सच में हम बुढ़ाय रहें हैं, क्या ? दोस्तों की राय में मुझ सा ज़ँवादिल और गैर प्रोफ़ेशनल ठिठोलीबाज तो शायद प्रलुप्त प्रजाति में शुमार किये जाने लायक है । फिर हम कल भैलेन्टाईन डे कइसे भुलाय बइठे ?
दरअसल हुआ यह कि आज अल्ल्सुबह भोर में रजाई में उनींदा सा गुनगुनाहट की मौज में लेटा लेटा बाहर सड़क पर से आती खटर-पटर पर मार्निंग वाक के उत्साहियों पर लानत भेज रहा था कि एक चिरपरिचित आवाज़ ने तंद्रा तोड़ दी , " गुड मार्निंग सर, हैप्पी वैलेंटाइन डे ! " यह कोई ' वह ' नहीं, बल्कि हमारी श्रीमतीजी ( निकनेम - पंडिताइन ) सामने चाय की प्याली के साथ नमूदार थीं, चमकती हुई धवल दंतपंक्तियाँ जैसे चिढ़ा रहीं हों- ' ... .आँप क्लोँज़प कियूँ नहीं करते हँय ? ' मैं एकबारगी हकबका गया, तनिक खिसिया कर बोला , ' अरे वैलेंन्टाइन डे तो कल था 14 फरवरी, फिर .. आज कैसे ? '
क्या वाकई ऎसा महत्वपूर्ण दिन मैं भूल गया था.. Nah, वस्तुतः भूले रहने का भ्रम बनाये रखा । अपने उम्र के तक़ाज़े से ? ना जी ना, बची खुची अक़्ल के तक़ाज़े से ! वरना..' कभी हम पर भी थी ज़वानी..., कोई हमसे भी करता था प्यार, हाय मेरे दिलदार .. . कभी अपना भी ज़माना था | यह रहस्य आज़ खोल रहा हूँ कि अभी भी बाथरूम में हनुमान चालिसा के बाद बचे खुचे पानी के मग्घों को मैं यही गुनगुना कर उलीचता हूँ कि..' अभी तो मँय ज़वाँन हूँ, अभी तो अंअँ उंऊँ अँअः अँ...हैँ अँहीँ हों हैँ हुँआनँ हूँ ' यह बात दीगर है कि शीशे के सामने कँघी पकड़ते ही यह गुनगुनाहट क़ाफ़ूर हो जाती है। खैर छोड़िये,आपको क्या ! सो मेरे मुँह से यही निकला आज तो 15 है, वैलेंटाइन डे कैसे ? ज़वाब का कोई अकाल थोड़े ही है, इन लेडीज़ के पास, लिहाज़ा..
प्रौढ़ावस्था में गुज़रे ज़माने का रिटेक देना जरा मुश्किल होता है किंतु वह बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के शरारत से आँखें नचा कर बोलीं, " अरे कल तो संतों की थी, आज गृहस्थों की है ! " चाय की प्याली साइडटेबुल पर रखी और पलट कर स्टाइल देती हुयी बगल के कमरे के अँधेरे में फ़ेड-आउट हो गयीं । भई वाह, कितना मौलिक भारतीयकरण किया है, इस संत भैलेंन्टईनवा का, हमरी पंडिताइन नें ! ससुर घुसे चले आ रहे हैं हमरे भारत महान में और अब इस कदर हावी होगये हैं कि उपहास के तौर पर कही गयी ई पंडिताइन की बात कहीं भविष्य में फलीभूत ही न हो जाय । वैलेंटाइन डे महाकुंभ - व्रत की 14 फरवरी, स्नानदान की 15 फरवरी, 14 स्मार्तों की-15 गृहस्थों की, ऎसा कुछ असली ठाकुरद्वारे पंचाग में दर्ज़ रहा करेगा । ओह, यह चाय की गुलामी भी बड़ा बेहूदा रोग है, अब यह न ठंडे हों जायें इसलिये हमको ही ठंड में अपना हाथ गर्म रज़ाई से बाहर निकालना पड़ा । चाय की एक चुस्की अपने होंठों को सतर्क करके ली और अपने सोच को सप्रयास आगे बढ़ाने का उपक्रम किया तो पाया कि..
