अरे भाई बिरादर, जब ऋतिक रोशन जैसी फ़िगर न रही, तो खिसियाहट मिटाने को यही पैरोडी बाथरूम में घुसते हुये, लोगों को जोर से सुनाते हुए, गुनगुना कर काम चलाना पड़ता है । हँसिये मत भाई, सही में इसे मैं काम चलाना ही कहूँगा, मज़बूरी है । अपने चाणक्य बाबा मलेच्छ भाषा में कह गये हैं, ( मलेच्छों का प्रवेश वर्जित तो नहीं ? ) Offence is the best Defence सो उनका अनुसरण करते हुये, दूसरों के हँसने से पहले मैं स्वयं ही गाने लगता हूँ । अगला भला क्या खाकर कोई किसी छिनरो का भतार छीनेगा ? जरा नमूना देख लीजिये, यह मैं नहीं, मैन्यूल है, बोले तो मेरा फिज़िशियन सैम्पल!
अरे, कोई पूछ भी लो कि मैं यह सब क्यों लिख रहा हूँ ? छोड़ो, मैं स्वयं ही बेशर्म नेताओं की तरह अपना स्पष्टीकरण दिये देता हूँ । दरअसल पिछले महीनों से मेरा वज़न अचानक बढ़्ने लगा । 68 किलो के सदाबहार देवानंद, शनैः शनैः उत्सव के अमज़द खान की तरह होने लगा, कोई कहता कि आप पचपन के नहीं लगते तो मैं लक्का कबूतर सा गरदन नचा कर कहता, " अभी तो पचपन का बचपन है, यार ! " किंतु पता नहीं कौन सी टेलीपैथी हुयी कि जिस दिन मेरी पंडिताइन ने श्री ज्ञानदत्त जी का फोटू देख कर कहा, "अरे, यह तो तुम्हारे उम्र के ही लगते हैं, लेकिन खासे मोटे हैं ! " बस्स यारों, समझो उसी दिन मेरी फ़ुरसत हो गयी । ज्ञानदत्त जी का बोलबाला था उन दिनों हमारी गृहस्थी में, वह मेरी पोस्टों के सोलो शोमैन यानि टिप्पणीकार थे । आख़िर यह ज़नानियाँ दूसरों के पति से अपने की तुलना ही क्यों किया करती हैं ? उसके वो हमारे इनसे मोटे हैं, हमारे ये उ्सके आदमी से तो लाखगुना अच्छे हैं, गोया आदमी न हो गया हैंगर से उतारा कपड़ा होगया । इतराती हुई बलखाती हुई, बोलीं बहुत जतन किये हैं, इन हाथों नें ! ममता जी, आप यह पोस्ट पढ़ रही हैं, ठीक ठाक लग रहा है, यहाँ ? हाँ तो, जरा हमारे पाठकों को यह बतायेंगी कि ऎसा क्यों सोचा जाता है ? और यह कि महिलाओं की गोष्ठियों में पतियों का तुलनात्मक अध्ययन/ परिचर्चा क्यों अनिवार्य हुआ करती है ? हाँ तो ....
मैं चिढ़ जाता हूँ, ऎसी तुलनाओं से ! अरे, तुम तो दिन में दस बार, जब मर्ज़ी आया पति को धोकर टाँग देती हो । चलो, इसे मुहब्बत करने का सितम मान लेते हैं ( और चारा भी क्या है ? चारा डिपार्टमेन्ट भी तो इन्हीं का है ), सो सब सिर आँखों मंज़ूर ! लेकिन क्या ज़रूरी है, गैरपुरुषों पर टीका टिप्पणी करना ? क्यों जताया जाता हैं, कि सर्फ़ से सहेज़ा गया है, या घड़ी डिटरज़ेन्ट से रगड़ा जाता है,यह चोखेरवालियों का पोस्ट कांटेन्ट ?
सो, श्रीमान गुरु जी के मोटा कहे जाने पर मेरा क्लेश क्रोध बन कर, कलहप्रिया पर फूटा । उसी पल, जैसे किसी टेलीपैथी से मैं शापग्रस्त हो गया । वैशाख के गदहे की तरह मैं दिनोंदिन मोटा होने लगा । मित्रों की भ्रुकुटियाँ व्यंगात्मक तंज़ में चौड़ी होने लगीं । मैं बेचारा क्या कहता, दस वर्षों से तो मेन्टेन कर रहा हूँ । दही, मट्ठा, छाछ, सत्तू का शरबत, ढेरों फल व ब्लैक काफ़ी पर दिन गुज़रता है, रात में भोजन के नाम पर चिड़िया का चुग्गा व सवासेर सब्ज़ी ! बीच में यदि कभी ज़रूरत हुयी तो गुड़-चूड़ा या लाई-चना से तृप्त हो लेता हूँ, अब मोटा हो रहा हूँ तो क्या प्राण तज दूँ ?
