जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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03 May 2009

एक एक्कनम एक, दो दूनी चार, तीन तियाँ नौ.. ..

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ई लेयो, दुनिया चैन से रहने भी न दे.. और पूछे ’ बेचैन क्यों रहते हो ? "
हम पहले ही ब्लागर से मोहोबत करके सनम.. रोते भी रहे.. हँसते भी रहे गुनगुनाय रहे थे, कि आजु एकु मोहतरमा हमसे पूछि बैठीं, " क्षमा करें डाक्साब, आप काहे के डाक्टर हैं ? "

अब जानवरों के डाक्टर होते तो अपने प्रिय ब्लागर भाईयों के लिये क्यों लिखते ? हम भी किसी चुनावी जनसभा में भाड़े की जुटी भीड़ में शामिल मिमिया रहे पब्लिक से मुख़ातिब होते, या अपनी पढ़ाई-लिखाई का भरपूर दुरुपयोग करते हुये कहीं चैनल-नवीसी कर रहे होते ! और कुछ नहीं तो.. ’ नखलऊ लायब्रेरी  में लोकसाहित्य की अनुपब्धता ’ पर एक्ठो शोध का जुगाड़ करके मेहता अँकल के गाइडेन्स में एक दूसरे किसिम की डाक्टरी का जुगाड़ बना लेते ! और..  अब तक हिन्दी जी के बीमार दिल में कई प्राकृत , अपभ्रँश इत्यादि के शब्दों का प्रत्यारोपण भी कर चुके होते ?   पर,  हाय री फूटी किस्मत.. इतनी घिसाई के बाद एक अदद ’ पब्लिक प्रापर्टी डाक्टर ’ बनना ही नसीब में रहा, सो होय गये !

इत्तेफ़ाक़ से.. चढ़ती उमिर में एक बुरी सँगत होय गयी । पँडिताइन के शासनकाल के बहुत पहले की बात है,  लेकिन वुई भी एक ठँई ज़नानिये रहीं.. यानि कि वह कोमल भावनायें  अउर मैं फूटी कौड़ी  भी नहीं !
फिर भी रँग था, कि जम ही गया ! तब यह ’ खूब जमेगा रँग ’ वाला विज्ञापन नहीं चला था.. सो हम साहित्य-वर्चा  करके ही मदहोश हो लिया करते थे ! ग़र मदहोश हो बैठे, तो कुछ लिखने-ऊखने का गुनाह भी त होबे करेगा, एक किताब मयखाना नाम से पढ़ा तो था .. पर, मयखाना होता कहाँ है, यही न जानता था  ! थोड़ा बहुत सुलेखा रोशनाई खरच करके हल्के हो लेते थे । मत याद दिलाओ, वह सब !

दिन भर की मगज़मारी के बाद ज़ीमेल खोला, . 384 अनपढ़े मेल ( ये अपुण का इनबाक्स है, भिडु ! अक्खा यूनिवर्स अपुण का भेज़ाफ़्राई करनाइच माँगता ) साहस ज़वाब दे इससे पहले ही देवनागरी फ़ान्ट वाले सभी मेल खोलकर अपने कच्चे-पक्के ढंग से बाँच मारे, कुछ का उत्तर भी दे दिया । आगे एक मेल और देखा , बड़े नाज़ुक अँदाज से पूछा गया है, " आप काहे के डाक्टर हैं ? "

उनके शब्दों की सौजन्यता, मानों कह रहीं हों, "  ग़ुस्ताख़ी माफ़ ! चेहरे पर झुकी ज़ुल्फ़ें हटा दूँ तो...... "
मैडम जी, बहुत देर हो चुकी है, अब वोह चेहरा.. वोह ज़ुल्फ़ें.. सब बीते लम्हों में कैद हैं !
अब क्या ज़वाब दूँ, मैं तुम्हारे सवाल का ?

एक दफ़ा यही सवाल , यही सवाल ’ चिट्ठाकार ’ से भी फेंका गया था । मैंने किसी तरह इसको गली में सेफ़ ड्राइव करके, अपने को आउट होने से बचाया ! जी हाँ, मैडम जी.. हमरा दिमाग हर बेतुकेपन पर  आउट होने वाला लाइलाज़ ट्यूमर पाले है ! हालाँकि, समीर भाई आश्वासन दे गये हैं, कि वह कनाडा जाते ही जल्द ब जल्द मुझे इलाज़ के लिये बुलावेंगे ! अब देखो, उनके आश्वासन का क्या होता है ? सुना है, वह राजनीति में भी कभी सक्रिय रहे हैं । यह और बात है, कि तब  उनके घाघ साथियों ने आपके टँकी चढ़ते ही सीढ़ी गायब कर दी ! उतरने के प्रयास में लेखन की डाल पर अटक कर रह गये ।

पर्याप्त मनोरँजन हो चुका हो, तो फिर अपने पुराने पहाड़े पर आया जाय , या टाला जाय । अब तो मैं भी वरिष्ठ में घुस सकता हूँ । सो, चुप मार लिया जाय ? अब क्या ज़वाब दूँ, मैं तुम्हारे सवाल का ?

