" यह इंसान कहलाने वाले चोंचले उन तक ही रहने दे, यार ! "
अभी तो मेरी पोस्ट शुरु भी नहीं हुई और यह अनपढ़ बंदर कमेंटियाने लगे । शायद ज़ाहिल हैं इसीलिये इस ज़ाहिली पोस्ट पर बेवज़ह उछलने लगे। अरे भाई, पढ़े-लिखों की शालीनता इसी में रह्ती है कि चुप रहो और तेल देखो, तेल की धार देखो, बोलोगे तो लिखे पढ़े होने का भेद खुल जायेगा ।
बंद करो, यह बेतुकी बंदर पुराण, अपने मतलब पर आओ । वही तो ! फिर बता कर ही जाइये कि यह ब्लागर बिरादरी अपनी भारतीय वर्ण-व्यवस्था में किस वर्ग में रखा जायेगा ? हमको तो जन्म से यही बताया गया है कि जो जीव ऊपर से डिस्पैच किया जाता है, बाकायदा अपने बैच नम्बर और एक्सपाइरी डेट के साथ अपना चालान साथ लेकर चलता है,बोले तो कर्मों का फल! इस हद तक कि तोते को विप्र वर्ण नसीब है तो कव्वे को शूद्रवर्ण । नारायण .. .. नारायण !
क्षमा करें, असावधानीवश यह निट्ठल्ली पोस्ट गलत रास्ते से ठेल दिया गया है । चलने दीजिये। आज सुबह सुबह एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र में छपी एक छोटी सी ख़बर ने मुझे भरभरा दिया ।
अनियंत्रित बस ने सोते हुये दलित युवक को रौंदा
घट्नास्थल पर ही दर्दनाक मौत
बिल्कुल सही है, बस दुर्घटना में एक युवक की घटनास्थल पर मृत्यु होगी तो दर्द तो हमें भी होगा, और हुआ भी । किंतु इस दर्द में एक तीक्ष्ण वितृष्णा समाहित थी, इस हद तक कि मेरी पंडिताइन बोल पड़ीं, ' सुबह सुबह गाली क्यों फूट रही है मुँह से ? ' सत्यवचन प्रिये, इस शुभ प्रभात में गालियों का अनायास प्रस्फुटन क्योंकर हो रहा है, यह ज्ञानी पुरुष ही बता सकेगा ! मेरी तो रिपोर्टर महोदय से पूछने की इच्छा हो रही थी , यह क्या समाचार दिया है, भाई ? क्यों दलित को इतना महत्व दे रहे हो, उसे इंसान के रूप में ही कालकलवित होने दोगे तो समाचार संकलक के चश्मे से यह नहीं लउकेगा कि एकठो आदमिये मरा है कउनो चींट-मकोड़ा नहीं , कटिंग डस्टबिन के लायक नहीं, कवरेज़ एरिया का सर्कुलेशन ऎफ़ेक्टेड हो सकता है ! तो शिरिमान जी यह किस ख़बीसनवीसी स्कूल के पाठ्यक्रम में ख़बरनवीसी सीखी है, आपने ? कल को यह छापोगे कि टेम्पो पलटा तीन सरदार मरे, दो आदमी गंभीर रूप से घायल एवं दलित टेम्पोचालक मामूली हताहत । मौके पर एक संदिग्ध पत्थर की मौज़ूदगी का अनुमान। अरे भाई, मुँह क्यों खुलवाते हो, भूले भटके कबीर उबीर तो पढ़बे किये होगे, अपने स्कूल में
जाति न पूछौ साधु की, जो पूछौ तो ज्ञान।
मोल करो तलवार का, परा रहन दो म्यान।।
दलित को सवर्णों ने ज़रूर पैदा किया है, लेकिन आप तो इसको सींच सींच कर लहालोट हुये जा रहे हो । अब ऎसी हालत है कि भाई लोग काव्यकुंज में भी यदि होता किन्नर नरेश तुल्य कविता रच रहे हैं मुझे दलित मानो । सो बेचारा दलित अब बहुतों की रोज़ी रोटी चला रहा है, और आप चभड़ चभड़ जुगाली कर रहे हो। भैंस मनोवैज्ञानिक कृपया जुगाली करते भैंस की मनोदशा पर प्रकाश डालें और इनके ज्ञानचक्षु खोलें । यह लोकतंत्र तीसरा खंभा, किसी फ़िस्सड्डी ग्रामपंचायत के सूखा बंबा सरीखा खड़खड़ाय रहा है, भाई !