सलाहें आने लगीं, नियति मुस्कुराने लगी, पंडिताइन गुर्राने लगीं, " मार्निंग वाक पर जाओ, कल से ! " मैं जनम जनम का निशाचर, एकदम काँप गया । 'हाय भगवान, मैंने कितनों को अब तक टहला दिया, अब तुम मुझे टहला रहे हो ?' फ़ीस ज़ेब के हवाले कर, मरीज़ों को टहलाना तो मेरे पेशे की ज़रूरत है । न टहलाऊँ तो बाबा रामदेव उनको हँका ले जायेंगे । अब तुम मुझे तो न टहलाओ, दीनबंधु दीनानाथ ! यह भला क्यों सुनें ? वैसे भी हाइटेक बाबाओं ने उनको फ़ुसला लिया है, वह वहीं सुगंधित वातावरण में डोलते हैं । लिहाज़ा टहलने की सज़ा की तारीख़ तक तय हो गयी।
पहली सुबह, एलार्म बज पड़ा । माई कसम, अग़र घड़ी विदेशी न होती, तो उठा कर बाहर फेंक देता । नहीं फेंक पाया और वह मेरे कानों में किर्राती रही । किर्राओ, जितना किर्राना है, हम न उठेंगे । पंडिताइन का प्रवेश....," उठो यार, पहले दिन ही मक्कारी कर रहे हो ।" तुम भी चलो, मैंने शो करवाना चाहा ।" नहीं नहीं तुम जाओ, मुझे कितना काम है, वह कौन करेगा ? बच्चे अभी पढ़ रहे हैं, तुम्हें ज़्यादा ज़रूरी है । कहीं कुछ हो गया, तो मैं क्या करूँगी ?" लो, मेरे स्वास्थ्य में भी एक अर्थशास्त्र छिपा है । मज़बूरी का दूसरा नाम मिडिल क्लास आदमी है, देख लीजिये यहाँ !चल्लो..उट्ठो, दिन भर बैठे रहते हो । क्लिनिक, कार, कम्प्यूटर भला खड़े होकर भी चलाई जा सकती है ? इस नादान को कौन समझाये ? इतने में फाइनल वर्डिक्ट आ गया," जाओ कम से कम ओवरब्रिज़ तक तो हो आओ ।" मैं पड़ा पड़ा दार्शनिक होने लगा, ' नारी तेरे रूप अनेक ' रात में तो प्राणप्यारी लग रही थीं, अब इस समय प्राणहत्यारी का जलवा बिखेर रही हो । कसम देकर एक कटोरी खीर दी थी, अब पद्दी पदाने पर आमदा ! खैर, जो न होना चाहिये था, वह होकर रहा । मुझे घर से निकलना ही पड़ा । धकियाया गया, पैर घसीटते हुये चल पड़े, जायें तो जायें कहाँ ?
अज़ब गज़ब नज़ारा, लगता था पूरे शहर के बेडौल डील डौल वालों की कोई रैली चल रही हो । उचकते, भचकते सभी भागे जा रहे हैं, उत्तर को ! नज़रें चुराते हुये हम भी शामिल हो लिये, इस अनोखे कारवाँ में । कुछ शिकारी निगाहों ने मुझे ताड़ लिया, पीछे लग लिये, " डाक्टर साहब, इस डायबिटीज़ में बेल का शरबत लेना चाहिये , और हरा कद्दू ? अबे कद्दू तो तू खुद ही लग रहा है, अब तू किस कद्दू को खायेगा ? क़ोफ़्त होने लगी ।
सुबह की अपनी अच्छी खासी तरो-ताज़ा खोपड़ी कई जगह चटवाते, नुचवाते, सरकारें बनवाते गिरवाते , अंत में मंत्रिमंडल में फेरबदल करवा कर ही घर लौटा । पंडिताइन के आशा के विपरीत, मैं चहकते हुये घर में दाखिल हुआ । पंडिताइन भौंचक, फिर सहसा पैंतरा बदल, वह भी राग हर्षित में संगत देने लगीं, "देखा, एक ही दिन में कितना फ़र्क़ पड़ गया ।" हुँह, कीतना फरक पर गिआ ? बोला कुछ नहीं, कुछ न बोलो तो बीबी की परेशानी का कोई ओर-छोर नहीं मिलता ( आप भी यह मंतर आज मुझसे मोफ़त में लेलो ), मैं तो अपनी अन्य उपलब्धियों पर झूम रहा था, शहर के बहुत सारे सहतोंदू एक साथ, इस अवसर पर मिले । किबला तोंदू तो मैं भी हूँ, तभी तो इन गणमान्यों को सहतोंदू कह रहा हूँ । इन सहतोंदुओं में, अपनी पकड़ में आने वाले कई को चिन्हित किया, और उनसे अतिप्रेम से मिला । अब यह समझो कि प्रैक्टिस में, कुछ नहीं तो 15% का इज़ाफ़ा तो कहीं गया नहीं है ।
