जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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13 April 2008

या देवि सर्वभूतेषू .... ?

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यह प्रश्नचिह्न, क्यों ? आज षष्ठी है....' षष्ठं कात्यायनी च सप्तमं कालरात्री ', और इस दुर्लभ संधिबेला में , ऎसे पोस्ट  से कहीं अनर्थ तो न हो जाये , कुछ तो माँ से डरो, यह कोई और नहीं, पंडिताइन की भयातुर शंका है । इस पावन नवरात्रि की महिमा, आजकल तो घर घर गायी जा रही होगी, और तुम ? तुम ऎसा करोगे, मैं सोच भी नहीं सकती, छिःह !! यह लेडीज़ लोग, आख़िर क्यों मौके बेमौके अपनी फ़्री टीका मीमांसा प्रस्तुत किया करती हैं ? याकि यह सौभाग्य केवल मुझे ही प्राप्त है ?  

                                                       त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदो भवः - अमर                                                          

सोच तो मैं भी रहा हूँ ! जो बंदा सन 1968-69 के दौर से ही माँ का आँचल पकड़े हुये हो, श्री दुर्गा सप्तशती पर सन 1980-81 तक अधिकार प्राप्त कर चुका हो ( मैं नहीं, लोग ऎसा मानते हैं ) , वह अनायास ऎसी पोस्ट क्यों लिखने बैठ गया ? मन को दो दिन समझाने में लगे, ' मत लिखो, किंवा भाईलोग इसको पब्लिसिटी हथकंडा ही मान लें तो ? ज्ञानू गुरु का पावरपाइंट जड़ित पोस्ट देखा , तो बल मिला कि अपने को व्यक्त कर ही देना चाहिये । शायद पीछे से सुकुल महाराज ( फ़ुरसतिया फ़ेम वाले ) भी कान में गूँज रहे थे , लिखो यार , तुम्हार कोऊ का करिहे ! संशय से उबरा तो फिर, यह डर सताने लगा कि कहीं मैं माँ की चोखेर बाली ( চোখের বালি - means - आँख की किरकिरी ) ही न बन जाऊँ ? इतने वर्षों की सेवा साधना के बाद , पिछले दो वर्ष से व्रत-पाठ इत्यादि छोड़े बैठा हूँ । यहाँ तक तो ठीक था, क्योंकि मेरे आस्था-विश्वास में लेशमात्र भी कमी नहीं आयी है, बस केवल कलश स्थापन, भाँति भाँति के नियम विधानों से उपवास एवं ' हों-हों ' करते हुये सप्तशतीपाठ करना छोड़ रखा है । जबकि यही सब नवरात्रि के दिनों का स्टेटस सिम्बल है ! कई वर्षों तक दशमी को तड़के उठ अपने घर की पूजा से तृप्त हो, पूर्णाहुति के लिये 120 कि०मी० कार भगाता हुआ, गोविन्दपुरी, इलाहाबाद पहुँचा करता था । अकेले मैं ही नहीं, बल्कि राजा नहीं फ़कीर के बेटे अजयप्रताप सिंह, तरुण तेजपाल इत्यादि का तहलका भी वहाँ नियमपूर्वक उपस्थित रहा करता था ।तो फिर,यह प्रश्नचिह्न क्यों ?

                         ्छोड़ गये बलमा-अमर क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणकालिके - अमर छोड़ गये बालम-अमर

यह प्रश्नचिह्न तो  मैं अपने सम्मुख रख रहा हूँ । वस्तुतः ' देवि के सर्वभूतेषू ' होने पर संशय करने की विद्यता, मेरे पास है ही नहीं, और न तो मैं चार्वाक का चेला ही हूँ । मार्कण्डेय महाराज भी उवाचते रहे हैं, ' भविष्यति न संशय : '   बल्कि इसी सम्पुट के साथ वह ऊँघते श्रोता को जगाते भी रहे हैं, जैसे इस युग में राहत कोष की घोषणा करके उखड़ती हुई पब्लिक को जगाया जाता है । सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥ फिर ? लफ़ड़ा कहाँ है, संशय क्या है ? आस्था में तर्क का स्थान तो RAC में भी नहीं है, फिर बवाल क्यों काट रहे हो ?

