डिस्क्लेमर: यदि आप लम्बी पोस्ट पढ़ने का धैर्य रखते हों, तभी यह पोस्ट पढ़ें ! अधूरी पोस्ट पढ़कर इसमें दी जारही महत्वपूर्ण जानकारियों की अवहेलना करके, देवी का कोपभाजन न बनें। इसे तत्वबोधीय पोस्ट समझने का यह मित्रवत आग्रह है ! कृपया अपनी टिप्पणी यहाँ रखे टिप्पणी बक्से में ही डालें । ई-मेल या अन्य इलेक्ट्रानिक माध्यम से प्रेषित टिप्पणियाँ स्वीकार नहीं की जायेंगी। अपने दिमाग की सुरक्षा स्वयं करें ।
वस्तुतः मेरी पिछली पोस्ट पर श्री अनूप जी की टिप्पणी आयी, कि महाराज इस पोस्ट में वर्णित श्लोकों का अर्थ तो दे देते । सतीश बोले कि गागर में सागर.. ! इस प्रकार अपने ही हाथों यह धर्मसंकट उत्पन्न किया, सो प्रायश्चित स्वरूप यह पोस्ट ठेलने का साहस किया गया है । गवारा तो नहीं था, पर जैसा कि होता आया है… इस पोस्ट को ठेलने के सुझाव के पीछे पंडिताइन का हाथ है.. सो यह जन्म जन्मांतर के पाप की कड़ी मात्र है । मेरे ख़्याल से तो हर गृहस्थी में एक अदद सोनिया गाँधी अवश्य होती होंगी ! मूल रूप में 7 अक्टूबर 2007 को लिखे गये पोस्ट का यह संशोधित एवं संवर्धित स्वरूप है । मैं इसको रिठेल कहने को बाध्य भी नहीं हूँ, क्योंकि रिठेलने का मेरा कद नहीं है । बल्कि कोई कद ही नहीं है,…. चिट्ठाकारी का कद से क्या संबन्ध ? वरिष्ठता का सदैव आदर किया जायेगा और टिप्पणियों की बाढ़ को प्रत्यक्षतः तो सराहा जायेगा किन्तु परोक्षतः ईर्ष्या की जायेगी, ऎसा मेरा निश्चय है । इसको टिप्पणी की प्रतिटिप्पणी के रूप में भी कृपया न लें, यह मेरी विधा नहीं है । इतनी लम्बी पोस्ट के मायने ? कुछ तो यह लम्बी ही पैदा हुई थी… बाकी रहा सहा मैंने और खींच दिया । वज़ह ? वर्तमान हालात व मेरी समझ के समीकरण से, निकट भविष्य में मेरा हृदयपरिवर्तन हुआ ही चाहता है, बस घोषणा ही बाकी है । सो, इस पोस्ट को फ़ुरसतिया घराने में शुमार किये जाने की संभावनायें टटोलना आरंभ किया जायें । प्रशंसक टिक जायेंगे और मुँहदेखी वाले भग जायेंगे ।
अथ आरंभः या देवि सर्वभूतेषु ब्लागररूपेण संस्थिता
यह शीर्षक, क्यों ? आज षष्ठी है....' सप्तमं कालरात्री च महागौरीति अष्टकम', और इस दुर्लभ संधिबेला में , ऎसे पोस्ट से कहीं अनर्थ तो न हो जाये , कुछ तो माँ से डरो, यह कोई और नहीं, पंडिताइन की भयातुर शंका है…. वाह री अनारकली, कबूतर कैसे उड़ा ? तो, ऎसे… नित्यप्रति अनर्थ देख रही हो । इस पावन नवरात्रि की महिमा, आजकल तो घर घर गायी जा रही है, और तुम ? तुम ऎसा करोगे, मैं सोच भी नहीं सकती, छिःह !! ई जो है न, अपना लेडीज़ लोग ! ऊ काहे मौका-बेमौका अपना टिप्पणी देता रहता है ? अउर.. लिजिऎ न, साथ में मीमांसा.. .. फ़्री ! कहिन कि रिठेल आज़माओ, और अब अनर्थ को डेराय रहीं हैं ! उकसा के पिटवाओ.. फिर फूँक फूँक मरहम लगाओ । मेरी पोस्ट तो वैसे भी पिटती रहती हैं, सो हम काहे डेरायँ ?
