दरअसल चिट्ठाकार समूह से एक मेल प्राप्त हुआ, जिसमें कुछ भी ग़ैर वाज़िब नहीं कहा जा सकता, न ही ऎसा कुछ ख़ास है कि यहाँ रखा जाय । मैंने अपनी समझदानी के मुताबिक उसका यथोचित उत्तर भी दे दिया किंतु लग रहा है कि आपके सम्मुख भी अपनी दो बातें इसी बहाने रख ही दूँ । कल रात ही अपने गाँव नरकटियागंज, बिहार से अपनी चाची का श्राद्धकर्म निपटा कर लौटा हूँ । दिन भर की मगज़मारी के बाद ज़ीमेल खोला, 6384 अनपढ़े मेल ( ये अपुण का इनबाक्स है, भिडु ! अक्खा यूनिवर्स अपुण का भेज़ाफ़्राई करनाइच माँगता ) साहस ज़वाब दे इससे पहले ही देवनागरी फ़ान्ट वाले सभी मेल खोलकर अपने कच्चे-पक्के ढंग से बाँच मारे, कुछ का उत्तर भी दे दिया । एक विचार आया और प्रोटोकाल, शिष्टाचार तज एक पोस्ट की भरपाई मे जुट गया ।
एक एक्कनम एक
reply-to
dramar21071@yahoo.com
to
Chithakar@googlegroups.com
date
6 Feb 2008 01:02
subject
Re: [Chitthakar] Re: याहू पर माईक्रोसॉफ्ट की बोली
mailed-by
gmail.com
प्रिय बंधु,
ब्लागीर अभिवादन
विदित हो कि मैं डाक्टर अमर कुमार एततद्वारा घोषित करता हूँ कि मैं
पेशे से कायचिकित्सक बोले तो फ़िज़िशीयन हूँ ,अतः मेरी भाषा या लेखन की
त्रुटियों पर कत्तई ध्यान न दिया जाय । ईश्वर प्रदत्त आयू में से 55 बसंत को
पतझड़ में बदलने के पश्चात अनायास ही हिंदी माता के सेवा के बहाने से
कुछेक टुटपुँजिया ब्लागिंग कर रहा हूँ । वैसे युवावस्था की हरियाली में ही
हिंदी, अंग्रेज़ी,बाँगला साहित्य के खर पतवार चरने की लत लग गयी थी ,
और अब तो लतिहरों में पंजीकरण भी हो गया है ।
गुस्ताख़ी माफ़ हो तो अर्ज़ करूँ... इन उत्सुक्ताओं को देख मुझे दर-उत्सुक्ता
हो रही है कि आपकी उत्सुक्ता के पीछे कौन सी उत्सुक्ता है ? मेरी हाज़त
का खुलासा हो जाय, वरना कायम चूर्ण जैसी किसी उत्पाद के शरणागत
होना पड़ेगा । आगे जैसी आपकी मर्ज़ी..
सादर - अमर
On 05/02/2008, Amit Gupta
On 2/5/08, Dr Amar Kumar
श्रीमन गणमान्य मूर्धन्यों,
किंतु माइक्रोसाफ़्ट के इरादे नेक नहीं लगते ।
अपनी हर सेवा के बदले एक एक दमड़ी वसूलने
में चमड़ी तक खरोंच लेता है । उसकी कारपोरेट
सोच के हैरतअंगेज़ कारनामे एक अलग विषय है ।
खैर छोडिये, हमें क्या ।
डॉ साहब, एक उत्सुक्ता है। आप पेशे से डॉक्टर हैं कि PhD वाले डॉक्टर हैं? यदि पेशे से डॉक्टर हैं तो किस तरह के हैं? मतलब दांतों के हैं या हड्डियों के हैं या जनरल फिजीशियन हैं? :)
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Courage is not the towering oak that sees storms come and go;
it is the fragile blossom that opens in the snow. -- Alice Mackenzie Swaim
http://me.amitgupta.in/
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उत्सुकता एकदम ज़ेनुईन है, बहुतेरे डाक्टर घूम रहे हैं । ज़रूरी नहीं कि शोध करके ही Ph.D. शोधा हो, मानद भी तो बाँटी जा रही है । कई रंगबाज तो अपने को ऎसे ही डाक्टर लगाते हैं और लगभग ज़बरन आपसे मनवाते भी हैं । कच्छे से लेकर लंगोटावस्था तक आपने उनको गर्ल्स कालेज़ के इर्द गिर्द ही पाया होगा , फिर अचानक ही उनके नेमप्लेट पर एक अदद डाक्टर टँगे दिखने लग पड़ते हैं । क्या करियेगा ? ये अपुण का इंडिया है, भिडु ! आपका मेरे ' कुछ ' होने पर संदेह नाज़ायज़ नहीं है । होना भी नहीं चाहिये, माहौल ही ऎसा है !
