कई दिनों से ब्लागर पर सक्रिय नहीं हूं। इधर-उधर एक इक्का-दुक्का टिप्पणी ठोकी व " धन्यवाद देने की आवश्यकता नहीं है " की औपचारिकता निभाते हुए नन्हा मन का टेम्पलेट तैयार कर दिया । अब क्या करें ? नये-नये इन्सटाल किये विन्डो – 7 के नयनाभिराम विशिष्टतायें व नयी सहूलियते संगाल रहा हूं । इधर दो दिनों से पूरी तैय्यारी से आ बैठता, कि 1857 के ग़दर की सालगिरह ( 10 और 11 मई ) पर पोस्ट लिखूँ । पर ऎसा है न कि, अभी हम अपने शैशव को भरपूर जी तो लें.. फिर क्राँति व्राँति की बातें बाद में देखी जायेगी । सो कोई भी पोस्ट लिखना ही टाल गया, क्या पता यह भी ’ बिस्मिल ’ की तरह उपेक्षित हो जायें, और कोई इन्हें भी " पीछा करो Follow Me का सँदेश डाल जाय, सो नहीं लिखा ।
आज की चिटठा चर्या देखी । अनूप जी की चर्चा अधिक सामयिक होती है । ग़ुँज़ाइश होने के बावज़ूद भी आज की चर्चा पर मैंने कोई टिप्पणी न दी, क्योंकि आज मेरे पास कोई अनूकूल लिंक ही न था । मुझमें साहित्यिक समझ हो न हो, ब्लागरीय समझ बिल्कुल नहीं है । लगातार एक के बाद एक फ़्लाप पोस्ट देने के बाद लगता है कि ज्ञान स्कूल आफ ब्लागर्स में प्रवेश लेना ही पड़ेगा । यदि ताउ फैकल्टी के दिग्गज़ या प्रोफेसर फुरसतिया पढ़ाय देंय, तो बेड़ा पार समझो ! तब शायद उपकुलपति समीर लाल जी का दिया एक सार्टिफिकेट इहां साइडबार में चिपकाने को मिल सकेगा । यदि उसके बाद, बात बन जाये तो कुलपति के रिक्त पद पर मैं स्वयं ही काबिज़ हो लूंगा । मेरे फतवे ब्लागर पर वेद वाक्य माने जायेंगे । तब मेरी लिखाई के अजदकायमान होने पर भी लोगबाग अश अश कर उठेंगे । अप्रासंगिक स्वगत कथन में से तब अ हट जाया करेगा । अंग्रेजियत के नियमों के प्रति आदर भाव व हिन्दी वाले के आग्रह मात्र पर तू-तू मैं-मै होने की व चर्चा पर लिंक देने के सुझाव पर कोई विचार कर सकेगा ।
चुनाँचें, माता पर एक पोस्ट लिखने का मन बना कर बैठा हूं । तो.. कम्प्यूटर जी पर अपनी निगाहें लाक किये हुए, मेरा मनन चल रहा है, कि मातृ, माता, मां, अम्मा जैसे किसी विषय पर एक पोस्ट लिखना है, जो मेरे मातृप्रेम की सनद रहेगा । पर, कैसे लिखूंगा ? हम्म, क्या लिखा जाय... मेरा यह कलम सप्रयास तो कविता की गहराई तक उतरने से रहा, ठठेरी, चितेरी, लुटेरी जैसे काफिये भिड़ाये जाने तक ही बात नहीं है । क्योंकि मुझे तो भाई, यह ग्राह्य न हुआ कि समाज के एक नकारात्मक खल तत्व, लुटेरे से माता जी को नवाजने की नौबत तक कोई रचना दी जाय, समीर जी क्षमा करें । फिर ? फिर, एक लेख तैयार करें " मातृ दिवस पर समकालीन भारत के युवावर्ग का उफनता ज्वार ", शायद यह ठीक रहेगा ? नहीं, यह ठीक न होगा, कोई अकेली डा0 वाचक्नवी मेरी पाठक थोड़े ही हैं ? फिर...बचपने के दिनों में घूम फिर कर माँ को ही गोहरा लिया जाय ? लेकिन मेरा बचपन तो अभी गया ही नहीं है । फिर., एक मारात्मक प्रभाव वाली एक तिकड़मी इमेज लगा कर और माँ तुझे नमन का कैप्शन लगा कर ही इतिश्री कर ली जाय ? लेकिन यह स्वयं मुझे ही गवारा नहीं, तो भला आप क्यों बर्दाश्त करें ? की बोर्ड पर मेरी उंगली घिसाई जाया हो जाय, वह अलग ! इसी असमँजस में डूब और उतरा रहा हूँ, कि ?