सोच तो मैं भी रहा हूँ ! जो बंदा सन 1968-69 के दौर से ही माँ का आँचल पकड़े हुये हो, श्री दुर्गा सप्तशती पर सन 1980-81 तक अधिकार प्राप्त कर चुका हो ( लोग ऎसा मानते हैं ) , वह अनायास ऎसी पोस्ट क्यों लिखने बैठ गया ? मन को दो दिन समझाने में लगे, ' मत लिखो, भाईलोग इसको किंवा पब्लिसिटी हथकंडा ही मान लें तो ? पर ज्ञानू गुरु का हलचलजड़ित पोस्ट देखकर बल मिलता है कि अपने को व्यक्त कर ही देना चाहिये । हरज़ नहीं, जो सामने दिखे.. तड़ाक फोटो खींचो फड़ाक ठेल दो ! पीछे से सुकुल महाराज ( चिट्ठाचर्चा फ़ेम वाले ) भी कान में गूँज रहे थे , लिखो यार , तुम्हार कोऊ का करिहे ! संशय से उबरा तो फिर, यह डर सताने लगा कि कहीं मैं ही माँ की चोखेर बाली ( চোখের বালি - means - आँख की किरकिरी ) ही न बन जाऊँ ?
इतने वर्षों की सेवा साधना के बाद , पिछले दो वर्ष से व्रत-पाठ इत्यादि छोड़े बैठा हूँ । यहाँ तक तो ठीक था, क्योंकि मेरे आस्था-विश्वास में लेशमात्र भी कमी नहीं आयी है, बस केवल कलश स्थापन, भाँति भाँति के नियम विधानों से उपवास एवं ' हों-हों ' करते हुये सप्तशतीपाठ करना छोड़ रखा है । जबकि यही सब नवरात्रि के दिनों का स्टेटस सिम्बल है ! कई वर्षों तक दशमी को तड़के उठ अपने घर की पूजा से तृप्त हो, पूर्णाहुति के लिये 120 कि०मी० कार भगाता हुआ, गोविन्दपुरी, इलाहाबाद पहुँचा करता था । अकेले मैं ही नहीं, बल्कि राजा नहीं फ़कीर के बेटे अजयप्रताप सिंह, तरुण तेजपाल इत्यादि का तहलका भी वहाँ नियमपूर्वक उपस्थित रहा करता था, तिवारी जी के विशेष हवन में । तो, अब क्या मैं असंतुष्ट धड़े में चला गया.. ? नहीं, कदापि नहीं ! फिर,यह प्रश्नचिह्न क्यों ?
यह प्रश्नचिह्न तो मैं अपने सम्मुख रख रहा हूँ । वस्तुतः ' देवि के सर्वभूतेषू ' होने पर संशय करने की विद्यता, मेरे पास है ही नहीं, और न तो मैं चार्वाक का चेला ही हूँ । मार्कण्डेय महाराज भी उवाचते रहे हैं, ' भविष्यति न संशय : ' बल्कि इसी सम्पुट के साथ वह ऊँघते श्रोता को जगाते भी रहे हैं, जैसे इस युग में राहत कोष जैसी घोषणा करके उखड़ती हुई पब्लिक को जगाया जा रहा हो… ऎई उठो, जागो और सुनो… सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥फिर ? लफ़ड़ा कहाँ है, संशय क्या है ? मेरी आहत आत्मा जैसे कचोट रही हो… आस्था में तर्क का स्थान तो निर्दिष्ट भी नहीं है, फिर बवाल क्यों काट रहे हो ? बिल्कुल वाज़िब बात बोले हैं, आप ! तो, सुनिये ... जितना अध्याय सुन सकते हों, उतना ही सुनिये, , फिर बोलियेगा ! पूरे नवरात्रि में ऎसा अफ़रातफ़री लोग मचाये रहते हैं कि मेरी भैंस बुद्धि जहाँ भी पानी देखती है, वहीं गोते खाने लगती है, भले ही वह कितना गंदा हो ।
