जो इन्सानों पर गुज़रती है ज़िन्दगी के इन्तिख़ाबों में / पढ़ पाने की कोशिश जो नहीं लिक्खा चँद किताबों में / दर्ज़ हुआ करें अल्फ़ाज़ इन पन्नों पर खौफ़नाक सही / इन शातिर फ़रेब के रवायतों का  बोलबाला सही / आओ, चले चलो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है ! चलो, चले चलो जहाँ तक..

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15 March 2009

नतीज़ा रहा सिफ़र ?

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नतीज़ा आज की पालीमिक्स-चर्चा ने मुझे एक बार  फिर बाध्य किया है.. कि मैं भी टपक पड़ूँ ! परमस्नेहिल लावण्या दीदी आहत हुईं.. उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया अपना कितना प्रभाव छोड़ पायी होगी.. यह देखना बाकी है ! मैं भी अपने साथी चिट्ठाकारों के विषय-कल्लोल पर यथाशक्ति – तथाबुद्धि कुछ टीप –टाप भी आया ! यहां पर वही दोहराना आत्ममुग्धता के संदर्भ में न लेकर, ‘ ऎसी बहसें टिप्पणी बक्से में ‘ डिब्बा – बंद ‘ हो अपना संदर्भ खो देने को ही जन्म लेती हैं ‘ की धारणा को नकारने को ही है । मुई पैदा हुईं – कोलाहल मचवाया – फिर मर गयीं ! तदांतर विषयांतर का दो तीन  ब्रेक ( राष्ट्रपति शासन या ब्लागपति शासन ? ) के बाद दूसरे ने स्थान ग्रहण किया.. फिर वही कोलाहल – वही अकाल मृत्यु .. ब्रेक .. एक अलग तरह की तोतोचानी है ! ज़रूरी नहीं, कोई इससे सहमत ही हो.. क्योंकि  मैं नासमझ, निट्ठल्ला कोई अश्वमेध के घोड़े भी नहीं खोलने जा  रहा । जिसको मन हो अपने दुआरे यह दुल्लत्ती जीव बाँध ले, जो भी हो, पर यह सनद रहे कि..

lavanya-dee मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !
मैं कुछ दिनों के लिये हटा नहीं, कि झाँय झाँय शुरु ?
इस बहस में आज मुझे अन्य चिट्ठाकारों की भी टिप्पणी पढ़नी पड़ी..
पढ़नी पड़ी.. बोले तो, हवा का रूख देख कर टीपना मुझे नहीं सुहाता !
खैर... इस पूरे प्रकरण को क्या एक मानव की संघर्षगाथा मात्र के रूप में नहीं लिया जा सकता था ?

मानव निर्मित जाति व्यवस्था पर इतनी चिल्ल-पों कहीं अपने अपने सामंतवादी सोच को सहलाने के लिये ही तो नहीं किया जा रहा ?  किसी पोथी पत्रा का संदर्भ न उड़ेलते हुये, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ..    यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
ज़रूरत समानता लाने की है.. न कि असमानता को जीवित रखने की है ?
इस बहस से, यह फिर से जी उठा है ! नतीज़ा ?
चलिये, सुविधा के लिये मैं भी चमार को चमार ही कहता हूँ,
क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है.. दुःख तब होता है.. जब बुद्धिजीवियों के मंच से इसे पोसा जाता है !
समाज में केचुँये ही सही.. पर हैं तो मानव ?
बल्कि यहाँ पर तो, मैं लिंगभेद भी नहीं मानता..
यदि हर महान व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है.. जो कि वास्तव में सत्य है..
तो स्त्री पीछे रहे ही क्यों.. और हम उसके आगे आने को अनुकरणीय मान तालियाँ क्यों पीटने लग पड़ें …
या कि लिंग स्थापन प्रकृति प्रदत्त एक संयोग ही क्यों न माना जाये ?
चर्मकार कालांतर में चमार हो गये.. मरे हुये ढोर ढँगर को आबादी से बाहर तक ढोने और उसके बहुमूल्य चमड़े
                    ( तब पिलासटीक रैक्शीन कहाँ होते थें भाई साहब ?
) को निकालने के चलते अस्पृश्य हो गये ! पर क्या इतने.. कि अतिशयोक्ति और अतिरंजना के उछाह में हमारे वेदरचयिता यह कह गये..कि " यदि किसी शूद्र के कानों में इसकी ॠचायें पड़ जायें.. तो उन अभिशप्त कानों में पिघला सीसा उड़ेलने का विधान है ", क्यों भई ?
क्या यह भारतवर्ष यानि " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " ' के उपज नही थे ?
या हम स्वंय ही इतने जनेऊ-संवेदी क्यों हैं, भई ?
नेतृत्व चुनते समय विकल्पहीनता का रोना रो..
उपनाम और गोत्र को आधार बना लेते हैं, क्या करें मज़बूरी कहना एक कुटिलता से अधिक कुछ नहीं ।
इसका ज़िक्र करना विषयांतर नहीं, क्योंकि मेरी निगाह में..यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !

