आज शनिवार है, मेरे साप्ताहिक अवकाश का दिन ! मेरी छुट्टियाँ मुझे कोई उलाहना नहीं देतीं, क्योंकि मैं चालाक हो गया हूँ । छुट्टियों के दस्तक देने से पहले ही उनकी सारी माँग पूरी कर देता हूँ । ख़ुदा का इनायत किया हुआ, यह दिन मैं पूरी तौर पर अपने नाम बुक किये रहता हूँ । आह्हः जीवन में यदि कोई सुख नसीब होता है, तो बस इसी एक दिन ! आनन्दम आनन्द
नींद से जाग कर, बिस्तर में पड़े पड़े बाहर की दुनिया से छन कर आती हुई आवाज़ों की टोह लेते हुये, ठंडी होती हुई चाय को देखते हुये, पंडिताइन का चिल्लाना इस कान से उस कान को निकालने का सुख ! आह्हः अनिर्वचनीय होता है, यह सब कुछ ! जाड़ों की सुबह रज़ाई में दुबके हों तो क्या कहना, इसमें यदा कदा व्यवधान डालती हुई छोटी ( अपनी काकर स्पेनियल पेट बिच ) को भी समेट कर उसके गुलगुले एहसास को सहलाते हुये, व उसको भी छुट्टियों के पल का दोहन करने की साज़िश में हिस्सा देने का सुख, भला अपने इन्द्र महाराज तो सोच ही नहीं सकते । वह बेचारे तो अपना डोलता हुआ सिंहासन संभालने को युगों युगों से जैसे अभिशप्त हैं । आज भी कुछ ऎसे ही क्षण जी रहा था कि,यह तपस्या भंग करने को मेरी बची खुची मेनका का स्थूल अवशेष फिर अवतरित हुआ और इसमें व्यवधान तो नहीं कहूँगा, बल्कि भूचाल कहना अधिक उचित लग रहा है… सो भूचाल आता है, कमरे की घड़ियों को सीधा करके, मेरी बेशर्मियों पर लानतें भेजने का सिलसिला शुरु होता है, तब जाकर मेरा भूमि अवरोहण हो पाता है । पीछे से चिल्लाती बीबी,आगे आगे सिर खुजलाते हम,आनन्दम आनन्दम !
तत्काल ही इन्टरनेट से राम जुहार करने की मौज़ और ज़बरन धकेल तक नहाने भेजे जाने तक बेशर्मी का दूसरा चरण आरंभ होता है । आह्हः, ढीठ व बेशर्म बने रह कर निकम्मे व फ़ालतू करार दिये जाने का सुख भला किस पुण्यात्मा को नसीब होता होगा ? इन्टरनेट जिसको आपलोग अंतर्जाल भी कहते हैं, हाँ सबसे पहले इस अंतरनेट पर प्रशांत की पोस्ट के दर्शन हुये, पढ़ा
वहाँ पुछरू को पाकर मेरे भीतर का मरा हुआ टुन्नु भी जैसे किलकने लगा, जिदियाने लगा, हम भी.. हम भी.. डाक्टर अमर हम भी ! मैं टुन्नु बन कर आपको लिखना पढ़ना सिखाता रहा, सो आप तो डाक्टर बन गये हैं, अब हमको भी डालिये न अपने इस अंतर्जाल पर ! मैंने उसको टरकाया,” रुक पहले इस पोस्ट पर टिप्पणी तो कर लेने दे, तू तो जानता है कि अगर मैं पोस्ट पढूँगा तो टिप्पणी ज़रूर दूँगा, सो ठहर जरा !” पीछे से पंडिताइन झाँकने लगीं, एक स्त्रियोचित स्वभाववश ही..
