भटक कर आये हुये आलेख की दुम…..यहाँ जारी है
पर ऎसा भी क्या हो गया कि अनुपम को यह सब करना पड़ा ? एक प्रश्न और अनेक उत्तर होंगे । क्या यह क्षणिक आवेग मात्र था, शायद हाँ..और शायद नहीं भी ? आवेग के पक्ष में निश्चित ही अधिक वोट आयेंगे । पर एक बात साफ़ हो जाये…कि यह क्षणिक आवेग ही सही, किंतु यह तो मानेंगे कि उसकी पराकाष्ठा है, यानि किसी भी आवेग की । अपनी बात को कायम करवाने के लिये अपना ही जीवन ख़त्म करने का प्रयास केवल एक घटना नहीं, बल्कि व्यक्ति के मानस के साथ हुई कई दुर्घटनाओं को दर्शाता है । केवल इसी परिप्रेक्ष्य में देखें तो साफ है..
कि तीन राजनयिकों की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा, उनकी नाक की लड़ाई ने, कुछ दिनों के लिये पूरे देश को कई घड़ों में बाँट दिया था । मीडिया को टी.आर.पी. बढ़ानी होती है, सो वह हर दिन हर पल नये नये अविष्कार करते रहे, और एक्सक्लूसिव की थाल में सजा सजा कर बख़ूबी परोसते रहे । निश्चित ही ( बचे खुचे ) लोकतंत्र का यह खंभा अपनी जगह पर सीधा खड़े रहने में असमर्थ हो चला है, या कि उसे भ्रम है कि वही आगे आने समय के भारत भाग्य विधाता हैं । बहस के लिये ही सही.. ( और कर भी क्या सकते हैं ? ) किंतु यह दुःखदायी है ।
भोंड़ेंपन की हद त्तक, माछेर बाज़ार की तरह इतना सेंसेशन, इतना सस्पेंस, इतनी फ़्रेंज़ी ( रोमांच.. उत्तेजक अनिश्चय.. उन्माद वगैरह ) परोसी गई कि यह सब मरता क्या न करता जैसी खुराक़ बन कर लोगों के पेट में उतर गयी। ख़रीद – फ़रोख़्त, लेन-देन के किस्से पान की दुकानों तक अपने अपने ढंग से रंग-रूप बदलने लगे । आभिजात्य कहलाये जाने वाले ड्राइंगरूम्स में यह '>'>'>'>हार्स-ट्रेडिंग कहलाया जाने लगा । 1790 के अमेरिकन राष्ट्रपति ज़ेफ़रसन व ब्रिटिश लोकशाही के संदर्भ भुला कर बिहार में इसका खुल कर उपयोग हुआ । और मीडिया के कर्णधारों को देश को दिशा देने वाला एक नया ज़ुमला मिल गया । समय असमय देश के इस कोने से उस कोने तक लुढ़कता उछलता यह सत्ताधारी नेतृत्व के शब्दकोष में जा कर टिक गया । मुद्रित व इलेक्ट्रानिक मीडिया यहीं से इसे उधार लेकर इसका भरपूर उपयोग करके, फिर आने वाले आड़े वक़्त के लिये सहेज कर रख छोड़ती है । नतीज़तन कोमल मन की बात तो दरकिनार पके प्रौढ़ दिमाग भी इस फोड़े की वज़ह से टप्प टप्प टपकने लगे । भारत अज़ूबों का देश तो रहा ही है, अब अटकलों से समृद्ध देश भी बन गया ।
अडवानी पर कुछ न बोलूँगा, अनुपम आहत होंगे । किंतु उनकी ‘ कउआ कान ले गया ‘ वाला माहौल बना देने की राजनीति से लोग जागते क्यों नहीं । माया बोलीं ‘ दलित की बेटी ‘को प्रधानमंत्री पद से अलग करने कि रणनीति काम कर गयी ! अज़ब है, तू माया – ग़ज़ब है तू माया ! प्रबुद्ध मनमोहन ‘ नाच री कठपुतली मेरी ‘ पर थिरकते देखे जा सकते हैं । सोनिया को अपने आक्रोशात्मक पैंतरों को छिपा पाना मुश्किल पड़ रहा है, वह कोशिश भी नहीं करतीं । भारत-पाकिस्तान क्रिकेट की तर्ज़ पर लाइव कमेन्ट्री चलती रही, अब चार की आवश्यकता, अब दो लुढ़के , यह धोती-उघाड़ कुश्ती हम सीधे आपको संसद के सेंट्रल हाल से दिखा रहे हैं, जाइयेगा नहीं अभी आते हैं..”आँप क्लौंज़-अप किँयॊं नेंहिं करतेए हँयअ अ ऽ ऽ “ और पूरा मुलुक क्लोज़-अप में जुट गया, काश कोई इन धुरंधरों का क्लोज़-अप भी दिखलाता ! टनों क्लोज़-अप ख़र्च हो गया, और हमारा नेतृत्व अपने दाँत पहले से ज़्यादा मज़बूत साबित कर, दुग्ध-धवल की झमकार बिखेरता हुआ देश को कृतार्थ करता भया ! उनकी आन के पीछे सिर तुड़ाने वालों को राहत देने की तैयारी चल रही है । कतार से आओ.. सबको मिलेगा ! चलें देखें, क्या मिलने वाला है ? बहुत देर से यूँ ही निट्ठल्ला बैठा हुआ कुछ तो है को गंदा कर रहा हूँ ! दुनिया चैन से सो रही है, मैं क्यों बेचैन हूँ ?
