ज़ाकिर भाई, आपकी पोस्ट देर से देख पाया । सटीक प्रश्न उठाया है, आपने । और मैं आपकी बेबाक दृष्टि का कायल भी हूँ । पहले तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि, मैं आस्थावान सनातनी हिन्दू हूँ । बहुत सारे वितँडता और प्रत्यक्ष , अप्रत्यक्ष अनुभवों के बाद मैंने पूजा करना छोड़ दिया है । इस पर एक पोस्ट लिखने की इच्छा भी है, पर समय और विषयवस्तु में सँतुलन नहीं बन पा रहा है ।
आपकी पोस्ट में गायत्री मँत्र का जो अर्थ दिया है, वह वास्तव में इसका अनर्थ है ।
प्रचोदयात वैदिक सँस्कृत की धातु है, जिसका तात्पर्य " हमें अग्रसर करें.. हमें उत्प्रेरित करें " से समझा जा सकता है ।
बहुत सारे पौराणिक मँत्रों में " भविष्यति न सँशयः " लगा रहता है । यह भी एक प्रकार की साँत्वना या स्व-आश्वस्ति है
किसी भी पूजा या इबादत की पहली शर्त है, अपने को समर्पित कर दो.. जो भी उपास्य है उसमें लीन हो जाओ ।
यह आपको सेमी-हिप्नोसिस या सम्मोहन की स्थिति में ले जाती है तत्पश्चात निरँतर एक ही मँत्र का जाप अपने आपमें आटो सज़ेशन है । ऎसा होगा .. ऎसा होगा.. ऎसा ही हो ऎसा ही हो.. आख़िर क्या है ? इन मँत्रों का एक निश्चित सँख्या में दोहराये जाना आपके एकाग्रता और लगन और धैय की परीक्षा है । ऎसी प्रक्रियाओं को एक निश्चित समय पर ही किये जाने का तात्पर्य दिनचर्या को अनुशासित करने से अधिक कुछ और नहीं !
इन प्रक्रियाओं को नियम सँयम और निषेध से बाँधना भी यही दर्शाता है ।
प्रारँभिक वैदिक मँत्र पूर्णतया प्राकृतिक तत्वों में निहित अतुल शक्तियों को समर्पित हैं । ऋग्वेद इसका उदाहरण है । मानवीय विस्मय से उपजा ॐ आज भी अपने अर्थ में उतना ही सार्थक है, जितना पहली बार उच्चरित होने पर रहा होगा । इस्लाम में भी اَلم अलिफ़ लाम मीम को कोई समझा नहीं पाता ।
मनुष्य जब भी हारा है, प्रकृति से ही हारा है । चाहे वह रोग आपदा महामारी बाढ़ सूखा भूकम्प चक्रवात ही क्यों न हो ? प्रकृति अपने नियमों की अवहेलना सहन नहीं करती । आदिम सभ्यता ने प्रकृति के ऎसे प्रकोप को शैतानी शक्तियों में मूर्त कर लिया । यही कारण है कि, हर धर्म में एक नकारात्मक तत्व शैतान राक्षस और भी न जाने क्या क्या हैं । हर्ष विषाद विस्मय जैसी मूल मानवीय भावनाओं में आत्म रक्षात्मक डर सदैव भारी पड़ा है । एक नवजात शिशु को थप्पड़ दिखाइये, यह प्रत्यक्ष हो जायेगा ।
मँत्रों की शक्ति पर किसी को निर्भर बना देना, डर की भावना का दोहन है, साथ ही मनुष्य की महत्वाकाँक्षाओं का पोषण भी ! इनको पालन करनें में एक आम आदमी अपने असमर्थ पाता है, तो ज़ाहिर है बिचौलिये पनपेंगे और डरा डरा कर पैसा वसूलेंगे । यही हो भी रहा है । तक़लीफ़ यह है कि, ऎसे तत्व सत्ता के ड्योढ़ी के चौकीदार बहुत पहले ही बन गये थे । चाहे वह सम्राट अशोक के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े हों, या अडवानी के रथ में जलने वाला डीज़ल ! ख़ून तो आम आदमी का ही जाया होता आया है ।
एक बात जो रही जा रही थी, वह यह कि वैदिक मँत्रों के उच्चारण में आरोह अवरोह और शब्दों का बिलँबित लोप का उपयोग, ध्वनिविज्ञान के नियमों द्वारा आपकी मनोस्थिति को प्रभावित करती है, सकारात्मक प्रेरणा देती है, यह सर्वमान्य सत्य है । इसमें कोई सँशय नहीं !
अँतिम बिन्दु पर मैं यह कहूँगा कि, जिस तरह मुल्लाओं का इस्लाम अल्लाह के इस्लाम पर भारी पड़ने लगा । उसी तरह कर्मकाँडी सँस्कारों ने निःष्कलुष सनातनी हिन्दू मान्यताओं को दूषित कर दिया है । हम प्रतीकों के प्रति उन्मादी हो गये हैं, और मूल्यों के प्रति उदासीन ! आस्था में तर्क का स्थान नहीं है, यह डिस्क्लेमर भी तभी लागू हो पाया । शुक्र है, कि मनुष्य के विवेक को उन्होंने नहीं लपेटा, वह तो हम इस्तेमाल कर ही सकते हैं । आइये इन बहसों को छोड़ कर हम वही करें, जो सहअस्तित्व का विवेक कहता है । इसका मज़हब याकि किसी ख़ास धर्म से क्या लेना देना ?