यह उपभोक्तावाद का युग है मित्रों, कोई आश्चर्य न होगा कि हालमार्क वाले कोई धर्मसंसद उज्जैन-काशी में प्रायोजित ही कर दें और संत वैलेंन्टाइन दिवस हमारे पत्रा-पंचांग में अपनी जगह बना लें । पश्चिम में तो यह बिलियन डालर इवेन्ट कब का बन चुका है, हमारा भारत महान इस मामले में अभी पिछड़ा ही रह गया, इस दिशा में प्रगति की रफ़्तार बहुत धीमी है, और कम से कम मेरे लिये चिंता का विषय है ।
In Great Britain, Valentine's Day began to be popularly celebrated around the seventeenth century. By the middle of the eighteenth century, it was common for friends and lovers in all social classes to exchange small tokens of affection or handwritten notes. By the end of the century, printed cards began to replace written letters due to improvements in printing technology. Ready-made cards were an easy way for people to express their emotions in a time when direct expression of one's feelings was discouraged. Cheaper postage rates also contributed to an increase in the popularity of sending Valentine's Day greetings. Americans probably began exchanging hand-made valentines in the early 1700s. In the 1840s, Esther A. Howland began to sell the first mass-produced valentines in America.According to the Greeting Card Association, an estimated one billion valentine cards are sent each year, making Valentine's Day the second largest card-sending holiday of the year. (An estimated 2.6 billion cards are sent for Christmas.)
अब आप मान भी लो आप पिछड़ गये हो इस प्यार के व्यापार में, दकियानूसी बजरंगदल सरीखे कूढ़मगज़ कौव्वारौर मचाये पड़े हैं । उनसे तनिक पूछ लिया जाय न्यूटन के पहले कभी सेब पेड़ से गिरा ही न था, क्या ? तो फिर उनकी काहे चल रही है, अब तक ! ज़वाब न दे पायेंगे, अगर उनसे पूछ लियो कि , जरा बताओ तो ......
कहाँ रहें उनके कामदेव...जब छायै लाग बेलेन्तीनदेव ! अपने देश में रोज़ एक त्यौहार ! भला कामदेव के नाम पर एक्कौ दिन फालतू नहीं बचा अपने धुरंधरन के पास ? लो भुगतो..मौका पाय विदेशी घुस आवा !
There are varying opinions as to the origin of Valentine's Day. Some experts state that it originated from St. Valentine, a Roman who was martyred for refusing to give up Christianity. He died on February 14, 269 A.D., the same day that had been devoted to love lotteries. Legend also says that St. Valentine left a farewell note for the jailer's daughter, who had become his friend, and signed it "From Your Valentine". Other aspects of the story say that Saint Valentine served as a priest at the temple during the reign of Emperor Claudius. Claudius then had Valentine jailed for defying him. In 496 A.D. Pope Gelasius set aside February 14 to honour St. Valentine.Gradually, February 14 became the date for exchanging love messages and St. Valentine became the patron saint of lovers. The date was marked by sending poems and simple gifts such as flowers.
अब बेचारे कामदेव के नाम पर आफ़िसीयली एक दिन तो एलाट करना ही चाहिये था, न कोई त्यौहार, न कोई व्रत माहात्म्य, न कोई पूजा विधान ! जब कि भक्तों की कमी नहीं है, बहुसंख्य भक्तों में हर कोई चोरी छिपे-उल्टा सीधा पूज तो रहा ही है ! शंकरजी भस्म कर दिहिन, तौन वोहि का कउनो काम रुक गवा ? लेयो, दूसर पासपोर्ट पर आ गवा ! अब फालतू चिल्ला रहे हो, तो चिल्लाओ । जब पंडिताइन बोल दिहिन तो आगे चल के पंडितौ बोल देहैं, एक दिन संतों का, अगला दिन गृहस्थन का ! वह भले मज़ाक में बोलीं, पंडित तो पोथी में प्रसंग व तिथि निकाल ही लेंगे । फ़तवेबाज़ी सिर्फ़ कुछ टोपीधारियों का कापीराइट थोड़े ही है ! आप अभी से घर में राय कर लो, अगले वर्ष संतों में रहोगे कि गृहस्थों में ! विस्तृत विधि-विधान यहीं इसी पृष्ठ पर प्रकाशित किया जायेगा ।
2 टिप्पणी:
हाहााहाहा मजेदार पंडिताइन जी को गिफ्ट-विफ्ट भी दी या यूं ही टरका दिया।
डागदर बाबू। रोज ही वेलन्टाइन है। बस पंडिताइन खुश रखो। टेड़ी खीर जरुर है।
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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