श्री अशफाक उल्ला खां – मैं मुसलमान तुम काफिर ?
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इस तरह की अपनी कुर्बानियों से वतन की मिट्टी – पानी का कर्ज़ अदा करने
वाले सिरफिरे मतवालों में श्री बिस्मिल के बाद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ का ही नाम
आता है...
22 टिप्पणी:
बधाई हो कैलेंडर के लिए. :)
वैसे सच कहूं तो , चलते चलो ये राह जहाँ तक चली चले.....
हंस लें , रो लें, गा लें ,
पर इस बौद्धिक मन का क्या करें जो सोने नहीं देता.
कोई क्रांति हर पल चाहता है.
दौड़ो कि वो टूटी जंजीरें.....
क्या बतायें...सारा का सारा घटनाक्रम बेहद अफसोसजनक, दुखद एवं निन्दनीय रहा.
एक्सक्लूसिव की थाल में सजा सजा कर
वाली पंक्ति सही रही..
वैसे इतना बुरा तो तब भी नही लगा था जब देश की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था..
दुनिया चैन से सो रही है, मैं क्यों बेचैन हूँ ?
अगर थारे जैसे भी चैन तैं सोगये तो न्यूं
समझ ल्यो की ये मलीदाबाज कुछ भी
बाक़ी ना छोडेंगे ! सब बेच खोच के रख देंगे !
घण्णा गंदा काम होया सै यो !
और मिडीया को क्या कहे ? ये देख
लीजिये और आरुशी काण्ड ! शर्मनाक कृत्य !
आपने बहुत जोरदार लिखा ! धन्यवाद !
अगला विषय तलाशें डाक्टर। यह साढ़े पांच सौ लोगों का अड्डा तो बात करने लायक नहीं लगता।
आप जो शिवकुमार के साथ टिप्पणी-कोऑपरेटिव खोलने की बात कर रहे हैं, वह बहुत क्रांतिकारी आइडिया है!
शायद पहली बार यहाँ आई हूँ,दिल चाहा जो शख्स कमेन्ट इतने लाजवाब देता है वो लिखता कैसे होगा,और पढ़ा तो जो सोचा था उस से बढ़ कर पाया,पढ़ कर खुशी के साथ दुःख और पछतावा भी हुआ की अभी तक आपको पढ़ा क्यों नही,नुक्सान मेरा ही हुआ न,खैर ख़ुद को तसल्ली भी दी की वक्त से पहले कोई चीज़ नही मिलती,लेकिन अब जब मिली है तो इसे सहेज कर रखना है क्योंकि ये मेरे बहुत काम आने वाली है,क्या करें...खुदगर्जी का ज़माना है,सो जहाँ आने से फायदा हो, ज़रूर आना चाहिए...आप से बहुत कुछ सीखना है....और अमर जी,मैं आप से रेकुएस्ट नही कर रही...बस...आपको तो आना ही पड़ेगा...
jis din man ki bechaini khatam ho gayi kaheen ham bhi usi jamaat mein shamil na ho jaayen...
बहुत खूब.
जरा ज्ञान भइया कि बात पर गौर कीजियेगा.
और बन्दे को भी चानस मिले तो मेहरबानी होगी.
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...badhai ho
docsaaab.......................!!
kranti aayegi , aapki lekhni layegi.....
waise dr saahab shikaayat to bata jaate,maan rakhungi
बातें तो सब सही हैं आपकी. ताऊ के कमेन्ट से भी सहमत हूँ.
इससे बुरे के लिए तैयार रहिये गुरुदेव....अभी तो ट्रेलर था....
समकालीन राजनीति पर आपने चुटीली चुटकी ली है।
आप नहीं जागेंगे तो कौन जागेगा? संत कबीर ने आप को ही ध्यान में रखकर कहा है -
सुखिया सब संसार है खाए और सोये
दुखिया दास कबीर है जागे और रोये
(संत कबीर)
मगर यह बात सही है कि इन बच्चों को जिंदगी को प्यार करना और आराम से जीना सीखना चाहिए.
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@ रश्मिप्रभा
.न तो मैं कोई क्रांति लाने वाला हूँ.
और न ही तुमसे कोई शिकायत ही है
वज़ह बिल्कुल साफ़ सा है..