एक दूनी दो
यह है, श्रीज्ञानदत्त जी से हुआ पत्राचार व एक अदद मेरी टिप्पणी
और ज्ञ के लिये बरहा में j~j का प्रयोग करें.
On 9/26/07, Gyan Pandey <> wrote:
डा. अमर कुमार जी,
मुझे लगा था कि हमने शायद कुछ अण्ट शण्ट लिख दिया था कि आप फिर दिखे नही!
मैं पुन: कहूंगा कि इतना बढ़िया लिखते हैं तो अपने ब्लॉग को जीवंत करें.
और थोड़ी बहुत गुट बाजी - यहां तो मार-काट चल रही है नॉन इश्यूज पर!
पर अपने अन्दाज में चलने के लिये ब्लॉग का प्रयोग करना चाहिये - और कोई कम्पल्शन नहीं होना चाहिये - यह मेरा मानना है. बाकी गुटबाजी ठेंगे पर.
आपका मेल मिलना बहुत अच्छा लगा. बंगला भाषा के बारे में आपको लिखा था क्योंकि आपने अपनी पत्नी के बंगाली होने का जिक्र किया था. बंगला की समझ की हसरत बहुत है!
अच्छा, नमस्कार. श्रीमती अमर कुमार जी को भी नमस्कार.
On 9/26/07, Dr Amar Kumar <> wrote:
आदरणीय दत्त जी ,
सादर अभिवादन.
अभी आपका मेल देखा , अच्छा लगा कि आप बहुत बारीकी से देखते हैं. सहज ही चीजों को खारिज़ नही कर देते. दरअसल अतिशयोक्ति न होगी कि एक सुखद संयोग से भटक कर मेरा पन्ना पर पहुंचा
और बहुत सारे लिंक में मानसिक हलचल को टटोलने की कोशिश की तो पता चला यह तो अभिव्यक्ति की अनोखी दुनिया है. इससे पहले ब्लाग के विषय में मेरी कुछ अलग ही धारणा थी. उस पर फिर कभी !
इन्टरनेट पर लगभग ३-४ घंटे रोज़ बीतते हैं अपने व्यवसायिक ग्यान को सामयिक बनाये रखने को .थोड़ी इच्छा हुई कि जो कुछ हम देख कर तटस्थ रह जाते हैं यहां शेयर किया जाय. समस्या देवनागरी लिपि की आपके पेज़ पर ही दिये कड़ी से हल हो गयी,बराहा आई०एम०ई की मदद से.
एकलव्य की भांति लग गया ,गुरु जी. अभी भी ' ग्य' और अन्य वर्तनियों में त्रुटि होती है.
रही आपके बांग्ला सीखने की बात, तो आपका स्वागत है किंतु यहां स्पष्ट करना चाहुंगा कि मैं उत्तर बिहार के कायस्थ परिवार से हूं, १९६४ में पिता जी के तबादले के साथ अन्य असबाबों की भांति मैं भी रायबरेली पहुंचा और यहीं टिक गया.
मूल भाषा में साहित्य पढ़्ने की ललक ने मुझे बांग्ला, उर्दू, पंजाबी इत्यादि मेरे इन्टरमीडियट तक पहुंचते पहुंचते १९६९ तक सिखला दिया. मैं खुराफ़ाती सही लेकिन इसकेलिये शरत, इब्ने सफ़ी और अन्य लेखक ही जिम्मेदार हैं, क्यों वह अच्छा लिखते थे इसमें मेरा दोष नहीं है.
घरवालों के लिये तो भटका हुआ लड़का था, पिताजी ने इंजीनियर के रूप में अवतरित होने की इच्छाज़ाहिर की तो मैं मेडिकल में चला गया, बाबा से कायस्थकुल की गाथायें सुनते सुनते इतना प्रभावित हुआ कि अपना सरनेम ही उड़ा दिया. मार भी खायी किंतु आज भी संतोष है कि मैं लकीर पर नहीं चला. यह कबीरपंथी सोच कहां से पैठ गयी, स्वयं ही नही जानता. बंगभाषी प्रवासी कन्या से विवाह करना भी जैसे एक क्रांति की तरह मेरे समाज में ली गयी. लिया करें, हू केयर्स ? जैसे मेरा मोटो है .
