खोपड़ी बहुत बड़ी चीज़ है , यारों । इंसान के पास आख़िर खोपड़ी के सिवा और कुछ है भी तो नहीं । हर छोटा बड़ा, खोटा खरा अगले को अपनी खोपड़ी का लोहा मनवाने में ही अपनी आन बान शान समझता है । देखा जाय तो ठीक भी है, मैं इसका बुरा नहीं मानता । हम लालाओं ( कायस्थों ) की तो जमापूँजी ही, यही है । सारी दुनिया ईर्ष्या से जली जाती है । लाला की खोपड़ी की तुलना पता नहीं किस किस '...ड़ी ' से की जाती है, तो हुआ करे ! जलने वाले जला करें, खोपड़ी हमारे पास है ! मेरी पंडिताइन को देख अगर कोई कमेंन्ट करता था, तो मैं उलझता नहीं बल्कि लक्का कबूतर हो जाता था, कुछ तो है... हमारे साथ, तभी तो ? बिसनौटे क्या ख़ाक कमेंन्ट लिया करेंगे ! अलबत्ता अपना ब्लागजगत इसका अपवाद है , हुआ करे । मैं तो यदा कदा पोस्ट ठेलता ही रहूँगा । अपने किशन भगवान भी गीता में शायद कहीं पर, यह कहते हुये सुने गये थे कि,' पोस्ट किये जा, टिप्पणी की चिन्ता मत कर ।'
यदि आप वाकई गंभीरता से पढ़ रहे हों, तो मैं आगे बढूँ ? फिर ठीक है, आप इसको अतिशयोक्ति तो नहीं मान रहे हैं । अपना भेज़ा..और दूसरे का पैसा सबको अथाह लगता है, फिर मुझे क्यों नहीं ? पैसा तो हमारे वित्तमंत्री महोदय इस बुरी तरह फ़्राई किये दे रहे हैं कि वह धुँआ दे देकर सिकुड़ता ही जा रहा है । अपुन को कोई चिन्ताइच नहीं, पैसे को हमेशा से मैल समझा गया और मैं इस समझदारी का आदर करता हूँ । अब रह गया भेज़ा , तो जब से फिलिम वालों की कुदृष्टि भेज़े पर हुई मुझे थोड़ी चिन्ता अवश्य हुई कि अब यह खुल्लमखुल्ला भेज़ा फ़्राई करने पर उतारू हैं, और अभी हाल में एक भेज़ा फ़्राई परोसा भी जा चुका है । आज़ भी यह पोस्ट न लिखता, लेकिन ' ख़ुदा के लिये ' के कुछ संवाद , जो मुझे अपने कापीराइट लगते थे, सुने तो लगा कि उरे बाबा, यह पड़ोसी मुलुक वाला हमारा डायलाग कहाँ से टीप दिया रे ! फौरन पहुँचो ब्लागर पर और अपना हक़ पेश करो, वरना वहाँ भी कोई दावा ठोक देगा । यहाँ स्टे ले आओ, शोयब मंसूर से तो बाद में निपटेंगे । वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल अपने बस का ना है । मन्नै तो अपणा ज़िल्ला अदालत भी भित्तर से ना देक्खा । ( द्विवेदी जी,अन्यथा न लें । हमलोग तो मौसेरे भाई हैं ) हाँ, मैंने फ़िल्म तो पाइरेट बे टोरेंट से डाउनलोड करके अलबत्ता देखी है, केवल यह सोच कर कि, " देखें हमारे पड़ोसी ने क्या राँधा है ? यह ख़ुशबू कैसी है ? वैसे पाकिस्तानी स्टेज़ का तो मैं मुरीद हूँ । "
ज़नाब शोयब मंसूर साहब ने इस फ़िल्म में संवाद बुलवाये हैं, " दाढ़ी में ही दीन नहीं औ' दीन में दाढ़ी नहीं " फिर आगे उन्होंने इसका तफ़सरा किया है कि ज़िन्ना व इक़बाल के दाढ़ी नहीं थी और वह पतलून ही पहना करते थे, ख़ुदा के वास्ते दीन को दाढ़ी से न जोड़ो ! आपने बज़ा फ़रमाया ज़नाब लेकिन यह ज़ुमला तो मैंने 1971-72 के दौर में अपने छात्रावास में उछाला था, इसे आपने कहाँ से लपक लिया ? हो सकता है, सरहद लाँघ कर मेरी फ़्रीक्वेंसी आपके ज़ेहनियत से मिल गयी हो या फिर बाकी लोग भी ऎसाही कुछ महसूस करते रहें हों लेकिन ज़ुबाँ पर ताला मारे बैठे हों । जो भी हो, मैं तो यही कहूँगा कि, " मेरी खुपड़िया में लागा चोर..मुसाफ़िर, देख पड़ोस की ओर.." ! वैसे, आपका यह बयान काबिले तारीफ़ है मंसूर साहब , ग़र यह आपने महज़ तालियाँ बटोरने को इस फ़िल्म में चस्पाँ न किया हो !