या फिर, मेहरबान कद्रदानों की तरफ़ टिप्पणी बक्से की चौकोर टोपी घुमा कर, क्रमशः लिख, इसे कभी न पूरा करने को यहाँ से सरक लिया जाय ?  वैसे भी आजकल मेरा ’वृहद-पोस्ट लेखन कलँकोद्धार व्रत ’  चल रहा है !  अपना सेहरा स्वयं ही पढ़ना तो शोभा न देगा, सो सकल प्रोटोकाल,  शिष्टाचार तज एक पोस्ट में मामला आज लगे हाथ यहीं सलटा दिया जाय ?

उत्सुकता एकदम ज़ेनुईन है, बहुतेरे डाक्टर घूम रहे हैं । ज़रूरी नहीं कि शोध करके ही Ph.D. शोधा हो, मानद भी तो बाँटी जा रही है । कई रंगबाज तो अपने को ऎसे ही डाक्टर लगाते हैं और लगभग ज़बरन आपसे मनवाते भी हैं । कच्छे से लेकर लंगोटावस्था तक आपने उनको गर्ल्स कालेज़ के इर्द गिर्द ही पाया होगा , फिर अचानक ही उनके नेमप्लेट पर एक अदद डाक्टर साहब नाम बन के टँगे दिखने लग पड़ते हैं,  डा.  हुक्का, ए. ट. पो. री. ( हि. ब्ला.)  ,  क्या करियेगा ? ये अपुण का इंडिया है, भिडु ! आपका मेरे ' कुछ ' होने पर संदेह नाज़ायज़ नहीं है । होना भी नहीं चाहिये,  माहौल ही ऎसा है !

एक एक्कनम एक
reply-to  dramar21071@yahoo.com
to Chithakar@googlegroups.com
date 6 Feb 2008 01:02
subject  Re: [Chitthakar] Re: याहू पर माईक्रोसॉफ्ट की बोली
mailed-by gmail.com

प्रिय बंधु,
ब्लागीर अभिवादन
विदित हो कि मैं डाक्टर अमर कुमार एततद्वारा घोषित करता हूँ कि मैं
पेशे से कायचिकित्सक बोले तो फ़िज़िशीयन हूँ
,अतः मेरी भाषा या लेखन की
त्रुटियों पर कत्तई ध्यान न दिया जाय । ईश्वर प्रदत्त आयू में से 55 बसंत को
पतझड़ में बदलने के पश्चात अनायास ही हिंदी माता के सेवा के बहाने से
कुछेक टुटपुँजिया ब्लागिंग कर रहा हूँ । वैसे युवावस्था की हरियाली में ही
हिंदी, अंग्रेज़ी,बाँगला साहित्य के खर पतवार चरने की लत लग गयी थी ,
और अब तो लतिहरों में पंजीकरण भी हो गया है ।
गुस्ताख़ी माफ़ हो तो अर्ज़ करूँ... इन उत्सुक्ताओं को देख मुझे दर-उत्सुक्ता
हो रही है कि आपकी उत्सुक्ता के पीछे कौन सी उत्सुक्ता है ? मेरी हाज़त
का खुलासा हो जाय, वरना कायम चूर्ण जैसी किसी उत्पाद के शरणागत
होना पड़ेगा । आगे जैसी आपकी मर्ज़ी..
सादर - अमर

ज़ाहिर है कि उपरोक्त रिप्रोडक्शन से व्यक्तिगत प्राइवेसी का हनन हो रहा है ,तो विवाद भी उठेंगे । उचित अनुचित पर सिर धुने जायेंगे । पर सनद तो सनद ही रहेगा ... यह इंटरनेट भी झक्कास चीज है भिडु , जो लिख दिया सो लिख दिया, दीमक के चाटने का लोचाईच नहीं इधर को !  बड़े बड़े को फँसायला है, बाप.. सोच के लिखने का इधुर को !
दो में लगा भागा
तो सज्जन और ….?, ( सज्जन का स्त्रीलिंग ? मेरे को नईं मालूम, नाहर साहब से पूछो ! )    
अमिं जी०एस०वी०एम० मेडिकल कालेज, कानपुर से चिकित्सा स्नातक इत्यादि इत्यादि हूँ, और सम्प्रति राहू सरीखा हिंदी ब्लागिंग से बरसने वाला अमृत चखने आप देव व देवियों की पंगत में चुपके से  आय  के ठँस गया हूँ । महादशा का अँदेशा तज दें, और इससे ज्यादा और कुछ भी तो नहीं
चोर निकल के भागा
अब यहाँ से फूट रहा हूँ,  आप इस राहू के शान्ति का आयोजन करें । नमस्कार !
us-thy outline
पर, सुराग क्या मिला भला ?
सुराग़ पुख़्ता या ख़स्ता जो भी मिला हो, पँडिताइन जाँच समिति ने 24 वर्षों बाद आज रिपोर्ट दी है.
कि मैं कड़वी दवाई-दारू वाला घिसा हुआ असली टाइटलर  हूँ ।
ओह,  लगता है सारथी जी  से स्लिप आफ़ माँइड , स्लिप होकर यहाँ  भी हिन्दी की निगरानी करने  आ पहुँचा है ! हाँ तो , मैं  अँग्रेज़ी  दवाई  वाला असली डाक्टर हूँ ! अँग्रेज़ी में दवाई लिखता हूँ, फिर  मुई  इसी  अँग्रेज़ी से गद्दारी  कर  के हिन्दी में बिलाग लिखता हूँ !
अलबत्ता कोई दलबदलू नेता नहीं हूँ !
अपने डाक्टर होने का हवाला देने में,  व्यक्तिगत मेल बिना इज़ाज़त सार्वजनिक कर दिये, तो क्षमा किया जाय । वैसे भी मैं आप सब की दया का पात्र हूँ । बड़ी बदतर हालत है मेरी,   न घर का - न घाट का ! मेरे मरीज़ भी सहज कहाँ विश्वास करते हैं कि मैं नुस्ख़े के अलावा कुछ और भी लिखने की अक्लियत रख सकता  हूँ !   जय हिन्द !