चूँकि आपका टिप्पणी बक्सा ज़ियोटूलबार कि वज़ह से दगा दे रहा है, यह स्वतःस्फ़ूर्त असँदर्भित त्वरित टिप्पणी यहीं दे दे रहा हूँ । यदि चाहेंगे तो सँदर्भ भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं । अन्यथा न लें , अल्लाह हाफ़िज़ !












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16 टिप्पणी:
@ इन मँत्रों का दोहराये जाना आपके एकाग्रता और लगन और धैय की परीक्षा है । ऎसी प्रक्रियाओं को एक निश्चित समय पर ही किये जाने का तात्पर्य दिनचर्या को अनुशासित करने से अधिक कुछ और नहीं
सहमत हूँ। अक्सर जहां कहीं जाना होता है, कान में FM रेडियो की घुंडी लगाये, ईयरफोन लगाये हुए ही जाता हूँ। लेकिन जिस दिन मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर जाना होता है, FM को खुद ब खुद हटा देता हूँ ताकि उतने समय तक जब तक कि दर्शन न हो जाएं, केवल अपने मन से संचालित होता रहूँ FM रेडियो के RJ से नहीं।
इसे एक प्रकार का स्वनिर्मित उपवास/ वृत भी कह सकते हैं।
पोस्ट से सहमति है। मैं भी पूजा पाठ केवल अपने मन को ठंड रखने के लिये करता हूँ....कर्मकांडी पूजा तो कब की छोड चुका हूँ।
असहमति की स्वस्थ अभिव्यक्ति। आर्य, आभार स्वीकार करें।
बांच लिया। जो काम करना चाहिये वो मन लगाकर करना चाहिये। यही समझ आया।
सुभाषितम ...असहमति भी कैसे हो ?
आइये इन बहसों को छोड़ कर हम वही करें, जो सहअस्तित्व का विवेक कहता है । इसका मज़हब याकि किसी ख़ास धर्म से क्या लेना देना ?
अति उत्तम और सारगर्भित सलाह. स्वतंत्रता दिवस की घणी रामराम.
आप की बात में और जाकिर की बात में मतभेद कहीं नहीं है।
वैसे इन बहसों का कोई निष्कर्ष है क्या डाक्टर साब?
हमने तो पहले आप की पोस्ट ही पढ़ ली. उधर देख के आता हूँ. आप की पोस्ट में तो सब कुछ वही बातें है जो अपन भी सोचते हैं.
अमर जी,
आपका आलेख "ज़ाकिर भाई ....ओ ज़ाकिर भाई" पढ़ा. मंत्रों की व्याख्या एवं महत्ता को स्थापित करने का प्रयास अत्यंत सराहनीय है.बहुत कम शब्दों में आपने जीवन और अध्यात्म को जोड़ कर आस्था को सही दिशा दी है.
...किरण सिन्धु .
सच तो यह है कि सच कहा है आपने......!!
गायत्रि मंत्र तो हमें अज्ञान के अंधेरे से निकल कर ज्ञान के प्रकाश में जाने को प्रेरित करता है । मंत्रों की शक्ति अपने मन की शक्ती बढाती है और मन क्या नही कर सकता बस बना लेना चाहिये ।
मंत्र की शक्ति पर विश्वास कर लिया तो आस्था के अन्धकार से बाहर निकलना कहाँ हुआ ?
अरे मैने तो यह पोस्ट अचानक देखी और याद आ गया कि ज़ाकिर की उस पोस्ट पर मेरा भी कमेंट था. मै वहाँ जो कुछ कहना चाह्ती थी वो सब इस पोस्ट में कह दिया गया है. धन्यवाद .
डा० साहब पता नहीं यह आपकी पोस्ट का कमाल है या क्या जब जब इस पोस्ट पर कमेंट के लिए आता हूं, कुछ न कुछ प्राब्लम हो जाती है। आज चौथी बार कोशिश कर रहा हूं, पता नहीं सफल होती है या नहीं।
आपकी बातों से मैं सहमत हूं, पर मंत्रों की जिस तरह से मार्केटिंग की जाती है, वह अंधविश्वास को बढावा देती है और उसके दुष्परिणाम हमें रोज देखने को मिलते हैं। अभी परसों के ही समाचार पत्र में एक नर बलि का किस्सा आया है। यह सब क्या है, तंत्र और मंत्र को महिमामंडित करने और उसे जादू की छडी बताने का ही दुष्परिणाम। हमारा प्रयास है इस नासमझी और अंधविश्वास को दूर करना।
@ Science Bloggers Association :
इस मुहिम में, मैं भी आपके साथ ही हूँ, ज़ाकिर भाई ।
बड़ी पीड़ा होती है, जब यह पाता हूँ कि चमत्कारिकता पर विश्वास करते रहने से
आज आम भारतीय अकर्मण्य और भाग्यवादी हो गया है ।
यह हिन्दुस्तान को एक क़ौम के रूप में ताकत बन पाने से सदैव रोकती रही है ।
उपलब्धियों के लिये चल रहे मानवीय सँघर्ष के सूत्रधार यदि भगवान या अल्लाह ही बने रहेंगे, तो भगवान ही मालिक है ।
मुआफ़ करें, ग़र कोई ग़ुस्ताख़ी हुई हो । गलत ही सही, पर जैसा सोचा वही लिखा !
बहुत बढ़िया लेख , आनंद आ गया !प्रणाम स्वीकारें
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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