पर आज प्रयोजन कुछ और ही था, मेरी कल की पोस्ट पर कितनी टिप्पणी आयी, यह जानने को उत्सुक रही होंगी । मुझसे कहीं अधिक उनको कमेन्ट्स की चिन्ता रहती है । मुझको भी बुरा नहीं लगता, यह तो स्वाभाविक है । एक नारी को 14 वर्ष की आयु से ही जो कमेन्ट मिलने का सिलसिला शुरु होता है, वह अपने रखरखाव के हिसाब से 40-45 की आयु तक जारी रहता है । यह इतना स्वाभाविक है, कि कभी कभी कमेन्ट न मिलने पर या कमेन्ट में गिरावट आने पर अवसाद ग्रसित भी हो जाया करती हैं । मैं बुरा नहीं मानता ‘ अपनी अपनी बीबी पर सबको गुरूर है ‘, कमेन्ट तो भाई चाहिये ही, एक आवश्यक टानिक.. शब्दों में न सही तो नज़रों से ही सही ! वह भी नहीं, तो ’मैं कैसी लग रही हूँ’ का सवाल दाग कर ही कबूलवा लेती हैं । इसका ज़वाब देने में बेईमानी करने का भी मैं बुरा नहीं मानता, और शायद स्वयं औरत भी इसको स्वीकार करती होगी !
ओफ़्फ़ोह, फिर बहक रहा हूँ क्या ? कोई वांदा नहीं, ब्लागिंग ही तो है, अपुन कौन सा यहाँ हिस्ट्री बनाने बइठा है ? फिर भी..
सो, उनकी ताका-झाँकी में, मैं टिप्पणी पढ़ता हुआ नहीं, बल्कि टिप्पणी करता हुआ रंगे हाथ पकड़ा गया । एक नाज़ायज़ से असंतोष से बोलीं, “ यह तुम टिप्पणी कर रहे हो कि कोई कविता लिख रहे हो ? अरे जैसे सब दो लाइन में निपटाते हैं, तुम भी निपट लो, तुम्हारे ताम-झाम में अगर यह सब इतना ज़रूरी है तो ? बताना भाई, पोस्टिया आपके औकात से लंबी तो नहीं हो रही है ? वरना आगे केवल 6 कैरेक्टर से क्रमशः लिख कर सरक लूँ…. आपको भी अभी बहुत सारों को निपटाना होगा !
खैर.. मैनें कहा, भली मानस यह तुमको कविता दिख रही है ? गद्य का फ़ारमेटिंग ही तो किया है, लगता है कि लखनऊ विश्वविद्यालय ने कोदों लेकर एम.ए. हिन्दी तो नहीं दे दिया ? विवेकी मापदंड से वह एक भदेश किन्तु आत्मीय सा लगने वाला संबोधन की दुहाई देती हैं, यह कविता के तौर पर घुसेड़ा जा सकता है । अब तुम यहाँ किस किसकी तक़लीफ़ देखते फिरोगे ?
नहीं जानता कि वर्तमान ब्लागर संहिता के आचार्य इसको किस रूप में लेंगे , किसी को दी हुई टिप्पणी अपनी पोस्ट पर प्रकाशित की जा सकती है, या नहीं ? कृपया आगे आकर निराकरण करें ..
आह पुछरू
आहः पुछरू, निमिष मात्र में
तुमने मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया,
सीतामढ़ी के आगे का स्टेशन रीगा,
उसके बगल ही में सुगर फ़ैक्टरी,
आहः पुछरू,जीते रहो
ठीक उसके पीछे एक गाँव उफ़रौलिया,
जिसकी पगडंडियों पर ऊँगली पकड़ कर चलते हुये,
अपने बाबा से मिलती संस्कार शिक्षा...
सबकुछ अब जैसे बिखरा हुआ है, वहाँ
आहः पुछरू,जीते रहो
आधा गाँव तो कलकत्ता कमाने जा पहुँचा
बाकी को पटना मुज़फ़्फ़रपुर राँची ने निगल लिया
बचे फ़ुटकर जन जो छिटपुट शहरों में हैं,
एक नाम उफ़रौलिया को जीते हुये ...
