टर अमर कुमारीय विशुद्ध पोस्ट...गज़ब!! एक बार और आकर पढ़ेंगे यहाँ के हिसाब से सुबह...अभी रात हो रही है जब आपके यहाँ सुबह होने को है.
बहुत आभार!!
ऐसा आलेख महिने में एक भी चलेगा। आप ने अनेक निबंध लेखक याद दिला दिए। लोगों ने देवताओं को अपना साध्य बना लिया है।
पर आप का मंदिर पूरा तिलिस्म लगता है उस के लिए पंचम जी की बात से सहमत हूँ।
sir once u encourge me then did nt turn up to my blog
makrand-bhagwat.blogspot.com
waitng for u r suggesation sir u are who comment on my frist blog
makrand
हा हा... ठी ठी...करने वाला ब्लाग और गागर में सागर चिंतन ! बधाई ....
सतीश पंचम जी horizontal scrolling की राय से मैं भी सहमत हूँ ...बाकि क्रीम पावडर ...अगर हटा दिया तो आपके ब्लाग का मूल चरित्र ही बिगड़ जाएगा ...
आप से बहुतों को प्रेरणा मिलती है, सो हमें तो झेलना ही है भोले आप कैसे भी रहो ...
satish jee ki anusansa karti hun ..sach me kafi wqt lagata hai khulne me.thik kar dijiye..aur aapke andaj ki baat kya kahen ..kuchh to hai ki jo sirf aapke pas hai.
इत्ते श्लोक! एकदम संस्कृत पाठशाला खुल गयी। अर्थ बताते चलें वर्ना अनर्थ हो सकता है। कोई कुछ क कुछ समझ लेगा!
वाह सर जी.. बहुत बढिया लिखा है आपने..
और एक बात.. अब आपका चिट्ठा पढने में दिमाग पर जोड़ नहीं डालना पर रहा है..
धन्यवाद..
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धन्यवाद मित्रों,
द्विवेदी जी विशेषरूप से आपका और पंचम भाई का...
ऎसे 'आँगन कुटी छवाय 'श्रेणी के मित्र बड़े हितकारी होते हैं । मैंने सुधार का प्रय्त्न किया है, कैसा है, सफल हो सका या नहीं ?
कृपया जानकारी अवश्य ही दें !
पुनः आभार, आप सबका !
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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