हम तो मानते हैं, ज़ुर्म का इक़बाल भी करते हैं कि बहुत जुलुम ढाया है, हमारे पुरुखों ने इनकेऊपर। मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी हूँ, मेरे बड़े बाबा (बाबा के बड़े भाई) जो किसी ज़माने में इंकलाबी भी थे, गाँव आकर इनमें अनुशासन बनाये रखने के हिमायती हो जाया करते थे । मुसहर, कोयरी, चमार चाहे 70 वर्ष का वृद्ध ही क्यों न हो, हम बच्चों के पाँयलागी करना नहीं भूलता था । आखिर हम बड़का लोग जो थे । अगर चूक गया तो बड़े बाबा से बच नहीं सकता था । पकड़ कर हाज़िर किया जाता, बाबा सीधे उसकी बेटी से नाता जोड़ कर उसे एक दो बेंत जड़ देते, यदि प्रतिरोध या अवज्ञा जैसी कोई बू आ रही होती, तो जेठ की तपती धूप में मुश्कें ( ढाई फीट लम्बी गाँठदार रस्सी ) कसवा कर लुढ़का देते । उस गेंद रूपी मानवकाया से गोहार गूँजा करती,' दोहाई मालिक, दोहाई हज़ूर कनको न देखलियइ बाबू सबके , न त बाप किरिया अइसन ऊदूली कब्बो न भेल कि आहाँ के शान में बट्टा लगायेब । दोहाई दोहाई बाबू, इस्कूल में पास हो जायेब, छोड़ा दू हमरा, घर भर असिरबाद देत रउआ के । होली में खँस्सी खियाऎब, दोहाई दोहाई देवता जवार के ।' जैसे जैसे उसका आर्तनाद ऊँचा होता जाता, मेरे बड़े बाबा का संबन्ध उसकी बेटी से प्रगाढ़ होता जाता । क्या लीला थी, क्या दिन थे ! शायद उसी समय मेरे मन में एंटी तत्व का अंकुर पड़ा होगा फिर भी स्कूल पास होना ज़्यादा ज़रूरी था सो इस लालसा से बाबा के पास सहमते हाँफते जा खड़े होते कि छोड़ दें, लेकिन उसके पहले छुलछुल छुलछुल अपनी ही पेशाब छूट जाती । वह सन 56-57 का जमाना था । लाल टोपी यानि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी उठान पर थी । यह मुद्दा वह लोग भुनाते इससे पहले ही आरक्षण इत्यादि का प्रहसन आरंभ हो गया, चुनाव भी था, प्रहसन इसलिये कि इसका पटाक्षेप होता तो दिख नहीं रहा कांग्रेस देगी देश को दलित प्रधानमंत्री ! और तीसरा खंभा खड़े खड़े नित्य नयी शब्दावली गढ़ रहा है , अपने अपने टी आर पी के आधार पर, आख़िर यह दलित पत्रकार की खोज क्या बला है ? किसी भी योजना या जनोत्थान कार्यक्रम की एक नीतिगत डेडलाइन होती होगी, पुरुषार्थी पाँच दशकों तक प्रश्रय के मोहताज़ नहीं रहा करते,वह भी तब जबकि पूरा अमला आपको बबुआ सरीखा हर सर्द-गर्म में सहेज़े लपेटे रहता है, तो यह चल्ल दल्लित्त्तदल्लित दल्लीत दल्लित दल्ल दल्लित्त दलित..दालित्त्त की कबड्डी का अंत करो, यारों ! जगहँसाई होय रही है, लोग समझने लगे हैं , चुनाव के बाद पूछते हैं कि क्या दलित भी जीता है ? यह धुरंधर भाटभटेकर तो एकदम मौलिक निकले दलित बन कर 33 वर्ष तक अफ़सरी का सुख (?) भोग तो लिये ही, बिहार में। मेरा दिमाग तो इस दलित जुगाली में ही उलझ गया, अब ख़बर ली जाये ख़बरनवीस की ..