image008 अब कुछ चुप्पै से.. सुनो
इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रही बहस में माडरेशन भी एक है ।
होली पर मेरा मौन ( मोमबत्ती कैसे देख पाओगे.. ? ) विरोध इसको लेकर भी था,
खु़द तो जोगीरा सर्र र्र र्र को गोहराओगे, अपने ब्लागर भाई को साड़ी भी पहना दोगे..
टिप्पणी करो.. तो " ब्लागस्वामी की स्वीकृति के बाद दिखेगा ! "
एक प्रतिष्ठित ब्लाग पर ऎसी टिप्पणी मोडरेशन को ज़ायज़ ठहराने के बहसे को उठा्ने की गरज़ से ही की गयी है ! यहाँ से एक टिप्पणी को सप्रयास हटाना भी यह संकेत दे रहा है.. कि ब्लाग की गरिमा और पाठकों को आहत होने से बचाने का यही एकमात्र अस्त्र है, सेंत मेंत में ऎसी बहसें अस्वस्थ होने से बच जाती है..वह हमरी तरफ़ से एक के साथ एक फ़्री समझो ! मसीजीवी के चर्चा-पोस्ट से चीन वालों को कान पकड़ कर क्यों नहीं बाहर किया गया था ? वह तो सच्ची – मुच्ची का स्पैम रहा ! मन्नैं ते लाग्यै, इब कोई घणा कड़क मोडरेटर आ ग्या सै !
राम राम !

एक पोस्ट यह भी… मोची बना सुनार


14 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी का कहना है

चलिए आप बाहर तो निकले। होली के पहले से रंगपंचमी तक रंग के डर से छुपे रहे शायद। आप की गैर हाजरी इस मौसम में बहुत अखरी। पर भूलिए मत हम यहाँ हाड़ौती में होली के बारहवें दिन न्हाण खेलते हैं। सूखे रंगों की पूरी मनाही है। डोलची से रंगीन पानी मारा जाता है। तैयार रहिएगा।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` का कहना है

D.Amar bhai sahab,

most surprising thing is the deafning
& compelete SILENCE from this Lady Nilofer jee.

warm regards,

- Lavanya

ghughutibasuti का कहना है

टिप्पणी मॉडरेन लगाने में बहुत मानसिक कष्ट होता है। कुछ दिन पहले यह बताया गया कि अपने ब्लॉग पर लिखे व टिपियाये के लिए आप उत्तरदायी हैं। एक दिन किसी का एक ब्लॉग पढ़ा तो वहाँ टिप्पणी के रूप में कोई पॉर्न कहानी छोड़ आए थे। अब ब्लॉग स्वामी जब तक देखते नहीं वह वहीं विराजमान रहता। तब से मैंने मॉडरेशन लगा दिया है। परन्तु मन करता है कि हटा दूँ।
नीलोफर जी की टिप्पणी पर बहुत चर्चा हो गई है। अब और कहने को क्या बचा है।
घुघूती बासूती

अनूप शुक्ल का कहना है

माडरेशन अपनी राह खुद तय कर लेगा। लगना है नहीं लोग तय करते जायेंगे! शौकिया या मजबूरी में!

Shiv का कहना है

नतीजा सिफ़र ही रहता है. शायद सिफ़र के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रख हम उसी नतीजे पर बार-बार पहुंचना चाहते हैं....:-)

और गाते रहते हैं; "गर शून्य न देता भारत तो फिर चाँद पर जाना मुश्किल था...."