यह एक ख़ास सीज़न है, जब कलंकित माथों पर भी लाल टीके चमचमाने लग पड़ते हैं, इतना लाल.. कि एकबारगी तय कर पाना कठिन होता है कि यह कोई सिद्ध पुरुष है या कोई 11000 वोल्टीय डैंज़र आदमी, जो सीधे माँ के पास से ही महिषासुर का रक्त उड़ा कर चला आरहा हो । आप इस सकते से उबर गये हों और ख़ुदा न ख़्वास्ता वह महापुरुष आपके परिचित हुये तो वह सार्वभौमिक श्वानपरिचय ( कूकुर पिछाड़ा सुँघायी ) के अंदाज़ में आपको सूँघते हैं, ' सर, आप तो व्रत होंगे ? ' अब यह तो सीधे आपके ठसके पर प्रहार है, या तो आप खिसिया लीज़िये, ' नहीं, थोड़ी तबियत खराब थी, शरबत वरबत पीना पड़ता सो मिसेज़ ने मना कर दिया । ' अब यहाँ एक दूसरे किस्म का सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है । आपका मातहत है,या आपके पास कोई फँसी गोट नवरात्रि में ही सुलटा लेने के संकल्प से टीकायमान हो घर से कूच किया है, तो वह चेहरे से कनस्तर भर सहानुभूति ढरकाता हुआ दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठा देता है, ' सब माँ की इच्छा, भला करें माई ' , यदि आपके चेहरे पर फूँक न मार दे तो आप अपने को हतभागी समझें । वह पैंतरा बदल कर आपका मूड टटोलता है, “चलो साहब प्रोग्राम बनाओ, विंध्यांचल घूम आवा जाय… मयडमों का लेयि लियें” ।
स्थिति एक :
अब आप तय करो कि क्या माना जाय ? अच्छा चलो, मान लेते हैं कि आपमें कुछ VIP होने का ठसका ठुँसा पड़ा है, यानि की आप अपने आप में तो वेरी इम्पार्टेन्ट परसन हैं, पर अन्य भक्तजनों के लिये वेरी इन्कन्विनियेन्ट परसन, फिर भला क्या कहना ? अष्टमी भले नवमी में बदल जाये, VIP जी देवी के गोड़ पकड़े निहोरा कर रहे हैं । अभयदान दो माँ, यह लात मेरे ऊपर न रख देना, कभी ! हर नवरात्र के नवरात्र आपका हिसाब कर दिया करेंगे, मेरा ध्यान रखना माई…
स्थिति दो :
आप फ़ौरन तमक कर, मत चूके चौहान, अपुन को जमा ही लो, आन बिहाफ़ आफ़ होल फ़ेमिली के, अंदाज में कहते हैं, ' नहीं यार, व्रत है । ' , ' हमारे यहाँ पूरा परिवार, बल्कि बच्चे भी व्रत रखते हैं, दसियों साल से ! ' थोड़ा ज़्यादा हो गया, दो कदम पीछे हट लो, गुरु । आप संशोधन पेश करते हैं, ' बशर्ते बच्चा घुटनों के बल न चल रहा हो, हमारी तो कुलदेवी ठहरीं, दद्दू ! ' कह कर माँ की परमानेंन्ट पोस्टिंग अपने यहाँ होने की तस्दीक़ कर ही दीजिये । अगला भगत यदि बगुला भगत हुआ तो स्वयं ही चुप हो जायेगा ।