बिल्कुल वाज़िब बात  बोले हैं, आप ! तो, सुनिये ... जितना अध्याय सुन सकते हों, उतना ही सुनिये । फिर बोलियेगा !  पूरे नवरात्रि में ऎसा अफ़रातफ़री लोग मचाये रहते हैं कि मेरी भैंस बुद्धि पानी में गोते खाने लगती है, भले ही वह कितना गंदा हो । कलंकित माथों पर भी लाल टीके चमचमाने लग पड़ते हैं, इतना लाल.. कि एकबारगी तय कर पाना कठिन होता है कि यह डैंज़र आदमी है या कोई सिद्ध पुरुष, जो सीधे माँ के पास से  महिषासुर का रक्त  ही उड़ा कर ले आया हो । आप इस सकते से उबर गये हों और ख़ुदा न ख़ास्ता वह महापुरुष आपके परिचित हुये तो वह सार्वभौमिक श्वानपरिचय के अंदाज़ में आपको सूँघते हैं, ' सर, आप तो व्रत होंगे ? ' अब यह सीधे आपके ठसके पर प्रहार है, या तो आप खिसिया लीज़िये, ' नहीं, थोड़ी तबियत खराब थी, शरबत वरबत पीना पड़ता सो मिसेज़ ने मना कर दिया । ' अब यहाँ एक दूसरे किस्म का सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है । आपका मातहत है,या आपके पास कोई फँसी गोट नवरात्रि में ही सुलटा लेने के संकल्प से टीकायमान हो घर से कूच किया है, तो वह चेहरे से कनस्तर भर सहानुभूति ढरकाता हुआ दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठा देता है, ' सब माँ की इच्छा, भला करें माई ' , यदि आपके चेहरे पर फूँक न दे तो कुशल समझें । अच्छा चलो, मान लेते हैं कि आपमें कुछ ठसका ठुँसा पड़ा है, फिर क्या कहना ?

आप फ़ौरन तमक कर  कहते हैं, ' नहीं यार, व्रत है । ' मत चूके चौहान, मोर्चा खोल ही दो, आन बिहाफ़ आफ़ होल फ़ेमिली , ' हमारे यहाँ पूरा परिवार, बल्कि बच्चे भी व्रत हैं, दसियों साल से ! ' थोड़ा ज़्यादा हो गया, दो कदम पीछे हट लो, गुरु । आप संशोधन पेश करते हैं, ' बशर्ते बच्चा घुटनों के बल न चल रहा हो, हमारी तो कुलदेवी ठहरीं, दद्दू ! ' कह कर माँ की परमानेंन्ट पोस्टिंग अपने यहाँ होने की तस्दीक़ कर ही दीजिये । अगला भगत, तो स्वयं ही चुप हो जायेगा ।