क्रांति तो भूल ही जाओ, यह देश जयचंद व मीरज़ाफ़रों से अटा पड़ा है । कौन लायेगा क्रांति ? आज से महज़ 30-35 वर्ष पहले जे.पी. आंदोलन हुआ था..उम्मीद बँधी थी, आज ? उस क्रांति की उपज क्या गंध बो रही है कि मन ख़राब होता है । यही मन का उद्वेग कभी कभार यहाँ ले आता हूँ, बस !
शिकायत की बात तो तुमने ही अपनी कविता मॆं लिखी थी, मैंने गुनगुना भर दिया था, इतना ही तो ? यह दाढ़ी में तिनका क्यों चुभने लगा.. और तेरे तो दाढ़ी भी नहीं होनी चाहिये !बस अ्च्छा लिखती रहा कर आँसू बटोर लेखन तो हो ही रहा है, कभी दूसरों के आँसू भी देख लिया कर,
शुभकामनायें
एक समय था कि लोग संसद की कार्यवाही को बडे मन से देखते थे...अब भी देखते हैं लेकिन उद्देश्य अलग है....अब मनोरंजन के लिए देखते हैं... और कुछ न मिले तो लोग ढूंढ कर यू ट्यूब पर संसद की क्लिपिंग देखते हैं...लालू की स्पीच, नगद लहराने का सीन या फिर सिर फुटौवल का ही द्रश्य लोग खूब खोजकर देखते हैं.....अनुराग की बात में एक बात और जोड कर कहूं तो अब लोग कई ट्रेलरों को जोड कर एक फिल्म के रूप में देखना ज्यादा पसंद करेंगे और हम और आप कहेंगे...एसा भी क्या हो गया कि ....
अच्छा लिखा।
डा. अमर कुमार जी, आप बेहतरीन लिखते हैं, आप खुलासा टीवी पर आये उसके लिये धन्यवाद ।
आप दस कमरे में चल रहे मेडिकल कालेज़ों के नाम बतायें हम उनका भी खुलासा करेंगें । जहां तक आपके प्यारे मेडिकल कालेज़ का सवाल है तो वो मुझे भी आप जितना ही प्यारा है और वो कानपुर व आसपास के गरीबों का एकलौता सहारा है । पर खबर से समझौता हम नहीं करते, यदि खबर में कोई गलती हो तो कहें ।
- एडीटर खुलासा टीवी
(email:- editor@khulasatv.com)
आप वेचैन रहिये क्यूं कि आप फिर वही कर सकते हैं जो आपने किया अपने मन की सबको सुना दी । बढिया ।
आपकी यह पोस्ट सीधे दिल को छू गयी।
आपने जो मुद्दा उठाया है वह बधाई का नहीं चिंतन का है। आपका लेख बहुत प्रभावशाली हैं। भाषा का तो मैं कायल हो गया। आपने एक ऐसे मुद्दे पर लिखा है जिसकी सडांध पूरे हिंदी ब्लाग जगत में है। आपने बहुत सधी हुई बात कही-
आप स्वयं विचार करो कि आप हिन्दी ब्लागिंग को कुछ् दे भी रहे हो.. या केवल विध्वंस ( Sabotage ) करने के इरादे से बेवज़ह जूझे पड़े हो । यदि आपके लिंग सत्यापन करवाने की माँग अब तक नहीं उठायी गयी है, तो आप दूसरे के जम्फर में झाँकने पर क्यों आमदा हो ?
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जोशी दाज्यू, पहाड़ के लोग मुझे बहुत प्रिय हैं,
ग्याल जू ( गोलू देवता ) के न्याय पर मुझे अटूट आस्था है ।
वर्ज़नाओं को तोड़ते रहने को मैं अभिशप्त हूँ, पर आपकी बात
से किंचित आश्चर्य हो रहा है । अपने प्रोफ़ाइल इमेज़ से तो आप खास मोटे नहीं लगते.. फिर भी आप फटफट वालों के इस भेद-प्रभेद से दुःखी हैं । मैंने टिप्पणी नहीं दी.. क्योंकि यह एक स्थानीय मुद्दा है ।
अब दाज्यू आप बताओ, कि क्या मूझको अपने जम्फर खोले जाने का इंतज़ार करते हुये रस लेना चाहिये था ? पराई बेटी, या औरत सही... पर अस्मिता की बात आती है.. तो सभी बराबर हैं । एक का दामन खींचा गया, कल को आप होंगे, मैं भी हो सकता हूँ । इसका विरोध न करना मेरी समझ से कापुरुष के बूते में ही होगा, मेरे तो नहीं ! एक रिक्शेवाले को पुलिसकर्मी से पीटे जाते देख , मैं पिल पड़ा, अपनी सामर्थ्य से अधिक उसको पीटा.. पर मुझे कोई अफ़सोस नहीं है .. अपनी अपनी सोच है, यह ! आप पत्रकारिता में रहें हैं और आन डिमांड न लिखते होंगे.. यह मान कर आपके टिप्पणी की प्रति-टिप्पणी प्रेषित कर रहा हूँ । आगे आप जो भी समझें !
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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