कल अनूप भाई का उलाहना पढ़ा चिट्ठाचर्चा पर, सक्रिय रहने की सलाह भी नत्थी थी । अनूप भाई का मैं आदर करता हूँ, वैसे तो अनादर भी किसी का नहीं किया करता । यह तो अपने विनम्र होने की परंपरा में कहा जाता है, सो कह रहा हूँ । वैसे आप इसको अपने लिये सीरियसली भी ले सकते हैं । उन्होंने दो कदम आगे बढ़ कर मेरे सहज और चुटीले होने की सूचना भी दे दी । अनूप भाई को मैं ब्लागिंग में आदर्श मानता हूँ, सो मैं गौरवान्वित होता भया, आभार !
सहज तो समझ में आता है, क्योंकि मैं साहित्य मेरा विषय नहीं रहा।साहित्य व्यसनी होना अलग बात है, साहित्यकार होना अलग..वैसे ही जैसे कि शराबी और डिस्टलरी का होता होगा । दशहरे पर एक लेख लिखा था, आठवी कक्षा में... और यह लेख जैसे मेरा काल बन गया । मेरे हिंदी आचार्य जी, जिनको हमलोग अचार-जी भी पुकारते थे, पंडित सुंदरलाल शुक्ला ( यहाँ भी एक शुक्ला ! ) ने मुझमें साहित्यकार का कीड़ा होने की संभावनायें देख कर, इतना रगड़ना इतना रगड़ना आरंभ कर दिया कि आज तक इंगला-पिंगला, मात्रा-पाई, साठिका-बत्तीसा के इर्द गिर्द जाने से भी भय होता है । निराला की ' अबे सुन बे गुलाब 'जैसी अतुकांत में भी वह ऎसा तुक ढु़ढ़वाते कि मुझे धूप में मुर्गा बन कर पीठ पर दो दो गुम्मे वहन करना कुछ अधिक सहल लगता । बाद में तो खूब जली हुई, झावाँ बनी तीन चार ईंटें मैं स्वयं ही चुन कर, क्लास के छप्पर के पीछे एक गुप्त कोने में रखता था । ये ईंटें हल्की हुआ करती हैं, और घर पर गृहकार्य करने में समय खराब न कर उतने समय तक मुर्गा बने रहने का अभ्यास मैं पर्याप्त रूप से कर चुका था, सो कोई वांदाइच नहीं के भाव से नाम पुकारे जाने पर लपक कर दोनों हाथ में गुम्मे लेकर उपस्थित हो जाता । ज़ेब में साप्ताहिक हिन्दुस्तान का एक बड़ा पन्ना मोड़कर रखता, जिसे बिछा कर कोनों को पैर के अंगूठे से दबाकर मुर्गा बन जाता, और झुका हुआ पढ़ता रहता । अब बताइये ब्लागर पर ऎसी साहित्यसाधना कितने जनों ने की होगी ? खैर..मैंने तो शपथ ली कि अब से नकल नहीं टीपूँगा। लोगों की अपेक्षायें बढ़ जाती हैं...और आप फिस्स हो जाते हैं । मैंने वह लेख साप्ताहिक हिंदुस्तान के विज़यादशमी विशेषांक से टीपा था और बिना कुल्लु की भौगोलिक स्थिति जाने, मेले का आँखों देखा पूरा वर्णन कर दिया । गुरुजी ताड़ गये और मुझ गरीब को पकड़ लिया, बाद की रगड़ाई-आख्यान तो आप फ़्लैश बैक में देख ही चुके हैं ! फिर भी मैं उनका हृदय से आभारी रहूँगा, शब्दों के चयन की सीख वह मेरे मिडिल पास होने के बाद भी देते रहे ।