लेकिन क्यों चुप हो जाये ? भगवान ने जब फाड़ने को मुँह दिया है, तो क्यों चुप हो जाये ? गाल बजाना हमारी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है । केन्द्र से आरंभ हो कर, यह महामारी राज्य तक ही नहीं थमती बल्कि अपुन के घर-परिवार तक को संक्रमित किये हुये है ।यह विषय, फिर कभी !क्योंकि मैं भी तो यही कर रहा हूँ तो ज़नाब, डिफ़ेंस को तैयार रहें । एक भेदभरी निग़ाह आप पर टिकी हुई है, " पूरा कि सिर्फ़ अगला-पिछला ? " यह कोई पब्लिक प्रासेक्यूटर नहीं, नारद मुनि का रिपोर्टर है, नारायण नारायण, पूरा नवरात्रि स्पेशल बुक करवाये हो कि सिर्फ़ इंज़न औ' गार्ड के डिब्बे से काम चलाय रहे हो ? खैर छोड़ो, अब शुरु होता है... पाँचवी पास वाला सवाल, " एक टाइम खाते होंगे, फलाहारी नमक वाला ? " कलश भी बैठाते हैं कि केवल रात में छान-फूँक कर ही इतिश्री कर लेते हैं ? " आप तन जाते हैं,' नहीं भाई, पंडित आता है ।वही छज़लापुर वाला,विद्वान है !' यह आपका बड़प्पन हैं कि आपने स्वीकार तो किया कि ' माताजी ' को रिझाने में आप स्वावलंबी नहीं अपितु छज़लापुर वाली पार्टी को निविदा थमाये पड़े हैं।पार्टी  इसलिये कह रहा हूँ,क्योंकि पंडित महाराज की एक पूरी टीम है, सीज़नल मस्टर रोल वाले से लेकर मेट-सुपरवाइज़र तक ! बाकी मैनेज़ वह स्वयं ही करते हैं, यजमान के स्टेटस के हिसाब से किसको कहाँ फ़िट करना है, यही उनकी विद्यता है।फ़कत700 श्लोक तो कोई भी बाँच देगा।

या देवि सर्वभूतेषू  वृत्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                     तो पंडित महाराज वृत्तिनुसार ही आचरण कर रहें हैं। चलिये कोई बात नहीं, इसमें कोई त्रुटि नहीं है, जग की रीत है , लेकिन सरजी, जरा ख़ुद से, स्वयं, परसनली देख लीजियेगा कि कलश सही दिशा में स्थापित करवाया है कि नहीं ? हम भी कुछ तो जानते ही हैं, माताजी की दया से..,एक संक्षिप्त चुप्पी  इसीलिये अपना समझ कर कह रहे हैं। अउर झेलौ, ई लेयो एकठईं स्लो पेस बाल ! फिर आपका भविष्यति न संशयः तिरोहित हो जाता है, और एक नयी दुविधा के साथ आप घर में प्रविष्ट होते हैं, मन में चल रहा है, साले प्रुफ़ेसनल होय गये हैं सब । वर मरे या कन्या इनको द्क्षिना से मतलब, यही घोर कलयुग है । इससे पहले कि, अपना संशय आप श्रीमती जी को पकड़ायें, वह स्वयं ही आपको देख लपक पड़ती हैं । पल भर आपको निरख कर बिलख पड़ती हैं," अब कुछ करो, गुड्डी के पापा, हमरी तो तपस्या भंग हुई जा रही है । अबकी बार एकठईं बेटवा का माने हुये हैं, अउर देखो ई परेसानी खड़ी होय गई । सोनम की मम्मी आयीं रहीं,बताइन कि अबकी मोहल्ले में पाँचें-छेः कन्या रह गयीं हैं। दुई दिन बचा है,उई दुष्टा अब बताइन, बताओ हम्म का करें ? हमतो नौ कन्या खिलावे का माने बइठे हैं।

या देवि सर्वभूतेषू क्षुधारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                    आप क्या करेंगे, भला ? दोस्तों को फोन वोन करके देखते हैं, कुछ व्यवस्था बनानी पड़ेगी । लेकिन साले मज़ाक उड़ायेंगे, किसको दोस्त समझें इस कलयुग में । साले मौज़ लेंगे कि दुई बिटिया तो तुम अपनी मेहरिया की घरे में गिरवा चुके हो, अउर अब बाहर बिटिया हेर रहे हो ! इनमें कुछ देवित्व बचा है, शायद तभी गुड्डी की मम्मी ने मन पढ़ लिया, रास्ता दिखाया, "उपाध्याय से बात करो, ऊ तो नया आया है और अभी नहीं जानता होगा । उसके तो दुई बिटिया हैं, चलो मईय्या रस्ता निकाल दिहिन ।" अपार संतोष से ठुमक कर वह पलट पड़ती हैं । आप इस बेला एकदम कनफ़्यूज़ियाये हैं, " अरे, दो कहाँ है ? एक ही तो है, दो-तीन साल की लड़की,और दूसरी?" गुड्डी की मम्मी तो अब पूरे मौज़ में हैं, समिस्या हल होती जान मस्त हुई जाती हैं । "भूल गये, वह बड़ी वाली भी तो है, छैःसात वाली, अरे जिसका डांस जेसी मेले में हुआ था ।" और वह लहकते हुये घूम कर, अपनी स्थूल कमर को मटकाने का प्रयास कर, याद दिलाने की चेष्टा करती हैं,"छोटी सी उमर में लग गया रोग.., लग गया रोऽग..म्मईं मर जाऊँगी...ओऽ ओऽ म्मईं मर जाऊँगी, ले आओ उसी को, लगेहाथ एक्ठो नाच वाच भी देख लेंगे ।"