सहसा आना... एक आवाज का, " ऎई तुम कुछ कर रहे हो क्याऽऽ ? "
मैं चुप रहा । भला इन्हें क्या जवाब दें, यह तो पहले से ही पंडिताइन हैं ।
चुप रहने में भलाई हो या न हो, इस समय मुंह में बाबा श्री 120, कुमारी रजनी के संग कल्लोल कर रहे हैं, और इनके एकाकार होते जाने का रस जैसे मन में घुलता सा जा रहा है । यह तुम क्या जानो.. इतने में दुबारा, “ ऐईऽऽ , ऎई तुम कुछ कर रहे हो क्याऽऽ ? "
इस बार का संबोधन पंचम स्वर में आरोह के साथ सम पर स्थिर है !
इन्हें क्या जवाब दें ? प्लास्टर बंधे हाथ को देख कर भी कोई पूछे कि फ्रैक्चर हो गया क्या ? आप क्या कहेंगे....शौकिया बाँध रखा है, या घर में बासन मांजने से छुट्टी पाने का यही बेहतर जरिया बचा है, या ऐसा ही कुछ न ? ऎंवेंईं जिज्ञासाओं के ऎंवेंईं समाधान.. का करियेगा ई अपुन का इन्डिया है !
सुनो तो.. तुमसे एक बात कहनी थी ! लो जी, बिना पूछे तो दस बातें सुना डालती है, आज अनुमति मांगने का कारण ? मन मेरा आशँकित हो गया । यदि हाँ बोलू, तो पंडितइनिया मारेगी, ना बोलूं तो भी पंडितइनिया ही मारेगी । बीच का रास्ता यदि कुछ है, तो क्या है ?
सो, कुछ न बोल अपनी गरदन एक विशेष कोण पर आगे पीछे कर अपनी मजबूर सहमति दे दी ।
वह बोलीं, " न हो तो, अम्मा को आगरा न छोड़ आओ ? " सदके जावाँ व्याकरणाचार्य, न पश्यन्ति प्रश्नम तदोपि न जानामि कथोपकथन ! यह प्रश्न है, या व्यक्तव्य है, याकि अपरोक्ष सुझाव है ? अहो, तो यह है, फ़्यूचर इनडिफ़ेनिट इन्ट्रोगेटिव सेन्टेन्स ! बहुत छकाये रहे हमका पी सी रेन साहब के गिरामर ने । मैं सचेत होता हूँ, किन्तु बाबा-रजनी युगल को मुख से बहिस्खलन करवाना ही पड़ेगा । उनके असमय बहिर्गमन से थोड़ी कोफ़्त होती है, मुखारविन्द खाली करके उन्मुख होता हूँ, " क्यों भला ? "
इस बार निराधार चिन्ता की एक ज़ायज़ आतुरता थी
" ऎसे ही.. उनका, तुम्हारा, हम सबका कुछ बदलाव हो जाता । "
" छोड़ आओ बोले तो,आगरा छोड़ आओ, जँगल में छोड़ आओ, यानि कि कहीं भी, बस इन्हें छोड़ आओ | रूँआसी हो उठीं, " बेकार बातें मत करो । मैंनें जँगल कब कहा, आगरा में चुन्नु भैय्या रहते हैं, उनके पास तीन चार महीने रह आतीं ।"
मैं असँयतली भी सँयत बना रहा, " यानि कि, मैं माता श्री को नगरी नगरी द्वारे द्वारे बाँटता फिरूँ ? "
" बात मत बढ़ाओ, नगरी नगरी द्वारे द्वारे बाँटने की क्या बात है ? वहाँ आगरा में तुम्महारा भाई रहता है । " इस बार खाँटी झनझनौआ अँदाज रहा, मैं भाँप गया, अब ऎसी तैसी होने वाली है ।
सो वन स्टेप बैकवार्ड होता भया । " अरे यार, मैंनें मना कब किया है, वह सहर्ष आकर ले जाये न ! "
" उनको तो फ़ुरसत ही नहीं है, एक फोन तक तो करते नहीं, कि अम्मा कैसी हैं ! "
उछल पड़ा मैं, " बस यही तो बात है, माँ तो आग्रह से या हक़ जता कर, लड़ झगड़ कर हासिल की जाती है, और उन्हें समय नहीं है ! " एक असहज चुप्पी... मात्र सत्रह सेकेन्ड काटना असह्य हो गया,
मैंने निर्णय दिया, " अमर कुमार अम्मा को कहीं छोड़ने नहीं जा रहे ! "
वह कातर हो उठीं, " मैं तो तुम्हारे लिये कह रही हूँ । अभी मार्च में तो उनकी लैट्रीन तक तुमको साफ़ करनी पड़ी, तुमको यह सब करते मुझसे नहीं देखा जाता । "
मैं अब बोर हो रहा हूँ, " क्यों, क्यों नहीं देखा जाता ?