लेकिन क्यों चुप हो जाये ? भगवान ने जब फाड़ने को मुँह दिया है, तो क्यों चुप हो जाये ? गाल बजाना हमारी राष्ट्रीय अस्मिता है । केन्द्र से आरंभ हो कर, यह महामारी राज्य तक ही नहीं थमती बल्कि अपुन के घर-परिवार तक को संक्रमित किये हुये हैयह विषय, फिर कभी ! क्योंकि मैं भी तो यहाँ गाल ही बजा हूँ । तो ज़नाब, डिफ़ेंस को तैयार रहें । उनकी भेदभरी निग़ाह अभी भी आप पर ही टिकी हुई है, " पूरा कि सिर्फ़ अगला-पिछला ? " पूरा नवरात्रि स्पेशल बुक करवाये हो कि सिर्फ़ इंज़न औ' गार्ड के डिब्बे से काम चलाय रहे हो ? खैर छोड़ो, अब शुरु होता है... पाँचवी पास वाला सवाल, " एक टाइम खाते होंगे, फलाहारी नमक वाला ? " कलश भी बैठाते हैं कि केवल रात में छान-फूँक कर इतिश्री कर लेते हैं ? " आप तन जाते हैं,' नहीं भाई, स्साला पंडित आता है हमारे ईहाँ, दुबे..छज़लापुर वाला !' यह आपका बड़प्पन हैं कि आपने स्वीकार तो किया कि ' माताजी ' को रिझाने में आप स्वावलंबी नहीं अपितु छज़लापुर वाली पार्टी को ठेका दिये पड़े हैं । पार्टी इसलिये कह रहा हूँ,क्योंकि पंडित महाराज की एक पूरी टीम है, सीज़नल मस्टर रोल वाले से लेकर मेट-सुपरवाइज़र लेवल तक के बाम्हन ! बाकी मैनेज़ वह स्वयं ही करते हैं, यजमान के स्टेटस के हिसाब से किसको कहाँ फ़िट करना है, यही उनकी विद्यता है, यानि कि यजमान मैनेजमेन्ट ! फ़कत 700 श्लोक तो यजमानरूपी कोई भी ग्राहक बाँच लेगा।
या देवि सर्वभूतेषू वृत्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥
तो पंडित महाराज वृत्तिनुसार ही आचरण कर रहें हैं। चलिये कोई बात नहीं, इसमें कोई त्रुटि नहीं है, जग की रीत है , लेकिन सरजी, जरा ख़ुद से, स्वयं, परसनली देख लीजियेगा कि कलश सही दिशा में स्थापित करवाया है कि नहीं ? हम भी कुछ तो जानते ही हैं, माताजी की दया से..,एक संक्षिप्त चुप्पी ( रहस्य का आवरण उत्पन्न करने के लिये वार्तालाप का अनिवार्य तत्व ! ) इसीलिये अपना समझ कर कह रहे हैं। अउर झेलौ, ई लेयो एकठईं स्लो पेस बाल ! अब आपका भविष्यति न संशयः तिरोहित हो जाता है, आफ़िस में झूठा बहाना मार कर, या नज़रें बचा कर आप फूट लेते हैं । स्वगृहम गच्छामि, मन दोहराता है, ..कि हे वत्स धर्म के किया गया अधर्म निन्दनीय नहीं होता !और एक नयी दुविधा के साथ आप घर में प्रविष्ट होते हैं, पहले दिसा कन्फ़र्म कर लो यार, सब साले प्रुफ़ेसनल होय गये हैं, वर मरे या कन्या इनको द्क्षिना से मतलब, यही घोर कलयुग है । इससे पहले कि, अपना संशय आप श्रीमती जी को पकड़ायें, वह स्वयं ही लपक पड़ती हैं । पल भर आपको निरख कर बिलख पड़ती हैं," अब कुछ करो, गुड्डी के पापा, हमरी तो तपिस्या भंग हुई जा रही है । अबकी बार एकठईं बेटवा का माने हुये हैं, अउर देखो ई परेसानी खड़ी होय गई । सोनम की मम्मी आयीं रहीं, बताइन कि अबकी मोहल्ले में पाँचें-छेः कन्या रह गयीं हैं। एक्कै दिन बचा है, अउर उई दुष्टा अब जाके बताइन, बताओ हम्म का करें ? हमतो नौ कन्या खिलावे का माने बइठे हैं, जनात है, मईया हमार परिच्छा लेय रहीं हैं। कुछौ करो नाहिं तो वंश नाश हुई जायी !