रंगपंचमी की घणी राम राम

कुश का कहना है

आपने बहुत अच्छा लिखा है.... शुभकामनाए

(अब हम नौसिखिए नही रहे जी टिप्पणी करना जान गये है)

डा. अमर कुमार का कहना है


यह ज्ञान तो प्राप्त हो चुका है, कि...
" दो मुख्य ब्राण्ड हैं पॉलीमिक्सी के - नारीमुक्ति और दलित । घणे टिप्पणीचर्णक हैं ये ब्राण्ड "
परजीवी की इस तत्वहीन पोस्ट को अभी पुनः ध्यान से पढ़ा भी है....
ज़िन्दा क़ौमों की टिप्पणीजीवी ब्लागिंग में परजीवी होने का कितना यथार्थ है..
यह भी पॉलीमिक्सी की एक अलग किसिम की ' लपसी ' तैयार करने की कितनी योग्यता रखता है ?
ख़ैर.. अपने मष्तिष्क के महामंथन से कुल ज़मा इतना ही तत्व निकाल सका कि..
' दलित ' को अपशब्द और सहानुभूति का ब्राँण्ड बना कर जीवित रखने की कुटिलता का उत्तरदायी हमारे बीच ही है । वैसे तो भारत की दुर्दशा के लिये विदेशी सदैव ज़िम्मेदार माने जाते रहे हैं, पर यह तो विदेश से नहीं आया है, शायद ?
सदियों तक चोट देकर अब निरंतर सहलाने को आप क्या कहेंगी ?
भौतिकतापरक तुच्छ विदेशी " अनियंतंत्रित बस ने दलित को रौंदा " जैसे शीर्षकों का महत्व क्या जानें ?
नारीमुक्ति की गोहार किससे और क्यों ?
स्त्री को कमतर करके आँकने वाला समाज़ उसके उपलब्धियों पर ताली पीट सकता है..
पर मैं आज तक इस तरह की ताली नहीं पीट पाया..
इसके दो ही कारण हो सकते हैं..
या तो मेरे मूल में असमाजिकता का कीड़ा है..
या फिर मैं नारी को कमतर करके आँकें जाने औचित्य नहीं पा सका हूँ !
कोई कृपालु देगा क्या. .है कोई दाता ?

@ लावण्या शाह
लावण्या दी आपके लिखे स्नेह में मुझे स्नेह झलकता है.. तभी तो ?
@ घूघुती दी,
मेरी तो हसरत ही है, कि ऎसी कोई टिप्पणी इधर भी भटक कर आ जाये..
सच मानें मैं उसे ससम्मान पड़ा रहने देता..
क्योंकि ऎसी हरकत को मैं इस समाज में घुली हुई कुँठा की अभिव्यक्ति से अधिक कुछ और नहीं मानता !
ढके रखे जाने से कोई भी बज़बज़ाती सड़ाँध लुप्त तो न हो जाती होगी ?
आभार आपका !
@ शिवभाई
यही तो शिवभाई ?
हमारे नतीज़े का यही सिफ़र तो अपने विकल्प में लातोर्लाइट ( नक्सलाइट ) सोच को जन्म देती होगी ?
फिर उसे कुचलने और ज़िन्दा रखे जाने का कुचक्र आरंभ होता है !
@ भाई कुश
ऎई कुश, यहाँ भी मौज़ ले रहा है ?
किसी दिन त्तेरा कान खींचा जायेगा.. छैतान वच्चा !

pallavi trivedi का कहना है

दरअसल किसी को ज्यादा महत्त्व दिया जाना, उसे विशेष उपनाम दिया जाना या उसके लिए अलग से दिवस मनाया जाना ही ये इंगित करता है प्रत्यक्ष में उसे सम्मातित करने वाले हम परोक्ष में उसे कह रहे हैं ही हमारी बराबरी करने की औकात नहीं है तुम्हारी !तुम कमतर हो और रहोगे !अगर सभी सामान हैं तो अलग ट्रीटमेंट क्यों?