     3हाय कन्या-अमर 2क्रीं कालिके -अमर 1दहेज़प्रताड़ना-अमर

या देवि सर्वभूतेषू भ्रान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                   अरे नहीं, फोन वोन करना ठीक नहीं, इस समय लड़कियों की शार्टेज़ चल रही है, साला कहीं टरका न दे। आमने सामने बात करना ठीक रहेगा, अभी आता हूँ " कह कर आप कलशा-वलशा भूल फ़ौरन पलट पड़ते हैं । ससुरी पीछे से टोकेगी ज़रूर, कुलक्षनी ! " इत्ती रात को ? कल चले जाना ।" आप ज़ब़्त करके बोलने हैं, ' सक्सेनाजी के यहाँ भी हो लेंगे, रास्ते में पड़ते हैं । आज देवी जागरण रक्खा है ।' यह कमबख़्त मानेगी नहीं ,"कियूँ?"  उनसे  स्कूप आफ़ द नौरात्र छूटा जा रहा है, गुड्डी की मम्मी के स्वर से अधीरता चिंघाड़े मार रही है । लौट कर तो घर ही आना है, पंगा टाल जाओ, देवीचरन ! पिछली नवरात्रि में ही तो छोटी सी बात का इतना बतंगड़ हो गया था, कि इनको पीटना पड़ गया, तब जाकर इनकी तरफ़ से सीज़फ़ायर हुआ था । हे माँ, इस बार ऎसा न हो ।

या देवि सर्वभूतेषू बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                        बुद्धि से काम लो, देवीचरन । काल बताये सो आज बताय, आज बताय सो अब्ब, नहीं तो बहुरिया पल में प्रलय  दिखाय कब्ब ! आप दरवाजे पर ही ठिठक कर खुलासा करते हैं, 'अरे, वो माया वाला केस नहीं था, उनकी मँझली बहू ? मारत पीटत रहें सो केस करवा दिहिस था, अपने मयके में ? बाप पेशकार हैं सो पइसा कउड़ी तो खरच नहीं होना था । सक्सेनवा जमानत तो पाय गये लेकिन तीन साल से बँधें बँधें घूमत रहे, वही मईय्या से माने रहें सो माँ की कृपा होय गयी, अचानक आउट आफ़ कोर्ट सेटल हुई गया, मामला । ये बेचारे भी सोफ़ै अल्मारी में संतोष कई ले गये । बिन्धाचल-उचल माने रहें, लेकिन जागरण करवाय रहे हैं । मईय्या ने नहीं बुलाया होगा ।

या देवि सर्वभूतेषू विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥                              उपाध्याय के मकान से चार मकान पहले ही सक्सेनाजी विराजते हैं, पहले वहीं चलें । उपाध्ययवा तो जूनियर है, उसका बाप भी दरवाज़ा खोलेगा या फिर माँ ने चाहा तो यहीं मिल जायेगा, पहले यहीं चलें । जागरण पूरे शबाब पर है, कानपुर की पार्टी है, लेकिन सस्ते में पाय गये । लौंडे मस्त हो कर हाथ पैर फेंकते हुये, पसीने पसीने हुये जा रहे हैं । स्टेज़ से उनको लगातार ललकारा जा रहा है, 'ऊँ ऊँ ऊँ..दरँस दिख्ला जा दरँस दिख्ला जा, एक्क बार आज्जा आज्जा.. आज्जा आज्जा ऽ माताऽ ..ऽ ..ऽ , ओ मात्ता मात्ता मात्ता मात्ता.. मात्ताऽ ..ऽ ..ऽ मात्ता मात्ता मात्ता मात्ता.. मात्ताऽ ..ऽ ..ऽ