फिस्स के हिस्स्श में पिन और गुब्बारे की बातें होने लगती हैं और जैसा कि होता आया है... लंबी रेस का मरीज़ फिर मरीज़ नहीं रह जाता । वह तीन चार डाक्टरों के कान काट कर अपनी ज़ेब में रखा करता है । तो पाठक ही क्यों अपवाद रहे ? खास तौर पर जब वह यह तीसरी किताब में पाता है कि ' भईय्या पूरी किताबिया पढ़ लेना ' की याचना में लेखक विज्ञ पाठक, विज्ञ पाठक घिघियाये जा रहा है, तो मेरे जैसे टुच्चे पाठक को यह गुमान होना स्वाभाविक ही होगा कि जब पाठक ही विज्ञ है, तो वह लेखक अविज्ञ को क्यों पढ़े ? तो तय कर लिया कि हम स्वालंबी बनेंगे... कम से कम अपने पढ़ने के लिये तो, स्वयं ही लिखा करेंगे और... चरखा-तकली, ओहहो.. पेन पैड ढूँढ़ा जाने लगा । कहानी... ऊँहुः भाई, देख अंकल को लैटर डाल दूँगा ! मेरे कक्षभागी ( मतलब रूम पार्टनर मित्रों... देखो मैंने एक दूसरा शब्द भी गढ़ लिया, श्रेय आपै लोग बाँट-खूँट लो ), हाँ तो मेरे कक्षभागी महोदय धमकाते, बल्कि किचकिचा उठते साले.. डाक्टर बनने आया है कि गुलशन नंदा बनने ? उनकी दृष्टि में गुलशन नंदा एक महान लेखक थे.. जो बिकता है, समझो वही लिखता है ! बात दीगर है, कि वह स्वयं भी तीन चार ' मस्तराम ' लिख कर चुपचाप रामनारायण बाज़ार में देकर छपवा-वपवा कर दो-ढाई सौ रूपये भी ला चुके थे, लीक होते ही मैंने पकड़ा, ' अब बोल अशोक, तू लेटर लिखता है..कि मैं चाचा जी को लिखूँ ? ' बेचारे ढीले पड़ गये..देखो मैं तो एक घंटे में लिख लेता हूँ, और तुम एक कहानी में एक महीने लगाओगे, दस बार लिखोगे, पाँच बार काटोगे और फिर कोई भरोसा नहीं कि फाड़ ही दो, यह तुम्हारा बड़ा ही टाइम-कन्ज़्यूमिंग चोंचला है ! फिर होना क्या था.. तू-तू , मैं-मैं और सीज़फ़ायर, बोलचाल बंद, एक चुप हज़ार चुप !
इतने में अचानक मेस बंद हो गया.. महीने का आख़िर, गुट्टैय्या के ढाबे कब तक उधार खिलाते ? सो, मैं कमरे में ही कुछ बना बुनू लेता था, फल और दूध तो मुझे इतना प्रिय है कि हफ़्तों उसी पर खुशी खुशी काट दूँ । बेचारे अशोक जी थे रोटी-चावल प्रेमी, तीन चवन्नी उछाल कर ढाबे पर चार या पाँच रोटी मिल जाया करती थी, सब्जी चावल
कमरे में, सो अशोक जी झुक गये । तय हुआ कि मैं कविता लिख सकता हूँ और वह तब तक बरतन साफ़ किया करेंगे, बेचारे मस्तराम ! एक-दो बार जबलपुर हो आया था, और वहाँ एक विचित्रता पायी कि नर्मदा झील के मल्लाह तुकबंदी में बातें किया करते थे । बाज़ार में भी कई ऎसे ही महानुभाव दिखे । सोचा कि चलो, कविता ही लिख लेते हैं ।
लेकिन हिंदी में कविता लिखने से अधिक आसान मुझे बरतन साफ़ करना लगता था । एक तो ‘टहनी पर टँगा चाँद ‘ मेरे समझ में तो नहीं आता.. भाई साहब, जरा अपनी पोज़ीशन और एंगल बदल लो, चाँद तो बादस्तूर आसमान में ही बरामद होगा । दूसरे कि दो तीन लाइन लिखते ही पंडित सुंदरलाल की हृष्ट-पुष्ट काया आँखों के सामने खड़ी हो जाती थी, लाल लाल आँखें लिये, मैं सहम कर मात्राओं के अंकगणित को समेट कर अलग रख दिया करता था । अंग्रेज़ी में Oh, kanpur.. I love you..Still I hate you और yes, I am a fab...I crack a joke or two.. But knows the few सरीखी बचकानी कवितायें छपी भी.. अरे बाप रे, मैं तो यहाँ जैसे आत्मकथा ही लिखने लग पड़ा। कहाँ की बातें कहाँ ?
होरे राम होरे राम, होरे राम... हरे हरे ..
