आज व्याधिग्रस्त माया श्रीवास्तव धुर 5 बजे अवतरित हुईं, टालने का प्रश्न नहीं.. पर थोड़ी व्यग्रता थी क्योंकि यह आज के परामर्श समय की अंतिम बेला थी, हिस्ट्री लेने के दौरान मेरे मुँह से ' परिवेश ' शब्द का उल्लेख हुआ । बस, उनके पतिदेव महोदय ने मुझसे एक छोटा सा ब्रेक लेने का अनुयय किया, और बिना किसी भूमिका के यह पंक्तियाँ सुनाने लग पड़े । एक-डेढ़ मिनट के बाद ही मैंने एक ट्रैफ़िक पुलिसिया इशारा कर उन्हें रूकने का संकेत दिया, और अपना काम पूरा कर सका.. पर एक स्थानीय कवि के इस कविता की पंक्तियाँ रह रह कर जैसे चिंचोड़ रही है, इतना अलाय-बलाय, लटरम-पटरम नेट पर ठेलता / पेलता रहता है, थोड़ा बहुत जगह मुझे भी दे दे । मैं खीझ गया, " तू तो अभी अपूर्ण है.. जो कुछ लाइनें छोड़ आयीं है.. जा उन्हें भी लेकर आ, तो विचारार्थ सहेज लूँगा । " कविता के मुखड़े से ही उसके सामयिक होने का दंभ छलका पड़ रहा था । सो, एकदम से तमक गयी, तैश में अपनी दो-चार और लाइनें झटक कर फेंक दीं और मटक कर चल पड़ीं " तू तो स्वयं में ही अपूर्ण है मानव ! निरूपाय होकर या विभोर होकर, तू मेरे आँचल में ही आँसू छलकाने आता है । अब इतना बढ़ चढ़ कर तो न बोल ।" ई का हो ? अई देखा, कवितिया एतना अकड़ती काहे है, भाई ? हम ठहरे ताऊ स्कूल आफ़ ब्लागर के ज़ाहिल-बुच्च डाक्टर मनई, जो असोक चक्रधर जी से एथिआ ई कबीता की खास फरमाईसी परिभाखा लिखाईस है :
गोया रोगी होगा पहला कवि, कराह से उपजा होगा गान
टीसती फुड़िया से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान
अरी दईय्या रे, कविता जी बिफ़र कर पलटीं.. "ऎई, मवाद से मेरी तुलना तो करना मत ? पहले ही मेरा ऋँगार पोंछ पाँछ कर दुनिया की गंद मेरे से परोसवा रहा है, और अब सीधे सीधे मवाद पर मत उतार ।" फिर ठिठक कर जैसे मुझे निरूत्तर करने को प्रहार किया, " अच्छा चल, मवाद ही सही.. लेकिन बह जाने से तू और तेरे रोगी का दर्द हल्का हुआ कि नहीं, बोल ? " बोलिये न !
अय-हय, इनका देखो ? अधूरी हैं, तब ये हाल है, दो चार अच्छी लाइनें और मिल जायें तो हम जैसे टाइमखोटीकारों की गुलामी भी मंज़ूर न करें ! सो, मैंने अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश की, " अच्छा चल, तू जैसी है वैसी ही रह, मेरे को क्या ? आओ, जरा इधर को आ.. तुझे अंतर्जाल पर टाँग दूँ.. ताकि तेरी हसरत भी पूरी हो जाये । पर तेरी वज़ह से कोई मुझे हूट-हाट करेगा, तो तेरा गला घोंट दूँगा । वईसे भी ईहाँ ब्लाग-प्रदेश में गुणीजन अल्पसंख्यक हैं ! और यह बहुसंख्यक समाज भी चर्चाजगत का अल्पसंख्यक कोटा तक हड़पे बैठे हैं, हाँज्जी.. सच्ची ! उसको क्या कहते हैं.. हाँ, तो अपलोड होते होते भी वह ढीठायी से हँसती है... डाक्टर, बहाना चाहे जो भी बना लो.. पर गाहे बगाहे अपनी सुविधानुसार मेरा गला तुम लोग वैसे भी घोंटते रहते हो कि नहीं ?