L.Goswami का कहना है

मोडेरेसन हटाने की हिम्मत मेरी नही है कल २० कमेन्ट कर के गए कोई भाई साहब ..बिना मतलब के सारे कमेन्ट में एक ही बात ..३ गलती से छप गई बाकि १७ मैंने डिलीट कर डी ..मुझे सडांध खुले में डालने की आदत नही न ही मैं इसका समर्थन करुगी ..उसकी जगह डस्ट बिन है और वही रहनी चाहिए ..चौराहा नही .

Anita kumar का कहना है

आप की बात एकदम सही है, किसी भी स्त्री की सफ़लताओं पर सिर्फ़ इस लिए ताली पीटना कि उसने स्त्री हो कर भी सफ़लता प्राप्त की
दरअसल पूर्वग्रह ही दर्शाता है। लिंग भेद हों या जाती भेद असमानता का रोना बहुत हो गया

डा. अमर कुमार का कहना है


@ लवली कुमारी गोस्वामी
आहाहा.. स्वागत है, लवली बिटिया !
मैं भी डस्ट-बिन के बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकता,
बल्कि लगभग हर कमरे में एक अदद ऎसा कोई डिब्बा रखा ही रहता है !
मैं बाहैसियत चिकित्सक किसी भी रंगी पुती नार की असलियत साड़ी से झाँकते
मैल से चीकट पेटीकोट के किनारों.. और ब्रा के स्ट्रैप से ही आँकता हूँ, फिर ?
उसका मैल का यूँ बार बार ढाँपते रहना किस काम आया ?
जाने कहाँ की बात कहाँ ले आयी, तुम भी !

समाज में इस तरह की...
अच्छा चल, इस पर एक पोस्ट ही लिख दूँगा !
बट.. बाई द वे.. ऎवेईं बकिया डिलीट करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी..
मैं तो उसे पड़ा रहने देता.. ताकि लोग उससे परिचित हो जायें !
वह लौट लौट कर अपने ओछेपन का साइनबोर्ड देखता और खिसियाता रहता..

कुल ज़मा यह, कि किसी भी अशालीनता को ढकते रहने सहन कर जाने से उसे आगे बढ़ते रहने का बल ही मिलता है,
ताज़्ज़ुब नही ऎसी मानसिकता वाले आगे बढ़ मंत्रालयों में अपना स्थान बना लेते हों !

डॉ .अनुराग का कहना है

सबने अपने अपने हिस्से के सच चुन लिए है गुरुदेव....सबके अपने अपने सरोकार है....सबकी अपनी अपनी बहस है ...हमारी मुखरता कभी अश्लीलता के दायरे में आती है...सच तो ये है की हम सब लोग जो सोचते है उसे लिखते नहीं.शब्द कोम्पुटर पर आते आते छिप जाते है या इशारो प्रतीकों में छिप जाते है...तो काहे की अभिव्यक्ति ?कहाँ अभिव्यक्त हुए हम ?

Malaya का कहना है

इस नीलोफ़र का पता चला क्या? नीलोफ़र है कि ‘लोफ़र’। घटिया टिप्पणी करके किस बिल में जा घुसी/घुसा। ये अनुराधा जी के मेल बॉक्स में कहाँ से अवतरित होकर पुनः सोंइस (न जानते हों तो ज्ञानजी से संपर्क करें) की तरह डुबकी मार गयी।

वैसे इस टिप्पणी ने मसिजी्वी जी की स्याही का रंग जरूर उजागर कर दिया। कुंठा में आदमी अपनी सोच का संतुलन खो देता है। चलिए इसी बहाने अच्छी चर्चा हो ली।

L.Goswami का कहना है

निहायत बेशरम है, कोई फर्क नहीं पड़ता उसे साइनबोर्ड हो या चौराहे में लगे पोस्टर .. अब आया इधर तो आई पी ब्लाक कर दूंगी.

लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...

आपकी टिप्पणी ?

जरा साथ तो दीजिये । हम सब के लिये ही तो लिखा गया..
मैं एक क़तरा ही सही, मेरा वज़ूद तो है ।
हुआ करे ग़र, समुंदर मेरी तलाश में है ॥

Comment in any Indian Language even in English..
इन पोस्ट को चाक करती धारदार नुक़्तों का भी ख़ैरम कदम !!

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