क्योंकि मेरा ज़ाती तज़ुर्बा तो कुछ और ही ढंग से नुमायाँ हुआ था । अपने एम०बी०बी०एस के दौरान हास्टल में मैंने पाया कि बाँग्लादेश की मुक्ति के बाद हमारे चंद मुस्लमीन भाईयों का मिज़ाज़ ही कुछ बदला हुआ है । ज़ल्द ब ज़ल्द नज़रें मिला कर बात तक न करते थे । बड़ी क़ोफ़्त होती थी, क्यों भाई ? समर्पण तो ज़नरल नियाज़ी ने किया है, पाकिस्तान की फ़ौज़ें हारी हैं । भला आपकी नज़रें नीची क्यों ? मेरे मित्र व रूम पार्टनर अशोक चौहान मुझपर खीझा करते थे, " यार, तुम बलवा सलवा करवाओगे ", बेनाझाबर, चुन्नीगंज़ वगैरह ज़्यादा दूर भी नहीं था । फिर यह दिखने लगा कि उनमें से चंद शख़्शियत दाढ़ी रखने लगी, हैलेट की ड्यूटी से फ़ारिग हो, हास्टल आते ही ऎप्रन वगैरह फेंक फाँक अलीगढ़ी पोशाक पहन कर टहला करते थे, और सिर पर गोल टोपी !
हालाँकि, मेरे मित्रों में इक़बाल अहमद जैसे भी थे, जो हर मंगलवार को एच०बी०टी०आई के अंदर वाले शार्टकट से नवाबगंज़ हनुमान मंदिर भी जाया करते थे । बाकायदा माथा टेकते थे, हँस कर कहते कि , यार अपने पुरखों ने जो ब्लंडर मिस्टेक किया उसकी माफ़ी माँग लेता हूँ । मेरे व्रत तोड़ते ही एक सिगरेट सुलगा मेरे संग शेयर करते थे, तब 60 पैसे डिब्बी वाली कैप्सटन अकेले अफ़ोर्ड कर पाना कठिन होता था । उसके आधे दाम में चारमीनार आया करती थी, हम लोगों के अध्ययन के घंटों की अनिवार्यता थी, वह तो ! इसलिये लक्ज़री में शुमार नहीं की जाती थी ।
दूसरी तरफ़ इमरान मोईन जैसे शख़्स भी थे, जो इक़बाल अहमद सरीखों पर लानतें भेजा करते । इमरान मोईनुल यानि कि एक कृशकाय ढाँचें पर टँगा हुआ छिला अंडा, जिससे लटकती हुई एक अदद बिखरे हुये तिनकों सी कूँचीनुमा दाढ़ी , पंखे की हवा में दाँयें बाँयें डोला करती । बातें करते हुये वह बड़े नाज़ से उसे सहलाते रहते । एक दफ़ा किसी बात पर उनकी रज़ामंदी वास्ते मैंने लाड़ से उनकी दाढ़ी सहला दी । ऊई अल्लाह, यह तो लेने के देने पड़ गये । मियाँजी पाज़ामें से बाहर थे, गुस्से से थरथर काँपते हुये बोले, ' अमर , हमसे दोस्ती करो, हमारी दाढ़ी से नहीं । आइंदा यह हरकत की तो निहायत बुरा होगा ।' एकाएक मैं कुछ समझा ही नहीं, बस इतना समझ में आ रहा था कि इनको पटक दूँ फिर पूछूँ , ' बोल, क्या निहायत और क्या बुरा होगा । अलग अलग करके बता कि क्या कर लेगा ? ' लेकिन जैसा कि शरीफ़ आदमी करते हैं, यह सब मैं मन ही मन बोल रहा था । उनसे तो ज़ाहिराना इतना ही पूछा, यार