अनूप भाई पूछिन हैं,  कि पिछली पोस्ट कित्ते बजे लिखी गयी है !  वहू वतावेंगे गुरु, जरा  टैम तो मिले ? ब्लागजगत का फ़ुरसत तो आप हथियाये बैठे हो । ’ अथ तीन बजे रहस्यकम ’ जो केवल कुश जानते हैं, आप सब पब्लिक को कब लीक किया जाय ?  डेढ़ – दो  सौ  ग्राम  फ़ुरसत  कभी  इधर  भी  वाया  उन्नाव ट्राँस्फ़र करो न ? वहू बतावेंगे !  दुबारा से, जय हिन्द !

 

10 टिप्पणी:

Arvind Mishra का कहना है

मैं तो अभी भी शन्कै में हूँ कि ई डाग्डर साहब कायके चिकित्सक हौवें !

ताऊ रामपुरिया का कहना है

तो सज्जन और ….?, ( सज्जन का स्त्रीलिंग ? मेरे को नईं मालूम, नाहर साहब से पूछो ! )

हमसे पूछने मे कौनों बुराई है का? हमारे हरयाणा में आजकल नुक्कड चुनावी सभाओ मे कुछ इस तरह भाषणबाजी चलती है. अगर आपके काम की हो तो आप रख लें वर्ना हमारी वापस भेज दें.

माननिय सज्जनों और सज्जनियों, इस बार आपका वोट....को ही डलेगा.

रामराम.

Rachna Singh का कहना है

अब जानवरों के डाक्टर होते तो अपने प्रिय ब्लागर भाईयों के लिये क्यों लिखते ?

गुरु शंका करे चेला मेला ढोये
डॉक्टर डिग्री बांचवाये
पापी ब्लॉग का सवाल हैं

दिनेशराय द्विवेदी का कहना है

हमें पता है आप काय के डाक्टर हैंगे।

Anil Pusadkar का कहना है

अस्सी, नब्बे पूरे सौ। मान गये आप असली डाक्साब है।

गौतम राजऋषि का कहना है

डाक्टर साब को नमन

अनूप शुक्ल का कहना है

निठल्ला, पंडिताइन और कैफ़ी आजमी साहब के फ़ोटॊ देखकर मन खुश हो गया।

कुश का कहना है

डा. साहब आप पुरुष है या महिला?अब हमारी इस शंका पर टाइम खोटी मत करियेगा.. केवल लघु और दीर्घ शंका का ही निवारण करिए और तो पचासों शंकाए होती रहती है काहे उसमे उलझ जा रहे है.. आप यू इधर बीजी हो गए तो उधर मरीजवा को कऊन संभालेगा.. ये जानते हुए भी की आऊटगोईंग फ्री नहीं है हम आपको सलाहे दे रहे है पण इनकमिंग तो फ्री इच है.. फोकट की टिपण्णी समझ के ही रख लेने का.. कही फुर्सत में किसी ने हमसे उगलवा लिया रात तीन बजे का राज तो भरी जवानी में हम अपना ये मुंह लेकर कहाँ जायेंगे.. ससुर कोई कैमरा लेकर फोटू भी तो नहीं खींचता हमरी..

बाई दी वे 'पंडिताइन के शाशनकाल' ने तो सीने पे चक्कू चला दिया.. बड़ा ही जालिम वर्ड ढूँढ के लाये है आप तो..

Abhishek Ojha का कहना है

ले आप तो सच्ची मुच्ची के डाकदर निकले, वो भी गणेश शंकर विद्यार्थी कालेज के. इ कालेज तो हम भी देखे हैं.

Unknown का कहना है

Excellent blog& presentation. Keep writing more and more. I voted for your blog and suggested your blog to my friends also. I hope you are so kind to vote for my blog also. Here is my voting link
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लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...

आपकी टिप्पणी ?

जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥

Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!

Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है

Note: only a member of this blog may post a comment.

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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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