जा जा रे....ऽ ..ऽ , जा रे जारे
जा रे, जा रे कारे कागा
का का का क्यों शोर मचाये
काला रे जा रे जा रे
अरे नाले में जाके तू मुँह धोके आ
काला रे....ऽ ..ऽ , जा रे जारे
ये गड़बड़ जी
ओ गागा रे गा रे...ऽ ..ऽ , गा रे
अईयो ये गालि दिया
अईयो ये सुर बदला
ओ जा रे जा रे
ये सुर किधर है जी, ये सुर... ये..., एन्नाया इधु
ओ जा रे जा रे...ऽ , ओ जा रे जा रे
अम च्छोड़ेगा नहीं जी., .., .., .., .., अम पक्कड़के रखेगा जी
अमको सुर पक्कड़ने में त्थोड़ा हेल्प करो जी ! पड़ोसन को याद मत करिये शिरिमान जी, होली है तो क्या हुआ ? इतनी थकेली बुझेली ब्लागसाइट पर होली का रंग घुसेड़ना है, और आप पड़ोसन में रम गये ! चलो हम अकेले ही सुर संभालने की कोशिश करते हैं । यह कौव्वा बेचारा ही क्यों पकड़ गया , इस रंगीले मौसम में ? पिरेसिडेन्ट बुश को कौव्वे का स्वाद लेते देख शायद ट्रेन्ड बदल रहा है । अब गर्दभराज रिटायर होने की उम्र में बची खुची लीव अवेल कर रहे होंगे, धकापेल सेवा करकर के अघा गये या फिर लोडिंग अनलोडिंग में फँसा लिये गये होंगे । इसीलिये कौव्वे आजकल हैपेनिंग थिंग हो गये हैं, वरना उनकी क्या बिसात ? जो बंधु केवल इतना ही पढ़ कर , अपने को कौव्वे में शुमार किये जाने से ख़फ़ा हो रहे हों, थोड़ा धैर्य रखें । शीघ्र आ रहा है.. अथ कौव्वा माहात्म्य ! आज़कल छत पर कचरी-पापड़ सुखाया जा रहा है, और दिन भर कौव्वों को उड़ाते रहने में छोटी ( मेरी काकर स्पैनियल गर्लफ़्रेन्ड ! ) और पंडिताइन व्यस्त रहा करती हैं, सो हठात मन में आया कि क्या इन पर लिखा जा सकता है ? किससे पूछूँ ? चलिये आप ही बताइये कि लिखूँ तो कोई पढ़ेगा भी ? खैर, अब तो मेरी यह झुल्ल तो शांत होकर ही रहेगी !
दो दिनों से मेरे दिमाग़ में कौव्वारौर चल रहा है,लिखूँ या न लिखूँ ? लोग क्या कहेंगे, इनको कुछ और मिला ही नहीं लिखने को ? अरे करीना कितनी हाट हैपेनिंग थिंग है, आजकल ! करीना और कौव्वे में भेद कर नहीं सकते , और कुछ तो है.. कुछ तो है , चिल्लाते रहते हैं । ज़ाहिराना तौर पर हम कोई लौंडे लफ़ाड़ी भी नहीं हैं ( अपनी सीटी सरक कर अब अंदर हो गयी है, सो मन में ही बजा-वजा लेते हैं, मौज़ तो आप भी लेते हो, भाई ! गदरायी अँमिया देखकर बूढ़ा बंदर डाल पर लटकना कैसे भूल सकता है, भला ? ) अपनी ओरिज़िनल वाली पंडिताइन भी आज़कल करीना पर फ़िदा हैं, दिन भर पूरे घर में हो.ऽ राम्मा-हो..ऽ राम्मा करती डोलती फिरती हैं । अग़रचे चांस कम है फिर भी कभी किसी हसीं शा़म को इधर कोई कन्या ही भटक कर आ जाये, और पढ़ते ही एकदम घुघूआ कर मेरे प्रोफ़ाइल पर जाये तो वहाँ मेरा प्रेमनाथ सरीखा चेहरा देख कर चोखेर बाली पर टिप्पणी ही जड़ दे, लो अब एक और नया मोर्चा ! कौव्वे को शह देता हूँ तो काकेश जी ही क्यों , नाराज़ होने वाले बहुतेरे हैं, एक ढ़ूँढो-हज़ार मिलेंगे । ख़ैर हुआ करें, मैं कोई डरता थोड़े ही हूँ ? हमारा लिंक पकड़ कर तो कोई यहाँ तक आने से रहा, अपनी मुँडेर से चाहे जितना गरिया ले । मैं तो देबू दा से भी नहीं डरता ! ई ब्लागिंग भी तो पढ़े लिखों का एक टेक्निकल किसिम का काँव काँव है, और वह तो काकभुशुण्डि हैं, ब्लागिंग के आदिमानवों में से एक ! आपसे यह अनर्गल प्रलाप नहीं झेला जा रहा है, तो जरा देर को चिट्ठाजगत की तरफ़ टहल आयें, समाज हो