तेरी दाढ़ी की क़लफ़ क्रीज़ तक डिस्टर्ब नहीं हुई, फिर तू क्यों इतना डिस्टर्ब हो रहा है ? ज़नाब चश्मे नूर फिर बिदक गये, 'तुम साले क्या जानो , दाढ़ी का ताल्लुक़ हमारे दीन से है ! इस पर हाथ मत लगाया करो, समझे कि नहीं ? अब मुझे भी 100% असली वाला गुस्सा आ गया, " चलो घुस्सो ! अग़र दाढ़ी में ही दीन है तो बैठ कर अपना दीन सहलाते रहो । " और उनके इनसे-उनसे भविष्य में संभोग कर लेने की कस्में खाता हुआ , मैं वहाँ से पलट लिया ।
वह पीछे से चिल्ला रहे थे, " तुम सालों भी तो चुटइया रखते हो और अपने धरम को उसमें बाँधे बाँधे तुम्हारे पंडे घूमा करते हैं, जाकर उसको सहलाओ, फिर मेरी सहलाना । " हमारे इक़बाल भाई , जो स्वयं ही सफ़ाचट्ट महाराज थे, मेरे इस डायलाग के पब्लिसिटी मॆं जी जान से जुट गये और लगभग सफ़ल रहे । ख़ुदा उनको उम्रदराज़ करे, आजकल कैप्टेनगंज़ में हैं । तो यह थी एक डायलाग सृजन की कथा !
पोस्ट लंबी हो रही है, चलते चलते इसी संदर्भ की एक अन्य घटना का ज़िक्र करने की हाज़त हो रही है । तो, वह भी कर ही लेने दीजिये, कल हो ना हो ! कुछेक वर्ष पहले शाम को मेरे क्लिनिक में एक सज्जन आये । लहीम सहीम कद्दावर शख़्सियत के मालिक , वह बेचैनी से बाहर टहल रहे थे यह तो काँच के पार दिख रहा था, लेकिन मेरा ध्यान बरबस खींच रहे थे । उनसे ज़्यादा मैं उतावला होने लगा कि इनकी पारी ज़ल्द आये, देखूँ तो यह कौन है ? खैर, वह दाख़िल हुये, बड़े अदब से सलाम किया, फिर अपना तआर्रूफ़ दिया कि मुझे नक़वी साहब ने भेजा है और मुझे यह वह तक़लीफ़ है । मेरे मुआइने के बाद, वह फिर मुख़ातिब हुये , " डाक्टर साहिब, दवाइयाँ कैसे लेनी हैं, यह निशान बना दीजियेगा । " मैं हिंदी में ही अपने निर्देश लिखता हूँ, इसलिये थोड़े ग़ुमान से बोला अंग्रेज़ी-हिंदी जिसमें चाहें लिख दूँगा । वह फ़ौरन चौंक पड़े, प्रतिवाद में बोले कि उनको हिंदी अंग्रेज़ी नहीं आती लिहाज़ा निशान के ज़रिये ही समझ लेंगे । अब मैं चौंका, क्या चक्कर है ? अच्छा भला पढ़ा लिखा लगता है, सन्निपात के लक्षण भी नहीं दिखते फिर भी कहता है कि पढ़ना नहीं जानता !
मेरे चेहरे को वह अलबत्ता पढ़ ले गये । थोड़ी माफ़ी माँगने के अंदाज़ में बोले, "मैं दरअसल बिब्बो की शादी में कराची से आया हूँ, और सिंधी ( मुल्तानी पश्तो लिपि का मिला जुला रूप ) व उर्दू के अलावा कुछ और नहीं पढ़ पाते । उनकी परेशानी समझ मैंने बड़ी सहज़ता से लिखना शुरु किया ....