अनूप भाई की दूसरी बात पर.. तो, भईय्यू, एक चुटीला दूसरे को चुटीला कहे, तो इससे चुटीली बात और क्या हो सकती है ? और, देखिये तो अनूप जी को, कि कितने महीन तरीके से उन्होंने चिट्ठाचर्चा-पंचायत के मंच पर लाकर मुझको पटका है, कुछ लोग उल्टी गिनती गिन भी रहे होंगे कि लिखूँगा कि नहीं लिखूँगा । बालाओं ने फूल की पंखुड़ियाँ तो न ही तोड़ी होंगी, लिक्खेगा, विल ही राइट...नहीं लिक्खेगा,विल ही नाट राइट, क्योंकि मैंने छाँट कर प्रोफ़ाइल में अपनी एक भद्दी फोटो लगा रखी है, दरअसल मैं तो इससे भी ज़्यादा भद्दा हूँ । डर जाओगे, आप लोग !
सो, अनूप भाई मेरे मन में चल रहा था कि यदि सभी लिखने ही लग पड़ेंगे, तो पढ़ेगा कौन ? नतीज़न आपस ही में पढ़- पढ़ा कर हाँज्जी हाँज्जी होता रहेगा, फिर तो भविष्य चौपट ही समझो । एग्रीगेटर ने सूचना दी..इन्होंने यह लिक्खा - हाँज्जी, लपक पड़ो - हाँज्जी, शीर्षक यह है - हाँज्जी, कैची है यह - हाँज्जी, रुतबे वाला - हाँज्जी, दरियादिल है - हाँज्जी, टिप्पणी देगा - हाँज्जी.. सो, यहाँ पर हाँज्जी महोदय हमको बरजने लगे । यह हाँज्जी गण मुलुक को किस दिशा में हँका रहे हैं, यह तो यहाँ तक भूला भटका आया हर पाठक जानता ही है । इस हाँज्जी में मुझे असहमत होने की गुंज़ाइश तो दिखती ही नहीं ? यह निश्चित रूप से अस्वस्थता का संकेत है । मित्रों के सुझाव और अन्य पाठकों की असहमति आपको आगे बढ़ने का बल देती है, बशर्ते अगला अपने अहं को परे रख इसे स्वीकार करे या तो अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करे, ताकि दूसरा भी अपने अंधेरे से बाहर निकल तो सके । तभी हिंदी माता स्वस्थ होंगी, अन्यथा…
उनको चरपईय्या पर लिटाये के करो कुछ और जयकारा लगाते रहो हिंदी माई की, ताकि दुनिया यही समझे कि हिंदी के सपूत अपनी महतारी के हाथ-गोड़ मींज रहे हैं । अब महतरिया इत्ते सालन मा भी उठ के खड़ी नहीं हो पा रही हैं, तो ई सपूतवे कोनो कपूत थोड़े हुईगे ? सट्टीफ़िक्केट ईश्य्यूड, डिराइंग-रूम की शोभा में इज़ाफ़ा, अउर छुट्टी राम छुट्टी ! रेडियो सीलोन कभी बहुत सुनाया करता था.." मस्तराम बन के ज़िंदगी के दिन गुज़ार दे... । अब का करें, ब्लागर पर आकर हमको वही याद आरहा है..मस्तराम बन के ब्लागिंग के दिन गुज़ार दे...
महबूबा की गली से रूसवा होने पर भी उसकी गली किसको न याद आती होगी ? भई मुझे तो याद आती है..सो, यहाँ बैठ कर HTML कोड्स से खिलवाड़ किया करता हूँ, बिगड़ता है, तो बनता भी है औ’ इस तरह मेरे ब्लाग्स अपना रूप बदलते जा रहे हैं । मन को और पंडिताइन को समझा लेता हूँ कि यह भी एक तरह की सृजनात्मक विधा है, भाई ।
रही बात ज्ञानदत्त जी की… रुकिये, पहले आब्ज़ेशन ओवर-रूल करा लूँ ! भाई लोग भड़क तो नहीं रहे कि नारी नितम्बों का साइनबोर्ड लगा कर बटोर तो लाया.. अब अलाय बलाय पढ़ा रहा है , तब से ! डाक्टर पता नहीं यहाँ असली नितम्ब-शो कब शुरु करेगा ? करेगा भी कि नहीं ? या मँजे मदारी की तरह काला जादू देखने वालों की भीड़ बटोर बतकही करता रहेगा ? अउर अब ज्ञानदत्त जैसे रीताव्रता को कहाँ नितम्बों में घुसेड़े दे रहा है ? बस दो मिनट, कद्रदान..यहीं से तो अनूप जी की भूमिका शुरु हुयी थी.. तो, एलर्ज़ी जैसी कोई बात नहीं है । ज्ञानदत्त जी से तो मेरी कभी मुलाकात तो क्या बोलचाल भी नहीं हुई है । लेकिन गुरु-गोविंद दोऊ खड़े..तो पहले किधर जाओगे ? हर कोई शिवकुमारिया सुदामा तो नहीं है कि गुरुवे को ठेंगा दिखा दे । शुरुआती दिनों में, मेरी परेशानी भाँप उन्होंने ही मुझे बरहा का लिंक पकड़ाया था, बाद में आपको पढ़ा तो लगा कि अपनी भाषा के ब्लागिंग में भी उत्कृष्टता की संभावनायें हैं । अब गुरु और गुरुवर में किसको पहले देखें ? हम डिक्लेयर करता हूँ कि ज्ञानदत्त इज़ प्रोटेक्टेड नाऊ !