तो पंडित जी आपका मेल मेरे लिये एक लाइटहाउस है और मैं प्रयास करूंगा कि अपनी उलट्बांसियो के साथ दिखता रहूं, बेशक कान मरोड़ने का पहला अधिकार आपने ही झटक लिया है. यह शिरोधार्य रहेगा, आचार्य !
थोड़ी बहुत गुट्बाजी ,मुझको किंचित यहां भी परिलक्षित हो रही है यानि ब्लागशेयरिंग में . खेद है कि यह दीमक मुद्रित हिंदी साहित्य को तो खा ही रही है, अब यहां भी पैर पसार रही है. आशा है मेरी यह आशंका निर्मूल हो .
इति शुभ
आपका अमर
On 17/09/2007, Gyan Pandey
चलिये आप रायबरेली में हैं - इलाहाबाद के पास है; सो हम पड़ोसी हुये. और बंगला भाषा का विराट साहित्य देख कर बंगला सीखने का मन दशकों से है. शायद आपके स्नेह से वह सम्भव हो सके!
पुन: धन्यवाद.
---------- Forwarded message ----------
From: ??? ?? ??.....?? ?? !
Date: Sep 17, 2007 5:10 AM
Subject: [ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल]
New comment on वाह, अजय शंकर पाण्डे!.
To: gyandutt@gmail.com
कुछ तो है.....जो कि ! has left a new comment on your post " वाह, अजय शंकर पाण्डे! ":
माफ़ करियेगा बीच मे कूद रहा हू.
का करियेगा बीच मे कूदना तो हम लोगन का नेशनल शगल है.
ई अजय जी की दूरदर्शिता समझिये या बेबसी कि उनको यह तथ्य अकाट्य लगा कि ई सब रोक पायेगे तो इसको घुमा के
मान्यता दे दिये. वाहवाही बटोरने की क्या बात है ? लालू जी भी तो इस अन्डरहैन्ड खेल का मर्म समझ के घुमा के पब्लिक के जेब से पइसा निकाल रहे है अउर मैनेजमेन्ट गुरु का तमगा जीत रहे है. पब्लिक के जे्ब से धन तो निकल ही रहा है, बस खजाना गैरसरकारी से सरकारी हो गया. हम लोग भी दे-दिवा के काम निकलवाने के थ्रिल के आदी पहले ही से थे अब रसीद मिल जाता है,इतना ही अन्तर है .
गलत करिये ,दे कर छूट जाइये,यही चातुर्य या कहिये कि दुनियादारी कहलाता है.
गाजियाबाद का खेला तो हमारी मानसिकता को परोक्ष मान्यता देता है, और सुविधा कितना है, अब दस सीट पर अलग अलग चढावा का टेन्शन नही, फ़ारम भरिये १५ % के हिसाब से भर कर काउन्टर पर जमा कर दीजिये . रसीद ले लीजिये . खतम बात !
दत्त जी क्षमा करेगे, ब्लागगीरी की दुनिया मे आपकी हलचल खीच ही लाती है ,
एक आपबीती बयान करना चाहुगा, जब पहले पहले शयनयान चला था, बडी अफ़रातफ़री थी नियम कायदा स्पष्ट नही था ( वैसे अभी भी कहा है,अपनी अपनी व्याख्याये है ) तो शिमला से एक अधिवेशन से एम०बी०बी०एस० लौट रहा था , अम्बाला से इस शयनयान मे शयन करता हुआ सफ़र कर रहा था बीबी बच्चे आरक्षण दर्प से यात्रा सुख ले रहे थे, कभी नीचे कभी ऊपर .लखनऊ तक का टिकट था जाना रायबरेली ! बुकिग की गलती, ठीक है भाई , लखनऊ मे टिकट बढवा लेगे परेशान मत करो का रोब मारते हुये लखनऊ तक आ गये, लखनऊ मे बाहर तक लपक कर एक करिया कोट वाले से टिकट अगले स्टापेज़ तक एक्सटेंड करने की पेशकश की । महकमा का काला कोट लोग चा-पानी मे इतना बिजी था कि एक लताड सुनना पडा अपनी सीट पर जाइये न क्यो पीछे पीछे नाच रहे है. चलो भाई ठीके तो कह रहे है ड्युटी डिब्बवा के भीतर है न, घर तक दौडाइयेगा ? बगल से कोनो बोला .