कभी उन्होंनें भी तो खाना पीना छोड़ कर मुझे साफ किया होगा, तब आपने क्यों नहीं देखा ? "
अब शायद अश्रुप्रपात होने वाला है, क्योंकि इसके पहले का उनका रौद्र गर्जन आरँभ हो चुका है,
" ज्यादा बनो मत ! आख़िर कब तक यूँ रात रात भर जागते रहोगे, कुछ अपनी भी सोचो ? एक नर्स ही रख लो । " आह, यह तो स्वयँ ही मुझे कोमल स्थल पर ले आयीं, " अच्छा जी.. मैं अपनी सोचूँ ? तुमने अपनी सोचा था जब जाड़ों की रात में उठ कर बाबू और मुनमुन को दूध गर्म करके देती थीं ।
उनका गीला बिस्तर बदलती थीं ! तब क्यों न कहा कि एक दाई रख दो । " तीर निशाने पर पड़ा, क्योंकि अब किंचित इतराहट थी, " वह तो मेरा कर्तव्य था । "
अब लगे हाथ एक और पातालभेदी बाण चला तो दे, अमर बाबू !
" तो यह भी तो मेरा कर्तव्य है । इन्होंने भी तो माघ पूस में मेरे लिये यही सब तो किया होगा ! तब तो बिजली भी न थी, कि फट्ट रोशनी हो गयी, और बुरादे की चिमनी खास तौर पर गर्म रखना पड़ता था वह अलग । " सुबह छः बजे उठ कर कोयलें की धुँआती अँगीठी भरना तो सोच भी न सकतीं हैं ।
न तुम मानो ना हम.. ई लेयो, चलो कुट्टी हो गयी ! अपनी तो दो तीन दिनाँ की छुट्टी हो गयी । लेकिन ना, वह ज़नानी ही क्या, जो अपने मियाँ को चैन के चार दिन नसीब होने दे ? इस समय रात्रि के ग्यारह बज कर छियानबे मिनट हुये हैं, यानि कि घड़ी में तीन का समकोण बनने में अभी दो घँटे से कुछ ज्यादा ही मिनट शेष है । यह बिस्तरा-कक्ष से प्रकटती हैं, झाँकने की नौबत ही नहीं, अम्मा की तस्वीर दूर से ही चमक रही है । " यह क्या… मदर्स डे पर अब लिख रहे हो, बुद्धू कहीं के ? समीर लाला ठीक ही कहते हैं, रहे तुम वही के वही ..
अमाँ यार, यह सब लटका मैं नहीं जानता । सबै भूमि गोपाल की.. हमरे लिये तो सभी दिन हेन तेन लालटेन डे है । वह कौतुक से हँस पड़ती हैं, " वाह, लालटेन डे ! " मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिलता है, " और क्या ? जरा तुम ही बताओ, आज बरसात हुयी है, मौसम बड़ा अच्छा हो रहा है । कम्प्यूटर स्क्रीन से छन कर आती रोशनी में तुम भी अच्छी लग रही हो.. अब कहो तो, अमर कुमार बईठ के फ़रवरी वाले वैलेन्टाइन बाबा की राह जोहें ? इसपर इनकी सारी विद्वता धरी रह गयी, कुछ कन्फ़्यूज़ हो गयीं, " हाँ, बात तो तुम सही कह रहे हो.. " और.. और.. और क्या ? और हममें फिर से मिल्ली हो गयी ।
सब ठीक ठाक हो गया, हम सुख से रहने लगे ।
अम्मा भी जी रही हैं, बस जिये जा रहीं हैं, कुछ अनमनी सी !