और ज्ञानदत्त जी तो मूलतः बहुत ही निरीह चीज हैं, जिसमें सहज हास्यबोध न हो उसे मैं निरीह ही कहूँगा । बुद्धिमता और जागरूकता दर्शाने के अतिरेक में वह फँस ही गये थे, बाकी कसर ई ससुरी हाँज्जी हाँज्जी पूरी करती रही ।लेकिन खिचड़ीभोजी बेनाइन ( निस्पृह ) मनुष्य हैं,...उनका न सही पर खिचड़ी का तो लिहाज़ करिये । हारी बीमारी कड़की उधारी में एक वही काम आती है । सो, ज्ञानदत्त जी को न गुदगुदाइये जाकि छूछी हास । सो, मुझे लग रहा था कि वह यदि गुदगुदाहट फ़ील ही नहीं कर रहे, तो क्यों गुदगुदाया जा रहा है, ऎसे में तो किसी के भी आँसू निकल आयेंगे। एक बात और..मौका है, मुहाल है, सो बोल ही दूँ ..
अरविन्द जी, नारी के सौन्दर्य सौष्ठव से इतने चमत्कृत हैं कि उन्होंने उसके नितम्बों को भी नहीं बख़्सा । ईमानदारी से कहूँ तो, न मुझे उस पोस्ट में सौन्दर्य दिखा और न ही विज्ञान ! तो क्यों न बोलता ? पब्लिक प्लेस है, भाई... मूतते पकड़े जाओगे तो ज़ुर्माना तो कोई नहीं कर सकता किंतु थुड़ीथुड़ी को भी मत न्यौतो, या फिर अपनी मंशा ही स्पष्ट कर दो । मुझे तो रुनझुन चलत रामचंद्र बाजे पैजनिया के राम के नितम्ब ज़्यादा आकर्षित करते हैं, किंतु उसका वर्णन करने की शक्ति मेरे कीबोर्ड कम लेखनी में नहीं है, सो चुप रह जाने में ही भलायी है, आप भी अपना गुड़ दाब के चुप रहो।
थिरकते नित्म्बों का जादू तो मैं विज़ुअल में भी दिखा सकता हूँ, किंतु यहाँ नहीं इस फोटू *** पर क्लिक करके आपही देख लो । भाषा की रवानगी के लिये भदेसपन की ज़रूरत मुझे भी पड़ती है..किंतु गुप्तांगों का उल्लेख ना बाबा ना । नैसर्गिक होते हुये भी उनका वर्णन अश्लील लगता है, तो कोई समझे या न समझे....यह है मेरी नज़रों का कसूर । दकियानूस ही सही ! |
आख़्रिर मैं भी लगता है कि दीवाना ही हूँ । है ना बंधुगण, क्या आपको अब तक ऎसा नहीं लगा ? फिर छोड़िये चलिये, मैं अपनी बीन अपने थैले में रख लेता हूँ, अनूप भाई ! आप सब को भी नमस्कार !