जन जन कैसे जी रहा है, उमस के वातावरण में
दुःस्वप्न में दिन बीतते रात बीतती जागरण में
है यदि बेशर्म आँखें, घूँघट व्यर्थ ही क्या करेगा
मानवता नग्न घूमती सौजन्यता के आवरण में
कपटयुग है घोर यह, हुये राम औ' रावण एक हैं
लक्षमणों का ही हाथ रहता आज सीताहरण में
शब्द को पकड़ो यदि तो सहसा अर्थ फिसल छूटते
सन्धि कम विग्रह अधिक आज क्यों व्याकरण में
छल-बल के माथे मुकुट है सत्य की है माँग सूनी
क्यों कोयल गीत सीखती बैठ कौव्वों के चरण में
चिढ़ा रहे ये तुच्छ जुगनू चाँदनी के चिर यौवन को
भगत बगुले हैं मेंह हड़पते हँस के छद्म आवरण में
यह मुँहजोर ठहाके के साथ ऊपर से भी एक ताना कसने से बाज न आयी, " अब, अब.. इस स्थिति की जैसी पूर्णता चाहता है.. वैसी लाइनें तू ड्राइंगरूम में आराम से चाय सुड़क सुड़क कर गढ़ता रह ! या फिर, वर्ष दर वर्ष अनाचार कि नयी लाइनें स्वतः ही जुड़ती जायेंगी और तुझे बिना प्रयास ही अपनी दुर्दशा के नये तराने मिलते रहेंगे ।" पर, दो हज़ार से कम में इसे मंच से न पढ़ना
16 टिप्पणी:
संधि कम विग्रह अधिक आज क्यों व्याकरण में...
बहुत गज़ब की गज़ल सुनाये दिये भाई सुबह सुबह. बहुत आभार. और परोसा जाये.
आज की यह पोस्ट जमी. गजल तो गजब है ही.
बड़ी गजब की कविता छाप दी आज तो।
अय हय! क्या तो कविता बन पड़ी है! बनके पड़ी है!
जब, कोयल कौव्वोँ से गीत सीखे
तब तो घोर कलजुग आन पडा है
यही सत्य है -
- लावण्या
सुंदर अभिव्यक्ति बधाई...
क्या कहा.. ये क्या टिप्पणी है? अजी कविता के लिए यही टिप्पणी निर्धारित की गयी है.. क्वालिटी चाहे जो भी हो कविता की.. फिर आजकल तो जिसे देखो वो कवि बनता जा रहा है..
परंतु आपका व्याकरण बढ़िया रहा..
आईला गुरुवर !
आप भी ......सही ठेल दी चाय पीते पीते .....हम भी मंगा रहे है फ़िर पीते पीते दोबारा पढेंगे ...तो आप ओफिसियली कवि हो गए .....
कविता कहें या गजल, बस मजा आ गया, बस यह पन्ना ऐसे ही ब्लागियाता रहे.
क्या बात कही डा॓. साहब बहुत ही सुन्दर कविता- मानवता और सौजन्यता की अजब तुलना की आपने। आभार इस शाश्वत पोस्ट का।
पहले कवि के सम्बंध में कही गयीं पंक्तियॉं लाजवाब हैं।
वैसे गजल भी बढिया है, शुक्रिया।
पहली कविता का उत्स जानकर हतप्रभ हूं।
गजल भी दमदार है।
पूरा मजा तो आया पर ........
कहीं ????
@ प्रवीण जी,
अरे, राम भजो.. मास्टर साहेब, यह तुकबन्दी चोरी की नहीं है ।
तक़ादा-ए-तक़ल्लुफ़ में लिहाज़ करने का शुक्रिया ।
पर, हम अब तक मास्टर लोगन का इशारा समझता हूँ ।
सामान्यतः लोग अपनी साहित्यिक (?) हरकतबाज़ी तो तुकबन्दी से ही करते हैं । पर, इस दौर में अपनी बरबादी के गीत शब्दों में पिरोने से लाभ ही क्या ?
सम्मेलन में वाहवाही और ज़ेब में कूछ नक़दी.. यही इनके सरोकार हैं !
यह भी पोस्ट शायद उधर ही संकेत दे रही है !
सो,चोरी छिनौती.. ई सब हमारे ज़माने में कपोलकल्पना हुआ करती थी ।
एक बार यह ग़ुनाह किया था.. सो, उस पर पोस्ट भी लिखी थी..
किसी मेल में लिंक भेज दूँगा ।
इस मंच से यह आत्मप्रचार ही लगेगा ।
शुभाकांक्षी !
Ye to aapne pate ki bat kahi...koyal kouwe ke ghomsle me rahkar bhi kouwe ki boli nahi bolti....!
Bdhiya lagi aapki bat....!!
मैं तो लावण्या जी की टिप्पणी से सहमत हूं।
aapke blog par pahelibaar aana huaa. aur aapki ye kavita bahut hi rachanatmak hai... chote shabdo mai bahut kuch kahe jati hai ye kavita.
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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