लगता है, आजकल मैं निष्क्रीय हूँ... पूरी तौर पर तो नहीं, कम ब कम ब्लागर पर निष्क्रीय तो हूँ ही.. पता नहीं क्यों ? इस पता नहीं क्यों का ज़वाब तलब करियेगा, तो टके भाव वह भी यही होगा कि, " पता नहीं क्यों ? " यह पता नहीं क्यों हमेशा एक नामालूम सी कशिश भी लिये रहता है, लगता है कि कहीं कोई जड़ता मुझे जकड़ रही है, जकड़ती जा रही है.. पर आप हैं कि, अपने पर हज़ार लानतें भेजते हुये भी, खामोशी से इस निष्क्रियता को समर्पित रहते हैं, पता नहीं क्यों ? मुआ पता नहीं क्यों न हुआ कि इब्तिदा ए इश्क हो गया । है न अनुराग ?
अबे पहले तय कर ले, ब्लाग लिखने आया है कि साहित्य रचने ? " यह कोई और नहीं, अपने निट्ठल्ले सनम जी हैं, अँतर से ललकार रहे हैं । कनपुरिया प्रवास के बाद साढ़े तीन दशक से साथ लगे हैं । जब तब मुझे ललकार कर चुप बैठ जाते हैं, गोया पँगे करवाना और उसमें मौज़ लेना ही इनका शगल हो । इनको डपट देता हूँ, ऒऎ खोत्या वेखदा नीं कि असीं लिख रैयाँ, बस्स ।
माफ़ करना मित्रों, यह इसी टाइप की भाषा समझते हैं, आप तो जानते ही हैं कि, फ़ैशन की तरह ही ब्लागिंग और ब्लागर की तरह फ़ैशन कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं ? नित नये प्रयोग !
सो ब्लागिंग के इस दौर में साहित्य की गारँटी ना बाबा ना ! मौज़ूदा दौर तो जैसे गुज़रे ज़माने का बेल बाटम है.. कल यह रहे ना रहे.. पर हम तो रहेंगे, और.. जब रहेंगे तो कुछ ओढ़ेंगे बिछायेंगे भी ! आने वाला कल साहित्य का कोई धोबी जिसकी भी तकिया चादर गिन ले, उसकी मर्ज़ी ! जैसे यहाँ लाबीइँग में वक्त जाया कर रहे हैं, समय आने पर वहाँ सार्थक कर लेंगे ।
अभी से लाइन में लगने की भगदड़ काहे ? चोट-फाट लग जाये तो इससे भी जाते रहोगे । लाइन में लगने की क्या जल्दी थी.. जवाब मिलेगा, " पता नहीं क्यों ? इधर कोई ग्राहक नहीं आ रहा था, तो सोचा खाली बैठने से अच्छा कि अपना ही बँटखरा तौलवा लें, कहीं बाँट में ही तो बट्टा नहीं ?.. ससुर उहाँ भी लाइन लगी थी, घुसे नहीं पाये इत्ती भीड़ रही, पता नहीं क्यों ? “
निट्ठल्ला उवाच : कोई यह न कह दे, " पता नहीं क्यों, ई उलूकावतार इत्ती रतिया में का अलाय बलाय बकवाद टिपटिपाय गये ? याकि ससुर छायावाद की मवाद ठेल गये .. सीधे सुर्रा मूड़े के उप्पर से निकर गवा ! "
तो भईया ई डिस्क्लेमर-वाद है, अर्थ और ही और ! चित्त गिरो या पट्ट.. बाई आर्डर दुईनों एलाउड !
निट्ठल्ला उवाच : इसका भेद हम बताता हूँ, यह कँट्रोल पैनल के पुराने पोस्ट खँगाल रहा था.. इतने दिमागदार नहीं हैं, सो एक घँटे बाद से ही इनका सिर भारी होने लगा और एक घँटा पच्चीस मिनट बाद समझदानी के आउटर पर इँज़नवाँ फ़ेल ! " फिर भेजा इनको कि जायके आज की चिट्ठाचर्चा पढ़ा, सो गये बिचरऊ । बढ़िया है.. विवेक बाबू, बढ़िया है.. बोलि के लौट आये । टिप्पणी न दी, ज़रूरी भी न रहा होगा । कल बछड़ों के दाँत गिनना है, यही सब बतियाते भये खाना खाइन । "
आम खाओगे ? " पँडिताइन जी पूछिन.. " नहीं ! " मुला मुँह से बोले नहीं, मूड़ हिलाय दिहिन, बड़बड़ लगाय रहे आम खाऊँगा तो गुठलियाँ भी देखनी पड़ेंगी । पेड़ कौन गिनेगा, पर गुठली ?