ايک ايک دن ٔم تين بار ک کپسول روذ رات
एक एक दिन में तीन बार, एक कैप्सूल रोज़ रात
लो,जी ! वह फिर चौंके, थोड़े अविश्वास से कुछ पल मुझे देखते रहे । मेरे माथे पर एक छोटा सा लाल टीका, बगल में माँ दुर्गा कि मूर्ति...कुछ संकोच से पूछा, ' आप तो हिन्दू हैं ? ' हाँ भाई, बेशक ! बेचारे हकला पड़े, " तो..तो, फिर यह उर्दू आपके ख़ुशख़त में कैसे ? " अच्छा मौका है, चलो एक सिक्सर ठोक दिया जाये । मैंने कहा , ' मैं क्यों नहीं लिख सकता ? क्या उर्दू आपकी ही मिल्कियत है ? उर्दू भी तो आप इसी मुल्क़ से ले गये हैं ! ' एकदम से खड़बड़ा गये श्रीमान जी," नहीं नहीं हम लोगों को वहाँ कुछ और ही बताया जाता है । " मैदान फ़ेवर कर रही है, मत चूके चौहान ! इस बार बाउंड्री पार करा दो, अमर कुमार ! अतः मैंने हँस कर कहा, ' यही न कि क़ाफ़ ( ک ) से क़ाफ़िर ( کافر ) , जिसमें धोती कुर्ता में एक आदमी दिखाया गया है, और हे ( ح ) से हिंदू ( حندو ) जिसमें एक सिर घुटे चुटियाधारी पंडितजी तिलक लगाये हुये अलिफ़ अव्वल की क़िताबों में बिसूर रहे हैं । ' एकदम से खिसिया गये, चंद मिनट पहले उनका फटता हुआ माथा जैसे फ़िस्स हो गया , " यह तो अब सारी दुनिया जानती है कि हमारे हुक़्मरानों ने पाकिस्तान को क्या दिया और दे रहे हैं । वापस जाने से पहले एक बार आपसे फिर मिलूँगा, अल्लाह हाफ़िज़ ! " वह मिलने तो नहीं आये, लेकिन कुछ वर्षों तक ख़तों का आना जारी रहा जिसके ज़रिये उन्होंने इत्तिल्ला दी कि मेरा पर्चा उन्होंने फ़्रेम करवा कर अपने होटेल में लगवा रखा है और वह उनके लिये कितना बेशकीमती है । एक पल को हर आने जाने वाला उसके सामने ठिठक कर एक नज़र देखता ज़रूर है । यह किस्सा मैंने कोई आत्मप्रशस्ति में नहीं लिखा है । यह तो , केवल एक झलक देता है कि लोचा कहाँ पर है ! क्या वह नहीं जानते कि भाषा का प्रयोग इंसानों को बाँटने का प्राचीनतम ज़रिया है ? सरकारें दोषी हैं, वह मीडिया भी वही देती है जो उसको माफ़िक आता है । सरबजीत को लेकर कितने जनों ने कालम लिखे होंगे, चेक भी अपने एकाउंट में जमा कर दिया होगा । किंतु, कश्मीर सिंह के रिहाई के बदले में, यहाँ से एक पाकिस्तानी सैनिक का शव अपमानजनक तरीके से भेजने पर मीडिया धृतराष्ट्र बन गयी थी ।
इस परिप्रेक्ष्य में ख़ुदा के लिये का प्रदर्शन, उसकी कथावस्तु एवं संवादों में निहित अर्थ एक ख़ास मायने रखते हैं । पल भर के लिये कोई हमें प्यार दे तो रहा है....झूठा ही सही !
आपने ऎसा उलझा दिया कि मैं भूल ही गया कि मेरी खुपड़िया में लागा चोर
1 टिप्पणी:
आज फिर वही मुहावरा मौजूद है पोस्ट में जो पिछली सप्ताह की सर्वोत्तम पोस्ट में था। बल्कि यह बेहतर है।
यह एक संग्रहणीय पोस्ट है। फायरफॉक्स मेरा ब्राउजर है। उस में अक्षरों के बीच की मात्राओं के गोले नजर आते हैं और टेक्स्ट को पढ़ा नही जा सकता है। शुरु में जब मैं रेमिंग्टन की बोर्ड से टाइप करता था तो ऐसा होता था। लेकिन जब से मैं ने इनस्क्रिप्ट सीख ली तब से यह समस्या समाप्त हो गई है। इस कारण से आप की पोस्ट को मुझे कॉपी कर के वर्ड में लाकर पढ़ना पड़ता है।
इस का इलाज फायरफॉक्स में कहीं है। पर मुझे नहीं मिल रहा है। इंए ब्राउजर में पोस्ट सही नजर आती है। किसी तकनीकी विशेषज्ञ की मदद लेनी होगी।
आज आप की पोस्ट में जो मुहावरा है उसे विकसित करेंगे तो यूनीक हो जाएगा। आप की अपनी शैली बन रही है। बात को इतने जोरदार ढंग से रखा गया है कि और कोई भी दूसरा फॉर्म कमजोर पड़ेगा। बधाई।
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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