चले आये ,मन नही माना बाहर जा कर चार ठो जनरल टिकट ले आये, प्रूफ़ है लखनऊवे से बैठे है, मेहरारु को अपनी समझदारी का कायल कर दिया.
रायबरेली बीस किलोमीटर रह गया तो काले कोट महोदय अवतरित हुये. टिखट.. कहते हुये हाथ बढाये , टिकट देखते ही भडक गये, इ स्लीपर है अउर रिजर्भ क्लास है,जनरल पर चल रहे है ?
जानते तो शायद वह भी नही थे, असमन्जस उनके चेहरे से बोल रहा था. अपने को सम्भाल कर बोले लिखे पढे होकर गलत काम करते है, टिकटवा जेब के हवाले करते हुए आगे बढ गये. मेरी बीबी का बन्गाली खून एकदम सर्द हो गया ,मेरी बाह थाम कर फुसफुसाइ- ऎ कैसे उतरेगे ? देखा जायेगा -मै आश्वस्त दिखना चाहते हुये बोला.
करिया कोट महोदय टट्टी के पास कुछ लोगो से पता नही क्या फरिया रहे थे . अचानक हमारी तरफ़ टिकट लहरा कर आवाज़ दिये- मिस्टर इधर आइये...मेरे निश्चिन्त दिखने से असहज हो रहे थे. पास गया ,सिर झुकाये झुकाये बोले लाइये पचास रूपये ! काहे के ? बबूला हो गये- एक तो गलत काम करते है, फिर काहे के ? बुलाऊ आर पी एफ़ ?
बीबी अब तक शायद कल्पना मे मुझे ज़ेल मे देख रही थी, यथार्थ होता जान लपक कर आयी. हमको ये-वो करने लगी. मै शान्ति से बोला सर चलिये गलत ही सही लेकिन इसका अर्थद्न्ड भी तो होगा, वही बता दीजिये. एक दम फुस्स हो गये आजिजी से हमको और अगल बगल की पब्लिक को देखा, जैसे मेरे सनकी होने की गवाहो को तौल रहे हो. धमकाया- राय बरेली आने वाला है पैसा भरेगे ? स्वर मे कुछ कुछ होश मे आने के आग्रह का ममत्व भी था. नही साहब हम तो पैसा ही देगे, रसीद काटिये रेलवे को पैसा जायेगा.
सिर खुजलाते हुये और शायद मेरे अविवेक पर खीजते हुये टिकट वापस जेबायमान करते हुये बोले- ठीक है स्टेशन पर टिकट ले लीजियेगा. उम्मीद रही होगी वहा़ कोइ घाघ सीनियर हमको डील कर लेगा.. आगे क्या हुआ वह यहा पर अप्रासन्गिक है.
तो मै देने के लिये अड गया और गाजियाबाद के अजय जी सरकार के लिये लेने पर अड गये ..तो इस पर चर्चा क्यो ?
यह सनक ही सही लेकिन आज इसकी जरूरत है...चलता है...चलने दीजिये की सुरती बहुत ठोकी जा चुकी, कडवाने लगे तो थूकना ही तो चाहिये सर !
प्रसन्गवश रेलवे का जिक्र आ गया वरना हर विभाग के, हर क्षेत्र के अनगिनत उदाहरण है..फिर कभी
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Posted by कुछ तो है.....जो कि ! to ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल at September 17, 2007 5:10 AM
--
With Best Regards,
Gyan Dutt Pandey
Allahabad (U.P.)
India - 211004
ज़ाहिर है कि उपरोक्त रिप्रोडक्शन से व्यक्तिगत प्राइवेसी का हनन हो रहा है , तो विवाद भी उठेंगे । उचित अनुचित पर सिर धुने जायेंगे । पर सनद तो सनद ही रहेगा ... यह इंटरनेट भी झक्कास चीज है भिडु , जो लिख दिया सो लिख दिया, दीमक के चाटने का लोचा ई नहीं इध्धर को !