तो मेरे ख़बरिया मित्र, ऎसे खड़बड़िया ख़बर की व्याख्या हो जाये तो हम तुच्छ ब्लागीरों के अ-छपास क्षोभ को थोड़ी शान्ति मिले । टाँग खिंचायी नहीं,सरकार ! द मैटर इज़ सीरियस । जरा स्पष्ट कई दिया जाय कि बस एक यंत्रचालित परिवहन उपक्रम है, फिर भला उसमें दलित भेद करने का प्रगामी साफ़्टवेयर भी नहीं है तो वह एक चैन से सोये युवक को दलित जान कर कैसे अनियंत्रित हो गयी ? यदि वह यंत्रजनित त्रुटिवश अनियंत्रित थी तो युवक दलित हो, ब्राह्मण हो, ढोर ढंगर हो यानि जो भी सामने हो सबको बाइस पसेरी के भाव से ही तौल देती । फिर युवक के आगे दलित चस्पा करने का मंतव्य ? यदि उसमें अहिंसा परमोःधर्म का ब्रेक आयल नहीं था तो वह आप को भी बख़्सने वाली नहीं ,सामने कइसहू सयानो होय,एक ठोकर लागिहे तौ लागिहे । ठीक ? ज़वाब सार्वज़निक न करना चाहो तो मेरे मेल आई०डी० पर भेज दो।
यह रौंदा कौन सी क्रिया है, ज़नाब ? शिवाजी की सेना ने मुग़लों को रौंदा,ऎसा इतिहास में पढ़ा था । अधुनातन रौंदा-रौंदी WWF में भी दृष्टिगोचर होती है, यानि की एक सोद्देश्य सक्रिय क्रूरता ! रौंदा बोले तो युवक ( दलित सही ) अपनी प्राण रक्षा के लिये संघर्षरत था और बस उसे रौंदने में व्यस्त थी । शायद आप सुन न पाये हों किंतु सुनने वालों ने बताया कि युवक रौंदते बस को लक्ष्य कर बोल भी रहा था, तू क्या रौंदे मोय..एक दिन ऎसा आयेगा..गच्च ख़ल्लास ! दुर्घटना के इतने सक्रिय हिंसात्मकता का चित्रण शायद आप अंग्रेज़िन चाची के क्रश्ड(crushed) से सेंतमेंत में माँग कर सके । हेडलाइन से पाठक दहले तभी तो आगे की बात पढ़ेगा । सो, न्यूज़ वैल्यू बढ़ाने के लिये इतने क्रूर न बनो, भाई । चैन से अख़बार पढ़ लेने दो, या यह भी बंद कर दूँ ? किसी दुर्घटना को ग्लैमराइज़ करके क्या सुख मिला, भाई ? रहम करो,रहम करो।
अपने रिपोर्ट की सस्पेंस वैल्यू के प्रति भी तुम सचेत हो क्योंकि अंतिम पंक्ति में उपसंहार स्वरूप दर्ज कर रहे हो कि ' उल्लेखनीय है कि बस ड्राइवर परागप्रसाद स्वयं भी पिछड़ी जाति से संबन्ध रखता है ' बड़ी खंभा उखाड़ जानकारी परोसी है, तुमने ! पब्लिक गदगदागद गदगद !!
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दर्दनाक मौत, खुशनुमा मौत, शर्मनाक मौत में तुमको बेमौत नहीं मार रहा हूँ, इसलिये तुम्हारा और तुम्हारे भोंपू दैनिक का नाम नहीं दे रहा हूँ । रंज़ न करना कि इंटरनेट पर नाम नहीं आया












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6 टिप्पणी:
हम घोसित कर दिए इस पोस्ट को इस साल की, नहीं नहीं साल तो अभी सुरू हुआ ही है, इस महिने की, नहीं वह भी अभी आधा भी नहीं गुजरा, इस हफ्ते की सबसे उत्तम पोस्ट। कोई ईनाम की दरकार न मुझे है न आप को। मगर जो हमने कह दिय़ा वही सच है। और डाक्टर साहब!ये होली का मजाक नहीं है।
अच्छी ख़बर ली आपने. वैसे कभी कभी मूढ़ता वश भी ऐसे शीर्षक बन जाते हैं. हमारे यहाँ कुछ समय पहले एक ख़बर की headline थी: "दिन दहाड़े मकान गिरा".
धन्यवाद द्विवेदी जी,
बस मेरी नकेल थामे रहिये , कहीं बेलगाम या अशालीन होने लगूँ तो खींचने में कोई लिहाज़ न
करियेगा ।
चाह नहीं कि किसी सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ..
यहाँ कोई संपादक नहीं होता, यह एक बहुत बड़ा
खतरा है हमारे सम्मानजनक अस्तित्व के लिये ।
इसलिये एक दूसरे की बाँह पकड़ कर पार लगा देना
ही विकल्प है ।
धन्यवाद !
वैसे कभी अवसर आया तो सर्वप्रथम पोस्ट पढ़ने का
मुकुट आपके माथे पर ही रहेगा ।
हें..हें मैं तो रीयली मज़ाक कर रहा हूँ,
आपके और मेरे विचार मिलते हैं..
धर्म हो, इमान हो.. याकि फ़िर हो समाज
जो टूटा या फ़टा हो, मरम्मत होनी चाहिये
इस सूझ भरे लेख को पढवाने के लिये धन्यवाद... लिखते रहिये
अच्छी खबर ली आपने
बेहतरीन …
लिखते रहिये।
बेहतरीन लिखा गया है ! शुक्रिया !
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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