जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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29 December 2007

मेरी पड़ोसन. . . बेनज़ीर !

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A_M_A_Rआज दिन भर मन में उदासी छायी रही,बेनज़ीर नहीं रहीं ।
अल-क़ायदा के दहशतगर्दों ने ऎसा क्यों किया होगा, यह तो वक़्त ही बतायेगा , लेकिन सच है कि बेनज़ीर तो अब हमारे कायनात से ज़ुदा कर दी गयीं ।

' पूरब की बेटी ' उनका तख़्ख़लुस क्यों पड़ा, बता नहीं सकता । मेरे लिये तो वह बहन-बेटी से कुछ अलग ही थीं । ग़र बवंडर न उठाने का इतमिनान आपसब बिरादरान दें, तो इसकी वज़ह भी ज़ाहिर की जा सकती है । खैर मैं जां-बख़्सी के भरोसे पर आगे यह खुलासा भी कर दूँगा ।

जैसा कि रस्म है कि हर मरहूम शख़्सियत के लिये हमेशा उसकी नेकी और नेकपरस्ती गिनवाने वालों एक सैलाब उमड़ पड़ता है । कम-ब-कम उसके ख़ाक-ए-सुपुर्द होने तक कोई भी तुफ़ैल की बात पाक-मरहूम के शान-ए-गुस्ताख़ी में करना कुफ़्र में शुमार किया जाने का रिवाज़ है । मुझे भी इसमें कोई शक ओ शुबहा नहीं है कि उस जैसी हिम्मती, खुले ख़यालों वाली, ज़म्हूरियत की हिमायती हरदिल अज़ीज़ औरत उस मिट्टी पर अब तक पैदा न हुई होगी ।

( पहले मैं यह ख़ुलासा कर दूँ कि ज़ासूसी दुनिया लिखने वाले ज़नाब इब्ने सफ़ी साहब मेरे पसंदीदा अफ़सानानिगारों में हुआ करते थे और मुझे यह बताया गया कि ओरिज़िनल तो ओरिज़िनल ही होता है, तरज़ुमें में वह बात नहीं आ पाती, लिहाज़ा मैंने ज़ाती तौर पर उर्दू की बुनियादी ट्युशन ले डाली थी और इसे अपनी मादरी ज़ुबान हिंदी के एक शाख के बतौर लेता हूँ, और यह सनद रहे कि मेरी निगाह में उर्दू सिर्फ़ मुसल्मीनों की मिल्कियत नहीं है )

हाँ तो, असल बात यहाँ अपनी सफ़ाई पेश करने में ही गुम हो जाये ,याकि मैं अपना शोग बयाँ करने में वक़्त ज़ाया करता रहूँ । उसके पहले ही मैं साफ़गोई से कह दूँ कि मैं बेनज़ीर से मुहब्बत करता था, भले इकतरफ़ा हो लेकिन मुहब्बत करता था ! यह बात यहाँ साझी न करूँ तो फिर कोई अख़बार या रिसाला तो इसे छापने से रहा । ग़र आपको यह सब पढ़ना नाग़वार गुज़र रहा हो तो भले पेज़ बन्द कर दें, लेकिन मैं उन मोहतरमा से प्यार करने के वहम में बहुत अरसे तक जीता रहा ( ज़नाब ज़ाफ़री साहब मुआफ़ करें ), जी तो अभी भी रहा हूँ, जैसे ज़ाफ़री साहब बाकी ज़िन्दगी जी लेंगे ।