मुझसे कोई उचित रिस्पांस न पाकर पंडिताइन अपने में व्यस्त हो गयीं । अंदर शायद किसी से फोन पर बात हो रही थी, " हाँ हाँ, हाँ हाँ हैं ! हाँ घर में ही हैं, अभी अभी वाक कर के लौटे हैं, थोड़ा (?) रिलैक्स हो रहे हैं । मैं बता दूँगी, वह 8 बजे तक ख़ुद ही बात कर लेंगे । जी अच्छा, जी अच्छा, नमस्कार !" अरे ! यह तो एक दूसरे तरह की उपलब्धि हाथ में आ गयी, ' अभी अभी वाक कर के लौटे हैं ' में उनका दर्प इस कदर टपक रहा था कि मानो मेरे जैसी शूरता शायद ही किसी मर्द के बच्चे ने दिखायी हो । अब तो शाम तक मेरा पूरा समाज़, मेरी इस मर्दानगी से वाक़िफ़ हो जायेगा, बड़ा तेज चैनल है इनका। सीना चौड़ा कर के चाय के इंतज़ार में बैठ गया । लेकिन,यह तो जीत रही हैं । क्या किया जाये, भला ?
आगमन पंडिताइन का,"और सुनाओ, कैसी रही आज की वाक ?" मेरा प्रत्युत्तर; ’ अरे एकदम मूड फ़्रेश होगया । अंबेदकर वाले मोड़ पर ही मिसेज़ खन्ना मिल गयीं, ज्यों की त्यों रक्खी हैं, पिछले दस साल से ! एकदम छोकरी लगती है,यह मंजुला ! बहुत देर तक बातें हुईं, कहने लगीं कि वह अपने फ़िगर के लिये कुछ भी कर सकती हैं, बुरा न मानो तुम तो उसकी ताई लगने लगी हो । लौटते में वह गर्ग साहब की वाइफ़, आईटीआईवाले, जो मंटू की शादी में झूम झूम कर नाच रही थी, हाँ वही मिली । उस दिन तो मैं भी चक्कर खा गया कि इस उम्र में भी यह लचक,भाई कमाल की चीज है, उसकी कमर....कभी उसको चूड़ीदार में देखा है ?
मेरी बात पूरी ही कहाँ होने पायी, पंडिताइन के चेहरे से धुँआ उड़ता दिखायी देने लगा, कुछ बारूद की गंध भी हवा में थी । अचानक फट ही तो पड़ीं, " कब बंद होगी तुम्हारी लम्पटई ? बेटी जवान हो रही है, और तुम सुबह सुबह औरतबाजी के कारनामे मुझे सुना सुना कर रस ले रहे हो । हद हो गयी बेशर्मी की ! " हाँफते हुये आगे बढ़ते बढ़ते, पलट कर फिर एक वार किया, " आख़िर कब सुधरोगे ? सुधरोगे भी कि नहीं ? कोई ज़रूरत नहीं है, कल से कहीं जाने की ! जो करना हो घर में करो ।" चलो अमर कुमार, अपना काम तो बन गया । अब इनसे पूछूँगा,' घर में करना क्या है, एक्सरसाइज़ या औरतबाजी ? " काँटे से काँटा तो निकल गया, लेकिन मेरा बहत्तर किलो किस घाट लगेगा ? खैर, निदान मिल गया । बची खुची पढ़ाई ही काम आयी ।
संभावित कारणों की पड़ताल में, थायरायड महाशय दोषी पाये गये । टेस्ट में रंगेहाथों कामचोरी करते पकड़े गये । यानि हाइपोथायराडिज़्म ! बस एक गोली का सवाल था, वह ले रहा हूँ । जैसे मेरे दिन बहुरे, वैसे ही आप सब भी राजी खुशी रहें । इन्हीं सद्कामनाओं के साथ, मेरा नमस्कार !
3 टिप्पणी:
जनाब, ने एक ही दिन में मुक्ति प्राप्त कर ली टहलाई से। पर ऐसा क्या है कि ये थॉयरायड गड़बड़ करने लगता है? वह भी इस उमर में।
देर कर दी ये पोस्ट पढ़ने में। कल से हम तो निकलेंगे सुबह-सबेरे मार्निंग वाक पर। न जाने कित्ते लोग दस से इंतजार करते मिलें। :)
हम तो पिछले तीन दिन पहले ही संभल गये वरना यह पोस्ट अपने पर मानते. तीन दिन में एक किलोमीटर से ज्यादा कवर लिया है, मालूम है!!!
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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