या सेहत, मस्ती हो या तकनीक, काँव-काँव की भरमार देख मन प्रसन्न हो जाता है । लगता है कि यहाँ जीवन है और सबकी दुआ से सभी ठीकठाक है । नारदजी अक्षरग्राम में बसते हैं और सबकी ख़बर रखते हैं किंतु माहौल चित्रगुप्त महाराज की पाठशाला सरीखा है, वहाँ से उनके द्वारा परिभाषित कौव्वे तुरंत उड़ा दिये जाते हैं । अब उनको यह कौन बताये कि जहाँ जीवन है, वहीं कौव्वे भी हैं । आसमान में उड़ते कौव्वे देख कर अग़र कोलम्बस अपना ज़हाज़ उधर को न मोड़ लेता, तो पूरा विश्व आज अमेरीकी कौव्वों को तरस रहा होता ।
तो बंधु आप इस कौव्वा पुराण से बिदक क्यों गये ? यह कोई गरूड़पुराण की मेड-ईज़ी थोड़े ही है ? क्या समझ रखा है, कौव्वों को ? आपका तीन वर्ष का बेटा कभी आपके सामने कुछ देख-गुन कर सटीक निष्कर्ष निकाल लेता था तो आप झूम पड़ते थे, ' एकदम कौव्वा है !' यानि चतुर-चालाक ! कुछेक जन तो हम कायस्थों को जन्मजात कौव्वा मानते हैं, यानि परोक्ष रूप से अपने कौव्वा न होने की स्वीकारोक्ति ! इनके कौव्वा न होने में गलती किसकी है ? क्या नहीं सुना था कि रामचन्द्र जी सिया से कह गये थे कि हँस दाना-दुनका चुगेगा और कौव्वा मोती खायेगा । रामचन्द्र जी की बात झूठी कैसे हो सकती है भला, वह तो आप देख ही रहे हैं कि कौन माल काट रहा है और कौन छाछ में पानी मिला कर पेट भर रहा है ! अब इसे कलयुग कह लो या कौव्वायुग , आपकी मर्ज़ी । त्रिकालदर्शी रामचन्द्र जी कौव्वे में कुछ देखे होंगे तभी तो इतने एडवांस में यह सब डिक्लेयर कर दिये थे । हम आप भला वह तो चखेंगे भी नहीं, जो कौव्वा महराज जीमते हैं, फिर क्या खाकर उनके गुणों से ईर्ष्या करना चाहते हैं ? सुबह सुबह कौव्वे की काँव-काँव अपने मुँडेर पर हुई नहीं कि दिल मचल उठता है, रोमांच हो आता है, ज़रूर आज कोई चिट्ठी या समाचार आयेगा । इसी बहाने हम शुभ-अशुभ की परिकल्पना में अपने नातेदार-रिश्तेदारों को याद तो कर लेते हैं, वरना इहाँ फ़ुरसतिया हर कोउ नाहिं ! अब यह आप जानो कि कौव्वे जैसा आत्मज्ञान कहाँ से लाओगे कि मौत-खुशी, संकट-उत्सव सबका ज्ञान वह आपको बिना किसी पोथी या गणना के करा देता है । निर्विकार इतना कि विष्ठा हो या मांस , उसके लिये समान भाव से ग्राह्य है, अपने तुलसी बाबा ( तमाखू नहीं यार, इहाँ संतन की बात हुई रहि है ) यह देख कितने कुंठित हुये होंगे कि बोल पड़े, " कबहूँ निरामिष होंई कि कागा " । मेरा तो यह मानना है कि समदर्शी होने से ही वह सर्वभक्षी हो पाया होगा । धन्य है.. धन्य है.. ! धन्यभाग कागा के , कि मनई उनको देख अपनी यात्रा सफ़ल मानते हैं, गोया कौव्वा दिखना कोई दलित वोट बैंक हाथ लग जाने जैसा हो । हमारी यात्रा सफल करके भी वह घृणा में जीने को मज़बूर ! इस मुँडेर से उस मुँडेर पर हँकाये जाते रहेंगे । वह शताब्दियों से कोयल के अंडे ही सेंते रहे हैं और कोयल उनको ठेंगा दिखाती रही है । इनके ऊपर कोई रंग नहीं चढ़ता, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ! तो, इस होली पर कौव्वे को अपना ही लिया जाये, क्या ? जैसी राय हो सबकी, सूचित करियेगा !!
1 टिप्पणी:
हम तो खुद ही कायस्थ हैं-क्या अपनायें, क्या छोड़ें.. हा हा,,,,
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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