आहः पुछरू,जीते रहो
कसमसाते हुये, लाल टोपी को कोसते हुये
उफ़रौलिया की गलियों में विचर रहें हैं
उम्र की इस ठहरी दहलीज़ पर
उस माटी में लोटते हुये
आहः पुछरू,जीते रहो
पर मैं भी कितना स्वार्थी हूँ कि
यह सब याद करते करते जाने कहाँ खो गया
और तुम्हारे पोस्ट की गदहिया पर
कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी ..
आहः पुछरू,जीते रहो !
10 टिप्पणी:
चलिए आपने टुन्नू के साथ न्याय तो किया ..
sir aap to ca gaye
week end accha mann raa hey
jai ho
regards
सुधी पाठक की पढ़कर की गई टिप्पणी हमेशा कविता ही होती है। उस को संवार देने से दिखाई भी देने लगती है।
आप टुन्नू से बहुत आगे निकल गये है .....इस बार देखिये फोटुवा ,गंभीर चिंतन ओर साथ साथ कविता ठेल दी ...गुरुआइन को कितना गर्व हुआ होगा ...अक्षर भी साफ़ साफ़ चमक रहे है ....इस बार कोई रंग बिरंगे कलर नही....ओर टेम्पलेट्स ऐसा है की हम भी ललचा गये है की ..हाय कहाँ से निकाल कर लाये ?
अब थोड़ा सीरियस ........
मुझे अभी भी लगता है की ब्लॉग जगत में जितने भी व्यंग्य विधा में लिखते है ...उनमे आप का स्थान काफ़ी ऊँचा है ..शायद आपको अंडररेट किया गया है ... ..हर बार इस भाषा को देख दंग रह जाता हूँ....प्रणाम गुरुदेव
क्या बात है टुन्नु मियां के गुरु बन गये आप तो, वेसे गुरु तो हम ने भी आप को बना रखा है, चलिये अब नहा ले नही तो पंडिताईन गुस्सा ना करे.
धन्यवाद
@ makarand
ऎ मिस्टर मकरंद साहब जरा होश में रहा करिये !
आज सर कह रहे हैं, कल को पैर कहेंगे.. और परसों पैर की जूती !
ना भाई ना, यह तो बकौल आपके...कि sir aap to ca gaye, सो छाने का गुरूर दिखलाना लाज़िमी है ... पर एक शिकायत के साथ कि,
अमाँ बुज़ुर्गियत की याद मत दिलाया करिये ।
ब्लागर पर यदा कदा अपने कटे हुये सींग की तलाश में ही तो आ्ते हैं माबदौलत,
और यहाँ भी सरसराते लोगों को पाकर सुरसुरी होने लगती है, ज़नाब ।
मैं कभी से भी हिट, ट्रैफ़िक या छा जाने की मंशा लेकर आया ही नहीं !
बाई द वे, आपका धन्यवाद तो बनता ही है..
वह अभी के अभी ले लीजिये !
अमर
हम डा.अनुराग की बात की तस्दीक करते हैं! बेहतरीन लेख। तमाम रंग बिखरे हैं इस पोस्ट में। कल की पोस्ट के बारे में ब्लाग में कमेंट में नहीं किया लेकिन चर्चा करी! वहां से कमेंट उठाइये न!
अरे वाह.. यह तो मेरे नाम पर है.. एक पूरी कविता भी है.. अब आप चाहे जो भी इलजाम लगा लें.. मगर मैं तो सरजी ही पुकारूंगा.. :D आप इस ब्लौग जगत के पहले इंसान हैं जो मेरे ऊपर पूरे का पूरा पोस्ट ठोके हैं.. आपके इस ब्लौग के लिये दुवायें मांगता हूं.. ;)
यह पुछड़ू वाली कविता मैं अपने पापा-मम्मी को जरूर सुनाऊंगा.. :)
कलकत्ता, मुजफ्फरपुर, रांची, पटना... पुछ्डू ! सब देख-सुना है...
बहुत सशक्त कविता और आलेख भी सही -
- लावण्या
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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