14 टिप्पणी:
मातृ पर्व का कितना यथार्थवादी दृश्य ! कलेजा हिल गया ! सच तो यही है !
एक बात सच कहूँ, पूरा का पूरा आलेख पहली बार एक एक शब्द को स्वीकारते हुए पढ़ा ।
मैं यह सोच रहा हूँ कि क्या डॉ० अमर कुमार की प्रविष्टि जितनी सुनियोजित और सुविचारित लगती है, उतनी है; जिसकी हर रेखा, हर स्पन्दन, हर भाव, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद एक रसोद्देश्य से स्थापित किये गये हों । रस का मतलब पूरी प्रविष्टि का घटनाक्रम ।
सुख-दुख, मान-अपमान, जीत-हार, मिलन-बिछोह का दो टूक अनुभव या उसकी नियति, तथा उसकी उत्कटता और पराकाष्ठा इन प्रविष्टियों को रचती है/होगी( कमोबेश सभी चिट्ठाकारों की प्रविष्टियों को भी ), पर ऐसा क्यों लगता है कि आप नये तत्त्व का प्रवेश कराना चाहते रहते हैं अपनी प्रविष्टियों में, कि प्रविष्टि के मूल कार्य के साथ कुछ आनुषंगिक कार्य भी जुड़ जाँय ।
कई बार अपरिपक्व नजर आते हैं आप इस प्रयत्न में, और मूढ़मति भी कि अबूझ में लगायी गयी छलाँग को आप अपना कौशलो मान लेते हैं ।
पर मैं आपकी इस अबूझ छँलाग का भी कायल हू, जो है तो जोखिमभरी पर कई बार कृतार्थता तक ले जाती है ।
आत्म के विरुद्ध किया जाने वाला उद्यम आत्मघात है, और कितना अजीब है कि हमारे आज के सुख आत्महनन से ही जुड़ गये हैं । ओह! मैं इसे डॉ० अमर के लिये किये जाने वाले कमेंट में क्यों लिख रहा हूँ ? खैर ।
डॉ० अमर जागरुकता के तहत कोई बात करते हैं ना ! जरूर करते हैं और उस जागरुकता की बात -जो किसी सद वस्तु की पीठिका हो सकती है । पर उन द्रष्टाओं (दृष्टा नहीं) का क्या करेंगे डॉ० अमर जो अपने जीवन के झूठे लक्ष्य को भी प्राप्त न कर पाने की सुधि में परिष्कार के मूल्यों में अपनी आस्था खो बैठे हैं ।
देश भक्ति का क्या ? हृद्देशे तिष्ठति का त्याग कर यदि यह भाव मस्तिष्क की बाजीगरी में खो जाय तो डॉ० अमर क्या करें ? क्या इस भाव का कोई विकल्प भी है कि उसे दूसरों को थमा कर डॉ० साहब खुद इस भाव में निमग्न रहा करें ।
यह प्रसंगतः अप्रासंगिक कथन यूँ ही जुबान पर आ गया ।
धन्यवाद ।
आता हूँ सुबह को वापस..शब्द शब्द फिर पढ़ने को...
इन्तजार तुम कर लेना जी..इक विचार है गढ़ने को...
यूँ तो कह सकता था इतना,बहुत सही तुम कहते हो...
माँ का दरस हुआ है जबसे,है झूठ नहीं कुछ कहने को.
--कल सुबह इत्मिनान से पढ़ूँगा..मेरे भाई.
इस लेख को पढने के बाद एक बार फ़िर से पढूंगा. अभी तो सिर्फ़ यही कहना चाहूंगा कि ऐसे आलेख की उम्मीद सिर्फ़ ताऊ फ़ैकेल्टी के गुरु से ही की जा सकती है. इस तरह का लेखन और किसी के बस की बात नही है. बस नतमस्तक हूं. प्रणाम.
रामराम.