27 टिप्पणी:
गजनट।
बहुत दिन बाद ऐसा रवानी भरा गद्य पढ़ा। मजा आ गया। हालांकि हमारी तारीफ़ कुछ ज्यादा ही हो गयी लेकिन बुरा नहीं लगा। :)
१.मुर्गा बने हुये साप्ताहिक हिन्दुस्तान पढ़ना।
२.ज्ञानदत्त को न गुदगुदाइये जाकी छूछी हास।
३. हिंदी में कविता लिखने से अधिक आसान मुझे बरतन साफ़ करना लगता था।
रावतपुर के लिये गुटैय्या बहुत दिन बाद पढ़ा।
आनन्दित च पुलकित हो रहे हैं पढ़-पढ़कर। बहुत दिन से लोगों ने मार अफ़वाह फ़ैला-फ़ैला के साबित सा कर दिया था छोटा लेख लिखा जाये। लेकिन यह लेख पढ़कर लगा कि जो लिखो मन से लिखो।
मैंने पढ़ लिया -आप भले ही नितम्बों पर न लिखें पर आपके सौन्दर्य बोध की झलक आपके कथित भदेस लेखन से मिल ही जाती है ,-
भदेस लेखन का एक मानक बाबा तुलसी ने तय कर रखा था -
भाषा भनिति भूत भल सोई ,सुरसरि सम सबकर हित होई
यह वह मानक है जिस पर हम सभी अपना मूल्यांकन कर सकते हैं
मुझे पाखण्ड से एएलेर्जेए है ........
हम सब यहीं हैं न समय फैसला करेगा .......
जय हो!
बाप रे बाप और थोडी बड़ी कर देते है.
पूरे महीने की कसर निकाल ली क्या?
पड़ गए टी आर पी के चक्कर में.
:) :) :)
"कंही पे निगाहें कहीं पे निशाना
जीनो दो जालिम बनाओ ना दीवाना."
मैं तो मजाक कर रहा हूँ जी.
thanks
पढ़ लिया। यह गद्य कविता से बीस है। लिंक पर जा कर विजुअल भी देखा, कतई अश्लील नहीं है। आप के ब्लाग पर सीधे आता तो अश्लील लगता। मैं तो यह काम रोज करता हूँ, इस से कमर काबू में रहती है और पेट भी। कुछ लोग बाबा आइंस्टाइन को बिलकुल भूल जाते हैं। बायो-लेब में बालडांस की तस्वीर लगाने से ऐसा ही होता है। दोनों का अपना अपना स्थान है।
एक तो शीर्षक वाला चित्र फिर स्क्रीन फ्रेम से बड़ा है इसे छोटा कर फ्रेम मे ले आएँ। और आप का बैकग्राउंड वाला चित्र तो कमाल का है, कम्बख्त खिसकता तक नहीं जहाँ का तहाँ जमा रहता है। आखिर कुछ तो है जो कि........ औरों के पास नहीं।
pura padhkar bus haanjee-haanjee hi nikal raha hai muh se.bahut badhiya
हिन्दी में कविता लिखने से ज्यादा आसान बरतन साफ़ करना है. क्या बात कर रहे हैं भइया? न जाने कितने लोग दिन में ग्यारह कवितायें (ग्यारह शुभ होता है न!) लिख मारते हैं. उसमें से पाँच कवितायें एक ही दिन में ब्लॉग पर विराजमान रहती हैं. बाकी की पाँच कल के लिए टाइप....
चुटीला लेखन है...चुटकी-ला लेखन है...चटकीला लेखन है.
bahut dino baad aaye?? par sahi kahawat hai der aaye durusat aaye :-)
बचपन में मिले (आचार) शुक्ला जी की रगड़पट्टी का फ़ल दीख रहा है और आभारी है अब ब्लोगजगत आचार्य अनूप शुक्ला जी के जिनकी वजह से ये पोस्ट पढ़ने को मिली। आप ने तो कुछ किया ही नहीं जी, सिर्फ़ आचार्यों की इच्छाओं का मान रखा है। लेकिन हर बात पर हांजी हांजी कहने को मन हो रहा है।
excellent post
आज कविता नहीं लिख पाया. बर्तन मांज लिये...
बड़ी ही तसल्ली से चटका आलेख लिखा है. :) मुर्गा बनकर साप्ताहिक हिन्दुस्तान पढ़ों, यह तो कभी दिमाग में ही नहीं आया था. जय हो महाराज!!!!! जय हो!!
समीर जी ट्राई कर बताये , अपन तो ऐसे ही ठीक है जी :)
हम निशब्द है गुरुदेव....बस दो तीन बार ओर पढने आ जायेंगे की शायद लेख में कुछ ओर परिवर्तन कर दे आप....बाकी आपकी रवानगी के हम भी कायल है....अनूप जी बहुत कुछ कह गए है पर शुक्र है उनकी सलाह मानकर आपने सही ताल ठोक दी है ...कल फ़िर पढने आयेंगे..
आप पर मुकदमा चल सकता है शीर्षक से भरमाने का......