या देवि सर्वभूतेषू क्षुधारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥
आप क्या करेंगे, भला ? एक दिन में बच्चा तो बना नहीं सकते, वह भी बिटिया ? सो खीझ जाते हैं, दोस्तों को फोन वोन करके देखते हैं, कुछ व्यवस्था बनानी पड़ेगी । लेकिन साले मज़ाक उड़ायेंगे, किसको दोस्त समझें इस कलयुग में । साले मौज़ लेंगे कि दुई बिटिया तो तुम अपनी निजी मेहरिया की गिरवा चुके हो, अउर अब बाहर बिटिया हेर रहे हो ? ससुरी में कुछ देवित्व बचा है, शायद… तभी तो गुड्डी की मम्मी ने मन पढ़ लिया, रास्ता दिखाया, "उपाध्याय से बात करो, ऊ तो नया आया है और अभी ई सब नहीं जानता होगा । उसके तो दुई बिटिया हैं, चलो मईय्या रस्ता निकाल दिहिन ।" अपार संतोष से ठुमक कर वह पलट पड़ती हैं । आप इस बेला एकदम कनफ़्यूज़ियाये हैं, " अरे, दो कहाँ है ? एक ही तो है, दो-तीन साल की लड़की,और दूसरी?" गुड्डी की मम्मी तो अब पूरे मौज़ में हैं, समिस्या हल होती जान मस्त हुई जाती हैं । "भूल गये, वह बड़ी वाली भी तो है, छैः कि सात वाली, अरे जिसका डांस जेसी मेले में हुआ था ।" और वह लहकते हुये घूम कर, अपनी स्थूल कमर को मटकाने का प्रयास कर, याद दिलाने की चेष्टा करती हैं,"छोटी सी उमर में लग गया रोग.., लग गया रोऽग..म्मईं मर जाऊँगी...ओऽ ओऽ म्मईं मर जाऊँगी, ….. ले आओ उसी को, हलुआ पूरी खिलायेंगे तो लगे हाथ एक्ठो नाच वाच भी देख लेंगे । एक एक कटोरी भी तो देय रहें हैं, सबको "
या देवि सर्वभूतेषू भ्रान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥
अरे नहीं, फोन वोन करना ठीक नहीं, इस समय सीज़न है, साला लड़कियों की शार्टेज़ चल रही है, फोन पर टरका न दे। आमने सामने बात करना ठीक रहेगा, अभी आता हूँ " कह कर आप कलशा-वलशा भूल फ़ौरन पलट पड़ते हैं । " इत्ती धूप में ? कल चले जाना। या छोड़ो आज रात में चले जाना, आफ़िस से निकल आये हो, तो थोड़ा आराम कर लो…. व्रत किया है " ससुरी अपनी चलायेगी ज़रूर,.. .. कुलक्षनी ! पर आप ज़ब़्त करके बोलने हैं, ' ठीक है, पक्खफेना जी के यहाँ भी हो लेंगे, रास्ते में ही पड़ेंगे.. आज देवी जागरण रक्खा है ।' ," देवी जागरण… कियूँ ?" उनसे स्कूप आफ़ द नौरात्रों छूटा जा रहा है, गुड्डी की मम्मी के स्वर से अधीरता चिंघाड़े मार रही है । यह कमबख़्त टोकेगी ज़रूर, लौट कर तो इसी घर में आना है, पंगा टाल जाओ, देवीचरन ! पिछली नवरात्रि में ही तो छोटी सी बात का इतना बतंगड़ हो गया था, कि इनको पीटना पड़ गया, तब जाकर इनकी तरफ़ से सीज़फ़ायर हुआ था । हे माँ, इस बार ऎसा न हो, यह हिडिम्बा पिटने का कोई मौका न खड़ा कर दे ।हमरी पोस्ट वाटर आफ़ इंडिया हुई रही है, का ? चलो चलो, आगे पढ़ो, बस खतमै समझॊ
या देवि सर्वभूतेषू बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥
बुद्धि से काम लो, देवीचरन । काल बताये सो आज बताय, आज बताय सो अब्ब, नहीं तो बहुरिया पल में प्रलय दिखाय देहै ! आप दरवाजे पर ही ठिठक कर खुलासा करते हैं, 'अरे, वो माया वाला केस नहीं था, उनकी मँझली बहू ? मारत पीटत रहें सो केस करवा दिहिस था, अपने मयके में ? बाप पेशकार हैं सो पइसा कउड़ी तो खरच नहीं होना था । पक्खफेनवा जमानत तो पाय गये लेकिन तीन साल से बँधें बँधें घूमत रहे, वही मईय्या से माने रहें सो माँ की कृपा होय गयी, अचानक आउट आफ़ कोर्ट सेटल हुई गया, मामला । बेचारे सोफ़ै अल्मारी लौटा के संतोष कई ले गये । बिन्धाचल-उचल माने रहें, बदले में जागरण करवाय रहे हैं । मईय्या ने नहीं बुलाया होगा ।