अब डाक्टर साहब, आपने अम्मा जी के दर्शन करा दीये और लिखा भी इत्त्ता बढिया कि, हम नम आँखोँ के सँग मुस्कुरा भी रहे हैँ - जैसे ये जीवन जीये जा रहे हैँ हूबहू उसी तरह - आपको स्नेहाशिष - अम्माजी को सादर नमन और सौ. भाभी जी को स्नेह,
- लावण्या
जिंदगी इसी को कहतें हैं शायद!
युही तो हम आपको गुरुवर नहीं कहते.. जो आपने लिखा है वो पहले से जानता हूँ.. और तबसे ही जो आपके व्यक्तित्व को कोपी पेस्ट किया है.. अभी तक करता जा रहा हूँ.. पर लफडा एक इच रहा कि आपके केस से थोडा उलट गए... इधर हम पंडित हो गए और उधर वो कायस्थ..
हम ब्लड सुगर का हेर फेर मानते रहे ....पर फिर .. पिछले हफ्ते माँ को दो यूनिट खून चढा गुरुवर ....पांच हिमोग्लोबिन में भी उठकर मेरी रोटी बनाने को तैयार थी ..एक बार कह दो की तुम्हारे हाथ की गोभी अच्छी लगती है ..अभी भी उठ खड़ी हो जाती है.....सीडियो पे चढ़ना मुश्किल है पर आर्यन भूखा है जानकर सहारा लेकर सीडिया चढ़ जाती है ....आज आपने अपने स्वभाव के विपरीत एक सेंटी पोस्ट अपने ढंग से डाली इसलिए हमने भी लिख दिया ...आप के व्यक्तित्व की थोडीसी परसेंटेज हम कर पाए उसे ही बड़ा मानेगे....अम्मा जी को प्रणाम कहियेगा ...
कहाँ नन्हा मन से शुरू किया और कहाँ ला पटका !!
पटका तो पटका इतना अच्छा पटका!!
बकिया हिमांशु जी की टिप्पणी को हमारी भी समझी जाय!!
श्री अभिषेक मिश्रा की कलम से :fromAbhishek Mishra ,abhi.dhr@gmail.com
todramar21071@gmail.com, c4Blog@gmail.com
date12 May 2009 09:53
कमेन्ट एज बौक्स ब्लैंक दिखने की वजह से ब्लॉग पर पोस्ट नहीं कर पाया. (अभिषेक मिश्र)
टिप्पणी-
'मदर्स डे को समर्पित मर्मस्पर्शी पोस्ट, जिसमें सिर्फ माँ के प्रति किताबी भावनाएं ही नहीं हमारे कर्तव्यों का भी बखूबी चित्रण. आभार. '
बहुत मार्मिक पोस्ट है। मर्म पर चोट करती है। लेकिन आप सही कहते हैं। वह सीधे चोट नहीं करती। पहले बहलाती है, फुसलाती है। तब आती है मुकाम पर।
अरे, मदर दिवस को तो दो दिन हो गये, पर यह पोस्ट तो आज भी टटकी है और सदा ताजा रहने वाली है यह पोस्ट।
कौनो जरूरत नहीं कौनो ब्लॉगिंग स्कूल ज्वाइन करबे की।
आप ब्लॉग्गिंग क्लास ज्वाइन करेंगे तो हम भी आपके पीछे वाली बेंच पे बैठ जायेंगे. और आपकी कॉपी में से ही नक़ल मार लेंगे... नहीं तो लेक्चर में तो सो ही जायेंगे. आपकी कॉपी का फ़ुट नोट भी पोस्ट बना दिया करेगा. सच्ची बता रहा हूँ. मदर डे पर बढ़िया पोस्ट.
पूरी पोस्ट पढ़ लेने के बाद मन की हालत अजीब सी हो रखी है डाक्टर साब....आपने जितने हल्के से इस विषय को उठाया अपने शब्द-बाणों से इधर-उधर सब को बेधते हुये, मुझे ठहाके लगाने पर विवश करते हुये और अचानक से पूरे विमर्श को अलग सा मोड़ देते हुये कि दूर बैठे यहाँ इस पराये-से हिस्से में उधर दूर एक ऐसी ही माँ को एक विचित्र सी चूभन के साथ "मिस" करने लगा, जो अभी-अभी फिर से मोबाइल पर रोयी है कहते हुये कि ’फौज छोड़ कर आ जा वापस’....
पोस्ट को निष्ठुर कहूँ कि आत्मीय...??? उलझन में हूँ...!!!
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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