मैंनें तो अक्टूबर में यह पढ़ते ही कि मुशर्रफ़ की पाक-सरज़मीं पर उतरते न उतरते उन पर जानलेवा हमला होगया, एकदम से बेचैन हो गया । ' मेरी न बन सकी तो क्या, तुम बस बनी रहो । ' ये दुआ है मेरी....यही ख़्याल दिल में आया और मैं एक सांसत में पड़ गया । किससे इनके लिये दुआ माँगूं ? ख़ुदा से, वह तो भगा देगा । मैं मोमिन तो नहीं जो मेरे सज़दे में झुके सिर पर हाथ रख देगा, क़ाफ़िर की तो वहाँ पर ' नो एंट्री ' होगी । हनुमान जी से कहूँ ? लेकिन वह तो अपने बास के लिये भवन बनवाने की जुगाड़ में तागड़िया, मोदी वगैरह के साथ बिज़ी होंगे ।

a.m.a.r और फिर, उनसे एक यवन यौवना के लिये गुहार लगाऊँ तो पता नहीं उनका मूड कितना बिगड़ जाये । इस दरवाज़े से उस दरवाजे की ओर ताकता ही रह गया और यह सब हो गया

bhutto-dramar AmarK

Dr.Amar Amarजरा गौर फ़रमायें, ऎसी हसीन शख़्सियत को कौन नज़रअंदाज़ कर सकता है ? ख़ास तौर से जब आप फ़क़त 20 साल के हों । सन 1972 में वह शिमला अपने वालिद के साथ आयीं थीं, बला कि खूबसूरती के साथ आँधी की मानिंद दिल ओ दिमाग पर जैसे कब्ज़ा सा कर लिया, मानों बाँग्लादेश पर हुए कब्ज़े का बदला मुझ नाचीज़ के दिल से ले रहीं हों । एक तो जीत का नशा हर हिंदुस्तानी के ज़ेहन पर तारी था, कानपुर सेन्ट्रल से गुज़रने वाली स्पेशल ट्रेनों में ठुँसे युद्धबंदी इस नशे का शुरूर और भी बढ़ा देते थे । राजा पुरु ( बोले तो पोरस ) के वंशज, हम सब एक रोटी भी अगर उनकी ओर बढ़ाते, तो वह बेशर्मों की तरह टूट पड़ते । उन दिनों मुझे भी भूख कुछ ज़्यादा ही लगने लगी थी ( वैसे मेडिकल कालेज़ में जाकर अच्छों अच्छों की भूख गायब हो जाती है-गौर फ़रमायें ममता जी ! ) तो उस भरे हुये पेट में ग़र कोई खुशनुमा चेहरा आपके आँखों के सामने तैरता रहे, तो आप कहाँ तक उसको नकार सकते हैं ? बेनज़ीर मायने जिसकी कोई मिसाल न हो, अब तो आप कुछ समझें

( मेरी तो एक पैरोडी भी खुद-ब-ख़ुद तैयार हो गयी थी- मैं विशवामित्तर तो नहीं.. मग़र ऎ हसीं...शायद ऎसा ही कुछ ! ) यह तो गुरुजनों, मेरी कच्ची ( या किसी और की गदरायी ) उम्र का तकाज़ा था, जो मैंनें बेबाकी से आपके सामने बयान कर दिया । फिर कन्फेशन से बड़ा प्रायश्चित तो है ही नहीं कन्फेशन कर लेने से खोदाई-बाप भी इंसान के गुनाहों को बख़्स देता है, क्या आप नहीं बख़्सेंगे ?

benazirफिर भी जाते जाते इतना अर्ज़ कर लेने की इज़ाज़त तो दे ही दीजिये...
रश्क क्यों करता है मेरी किस्मत से
क्यों मेरे हाथों में यह लकीर मिली
पड़ोसी ग़र खबीस है तो ग़म क्या

पड़ोसन तो बेनज़ीर मिली
और वह हमेशा बेनज़ीर ही रहेंगी ! आमीन ...

1 टिप्पणी:

Anonymous का कहना है

इस दुख की घड़ी में मेरी सहानुभूति आपके साथ है । भगवान आपको यह दुख सहने की हिम्मत दे ।
घुघूती बासूती

लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...

आपकी टिप्पणी ?

जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥

Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!

Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है

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शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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