या देवि सर्वभूतेषू  भी मगन हैं, क्या ? जरा देखूँ । देखा तो, हमारी माँ  हैलोज़न से आकर्षित हुये भुनगे पतंगों से आच्छादित हैं, कोई भी हाथ खाली नहीं कि वह कुछ प्रतिरोध भी  कर सकें ।  मैं उन पर टकटकी लगाये स्तुति कर रहा था , श्रीदुर्गेस्मृताहरषि  भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभांददासि ..                                                  सहसा लगा कि इस माँ भी इसी आर्केस्ट्रा के साथ विलाप कर उठेंगी, इन्हीं लोगों ने..इन्हीं लोगों ने ले लीना महत्ता मेराऽ

यदि आप मेरी बकवास पर अब तक टिके हुयें हैं ,तो धन्यवाद ! यह थी मेरे कर्मकांडी आडंबर से विमुख होने की कथा  देवि की महत्ता का बखान व इस महत्ता का आदर, दोनों में आप किसको कितना महत्व देते हैं, यह मेरा विषय नहीं है

यह केवल मेरे असहमत मौन का स्वर था । तो चलें ?नमस्कार !                                                                                                                                         या देवि सर्वभूतेषू ब्लागरूपेण संस्थिता ।  नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥             

3 टिप्पणी:

Gyan Dutt Pandey का कहना है

ओह! मां शांति, क्रांति, भ्रांति, बुद्धि और अबुद्धि - सब में हैं। मां कर्मकाण्ड में भी हैं और उसके परे भी! आप जैसा मन आये, याद करें उन्हे।
व्रत-उपवास-स्ट्र्क्चर्ड पूजा तो मैं भी नहीं कर पाता।

बाकी आपका ब्लॉग फायरफॉक्स में दीखने लगा है।:)

दिनेशराय द्विवेदी का कहना है

आपका आलेख सुबह ही पढ़ लिया था। नकल मार कर वर्ड में चिपका कर। पर यह चिपकाना कब तक चलता। सो धमकी दे डाली कि इसे लेफ्ट अलाईन करो तो पढ़ूँगा। काम कर गई। पर दुबारा देख नहीं पाया। देवी को देवी दर्शन के लिए ले जाना था। वापस आते आते तीन बज गए। आने जाने में बत्तीस किलोमीटर की यात्रा हो गई। भई इस कर्मकाण्ड में हम कभी न पड़े। जब मन आया पाठ किया। पर नवरात्र में एक समय भोजन का नियम बना रखा है, वह चल रहा है। इस से बदले मौसम के फल सब्जी अपनाने में आसानी हो जाती है।
वैसे। गुंसाई जी का एक दोहा याद आ रहा है।

तुलसी प्रतिमा पूजिबो जिमि गुड़ियन कर खेल।
भेंट भई जब पीब से धरी पिटारी मेल।।

लगता है आप की भी प्रियतम से भेंट हो गई है।

कुन्नू सिंह का कहना है

मैं एक क़तरा सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥

अपने को कतरा ना समझें,खतरा समजें
आप समुंदर हैं बुंद नही




..एक हैकर(ही..ही..मजाक कर रहा हुं)

लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...

आपकी टिप्पणी ?

जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥

Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!

Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है

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यह अपना हिन्दी ब्लागजगत, जहाँ थोड़ा बहुत आपसी विवाद चलता ही है, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मतभेद !

शुक्र है कि, सैद्धान्तिक सहमति अविष्कृत हो जाते हैं, और यह ज़्यादा नहीं टिकता, छोड़िये यह सब, आगे बढ़ते रहिये !

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