या देवि सर्वभूतेषू विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥
उपाध्याय के मकान से चार मकान पहले ही पक्खफेनाजी विराजते हैं, पहले वहीं चलें । उपाध्ययवा तो जूनियर है, उसका बाप भी दरवाज़ा खोलेगा या फिर माँ ने चाहा तो यहीं मिल जायेगा, पहले यहीं चलें । जागरण पूरे शबाब पर है, कानपुर की पार्टी है, लेकिन सस्ते में पाय गये । लौंडे मस्त हो कर हाथ पैर फेंकते हुये, पसीने पसीने हुये जा रहे हैं । स्टेज़ से उनको लगातार ललकारा जा रहा है, 'ऊँ ऊँ ऊँ..दरँस दिख्ला जा दरँस दिख्ला जा, एक्क बार आज्जा आज्जा.. आज्जा आज्जा ऽ माताऽ ..ऽ ..ऽ , ओ मात्ता मात्ता मात्ता मात्ता.. मात्ताऽ ..ऽ ..ऽ मात्ता मात्ता मात्ता मात्ता.. मात्ताऽ ..ऽ ..ऽ कूल्हे टकराये जा रहे हैं, वह अपने भक्ति को उछालने की प्रतियोगिता में हारना नहीं चाहते !या देवि सर्वभूतेषू भी मगन हैं, क्या ? जरा देखूँ । देखा तो, हमारी माँ हैलोज़न से आकर्षित हुये भुनगे पतंगों से आच्छादित हैं, कोई भी हाथ खाली नहीं कि वह कुछ प्रतिरोध भी कर सकें । मैं उन पर टकटकी लगाये स्तुति कर रहा था , श्रीदुर्गेस्मृताहरषि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभांददासि .. सहसा लगा कि इस माँ भी इसी आर्केस्ट्रा के साथ विलाप कर उठेंगी, इन्हीं लोगों ने..इन्हीं लोगों ने ले लीना सर्वभूतेषु मेराऽ
यदि आप मेरी बकवास पर अब तक टिके हुयें हैं ,तो धन्यवाद ! यह थी मेरे कर्मकांडी आडंबर से विमुख होने की कथा देवि की महत्ता का बखान या इस महत्ता का आदर, दोनों में आप किसको कितना महत्व देते हैं, यह मेरा विषय नहीं हैलगे रहें, जमाये रहें... माँ भला करेंगी । पर घर में जरा अपनी बूढ़ी अम्मा का भी ख़्याल रखा करें ! क्यों वह अपनी वेटिंग सीट कन्फ़र्म करने की गुहार रामजी से लगाया करतीं हैं ? यह केवल मेरे निट्ठल्ले क्षणों के असहमत मौन का स्वर था, सो मूँहवा फाड़ दिया.. नारायण नारायण ! तो चलें ? नमस्कार....
या देवि सर्वभूतेषू ब्लागररूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै । नमस्तस्यै नमो नमः ॥Technorati Tags: हथकंडा,इंडिया,अनूप शुक्ल,उपवास,चिट्ठाचर्चा,इलाहाबाद,निट्ठल्ला,डा. अमर कुमार,कानपुर,अम्मा,सर्वभूतेषु,माँ,असहमत मौन
श्री अशफाक उल्ला खां – मैं मुसलमान तुम काफिर ?
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इस तरह की अपनी कुर्बानियों से वतन की मिट्टी – पानी का कर्ज़ अदा करने
वाले सिरफिरे मतवालों में श्री बिस्मिल के बाद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ का ही नाम
आता है...
15 टिप्पणी:
अपुन को किसी लम्बी पोस्ट का डर नही रहा गुरुवर शुरूआती दौर में खूब ठेली है हमने ...पहले तो ये बताये की आप ने क्या ब्लोग्वानी वालो से दुश्मनी मोलले रखी है जो आपका ब्लॉग वहां नही दिखता ...
दूसरी ये संस्कृत भाषा अपने पल्ले नही पड़ती .फ़िर भी कुछ कोशिश की हमने .....इन दिनों का असर लगता है आप पर भी हो गया है जो भक्त जानो को नाराज करके मानेगे .....