दो में लगा भागा
तो देव और देवियों, ( सज्जन का स्त्रीलिंग ? मेरे को नईं मालूम ! ) अमिं जी०एस०वी०एम० मेडिकल कालेज, कानपुर से स्नातक इत्यादि इत्यादि हूँ, और सम्प्रति राहू सरीखा हिंदी ब्लागिंग का अमृत चखने आपकी पंगत में चुपके से ठँसा पड़ा हूँ । इससे ज्यादा ओर कुछ भी तो नहीं
चोर निकल के भागा
अब यहाँ से फूट रहा हूँ, आप राहू शान्ति को पुरोहित ढूँढें । नमस्कार !
और सुराग क्या मिला भला ?
1 . मैं दवाई-दारू वाला असली डाक्टर ही हूँ। 2 . रही बात माइक्रोसाफ़्ट की, तो उसका खेला अज़ीब है दद्दू , बिलियन और मिलियन के सौदे रुपये अट्ठन्नी की तरह करने वालों के बीच हम त्रिशंकुओं का क्या काम ? काम तो विन्डोज़ पर कर रहे हैं ,और सेवा गूगल की ले रहे हैं , यानि गुरु-गोविंद की जोड़ी ! तो फिर काके लागूँ पाँय, बंधुवर आपै दियो बताय । 3 . वइसे बिलगेटवा जब अपने मैसेन्ज़र का याहू मैसेन्ज़र से मिलाय दिहिस, तबै हम अटकल लगावा कि यू सार ईस्ट इंडिया कम्पनी बन के घुसि आवा, याहू मा । अउर अब देखि लेयो । 4. 2005 में बिल गेट्स बंगलौर मे भाषण ठोक गये,' India is graveyard of our innovations ' हमारा मीडिया मुँह बाये जंभुआने लगा, पीछे काकटेल पार्टी में शोर मच रहा था, और गेट साहब का प्रवचन खिंचता ही जा रहा था । वैसे हमारे मीडियाकर्मियों ने बोतलहरामी न करके अपनी ईमानदारी का परिचय दिया , और हम भी शर्मा कर ज़ेनुईन विंडोज़ खरीद ही लाये । यह बात अलग है कि कई बार तो एक्टिवेशन के लिये गिड़गिड़ाने तक की नौबत आ गयी, खैर यह कोई ख़ास मुद्दा नहीं, इस ज़माने में शरीफों को ही अपने शरीफ होने का हवाला देना पड़ता है !
अपने डाक्टर होने का हवाला देने में, हमने कुछेक व्यक्तिगत मेल बिना इज़ाज़त सार्वजनिक कर दिये, तो क्षमा किया जाय । मैं तो आलरेडी न घर का - न घाट का हूँ । मेरे मरीज़ ही सहज कहाँ विश्वास करते हैं कि मैं नुस्ख़े के अलावा कुछ और भी लिखने की अक्लियत रखता हूँ !
3 टिप्पणी:
अमर जी आप वाकई अमर हैं। ज्ञान जी से भिड़े और भीड़ू बना डाला। तो आज से अपन के भी भीड़ू। नाम और ईमेल ऐसा है कि वकील होते हुए लोग डॉक्टर साहब कह बैठते हैं। हम भी अट्ठाईस बरस से अपनी होमियोपैथी से अपने चार मेम्बरों के परिवार की डॉक्टरी कर रहे हैं। इस लिए बुरा नहीं लगता। नहीं तो डॉक्टर और अस्पताल से मितली आने लगती है। खैर आप की चकल्लस में आ ही गए हैं तो मिलते रहेंगे यदा कदा।
द्विवेदी महाराज.
आपके टिप्पणी का धन्यवाद,
यहाँ तो सभी भिड़ु ही हैं, नीरस ब्लाग में थोड़ा
चाटमसाला न हो , गुदगुदी न हो तो बेस्वाद डिश
चखने भला कौन आयेगा । यह मेरी चक्कलस नहीं,
मुझे तो अक्सर पूरी दुनिया ही ईश्वर की चक्कलस लगती है ! क्या करियेगा ? इंज़्वाय कीजिये !
महाशक्ति !!
बस आकर खड़े हो गये, कुछ बोलेंगे नहीं ।
आपके तेवर तो मुझे घेवर जैसे मीठे लगते
हैं, कुछ कहेंगे या गिरा अनयन, नयन बिनु
बानी का फ़ेज़ चल रहा है, आपका ?
सादर
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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