अभी तक आपकी टिप्पणियाँ ही पढ़ता रहा हूँ। आज पहली बार आपके पन्ने पर आने का सुअवसर मिला। आपका गद्य किसी भी कविता से कमजोर नहीं है।
नियमित आने का भरोसा दिलाना चाहता हूँ, बशर्ते आप नियमित लिखने का विश्वास दिलाइए।
गजब कर दिया गुरुवर ! पढा भी दिया !
दिखा भी दिया ! धन्य हुए हम तो !
देख पढ़ कर गद गद भी हुए ! सही
बात है ज़रा लोगों को जल्दी जल्दी
गदगद होने का मौका दिया करें !
जय हो .....
आपकी भाषा में अद्भुत प्रवाह है। सपाट भी चलती है और भंवर भी बहुत हैं बीच में!
ब्लॉगिंग के प्रतिमान से अपने प्रकार की अनूठी पोस्ट।
उनको चरपईय्या पर लिटाये के करो कुछ और जयकारा लगाते रहो हिंदी माई की, ताकि दुनिया यही समझे कि हिन्दी के सपूत अपनी महतारी के हाथ-गोड़ मीज रहे हैं। अब महतरिया इत्ते सालन मा भी उठ के खड़ी नहीं हो पा रही है, तो ई सपूतवे कोनो कपूत थोड़े हुईगे?
अमर जी,
कम से कम हिन्दी ब्लॉगरों में भी किसी भी ब्लॉगर के पास आपके जैसी व्यंग्य-धार नहीं है। मैं आपको पढ़कर संतुष्ट हुआ कि जिस स्तरविहीन लेखन की शिकायत हिन्दी ब्लॉगिंग से पुरोधा लोग करते थे, उन्हें जवाब दे सकता हूँ।
डा० साहिब धन्य हे आप ,सब कुछ कह भी दिया ओर कुछ भी नही कहा,बहुत खुब,धन्यवाद
सच कहती हूँ,आपको पढ़ कर एक अलग ही अहसास होता है,लिखने का जो अंदाज़ आपका है वो बहुत कम लोगों को नसीब होता है,तंज़ के तीर भिगो भिगो कर जैसे आप मारते हैं,बहुत मुश्किल है किसी और के लिए, हैरान हूँ आपको पढ़ कर, हर लफ्ज़ अपने अन्दर ढेरों गहराइयाँ लिए अपनी बात सिर्फ़ कहता है नही है, दिल के अन्दर उतरता चला जाता है.....बहुत ज़बरदस्त अमर जी.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाऐं ओर बहुत बधाई आप सब को
वाह.. भाई साहब वाह...
मजा आ गया..
कस-बल निकाल दिये आपने.
ठीक...
आपकी निषपत्तियाँ रोचक और विचारणीय हैं। इनपर पूरे ब्लॉग जगत को गौर फरमाना चाहिए।
-जाकिर अली "रजनीश"
गुरुदेव आज कबूल ही लेता हूँ की मैं आपकी
इस पोस्ट को आज २३वी बार पढ़ रहा हूँ !
मुझे ये पोस्ट लिखने की प्रेरणा देती है ! ये
एक पूरा इन्साइक्लोपिडिया है ! हर नए नए
कबूतर, मेरा मतलब नए मेरे जैसे, अपने आपको
लेखक समझने की ख्वाइश रखने वाले को यह
अवश्य आत्म सात कर लेना चाहिए ! आपकी
यह पोस्ट अमूल्य निधि है !
महाराज, हम तो बहुत प्रभावित हुए, आपसे भी और आपके, गुरुवार, कक्षभागी, कैंटीन-साज़ से लेकर नर्मदा के मल्लाहों तक से. बाकी डॉक्टर अमर कुमार को पढ़ लिया तो दूसरे डॉक्टर लिक्खाड़ सब पीछे छूट जाते हैं. "टहनी पर टंगा चाँद" या "चाप चाप करता चरखा" तो हम जैसे कूढ़मगज को ही समझ न आया तो आप जैसे हिन्दुस्तान-पारखी को कैसे पसंद आता भला आ आ SSS!
तीसरी बार पढ़ा है आपका यह लेख, आपके बारे में क्या लिखू सिवाय इसके कि " लव यू ! " गज़ब कि पर्सनालिटी और सेक्स अपील के मालिक हैं आप ! जलन होती है आपसे क्या क्या लिखे हो और क्या नहीं लिखते हो और मजेदार बात यह कि आपके सब मुरीद हैं....हाय राम बड़ा दुःख दीना ...
जय हो!
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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