जाते जाते गुरु आइन का शुक्रिया यदा कदा आपको पोस्ट लिखने को प्रेरित जो कर देती है...हाँ टिप्पणी का शेष भाग .दुबारा पढने के बाद .ससुरी कुछ संस्कृत कमजोर है हमारी
पोस्ट देख कर ही आनंद आ गया ! गुरुदेव सबसे पहले तो आज अष्टमी की चरण-स्पर्श स्वीकार कीजिये ! और इस पोस्ट को
लिखवाने को प्रेरित करने के लिए आदरणीय गुरु-माई को प्रणाम कहियेगा हमारी तरफ़ से ! अब आराम से पोस्ट पढ़ कर टिपियायेंगे ! ये टिपणी तो पोस्ट को देखने की है ! पढ़ने के बाद पोस्ट के बारे में ! अष्टमी की प्रणाम !
एक विचारशील पोस्ट, पढने और समझने में बड़ा दिमाग लगना पड़ता है ! मान गए व्यंग्य उस्ताद !
Ma Bhagwati ka chitra aur aapki post dono pasand aaye ....
डराते काहे हैं जी...पढ़ तो रहे हैं धीरे धीरे...इत्ती बड़ी तो है..है तो रोचक..अच्छा अभी उर पढ़ते हैं फिर से..हिज्जे कर कर के!!
डराते काहे हैं जी...पढ़ तो रहे हैं धीरे धीरे...इत्ती बड़ी तो है..है तो रोचक..अच्छा अभी उर पढ़ते हैं फिर से..हिज्जे कर कर के!!
भाई टिपण्णी पहले से ही लेलो, फ़िर आप की यह बहुत लम्बी पोस्ट पढने की हिम्मत जुटाता हू, देखो इस जन्म मे शायद पढ ही लू. क्यो कि बीच मे छोडना मना है, इस लिये ओर पाप का भागी दार नही बन सकता, हा चित्र मां का सुन्दर बहुत है. मिलते है पढने के बाद.
धन्यवाद
गुरुवर हमने ब्लोग्वानी में देख लिया आपका ब्लॉग ....लगता है सुलह हो गयी
हम तो डिस्क्लेमर पढ़के ही निकल लिये, लफड़े और हथकंडों से जितना दूर रहो अच्छा। लेकिन जो श्लोक पहले कभी ढंग से समझ नही आते थे उनका मतलब जरूर समझ गये।
ड्रा० अमर जी नमस्ते, आप को दशहरे की शुभकामनये, साथ मे बाल बच्चो को भी , भाई यह टिपण्णी रात के १२,२६ पर लिख रहा हु, इस लिये थोडी सोई सोई है,
धन्यवाद
sir recived ur comment on my post
thanks for u r valuable suggesation
makrand
डाकधर सा'ब -पहले तो उपन्यास टाईप का लेख [साइज़ में ] देख कर भागने का सोचा -फिर आपकी चेताबनी पढी ,धैर्य रखा ,हिम्मत जुटाई और पढ़ना शुरू किया अब में पढा उलझन में =शरद जोशी हो पढ़ रहा हूँ ,परसाई जी को पढ़ रहा हूँ =श्रीलाल शुक्ल को =व्यंग्यकारों में ये बड़ी दिक्कत है कि वे कहीं न कहीं अपनी [स्वम की ]पत्नी को जरूर शामिल करते है और वे हंस कर टालती रहती है =मैं व्यंग्य लेखक तो नहीं किंतु यदा कदा मैंने भी पत्नी के नाम का उपयोग और दुरूपयोग किया ही है /आपजैसे विद्वान् को पढने का आनंद ही कुछ और है /पढूंगा पढता रहूँगा -आपको पढने से मेरे लेखन में भी कुछ सुधार आए कुछ पैना पन आए
नितांत आवश्यक बात को सार्थक रूप से प्रस्तुत करने की पहल. फिलहाल तो दोस्तों की फरमाइश पर यह जादूगरी करने की बधाई....टीप पोस्ट आते रहेंगे नजर घुमाते रहिएगा जैसे ही पोस्ट पूरा होता जाएगा...टिपण्णी भी की जाती रहेगी.
आपका व्यंग्य समझने के लिए ज्यादा दिमाग खर्च करना पडता है। पता नहीं किसी दिन एकदम ही साफ न हो जाए।
अरे हाँ, आपने ज्ञान जी की माइक्रो पोस्ट नहीं देखी क्या? उनके बारे में भी कुछ सोचिए।
मुझे लेख के साथ ज़ाकिर की टिप्पणी भी बहुत पसन्द आई.
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥
Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!
Please avoid Roman Hindi, it hurts !
मातृभाषा की वाज़िब पोशाक देवनागरी है
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