मेरा प्रतिवाद : " चुप्पबे, खुद मेरा ही मन न था... आम जो है.. वह एक मीठा फल होता है ! "
अब ? कुछ ही पन्ने बच रहे थे.. सो, नँदीग्राम डायरी लेकर बैठा और दो सफ़े बाद ही कुछ लाइनें ऎसी मिली कि, अपने आपसे घृणा के प्रयोग करने लग पड़ा । आपको भी बताऊँ ?
लेकिन पहले श्री पुष्पराज जी से क्षमा माँग लूँ । क्योंकि मैं उनकी लिखी कुछ ही लाइनें शब्दालोप के साथ उद्धरित कर रहा हूँ .. " हमें नई बात समझ में आयी कि, जो (............) कहलाने के प्रचार से घृणा नहीं करते थे, वे ही (........ ) होने के प्रचार से आपसे घृणा कर रहे हैं । घृणा की यह चेतना जब ख़त्म हो जायेगी कौन किसके क्या होने से दुःखी होगा ? हम उनके कृत्तज्ञ हैं, जो हमारी चूकों पर नज़र रखते हैं और तत्काल घृणा करना भी जानते हैं । आपकी घृणा ने ही हमें शनैः शनैः इंसानियत की तमीज़ सिखायी है ! "
निट्ठल्ला : आप ई सब काहे लिख रहे हैं, जी ?
भईय्या, भाई जी, मेरे दद्दू.. अपनी सुविधानुसार, आप ही रिक्त स्थानों में ब्लागर और साहित्यकार भर कर देखो न । जो निष्कर्ष निकासो, तनि हमहूँ का बताओ । इतने दिमागदार नहीं हैं, सो इत्ती टिपटिपाई में ही मूड़ भारी हुई रहा है । तो अपुन चलें ? घृणा के साथ मेरे प्रयोग अभी कुछ बाकी रह गये है, फ़िलवक्त तो आप हमें निष्क्रीय ही समझो ।
" पावस देखि ’रहीम’ मन कोयल साधे मौन ।
जित दादुर वक्ता भये इनको पूछत कौन ॥ "
17 टिप्पणी:
भईये, ब्लॉगर और साहित्यकार दोनों भर कर देख लिए..कपार पटकने का मन था लेकिन कम्प्यूटर की कीमत देख कर रुक गये. किताब होती तो जरुर पटकते.
:)
हम मौन साधे पढ़ लिये।
यहाँ आईके तो हम अमर हुई गए
इस पोस्ट पर मौन हूँ।
मौन साधते तो आपके चरण बिना पांय लागू कहे छु आते .....वो थोडा असभ्यता का निशानी है ..क्या बताये गुरुवर कभी कभी हमें कम्पूटर में भी कोई दमदार लेख मिल जाता है....वैसे आपके कहे अनुसार..अक्सर समझदानी के आउटर पर इँज़नवाँ फ़ेल ! ही रहता है......पर मौज़ूदा दौर तो जैसे गुज़रे ज़माने का बेल बाटम है..ओर इधर अपुन जींस पहनने का शौक पाले है .
हमने रिक्त स्तःन में दोनों भर भर के देखे ...फिर क्या बस :)
स्तःन की बजाय स्थान मानें :)
Bare bare shahron men aisa hota hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
चुप ही रहता हूँ मैं भी...बड़े-बड़े लोग-बाग चुप हैं
साहित्यकार और ब्लोगर दोनों भर के देख लिए जी. वैसे हम तो दुनो में से कौनो नहीं है :)
घोर साहित्यिक पोस्ट लिख डाली जी,
और हमारी समझ में भी आ गयी !
थोडी देर में सब थक कर चुप हो जायेंगे.. फिर सब ब्लोगर हो जायेंगे.. फिर सब साहित्यकार हो जायेंगे..
रह रह कर ऐसे मुद्दा उठाना जरुरी है.. वरना टाइम पास कैसे हो? जब टाइम पास हो जाए तो फिर कुछ और ढूढेंगे..
वैसे लिख पाना तो इधर अपना भी नहीं हो रहा है.. मूड ही नहीं बन पा रहा है.. पता नहीं क्यों? :)
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mamla bas timepass wala hi maan lete hain
apan to timepass karte hain
ye post bhi theek thaak timepass rahi
Aapke likh pe comment karun, itnee qabiliyat nahee...!
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आजकल हमारी भी यही हालत हो रही है ....वैसे आपके ब्लॉग में अरहर के दाने नहीं मिले .....
सुन्दर रचना...मेरे ब्लॉग पर हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया...कहना-पढ़ना अब तो चलता ही रहेगा
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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